यदि कम्प्यूटर द्वारा जलवायु की भविष्यवाणी विश्वसनीय होती जैसे हमसे आई.पी.सी.सी. उम्मीद करती है तो पिछले दशक में की गई भविष्यवाणी एवं वास्तविक जलवायु जो महसूस की गई उसमें दो फाड़ नहीं होते। भविष्यवाणी की विपरीतता बढ़ती गई, वातावरण में 4 प्रतिशत कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ने के बावजूद 1998 के तुरंत बाद तापमान में गिरावट जारी रही।
बीसवीं शताब्दी में जलवायु से संबंधित दुनिया को महा विपत्ति से सचेत रहने के लिये तीन घोषणाएँ की गई। 1920 एवं 1930 के दशकों में दुनिया को गर्म होने से सचेत किया गया, 1960 एवं 1970 में दुनिया को ठंडा होने एवं हिमयुग आने से सचेत किया गया, जिसके भयानक परिणाम हो सकते थे, 1980 के बाद से हम पुन: दुनिया को गर्म होने से सचेत कर रहे हैं। प्रथम दोनों चेतावानियों में से कोई भी सत्य नहीं निकली, जबकि तीसरी चेतावनी जो दुनिया के गर्म होने की है उसमें ग्यारह वर्षों से लगातार तापमान नीचे जा रहा है। यह परिणाम चेतावनियों के आधारीय कारण को वैज्ञानिक आधार होने का बल देते हैं। प्रथम दो चेतावनियों के डर से दुनिया इसलिये बची रही क्योंकि उस समय सूचना माध्यम, एनजीओ, एवं राजनीतिज्ञ कम विकसित थे, परंतु कुछ दशकों से सूचना माध्यमों, एनजीओ एवं राजनीतिज्ञों के विकास के कारण तीसरी चेतावनी का डर दुनिया को सता रहा है।जबकि जलवायु विज्ञानी पिछली तीनों चेतावनियों के असफल होने पर चुप हैं, वे जलवायु-प्रारूपण के अधूरे वैज्ञानिक ज्ञान को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। मीडिया, रुचि कर समूह एवं राजनीतिज्ञ आम आदमी को यह विश्वास दिलाने के लिये प्रयासरत हैं कि कार्बन डाइआक्साइड तापमान संबंध ही दुनिया के तापमान को बढ़ाने हेतु उत्तरदायी हैं जो बृहद वैज्ञानिक अध्ययनों के विपरीत हैं। 1997-98 से दुनिया के तापमान में लगातार कमी एवं जलवायु आंकलन के पिछले दावों के तजुर्बे यह अहसास दिला रहे हैं कि दुनिया एक और शीतलीभवन में प्रवेश कर चुकी है एवं जो नीतियाँ एवं प्रावधान राष्ट्रों द्वारा बनाये जायेंगे वे विकास के विपरीत होंगे एवं जलवायु को नियंत्रित रखने में असफल होंगे।
वर्ष 2009 में संपूर्ण उप-महाद्वीप ने कड़कड़ाती गर्मी का अहसास किया। कश्मीर में जुलाई एवं अगस्त काफी गर्म रहे। हमारे जलवायु-विशेषज्ञ आम जनता को यह बताने हेतु समय नहीं दे सके कि यह स्थिति हमारे द्वारा वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड छोड़ने से पैदा हुई। लेकिन ये जलवायु-विशेषज्ञ यह क्यों नहीं बताते कि उच्च कार्बन डाइआक्साइड जून से पहले तापमान क्यों नहीं बढ़ाती क्योंकि उस समय तापमान सामान्य से भी कम होता है बल्कि कई स्थानों जैसे पहलगाँव, सोनमर्ग एवं कुपवाड़ा आदि में बर्फबारी भी होती है। क्या यहाँ पर कार्बन डाइआक्साइड सांन्द्रित वायु केवल जुलाई में ही पहुँचती है।
जलवायु विज्ञान का दुर्भाग्य यह है कि यह पिंजड़े में बंद तोते द्वारा भाग्य बताने जैसे लोगों के हाथ में है जो जलवायु मॉड्यूलेशन एवं जलवायु-इतिहास के बारे में कुछ नहीं जानते, एवं इसे पर्यावरण-विज्ञान का हिस्सा समझते हैं।
इन नीमहकीमों के लिये हिमनदों का पिघलना एक आडंबर होता है जिन्हें यह नहीं पता कि 1936 में हैमिगवे द्वारा ‘‘द स्नो ऑफ क्लिमैंजारो’’ के लिखने के लगभग 125 वर्ष पहले, क्लिमैंजारो (अफ्रीका) चोटी पर स्थित फर्टवैंगलर हिमनद का पिघलना शुरू हो चुका था। क्लिमैंजारों शिखर पर माह का औसत तापमान- 7.10C रहता है, कभी भी जमने के बिंदु से ऊपर नहीं जाता। पिछले तीन दशकों के इतिहास से पता चलता है कि इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। हिमालय के हिमनदों एवं गंगोत्री के हिमनदों के खत्म होने के आडंबर की एक ही कहानी है। इसी तरह आर्कटिक समुद्र की बर्फ के पिघलने को ग्लोबल वार्मिंग का प्रमाण माना जाता है। ग्रीनपीस ने 15 जुलाई 2009 की प्रेस विज्ञप्ति में दावा किया कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से 2030 तक बिना बर्फ का आर्कटिक होगा।
लगभग एक महीने बाद (18 अगस्त 2009) इस संगठन को छोड़ने वाले लीडर जर्ड लिपोल्ड ने हार्डटाक में बीबीसी के स्टीफन सकर से सहमति जाहिर की कि दावा गलत था और कहा कि ग्लोबल वार्मिंग का ‘‘भावनीकरण’’ करना सही था। क्या हमें ग्रीनपीस के साथ होना चाहिए? क्या हमें उत्तर-पश्चिम का रास्ता याद है जहाँ 1945 में शिपिंग शुरू हुई एवं इससे भी पहले जब 1905 में नार्वे के खोजी रोल्ड एमण्डसन ने एक लकड़ी की नाव से इसे पार किया था या पूर्व सदी में इससे सैकड़ों बार नौकायन हुआ। जलवायु-नीमहकीमों को आम जनता को बताना चाहिए यदि मनुष्य द्वारा उत्पन्न कार्बन डाइआक्साइड से ग्लोबल वार्मिंग होती है तो मार्स पर इस प्रकार की गर्मी (वार्मिंग) का क्या कारण है, जिसे डा. हबीबुल्ला आवदुसामाटाव अध्यक्ष अंतरिक्ष अनुसंधान प्रयोगशाला, पुलकोवो एस्ट्रॉनामीकल आब्जरवेटरी, रूस एवं अन्य ने सूचित किया था? उनको अपनी अज्ञानता से अनजान जनता में भय नहीं पहुँचाना चाहिए।
जलवायु नीमहकीमों द्वारा फैलाई गई दूसरी अफवाह यह है कि कार्बन डाइआक्साइड द्वारा उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग को हजारों वैज्ञानिक सहमति देते हैं। उनसे उन लोगों के नाम पूछना चाहिए जिन्होंने ग्लोबल वार्मिंग स्वांग के खिलाफ बैग की-मून, प्रेसीडेंट ओबामा, ब्रिटेन, कनाडा एवं आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री या ‘‘मनहट्टम’’ घोषणा पत्र के संधिकर्ताओं से प्रार्थना की हो। उनसे पूछिए क्या उन्होंने डा. क्लास-मार्टिन शटिल (एन्डोक्राइनालाजिस्ट जो जानना चाहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग की न्यूज किस तरह उनके रोगियों को प्रभावित करती है) द्वारा लिखित पेपर पढ़ा है? जिन्होंने 2003 से 2007 के बीच में प्रकाशित 539 पीयर रिव्यूड वैज्ञानिक लेखों का सर्वे किया जो ग्लोबल जलवायु परिवर्तन पर लिखे गये हैं, उन्होंने पाया कि किसी भी पेपर में यह निष्कर्ष नहीं है कि समय कम है या खतरा काफी बड़ा है। अगर इससे मदद नहीं मिलती तो हमें प्रोफेशर माइक हलमे, निदेशक, टिंडल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च इन यूके को सुनना चाहिए। लेकिन सबसे पहले प्रो. हलमे की उपलब्धि की जानकारी कर लेनी चाहिए।
उन्हीं के शब्दों में वे एक शोध जलवायु-विज्ञानी हैं जिनका विशिष्ट विषय ग्लोबल क्लाइमेट चेंज, जलवायु मॉडलों की समीक्षा, जलवायु परिवर्तन के सीन एवं प्रभावी मॉडलों का विकास एवं प्रयोग आदि है एवं उन्होंने इन विषयों पर बहुत से प्रकाशन निकाले हैं। वे आई.पी.सी.सी. टास्क ग्रुप जो जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के प्रभाव के आकलन के लिये है, के सदस्य हैं। वे आई.पी.सी.सी डाटा वितरण केंद्र के सह-प्रबंधक हैं जो जलवायु घटनाओं की सूचना तथा ऐसे ही अन्य कार्यों से संबंधित हैं। वे 1982 से रॉयल मीटियोरालीजीकल सोसाइटी के सदस्य भी हैं। वे 1994 से 1999 तक ‘‘इण्टरनेशनल जरनल ऑफ क्लाइमैटोलाजी’’ के संपादक थे। उन्हें संयुक्त रूप से 1995 में हग रावर्ट मिल प्राइज से नवाजा गया है। संक्षेप में वे एक व्यावसायिक जलवायुविद हैं। उनके विचार हैं :
आई.पी.सी.सी. सारे बिंदुओं की चर्चा नहीं करेगी, यह समुद्र तल के पाँच मीटर बढ़ने की चर्चा नहीं करेगी, क्योंकि गल्फ धारा खत्म होती है इसलिये अगली हिमयुग पर चर्चा नहीं करेगी, स्टर्न रिव्यू के अर्थशास्त्र पर चर्चा नहीं करेगी। यह उसी तरह है मानो ब्रिटिश जनता की सोच एवं अन्तरराष्ट्रीय विज्ञान समूह की सोच का अंतर होता है ....
पिछले कुछ वर्षों में एक नया पर्यावरण तथ्य संरचित किया गया है... महाविपत्ति का तथ्य जो जलवायु परिवर्तन का है। देखा गया है कि ‘‘जलवायु परिवर्तन’’ के स्थान पर ‘‘महाविपत्ति’’ ध्यानाकर्षण के लिये जरूरी है। इस प्रभावशाली शब्द का बढ़ता प्रयोग एवं इससे संबंधित शब्द जैसे ‘‘अव्यवस्थित’’, ‘‘अपरिवर्तनीय’’ ‘‘शीघ्र’’ आदि शब्द आम जनता की जलवायु परिवर्तन संबंधी समझ को परिवर्तित कर चुके हैं। ‘‘इस अभिव्यक्ति में अब विशिष्ट वाक्य सुशोभित हैं जैसे ‘जैसा हम सोचते हैं, जलवायु परिवर्तन उससे भी बदतर है’, हम पहुँच रहे हैं’ पृथ्वी की जलवायु के अपरिवर्तनीय सिरे पर’ एवं हम हैं ‘वापिस न होने वाले बिंदु पर’। जलवायु परिवर्तन अभियानकर्ताओं द्वारा मैंने अपने को पिटा हुआ पाया है, जब उनके पर्यावरणीय ड्रामा एवं अलंकार शास्त्र की विस्तरित प्यास को मेरे द्वारा आम जनता में दिये गये ब्यौरे एवं भाषण मिटा नहीं पाये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हम जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ ही आज महाविपत्ति में हैं। कैसे पहिया घूमता है।’’ पहिया घूमने की बात करते हुए ध्यान दें कि निम्न शब्द कितने प्रसिद्ध एवं नये हैं :
‘‘आर्कटिक समुद्र गर्म हो रहा है, आइसबर्ग विरल हो रहे हैं एवं कुछ जगहों पर सील गर्म पानी महसूस कर रही हैं, यह बर्गन, नार्वे से कंसुल इफ्ट की वाणिज्य विभाग को एक प्रतिवेदन के अनुसार है। मछुआरों, सील शिकारियों एवं अन्वेषकों के प्रतिवेदनों द्वारा जलवायु परिवर्तन के सभी बिंदुओं द्वारा तापमान परिवर्तन को आर्कटिक क्षेत्र में उजागर किया जाता है। अन्वेषण भ्रमण द्वारा पता चला है कि उत्तर की ओर 81 डिग्री एवं 29 मिनट्स पर कोई विरल बर्फ पाई गई है ........ बर्फ के बड़े टुकड़ों का स्थान पृथ्वी एवं पत्थरों के हिमोढ़ों ने ले लिया है...... जबकि अनेक स्थानों पर बड़े हिमनद विलुप्त हो गये हैं। पूर्वी आर्कटिक में बहुत कम सील पाई जाती हैं एवं सफेद मछलियाँ नहीं मिलती, जबकि हैरिंग एवं स्मैल्ट के बड़े किनारे जिनमें उत्तर की ओर कभी संकट प्रतीत नहीं हुआ अब पुराने सील शिकार भाग में समस्या झेल रहे हैं।’’
शब्दों में प्रसिद्धि है परंतु वे आधुनिक नहीं हैं। यह यू एस वेदर ब्यूरो द्वारा 1922 में दी गई चेतावनी सही है। इसी तरह की ग्लोबल वार्मिंग 1990, को हमने महसूस किया है। अब 1970 के दशक की सुर्खियों को देखा जाय जिन्होंने आम जनता को प्रभावित किया एवं जो हजारों वैज्ञानिकों की सहमति पर आधारित हैं, जो 1945-1975 तक तीन दशकों तक तापमान में गिरावट का अनुसरण करते हैं।
‘‘यदि वर्तमान प्रवृत्ति चालू रही तो 1990 तक दुनिया मध्य तापमान से चार डिग्री तक ठंडी होगी एवं 2000 तक ग्यारह डिग्री तक ठंडी होगी.... यह दो बार होगा तब हमें हिम युग में प्रवेश करा सकेगा’’ ... केनेथ ई. एफ.वाट, वायु प्रदूषण एवं ग्लोबल कूलिंग पर पृथ्वी दिवस (1970)।
‘‘डब्ल्यू. डब्ल्यू. आई. आई. से पृथ्वी के शीघ्रतम शीतलीभवन का कारण ग्लोबल वायु प्रदूषण है जो औद्योगिकीकरण, यांत्रीकरण, शहरीकरण एवं जनसंख्या बढ़ोत्तरी के कारण हैं’’ - रीड बाइसन (1971), ‘‘ग्लोबल इकोलॉजी; रीडिंग्स टूवर्ड्स रैशनल स्ट्रैटजी फॉर मैन’’
‘‘स्पष्ट संकेत हैं कि पृथ्वी के मौसम के तरीके में अकस्मात परिवर्तन होना शुरू हो चुका है एवं यह परिवर्तन खाद्य पदार्थों की उत्पत्ति को काफी हद तक कम कर सकता है जिससे हम राष्ट्र की राजनीति प्रभावित होगी। खाद्य पदार्थों की उत्पत्ति बहुत जल्द कम होना शुरू हो सकती है। इन भविष्यवाणियों के लिये उच्चतर स्तर पर प्रमाण एकत्रित करना शुरू हो चुका है जिससे मौसमविज्ञानी इसके साथ नहीं चल पा रहे हैं।’’ न्यूजवीक, अप्रैल 28 (1975)।
‘‘यह शीतलीभवन लाखों लोगों की जान ले चुका है। यदि यह चालू रहा एवं मजबूत उपाय न किए गये तो दुनिया में अकाल, दुर्व्यवस्था, एवं युद्ध फैलेगा, जो 2000 से पहले होगा’’ कृलॉबेल पांट ‘‘द कूलिंग’’, 1976।
दुनिया के शीतलीभवन को तापीभवन में बदलने के अलावा, इससे कुछ अलग देखेंगे जो अलगोर द्वारा मार्गदर्शन में जलवायु-नीमहकीम हमें अब बताते हैं- ‘‘हम गृह को गर्म कर रहे हैं एवं हम अगर कुछ न करें तो अधिक गर्म हवाएँ चलेंगी, अधिक बाढ़ आयेगी, शक्तिशाली तूफान आयेंगे एवं अधिक सूखा पड़ेगा’’ भगवान बचाये।
अल गोर के साथ ब्रिटिश इकोडिप्लोमैट सर क्रिस्पिन चार्ल्स सरवैंटिस टिकैल थे जिन्होंने 35 वर्ष पहले ‘‘ग्लोबल शीतलीभवन’’ की समस्या के समाधान के लिये देश द्वारा हस्तक्षेप करने एवं टैक्स लगाने की वकालत की थी एवं अब उसी प्रकार ‘‘ग्लोबल तापीभवन’’ हेतु भी देश द्वारा हस्तक्षेप करने एवं टैक्स लगाने की वकालत कर रहे हैं।
जलवायु-नीमहकीम भी साधारण नीमहकीमों की तरह लोक कहावतों पर पनपते हैं लेकिन वास्तविक विषय के बारे में सूक्ष्म ज्ञान होता है। ‘‘नीमहकीमी’’ (शेखीखोरी) एवं ‘‘विज्ञान’’ दो अलग-अलग शब्द हैं।
जलवायु का वैज्ञानिक स्वरूप
एक व्यवसायक जलवायु विज्ञानी, भविष्य की जलवायु के संबंध में जो कहता है उस पर एक दृष्टि डाली जाय। सत्रह (सी.जी.सी.एम.) ‘‘संपूर्ण कपिल्ड जरनल सरकूलेशन मॉडल्स कम्प्यूटर मॉडल्स’’ जिनका उपयोग जलवायु के अध्ययन एवं भविष्यवाणी के लिये होता है की एक समीक्षा आगे लिखी भविष्यवाणियों तक ले जाती है : स्थाई अलनीनो हालतें (फायर बॉल अर्थ-आग का गोला पृथ्वी) बनाम छोर रहित लानीना (स्नो बॉल अर्थ- बर्फ का गोला पृथ्वी) बनाम जलवायु झूलती ही रहेगी जैसा आज। क्या इसके विपरीत एवं अनिश्चित आप कुछ सोच सकते हैं? प्रमाण-स्वरूप, जलवायु विज्ञान ऐसी व्यथा है जो अनिश्चित होती है। मार्क ए. केन के अनुसार सत्रह सी.जी.सी.एम. में से कोई भी मॉडल जलवायु विज्ञान को बिना तदर्थ नयतों के अनुकरण नहीं कर सकता। लेकिन यह व्यवसायी जलवायु विज्ञानियों के लिये अचम्भा नहीं है क्योंकि जलवायु एक सम्मिश्र, अरेखीय, अव्यवस्थित विषय है जिससे आई.पी.सी.सी. भी सहमत है।
अव्यवस्थित सिद्धांत : जलवायु के लिये एडवर्ड लारेंज ने एक सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसके अनुसार ‘‘ज्यादा अंतराल के जलवायु की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती जब तक हमें करोड़ों अंतरालों (वेरिएबिल्स) की प्राथमिक स्थिति की जानकारी न हो जो जलवायु विषय को परिभाषित करते हैं एवं उस सटीकता तक की जानकारी हो जिसे प्रयोग में लाया जा सके एवं उसे निरस्त न किया जा सके।
यदि कम्प्यूटर द्वारा जलवायु की भविष्यवाणी विश्वसनीय होती जैसे हमसे आई.पी.सी.सी. उम्मीद करती है तो पिछले दशक में की गई भविष्यवाणी एवं वास्तविक जलवायु जो महसूस की गई उसमें दो फाड़ नहीं होते। भविष्यवाणी की विपरीतता बढ़ती गई, वातावरण में 4 प्रतिशत कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ने के बावजूद 1998 के तुरंत बाद तापमान में गिरावट जारी रही। लेकिन मई 09 से स्थिति बदल गई है एवं तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है जो आने वाले सर्दी एवं बसंत तक रहेगी, परिवर्तन ग्लोबल तापीयता या कार्बन डाइआक्साइड द्वारा उत्पन्न किसी स्थिति से नहीं हुई है बल्कि अलनीनो जलवायु सिद्धांत द्वारा हुई है जिसकी भविष्यवाणी नहीं हुई है।
अलनीनो एवं ग्लोबल मौसम नियंत्रण
समुद्र तल के दवाब एवं समुद्र सतह के तापमान में लंबे अंतराल के संबंध से तीन बड़े ‘‘ग्लोबल ओसिन-एटमॉसफेरिक असीलेशन सिस्टम्स (जी.ओ.एस.)’’ निर्धारित किये गये हैं जिनसे दुनिया के मौसम का पैटर्न नियंत्रित होता है। ये हैं- सदर्न आसीलेशन (एस.ओ.) जो दक्षिणी अर्ध गोलार्ध के मौसम के पैटर्न को नियंत्रित करता है, नॉर्थ पैसीफिक आसीलेशन (एन.पी.ओ) जो उत्तरी अमेरिका के मौसम के पैटर्न को नियंत्रित करता है एवं नार्थ एटलांटिक असीलेशन जो यूरोप एवं साइबेरिया के मौसम पैटर्न को नियंत्रित करता है। हर जी.ओ.एस. में एक उच्च दाब एवं एक निम्न दाब प्रकोष्ठ होते हैं जिनके बीच सी-सौ की उपलब्धता होती है जिससे उस क्षेत्र का मौसम पैटर्न नियंत्रित किया जाता है।
अधिकतम जानकारी वाल एस.ओ. ईस्टर एवं जुआन फर्नानडेज आइलैंड जो पूर्वी पैसीफिक में है के ऊपर उच्च दाब का प्रकोष्ठ एवं पश्चिम पैसीफिक में मौजूद इण्डोनेशियन आर्चीपैलैगो के पास बांडा समुद्र में निम्न दाब का प्रकोष्ठ रखता है। एन.ए.ओ. का उच्च दाब प्रकोष्ठ अजोर्स आइलैंड में एवं निम्न दाब प्रकोष्ठ आइसलैंड के ऊपर है जो दोनों ही अटलांटिक समुद्र में मौजूद हैं। इसी तरह से एन.पी.ओ. का उच्च दाब प्रकोष्ठ बैकाल झील से आइलैंड श्रृंखला जो उत्तर-पश्चिम पैसीफिक में मौजूद है, के बड़े भाग में उपलब्ध है, एवं निम्न दाब प्रकोष्ठ मध्य पैसीफिक पहाड़ियों एवं हवाई आइलैंड के ऊपर है। इन बड़े मौसम ओ.एस. के साथ अन्य कई एक ओ.एस. चिन्हित किये गये हैं जैसे पैसीफिक डिकेडल आसीलेशन, बैन्गुएला नीनो स्पेसीफिक से अटलांटिक समुद्र तक एवं वर्तमान में चिन्हित इण्डियन ओसीन डाइपोल स्पैसीफिक से इण्डियन ओसन तक।
सामान्य परिस्थतियों में, उच्च दाब एवं निम्न दाब प्रकोष्ठों के बीच के दाब सी-सौ, के कारण वायु के प्रवाह से, पैसिफिक समुद्र में गर्म भूमध्य पानी इण्डोनेशिया की ओर विस्थापित होता है एवं पेरू के पश्चिम किनारे का समुद्र का ठंडा गहरा पोषकयुक्त पानी ऊपर को उठता है। परंतु एक बार यह क्रिया विपरीत होती है। यानी, गर्म भूमध्य पानी का तालाब इंडोनेशिया से पूर्व की ओर विस्थापित होता है जो कैरिवियन के पश्चिमी तट इक्वाडोर, पेरू एवं चिली की ओर जाता है जो सामान्य मौसम पैटर्न का उल्टा है। इस कारण क्षेत्र में अतिरिक्त बारिश होती है (क्योंकि गर्म पानी के ताप से अधिक नमी मौसम में पहुँच जाती है) जबकि इण्डोनेशिया एवं आस्ट्रेलिया जैसे क्षेत्र सूखा महसूस करते हैं। इस मौसम के तथ्य को अलनीनो कहते हैं। क्योंकि एल. नीनो तथ्य दक्षिणी दोलन (एस.ओ.) से संबंधित है इसलिये जलवायुविद इसे एनसो (अल नीनो सदर्न ओसीलेशन) समतुल्य शब्द से जानते हैं। प्रभावित क्षेत्र में बाढ़ एवं भूस्खलन के अलावा, पूर्वी भूमध्य पैसीफिक पर गर्म पानी का ताल होने की वजह से गहरा ठंडा पानी ऊपर नहीं आ पाता जिससे क्षेत्र की सभी मछलियाँ बचकर निकल जाती हैं एवं क्षेत्र के मछली उद्योग एवं अर्थव्यवस्था को काफी हानि होती है। इसी दौरान कभी-कभी यह भी होता है कि सामान्य से अधिक ठंडा पानी ऊपर आ जाता है जिससे भयंकर सूखा पड़ता है। मौसम की इस स्थिति को लानीना कहते हैं। क्योंकि ओएस सबसे बड़ा दोलन तंत्र है जो बड़े समुद्र को घेरे हुए है, इसमें अलनीनो या लानीना द्वारा किसी भी प्रकार का बदलाव पूरे ग्लोब पर असल डालता है।
जब पैसीफिक समुद्र में किसी एक क्षेत्र मुख्यरूप से 1500W-1600W के बीच का जो 50N-50N से गुजरा हो का तीन महीने का समुद्री सतह का औसत तापमान सामान्य से +0.50C ऊपर हो जब अलनीनो के विकास की आवश्यकता होती है। ला नीना (-0.50C औसत से कम) के संबंध में इसका उल्टा होता है। सामान्य से कितना तापमान ऊपर/नीचे होता है उस पर अलनीनो/ ला नीना प्रसंग की शक्ति निर्भर होती है। हर एक एलनीनो/ लानीना प्रसंग सामान्यत: एक वर्ष तक चलता है लेकिन अधिक समय तक भी चल सकता है।
अब तक जिन अलनीनों प्रसंगों की जानकारी ली गई है उसमें से 1997-98 का प्रचंडतम था। इसीलिये यह वर्ष सबसे ज्यादा गर्म रहा (अमेरिका को छोड़कर जहाँ 1934 का वर्ष सबसे ज्यादा गर्म रहा) उनमें से जब से तापमान के आंकड़े उपलब्ध हैं।
इस वर्ष मानसून की असफलता इसलिये रही क्योंकि मई 2009 से भूमध्य पैसिफिक में तापमान बढ़ना शुरू हो गया था। +0.70C से +10C तापमान के अंतराल के साथ हम कमजोर से औसत अलनीनो प्रसंग में हैं एवं इस ओर इशारा है कि यह आगे मजबूत होगा और आगे की बसंत तक रहेगा। इण्डियन समुद्र डाईपोल के क्रियाशील होने पर समस्या जटिल हो गई जिससे पूर्वी भूमध्य इण्डियन सागर में ठंडे पानी का तालाब बन गया जिससे भारत के ऊपर नमी के बादल नहीं रहे जबकि गर्म ताल पूर्वी भूमध्य इंडियन सागर की ओर बढ़ गये, जो पूर्वी अफ्रीका के पास था, जो वर्तमान में अधिक वर्षा का क्षेत्र है। वर्तमान में जो जलवायु हम महसूस कर रहे हैं उसकी यही कहानी है।
2007-08 में जो भयंकर सर्दी हमने झेली वह लानीना प्रसंग के कारण थी। अलनीनो एवं लानीना की कहानी का रूचि-पूर्ण हिस्सा इसकी भविष्यवाणी न कर पाना है। हम सभी जानते हैं कि अलनीनो हर 2-5 वर्ष में वापिस आता है लेकिन इसके पीछे जो यांत्रिकी है उसकी जानकारी नहीं है। यह बात पैसीफिक डिकेडल आसीलेशन पीडीओ हेतु भी सत्य है, जो एक जलवायु तथ्य है जिसमें गर्म (धनात्मक) एवं ठंडी (ऋणात्मक) स्थितियाँ होती हैं जिसमें से प्रत्येक आमतौर पर 20-30 वर्ष में खत्म होती है। कुछ वैज्ञानिक बीसवीं सदी के पीडीओ के गर्म/ठंडी स्थितियों को धनात्मक/ऋणात्मक स्थितियाँ मानते हैं, एवं इस विचार से वे 1997-98 के बाद के तापमान में कमी को जोड़ते हैं जिससे पीडीओ अपनी ऋणात्मक स्थिति में प्रवेश कर चुका है। लेकिन विशेषज्ञ अभी भी इस पर प्रश्नबद्ध हैं।
ऊपर लेखक ने कपल्ड जनरल सरकुलेशन मॉडल का विवरण दिया है। यह शब्द कम्प्यूटर मॉडल से संबंधित है जिसमें समुद्र एवं वायुमंडल दोनों ही पैरामीटर जलवायु के अध्ययन एवं भविष्यवाणी हेतु विचार में लिये जाते हैं। पहले जलवायुविद केवल वायुमंडल पर ही विचार करते थे एवं मॉडल जो प्रयोग आता था उसे जनरल सरकुलेशन मॉडल कहते थे। लेकिन बाद में यह महसूस होने पर कि जलवायु मॉडूलेशन में समुद्रों का अच्छा खासा महत्व है, समुद्र के पैरामीटरों का समावेश आवश्यक हो गया एवं कपल्ड जनरल सरकुलेशन मॉडल्स एक नियम बन गया। जैसा हमने देखा, स्थिति अभी साफ नहीं है।
विवर्तनिक गतिविधियाँ एवं जलवायु
1980 के दशक के अंत में, डेनियल वाकर जो हवाई में एक भूकम्पविद हैं (एनटीपी के लागू करने से संबंधित) उन्होंने एक बहुत मुख्य अवलोकन किया। उन्होंने महसूस किया कि उनके द्वारा 1964 से खोजा गया प्रत्येक अलनीनो प्रसंग लगभग छ: महीने पहले से भूकम्प एवं ज्वालामुखी गतिविधियों के बढ़ने से प्रभावित रहता है जो पूर्व पैसीफिक राइज के साथ होता है (दुनिया के समुद्र में पहाड़ों की श्रृंखला का एक हिस्सा)। उन्होंने विषय पर कई अनुसंधान पेपरों की श्रृंखला प्रस्तुत की, एवं पूर्व पैसिफिक राइस एवं अलनीनो के पास की विवर्तनिक क्रियाओं में एक मजबूत संबंध पाया जिससे इस प्रसंग को ‘‘प्रिडिक्टर्स ऑफ अलनीनो’’ कहा। लेकिन जलवायुविद द्वारा इस प्रसंग से सहमति बनाना अभी बाकी है। वैज्ञानिकों का एक अन्य समूह (जिसका लेखक एक सदस्य है) वाकर के अवलोकन को एक कदम आगे मानते हैं जो बताता है कि जीओएस की प्रत्येक उच्च दाब एवं निम्न दाब प्रकोष्ठ की तली पर एक बड़ी भूवैज्ञानिक संरचना होती है जो शिरोबिंदु ज्यामिति एवं विशेष भूभौतिकी गुणों से संपन्न होती है। उच्च दाब प्रकोष्ठ के नीचे की शिरोबिंदु में एक प्रकार के भूभौतिकी एवं भूवैज्ञानिक गुण होते हैं जबकि निम्न दाब प्रकोष्ठ के नीचे दूसरी (अलग) प्रकार के भूभौतिकी एवं भूवैज्ञानिक गुण होते हैं। प्रकृति कभी अकस्मात का कारण नहीं बनती एवं ये अवलोकन अकस्मात नहीं हो सकते। पृथ्वी की आंतरिक गति का जलवायु के नियमन में जो योगदान है उस संबंध में अन्य अवलोकनों पर खोजें जारी हैं एवं वाकर के अवलोकन की तरह अभी भी जलवायु बॉक्स से बाहर हैं।
कार्बन डाइआक्साइड एवं तापमान सहसंबंध
कार्बन डाइआक्साइड एवं तापमान सहसंबंध पर आधारित सभी अनुसंधान बताते हैं कि भूविज्ञान इतिहास में सैकड़ों वर्षों तक कार्बन डाइआक्साइड के बढ़ने पर तापमान में बढ़ोत्तरी होती है जिसका विपरीत कभी नहीं होता। यह अल गोर के तापमान-कार्बन डाइआक्साइड सहसंबंध के ग्राफ से भी प्रमाणित है। लेकिन यदि यह सभी विज्ञान अविश्वसनीय या गलत है तो किसी वैज्ञानिक अभिव्यक्ति या प्रयास में जो परम प्रश्न होता है वह यह होता कि CO2 जलवायु को परिचालित करती है या नहीं? यह एक ग्लोब पब्लिक पॉलिसी निर्णयों के लिये एक कठिन प्रश्न है। लेकिन इसका जलवायु विज्ञान-मीडिया-एनजीओ-राजनीतिज्ञ आदि में कहीं उद्धरण नहीं है।
1997-98 के उच्च तापमान से लगातार तापमान में कमी होना एवं जलवायु की पूर्व भविष्यवाणियों के असफल होने से हमें सावधान हो जाना चाहिए, हो सकता है यह 1945-75 तक जैसा दूसरा शीतलीभवन हो रहा हो जो 20वीं सदी की दो तापीभवन की अवस्थाओं का समयनिष्ठ हो। याद करिए 1960वीं एवं 1970वीं में जलवायुविद एवं नेशनल सांइस फ़ाउंडेशन, यूएसए शीतलीभवन की वजह से महाविपत्ति के आगाज की चेतावनी दे रहे थे, यही लोग 1980वीं में हमें ग्लोबल वार्मिंग की वजह से महाविपत्ति से लोहा लेने के लिये धर्मोपदेश दे रहे थे। कुछ वैज्ञानिक 20वीं सदी की तापीभवन/शीतलीभवन की अवस्थाओं को 20-30 वर्ष समय के धनात्मक/ऋणात्मक अवस्थाएं मानते हैं जो पैसीफिक डिकैडल आसीलेशन (पीडीओ) की हैं, एवं व्यक्त करते हैं कि 1997-98 के बाद तापमान में कमी (पीडीओ) के ऋणात्मक अवस्था में प्रवेश होना है। यहाँ पर जो कहा गया है वह जलवायु की अव्यवस्थित स्थिति के किनारों को भी नहीं छूती है। मैं (लेखक) जानता हूँ कि यदि अलगोर ने अपनी डाक्यूमेंटरी एवं किताब ‘‘एन इनकनविएट ट्रुथ’’ द्वारा जो प्रचार किया कि दुनिया ग्लोबल वार्मिंग से गुजर रही है एवं समुद्र का स्तर बढ़ रहा है तो उसने कैलिफोर्निया में 20 कमरे का भवन न खरीदा होता जो 20 फुट समुद्र के स्तर में बढ़ोत्तरी के कारण डूब जायेगा, यह उसी के अनुमान के अनुसार हैं। इस ‘‘सभ्य दुनिया’’ में सच्चाई कम होती जा रही है।
आधार संदर्भ-न्यू कान्सैप्टस इन ग्लोबल टैक्टानिक्स न्यूज लेटर नं. 53, 2009, लेखक- एम.आई. भट(रुपांतरण एवं अनुवाद : वी. पी. सिंह, वा. हि.भू. संस्थान, देहरादून)
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