गांधी जी ने पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता को राक्षसी सभ्यता कहा है। असंयमी उपभोक्तावाद और लालची बाजारवाद ने सृष्टि विनाश की नींव रखी। भारत का परम्परागत संयमी जीवन-दर्शन ही त्रासद भविष्य से बचाव का मार्ग सुझाता है। समाज में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार जरूरी है। इसके सघन प्रयास जरूरी हैं। परम्परागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का समन्वय जरूरी है, सम्यक सन्तुलन जरूरी है। इसके लिये हमें लोक संस्कृति, लोक संस्कार और लोक परम्पराओं के पास लौटना होगा।
भारतीय ज्ञान परम्परा में श्रुति और स्मृति का प्रचलन रहा है। प्रकृति के सान्निध्य में सृष्टि के समस्त जैव आयामों के साथ सामंजस्य और सह-अस्तित्व के बोध को जाग्रत करते हुए जीवन की पाठशाला अरण्य के गुरुकुल में आरम्भ होती थी। इसी परिवेश और पर्यावरण में 5000 वर्ष पहले विश्व के आदिग्रंथ वेद की रचना हुई। वेद हों या अन्यान्य वाङ्मय सनातन ज्ञान के आदि स्रोत ऐसी ऋचाओं, श्लोकों, आख्यानों से भरे पड़े हैं जिनमें प्रकृति की महिमा और महत्ता का गुणगान है। ये भारतीय संस्कृति की कालजयी धरोहर हैं। इनका सम्बन्ध मानव जीवन की सार्थकता से है। जीवन को उत्कृष्ट बनाने की दिशा में उत्तरोत्तर आगे बढ़ने से है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे समाज के व्यवहार में आया यह ज्ञान लोक-विज्ञान है। कालान्तर में लोक संस्कृतियों ने लोक-विज्ञान को अपने इन्द्रधनुषी रंगों में रंगा। उसकी छटा दैनन्दिन रीति-रिवाज, संस्कार, मान्यताओं, परम्पराओं में लोक संस्कृति के माध्यम से विस्तार पाने लगी। निषेध और वर्जनाओं, प्रोत्साहन और सराहनाओं तथा स्तुतियों और आराधनाओं में भी लोक-विज्ञान को पिरोया गया। सैकड़ों साल से इस परम्परागत लोक-विज्ञान का जिस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी अन्तरण होता आया है उससे यह अनुभव पुष्ट होता है कि लोक संस्कृति में प्रभावी सम्प्रेषण की जितनी सम्भावना है; प्रभावोत्पादकता है, ग्राह्यता है; वह अन्यत्र दुर्लभ है।नर्मदा के बरमान घाट पर जल शुद्धि की एक संगोष्ठी का प्रसंग याद आता है। संस्कृति साहित्य के पंडितों की उपस्थिति में पश्चिमी ढंग की पढ़ाई पढ़े एक विज्ञानी ने चुनौती उछाली – पुराना सोच पोंगा पंथ है, अनर्गल है, दकियानूसी है। आधुनिक विज्ञान ही इकलौता मार्ग है। एक असहमत बुजुर्ग ने प्रत्युत्तर में श्लोक पढ़ा-
दशकूपसमा वापी, दशवापीसमो हृदः।
दशहृदसमः पुत्रो, दशपुत्रसमो द्रुमः।।
यह श्लोक ‘भविष्य पुराण’ में है। पंडितजी ने आत्मविश्वास से भरा सवाल उठाया- क्या आधुनिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति से बाहर अन्यत्र कहीं प्रकृति के सम्बन्ध में ऐसा गहरा सोच मिलता है? सचमुच बहुत गम्भीर बात कही गई है – “दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष।” पानी, पेड़ और मनुष्य के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध की कैसी विलक्षण व्याख्या है।
यह बात पूरी हुई ही थी कि एक सेवानिवृत्त अध्यापक ने दोहा पढ़ा-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुष चून।।
उन्होंने जानना चाहा कि पानी पर इससे मार्मिक, ऐसी अर्थपूर्ण और समग्र समझ क्या दुनिया की किसी अन्य संस्कृति में है?
दोनों उद्धरण और सवाल निरुत्तर कर देने वाले हैं। वे पोंगापंथी नहीं हैं, सिद्ध विज्ञान हैं और लोक शिक्षण का चरम ज्ञान इनमें निहित है।
फिर भी इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि ऐसी समृद्ध प्रकृति-संस्कृति वाले देश में जलस्रोतों की इतनी बुरी दुर्दशा क्यों हुई? क्यों तालाब मिटाए जा रहे हैं? क्यों नदियाँ मारी जा रही हैं? क्यों कुएँ कचड़ाघर बन गए हैं? क्यों सरकारें – राजनीतिक और अफसरशाही नदियों की रेत की डकैती करवा रही हैं? क्यों जंगल काटे जा रहे हैं? क्यों हरियाली को उजाड़ा जा रहा है? क्यों पहाड़ फोड़े जा रहे हैं? और यह तमाम बरबादियाँ देखते हुए भी कानून मौन है! संवैधानिक संस्थाएँ मौन हैं!! धर्म और अध्यात्म के श्रेष्ठिजन मौन हैं!!! जनता भी हाथ पर हाथ धरे अपनी अनमोल सम्पदा को लुटते हुए देख रही है!!!! आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की तो चिन्ता से ही ये गम्भीर प्रश्न गायब हैं; क्योंकि उसका एजेण्डा तो मल्टीनेशनल कम्पनियाँ तय करती हैं!!!!!
ऋषि मनीषा ने कहा है-
भाद्र कृष्ण चतुर्दश्यां यावदाक्रमते जलम्।
तावद् गर्भ विजानीयात् तदूर्ध्वं तीरमुच्यते।
सर्ध हस्तशतं यावत् गंगातीरमिति स्मृतम्।
तीराद्गव्यूतिमात्रं च परितः क्षेत्र मुच्यते।
तीरक्षेत्रमिदं प्रोक्तं सर्वपाप विवर्जितम।।
(वृहद धर्म पुराण, 54, 45-47)
अर्थात “भाद्र कृष्ण चतुर्दशी को जितनी दूर तक गंगा का फैलाव रहता है उतनी दूर तक दोनों तटों का भू-भाग ‘गर्भ’ है। उसके बाद 150 हाथ की दूरी का भू-भाग ‘तीर’ है। तीर से एक गव्यूति (दो हजार धनुष, जो एक कोस या दो मील के बराबर होता है) पर्यन्त का भू-भाग क्षेत्र कहलाता है। इस विस्तार में पाप कर्मों का निषेध है।” व्यवहार में इसका अर्थ है कि जलस्रोत के तट से पर्याप्त दूरी तक निवास-वाणिज्य-व्यापार-कल-कारखाने समेत ऐसी किसी भी गतिविधि की इजाजत नहीं है जो जलस्रोत और जलराशि की बरबादी का कारण बनें। प्रदूषण का जहर फैलाएँ।
ताज्जुब है, सैकड़ों साल पहले ऋषि मनीषा को यह ज्ञान-विवेक था कि जलस्रोत की शुद्धि का विधान कर सके, परन्तु आधुनिक विज्ञान और उन्नत प्रौद्योगिकी के जमाने में इनके ऊँचे-ऊँचे प्रतिष्ठान ऐसी मर्यादाओं का निर्धारण नहीं कर पा रहे हैं!
एक उदाहरण, भोपाल के बड़े तालाब की छाती पर होटल खुले हैं, शादीघर पसरे हैं। कैचमेंट एरिया में रीयल एस्टेट की दबंग लीला है। अस्पतालों का संजाल है। इनकी गन्दगी और जहरीला कचरा तालाब के पानी में घुल-मिल रहा है। जिनकी जवाबदारी प्रकृति संरक्षण की है वे बरबादी में हिस्सेदार नजर आते हैं। ऐसी विनाश लीला देशभर में तमाम नदियों के किनारों पर रच दी गई है।
‘मत्स्य पुराण’ में तडाग भेदक (तालाब तोड़ने वाले) के लिये जल में डुबोकर मृत्युदण्ड देने का प्रावधान है। ‘अग्नि पुराण’ में भी ऐसा मिलता है। चाणक्य नीति में भी दंड का विधान है। लेकिन आजादी के बाद सरकारी निकायों द्वारा बनवाई जा रही जल संरचनाएँ भ्रष्टाचार के गारे से इतनी बदहाल बनती हैं कि तडाग भेदन के अपराध की नींव पर ही खड़ी होती हैं।
राजा भोज का भोजताल एक हजार साल से कायम है। परन्तु, हजारों करोड़ रुपए की लागत और आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रयोग से बनने वाले बाँधों की एक हजार तो क्या, एक सौ साल की उम्र की गारण्टी कोई नहीं दे सकता है।
बुंदेलखंड, बघेलखंड, मालवा अंचल में नवजात शिशु के जन्म के सवा महीने बाद सद्यःप्रसूता माँ घर से बाहर पहला कदम कुएँ की ओर रखती है। इस रस्म को कुआँ पूजन कहते हैं। निमाड़ में इसका रूप जलवायु पूजन का है। सनातन धर्म को मानने वालों के प्रमुख आराध्य देव हैं विष्णु (राम-कृष्ण अवतार सहित), शिव, गणेश तथा देवियों में दुर्गा-लक्ष्मी-सरस्वती। इन्हीं की सबसे ज्यादा पूजा होती है। तब गृह लक्ष्मी का पहला कदम मन्दिर की ओर क्यों नहीं? पहली पूजा के लिये जल (कुआँ) को सर्वोपरि महत्त्व क्यों? सवाल जितना कठिन है जवाब उतना ही सरल कि हमारे पुरखों को जीवन के लिये जल के महत्व की भली-भाँति पहचान थी। वे जानते थे कि जल है तो जीवन है (और जो जीवनदाता है वही देवता है)। वाचिक परम्परा वाली भारतीय संस्कृति में ऐसे लोक-विज्ञान के लिये शोध-पत्र नहीं रचे गए। पेटेण्ट की होड़ नहीं लगी। बस, संस्कारों के अनुशासन में वर्जना और प्रोत्साहन को ढाल दिया गया। पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका अनुपालन-अनुकरण होता रहा। मर्म की समझ जहाँ कमजोर पड़ी, वहीं विकारों ने डेरा डाल लिया।
नई चाल की विलायती पढ़ाई पढ़े और पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की ठसक से भरे इलाहाबाद के अंग्रेज कमिश्नर हॉकिन्स ने कोई एक शताब्दी पहले फरमान निकाला – शहर की गन्दगी गंगा में बहा दी जाए। बाद के वर्षों में गुलाम मानसिकता ने इसे देशभर के लिये कानून मान लिया। इससे शहर तो साफ नहीं हुए, नदियाँ जरूर मौत के मुँह में समाने लगीं। शहरों का मलमूत्र, कारखानों का रासायनिक अवशिष्ट और तमाम तरह के कचरे ने देशभर की नदियों को गटर बना डाला। यह नगर नियोजन, प्रशासनिक दक्षता, शासनिक समझ-बूझ और नागरिक चेतना आदि प्रत्येक दृष्टि से निकृष्ट मानसिकता और आपराधिक दुर्लक्ष्य का साक्ष्य है। धर्म के ठेकेदारों के लिये भी निहायत शर्मनाक, जो नदियों को देवी माँ की तरह पूजते और आरती के आडम्बर तो रचते हैं, परन्तु उनकी शुद्धि के लिये न तो सचेष्ट हैं, न जागरूक हैं और न ही समाज की चेतना को जाग्रत बनाए रखने का दायित्व निभा रहे हैं। कई हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी गंगा और यमुना गटर ही बनी हुई हैं। प्रायः सभी नदियाँ बदहाली और बरबादी के लिये अभिशप्त हैं।
प्रकृति-चिन्तक अमृतलाल वेगड़ कितना सही कहते हैं, “जब मनुष्य असभ्य था तब नदियाँ स्वच्छ थीं। आज जब मनुष्य सभ्य हो गया है तब नदियाँ मलिन और विषाक्त हो गई हैं।... ज्यों-ज्यों औद्योगिक सभ्यता का दबदबा बढ़ता गया पानी के बुरे दिन शुरू हो गए।”
इसके विपरीत, औद्योगिक सभ्यता के कई सौ बरस पहले भारतीय ऋषि मनीषा ने जलस्रोतों के साथ मनुष्य के बर्ताव की लक्ष्मण-रेखा खींच दी थी। उस पर अमल भी किया जाता रहा।
नाप्सु मूत्रं पुरीषं वा ष्ठीवनं वा समुत्सृजेत्।
अमेध्यलिप्तमन्यद्वा लोहितं वा विषाणि वा।।
(मनुस्मृति, 4-56)
अर्थात पानी में मल, मूत्र, थूक, रक्त या विष का विसर्जन न करें।
‘नारायणोपनिषत’ में कहा गया है-
आपो वा इदं सर्वं विश्वाभूतान्यापः प्राणा वा आपः पशवः
आपो S ब्रह्मापो S अमृतमापः सम्राडापो विराडापः,
स्वराडापश्छन्दांस्यापो ज्योतींष्यापः सत्यमापः,
सर्वा देवता आपो भूर्भुवः स्वरापः ओउम्।
अर्थात “जल ही विश्व में सर्वभूत है, जल ही प्राण है, जल ही पशु है, जल ही ब्रह्म है, जल ही अमृत है, जल ही स्वराज है, जल ही वेद है, जल ही आकाश है, जल ही सत्य है और जल ही तीनों लोक है।” जल और प्रकृति की ऐसी समझ लोक-विज्ञान का चरम है।
वैदिक ऋषि कहता है-
माSपो हिंसीः मा ओषधीः हिंसीः।
(यजुर्वेद, 6/22)
अपः पिन्व ओषधीर्जिन्व।
(यजुर्वेद, 14/8)
अर्थात हमें जल को दूषित नहीं करना चाहिए। वृक्ष-वनस्पतियों को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए। जल को शुद्ध रखना, पौष्टिक गुणों से युक्त करना तथा औषधियों को जल से सींचकर सुरक्षित रखना चाहिए।
न केवल मानव जीवन बल्कि समूची सृष्टि के लिये पानी-शुद्ध जल की अनिवार्यता से अवगत वैदिक ऋषि कामना करता है-
शुद्धा न आपस्त्न्वे क्षरन्तु...।
(अथर्ववेद, भूमि-सूक्त, 12/1/30)
शिव पुराण में कहा गया है-
संजीवनम् समस्नस्य जगतः सलिलात्यकम्।
भव हन्यूच्यते रूपं भवस्य परमात्मनः।।
(जो जल समस्त जगत के प्राणियों में जीवन का संचार करता है, वह स्वयं शिव है। अतः जल का पूजन (सदुपयोग) करना चाहिए न कि अपव्यय।)
एक रोचक बोध-कथा प्रस्तुत है। इस कथा की विषयवस्तु और सुनाने की सरस शैली के कारण यह कथा याद रह गई। यह कहना ज्यादा सही होगा कि पीढ़ियों के मन में रच-बस गई। कथा इस प्रकार है : एक यजमान अपने पुरोहित से बंजी (व्यापार-प्रवास) पर जाने के लिये उचित समय पूछने गया। पुरोहित वैद्य भी था। किसी बात को लेकर यजमान से अप्रसन्न था। उसने समय तो बताया ही, एक नसीहत भी दे डाली- ‘पड़ाव बबूल कती छाया में डालते हुए चले जाना।’ गन्तव्य तक पहुँचते-पहुँचते यजमान की दशा बिगड़ गई। वहाँ के वैद्य की शरण ली। उन्होंने यात्रा का पूरा वृत्तान्त जाना और बबूल के नीचे ठहरने की सलाह की ‘नब्ज’ भी पकड़ ली। उपचार किया। ठीक होने पर घर वापसी के लिये सलाह दी- “नीम की छाया में ठहरते हुए जाना।” यजमान स्वस्थ घर लौटा। उसका पुरोहित देखते ही समझ गया कि शेर को सवा शेर मिल गया है।
वास्तव में यह लोक-विज्ञान कथा है। इस अभिव्यक्ति शैली में सम्प्रेषण की विलक्षण दक्षता है। स्मृति में बसने की ऐसी कालजयिता है कि हजारों वर्षों से ‘नीम’ हमारे घर-आँगन का हिस्सा है और ‘बबूल’ बंजर-वीराने के लिये बहिष्कृत। क्या कोई इस बात से इनकार कर सकता है कि हमारे पुरखों को नीम और बबूल के गुणों की ठीक-ठीक पहचान थी। (नीम का पेटेण्ट कराने की कॉरपोरेटी हवस ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि ‘नीम’ को पहचानना विज्ञान है।) बोध-कथा के माध्यम से इसी की सीख समाज को दी गई। पूरा समाज न ज्ञानी हो सकता है और न विज्ञानी। तब सीख-सिखावन का जरिया लोक-सम्मत ही तो अपनाना होगा!
सन 1732 ईस्वी की घटना है। राजस्थान की जोधपुर रियासत में खेजड़ी वृक्षों की रक्षा करते हुए विश्नोई समाज की 69 महिलाओं और 294 पुरुषों ने प्राण न्यौछावर कर दिये थे। इस कुर्बानी ने राजसत्ता के कुल्हाड़ों को वृक्ष-संहार बन्द करने पर विवश कर दिया था।
राजस्थान में उक्ति प्रचलित है- “सीस कट्या रूख बचे तो भी सस्ता जाण।” तात्पर्य यह कि जान देकर भी पेड़ बच जाए तो सौदा घाटे का नहीं।
एक और राजस्थानी उक्ति है- “यदि एक खेजड़ी वृक्ष, एक ऊँट और एक बकरी पास में है तो अकाल भी कट जाएगा।”
लोक व्यवहार में पीपल का वृक्ष काटना और उसकी लकड़ियाँ जलाना वर्जित किया गया है। लोक की आस्था को इससे जोड़ दिया गया। पीपल में विष्णु और वट (बरगद) में शिव का वास माना गया। दोनों दीर्घायु और विशालकाय वृक्ष होते हैं। वातावरण को शुद्ध करने की अपार क्षमता होने के कारण लोक मनीषा को ऐसे वृक्ष देवत्व का वास मानता ही था। पीपल, वट कटने से बच गए।
हर एक सनातनी घर में तुलसी कोट की उपस्थिति जरूरी मानी जाती है। संध्या बेला में तुलसी कोट पर दीया जलाकर रखा जाता है। तुलसी में कीटाणुनाशक तत्व होते हैं।
औषधीय गुणों के कारण ही नीम में शीतला माता का वास माना गया। वट की पूजा दीर्घायु की कामना के लिये की जाती है। वट-सावित्री व्रत का विधान किया गया। एक व्रत आँवला नवमी का होता है। अशोक का भी औषधीय महत्व है। फलदार-फूलदार पेड़-पौधों को आस्था के लोकाचार और वर्जना के निषेध के साथ जोड़कर संरक्षित किया गया। बचपन में हमें सिखाया जाता था कि शाम होने के बाद पौधों को हाथ नहीं लगाना चाहिए, वो सो जाते हैं। जड़ी-बूटियाँ चमत्कारी औषधीय गुणों से सम्पन्न हैं। वनवासी समाज बड़ी सूझ-बूझ और कौशल के साथ इनका प्रयोग उपचार और आरोग्य के लिये सदियों से करता आ रहा है।
अथर्ववेद का भूमि सूक्त वस्तुतः भारतीय संस्कृति की पर्यावरण चेतना का उद्घोष है। वैदिक ऋषि प्रकृति के समस्त उपादानों से अनुकूल रहने की प्रार्थना करते हुए कहता है-
“सं सं श्रवन्तु सिन्धवः सं वाताः सं पतत्रिणः”
(अथर्ववेद, 1,3,15)
अर्थात सभी नदियाँ हमारे अनुकूल बहें, वायु हमारे अनुकूल बहे, पक्षी भी हमारे अनुकूल हों।
अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया है- “हे धरती माँ! जो कुछ मैं तुझसे लूँगा वह उतना ही होगा जिसे तू पुनः पैदा कर सके। तेरे मर्मस्थल पर या तेरी जीवनी शक्ति पर कभी आघात नहीं करूँगा।” वास्तव में यह सोच मनुष्य के पशु-पक्षी, नदी-पर्वत, जड़-चेतन के साथ सह-अस्तित्व के रिश्ते की है।
श्रीकृष्ण की गोवर्धन-पूजा और यमुना में कालियादेह-मर्दन वस्तुतः कोई पूजा-पाठ या चमत्कार नहीं, पर्यावरण संरक्षण के महान अनुष्ठान ही थे। एक और पौराणिक आख्यान लीजिये- समुद्र मन्थन में अमृत निकला और विष भी। शिव ने लोक कल्याण के लिये विष अपने कंठ में धारण कर लिया, नीलकंठ हुए, अमृत दूसरों को दे दिया। वृक्ष भी तो यही करते हैं। प्राणवायु हमें देते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड सोख लेते हैं। यही वृक्षों का शिवत्व है, महत्व है।
आधुनिक विज्ञान की दुधारी स्थिति है। उसे भी वरदान और अभिशाप की कसौटी पर परखा जाना अभीष्ट है। परमाणु शक्ति को ही लीजिए, उसकी सृजन और विनाश की सामर्थ्य को पहचानिए। इससे ऊर्जा पाई जा सकती है तो नागासाकी-हिरोशिमा जैसे भीषण विध्वंस भी रचे गए हैं। चिकित्सा के वरदानों पर तालियाँ बजाइये तो घातक शास्त्रों पर लानत भेजिए। ध्वनि तरंगों से सूचना-संवादों का संचार कीजिए, तो दंगे-फसाद भी भड़काए जा सकते हैं, यह याद रखिए। रासायनिक खाद-खरपतवार नाशक – कीटाणुनाशक खेती में सहायक हो सकते हैं तो उनका अतिरेक मिट्टी की उर्वरा शक्ति को निगल भी सकता है; कैंसर जैसी व्याधियाँ फैला सकता है। जल-प्रदूषण, कार्बन-उत्सर्जन, वनों का विनाश, तपती धरती, सूखती नदियाँ, ग्लेशियरों पर मंडराता पिघल जाने का खतरा, बंजर होते खेत, मौत के मुँह में धकेलते रसायन और इस पर भी संयम को मुँह चिढ़ाती हुई लालच की मार ....यही तो इस समय के विकट सवाल हैं जिन्हें पश्चिम के आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने पैदा किया है, पनपाया है।
गांधी जी ने पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता को राक्षसी सभ्यता कहा है। असंयमी उपभोक्तावाद और लालची बाजारवाद ने सृष्टि विनाश की नींव रखी। भारत का परम्परागत संयमी जीवन-दर्शन ही त्रासद भविष्य से बचाव का मार्ग सुझाता है। समाज में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार जरूरी है। इसके सघन प्रयास जरूरी हैं। परम्परागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का समन्वय जरूरी है, सम्यक सन्तुलन जरूरी है। इसके लिये हमें लोक संस्कृति, लोक संस्कार और लोक परम्पराओं के पास लौटना होगा। हमारे सामने एक ही मार्ग है; जो प्रकृति सम्मत है वही ग्राह्य है और जो सृष्टि के विनाश का सरंजाम जुटाता है वह अग्राह्य है, अस्वीकार्य है।
ज्ञान-विज्ञान का कोई भी प्रारूप हो उसकी सार्थकता की कसौटी सिर्फ यही है कि वह मानव जीवन और प्रकृति के लिये हितकारी है अथवा नहीं। ऐसा विकास, ऐसी आधुनिकता जो विनाश का काला साया लेकर आते हों, वह कतई श्रेयस्कर नहीं हो सकते, स्वीकार्य भी नहीं हो सकते। याद रखिए, नीर-क्षीर विवेक से सम्पृक्त समाज ही सच्चे अर्थों में विज्ञान-चेता समाज हो सकता है। ऐसा समाज बनाने का माध्यम भी लोक भाषाएँ और बोलियाँ ही हो सकती हैं।
भारत में विज्ञान-चेतना के प्रसार और प्रकृति संरक्षण का यही व्यावहारिक मार्ग है। क्योंकि लोक में रच-बस कर ही लोक तक पहुँचा जा सकता है।
समाज, प्रकृति और विज्ञान (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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लेखक परिचय | |
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जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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