अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ताओं में विकासशील विश्व का नेतृत्व करता भारत

सीओपी 21 के दौरान भारत के मंडप में भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी
सीओपी 21 के दौरान भारत के मंडप में भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी


जिस समय से मनुष्य ने इस धरती पर वास किया है तभी से उसने अभिनव संघर्ष के माध्यम से इस ग्रह पर अपने जीवन को उत्तरोत्तर बेहतर बनाया है। महान सभ्यताओं और शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय और पतन हुआ लेकिन सभी से एक ही अंतिम पाठ सीखने को मिला कि प्रकृति सर्वोपरि है और हम मनुष्य इस जटिल जैविक चक्र का हिस्सा हैं। धीरे-धीरे मानव ने प्राकृतिक संसाधनों से अत्यधिक छेड़छाड़ और उनका दोहन करना शुरू कर दिया। औद्योगिक क्रांति के शुरूआआती  दिनों में किसी ने भी यह नहीं सोचा होगा कि जीवाश्म ईंधनों को जलाने से जलवायु पर ऐसा विनाशकारी और लगभग तात्कालिक प्रभाव पड़ेगा। झंझावत, चक्रवात, बाढ़, सूखे आदि जैसी विषम मौसमी घटनाओं के मामले इस धरती पर खतरनाक ढंग से बढ़ रहे हैं।

इस चिंता पर 1970 के दशक की शुरूआत से ही, वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण संबंधी यूएन सम्मेलन सहित विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विचार किया गया, जिसके फलस्वरूप यूएन पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की स्थापना हुई। वर्ष 1982 में यूएनईपी ने नैरोबी में "विशेष प्रकार का यूएनईपी सत्र : स्टॉकहोम के बाद के दस वर्ष" आयोजित किया। इसमें इस बात को माना गया कि अधिकांश वैश्विक पर्यावरण चुनौतियों का पर्याप्त ढंग से निराकरण नहीं हुआ तथा अम्ल वर्षा, वायु, मृदा एवं जल प्रदूषण, मरुस्थलीकरण एवं वन- कटाव, ओजोन परत के क्षीण होने सहित पर्यावरणीय खतरे बढ़ गए हैं। इसमें जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों की संभावना के प्रारम्भिक लक्षणों पर भी ध्यान दिया गया है।    

भारत ने जीएचजी उत्सर्जनों को कम करने और जलवाय परिवर्तन के परिणामों से निपटने के लिए एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संधि संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन कार्यढांचा कन्वेशन (यूएनएफसीसीसी) करवाने में अग्रणी एवं सृजनात्मक भूमिका निभाई है जिस पर वर्ष 1992 में रियो सम्मेलन में हस्ताक्षर किए गए थे

भारत ने जलवायु परिवर्तन कन्वेंशन में समान और साझा किंतु भिन्न-भिन्न उत्तरदायित्व, जो इसकाआधारभूत सिद्धांत है, को अंतः स्थापित करने में महत्वपूर्ण नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया। भारत को  इस मुद्दे पर विकासशील देशों का भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ। यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि | सीबीडीआर का सिद्धांत 'मानवता की साझा विरासत' की.

 

 

 

भावना से बना है, जिसमें वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं में विकसित और विकासशील देशों के योगदान में ऐतिहासिक अंतर को और इन समस्याओं के निराकरण में उनकी संबंधित आर्थिक और तकनीकी क्षमताओं में अंतर को स्वीकार किया गया है।

 

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने वर्ष 1988 में जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर-सरकारी पैनल का गठन किया। वर्ष 1990 की प्रथम आईपीसीसी आकलन रिपोर्ट में प्रकाशित वैज्ञानिक साक्ष्य के माध्यम से जलवायु परिवर्तन को एक चुनौती के तौर पर प्राथमिकता दी गई है और इसके परिणामों का सामना करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत को स्वीकारा गया है। यूएन ने मानव जाति के लिए उत्पन्न इस खतरे को समझा और सभी देशों से अनुरोध किया कि वे जलवायु आपदा को टालने के लिए सुधारात्मक उपायों के साथ एकजुट हों। भारत इस गंभीर आह्वान को सुनने और जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए अपने सकारात्मक इरादों को दर्शाते हु सर्वाधिक विश्वसनीय भागीदारों में से एक बनकर उभरा है।

 

भारत तबसे यूएनएफसीसीसी में किए गए अलग-अलग प्रयासों में एक आधार के रूप में समता, ऐतिहासिक उत्तरदायित्वों और प्रति-व्यक्ति उत्जर्सनों से संबंधित मुद्दों को निरंतर उठाता रहा है जिनसे विकासशील देशों को उनके कार्बन स्पेस को सुरक्षित करने में सहायता मिली है। इन दृढ़ रूखों के अनुपालन ने भारत को विकासशील देशों के बीच एक अग्रणी भूमिका प्रदान की है। भारत का यह दृढ़ मत रहा है कि गरीबी उन्मूलन और वहनीय विकास को बढ़ावा देने की प्रमुख चुनौतियों के आलोक में, विकासशील देशों को विकास के अवसर, संसाधन और समय का न्यायसंगत योगदान दिया जाए ।

भारत जलवायु परिवर्तन विषय पर हुई विभिन्न अंतरराष्ट्रीय बैठकों में सहयोगात्मक - नेतृत्व और स जलवायु विषयक कार्रवाई का केन्द्र रहा है।

बेसिक (ब्राजील, साउथ अफ्रीका, भारत और चीन) और एलएमडीसी ( समान विचाराधारा वाले विकासशील देश ) के संगठित समन्वित समूहों में भारत को विकसित देशों का सामना करने में एक विश्वसनीय और भरोसेमंद सहयोगी के रूप में देखा जाता है।

यहां तक कि प्रमुख विकसित देशों के गुट में भीभारत को सकारात्मक दृष्टिकोण, सृजनशील भावना और विश्वासपात्र देश के रूप में देखा जाता है

 

पिछले दो वर्षों में, भारत के माननीय प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के मार्गदर्शक नेतृत्व में भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा के संवर्धन संबंधी सहयोग में एक नया वैश्विक रूझान निर्धारित किया है। सीओपी 21 के दौरान, ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (जो कर्क और मकर रेखा के बीच स्थित सौर- समृद्ध देशों के बीच सहयोग का मंच है तथा सौर ऊर्जा के व्यापक प्रयोग की मांग करता है, और इस प्रकार वह स्वच्छ और कम मूल्य की ऊर्जा प्रदान करने के साथ-साथ वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जनों को कम करने में सहायता प्रदान करता है) तथा मिशन इनोवेशन (जिसका उद्देश्य ऊर्जा सुरक्षा के साथ आर्थिक विकास को बढ़ावा देने तथा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए प्रभावी, दीर्घकालिक वैश्विक कार्रवाई के एक अभिन्न भाग के रूप में व्यापक तौर पर फैली स्वच्छ ऊर्जा के अभिनव प्रयोगों में वृद्धि करना है) को शुरू करने के साथ, भारत ने विकासशील और विकसित विश्व दोनों के साथ सहयोग के संबंध में जलवायु परिवर्तन में अपने अभिमत की बेहतर स्वीकृति और यहां तक कि बेहतर नेतृत्व भी हासिल किया है।
माननीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री श्री अनिल माधव दवे इस बात पर जोर देते हैं कि पर्यावरण और विकास हमेशा साथ-साथ चल सकते हैं। वे इस धारणा का प्रचार-प्रसार करते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन का समाधान ऐसे जीवन-यापन में है जिसमें कम से कम कार्बन उत्सर्जन हो। सीओपी 21 और सीओपी- 22 के दौरान, भारत ने जो मंडप लगाए थे उनमें इन विषयों से संबंधित प्रदर्शनियां लगाई गयी जिन्हें विश्व द्वारा पूर्णतया सराहा गया।

भारत ने देश-स्तर पर जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए विविध कदम उठाए हैं। भारत ने विश्व को अपने महत्वाकांक्षी आईएनडीसी की सूचना दे दी है। भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में संवर्धन, वाहनीय प्रदूषण और ठोस अपशिष्ट को कम करने, ग्रामीणों को स्वच्छ एवं सस्ती ऊर्जा प्रदान करने तथा सुव्यवस्थित शहर बनाने के लक्ष्य वाली विभिन्न स्कीमें सफलतापूर्वक शुरू की हैं।

राजनीतिक नेताओं और जन-प्रतिनिधियों के दीर्घावधिक चिंतन के कर्तव्य के रुप में अपने देश के नागरिकों और विश्व के प्रति मुख्य भूमिका और उत्तरदायित्व हैं। उन्हें उत्कृष्ट अनुसंधानकर्ताओं और वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा की गई स्पष्ट वैज्ञानिक सलाह को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए बल्कि उसे गंभीरता पूर्वक सुनना चाहिए और तदनुसार कार्य करना चाहिए तथा जलवायु परितर्वन से उत्पन्न जोखिमों के विरूद्ध अपने लोगों की के उपाय करने चाहिए। भारत, संसाधनों की गंभीर कमी के बावजूद, ऊर्जा दक्षता में वृद्धि करके और नवीकरणीय ऊर्जा का अधिक प्रयोग करके महत्वाकांक्षी अनुकूलन और न्यूनीकरण कार्रवाइयां कर रहा है। इस प्रयोजन के लिए राष्ट्रीय निधियों का विशाल कोष आवंटित किया गया है।

'परंतु जलवायु परिवर्तन से संबंधित विश्व की राजनीति कुछ प्रमुख विकसित देशों, जिनके ऊपर जलवायु परिवर्तन से संबंधित भारी ऐतिहासिक दायित्व है, में सत्ता बदलाव के साथ महत्वपूर्ण रूप से परिवर्तित हो रही हैं। इससे नए वैश्विक जलवायु परिवर्तन करार की भावना को बनाए रखने के प्रति लगातार चिंता बनी हुई है। इससे जलवायु परिवर्तन के प्रबंधन में जोखिम की संभावनाएं बन सकती हैं। भारत के लिए यह युक्तिपूर्ण होगा कि वह उन सभी प्रयासों को निष्फल बना दे जो वैश्विक सहयोग और वैश्विक जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए चल रही महत्वपूर्ण कार्रवाइयों को कमजोर बनाते हों। जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक सहमति बनाना और उसे कायम रखना हाल में अपनाए गए पेरिस करार के प्रति बड़ा कार्य होगा जिससे हमारे इस ग्रह को संरक्षित करने में सफलता मिल सकेगी। भारत मानवता के कल्याण
हेतु इस भावना को बनाए रखेगा।'

पेरिस करार तैयार करने में हम प्रत्येक देश के योगदान और प्रत्येक नागरिक की महत्वपूर्ण भूमिका के साक्षी रहे। भारत ने स्वयं और विकासशील देशों के लिए विकास का स्थान सुनिश्चित किया है और पेरिस करार के तहत न्यूनीकरण और अनुकूलन कार्रवाईयों चुनने के अपने विशेषाधिकार को बनाए रखा है। वित्तीय प्रौद्योगिकीय और क्षमता निर्माण सहयोग के प्रावधान और अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से पारदर्शिता / रिपोर्टिंग आवश्यकताओं को पूरा सहयोग से भी इन प्रयासों को बढ़ावा मिलेगा। भारत ने दबाव के सामने बिना झुके और बिना कोई समझौता किए विकासशील विश्व का नेतृत्व किया है।

पेरिस करार में 'जलवायु कन्वेंशन के मुख्य • भाग के रूप में जलवायु न्याय, साम्यता, सीबीडीआर-आरसी के समावेश का भारत द्वारा घोषित सिद्धांत पेरिस करार के मूल और आत्मा का संचालन करने, उसे आकार देने और प्रभाव डालने की अपनी अग्रणी भूमिका में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्देशन में भारत के सशक्त नेतृत्व की विजय का प्रतीक है। भारत ने विकासशील विश्व के पूर्ण सहयोग से पेरिस करार को बहुतों के पक्ष में मोड़ दिया है।

विश्व को पेरिस करार के कार्यान्वयन और इसकी नियम पुस्तिका पर कार्य करते हुए पेरिस सहमति को आगे बढ़ाने से सी आशाएं हैं। विभिन्न देश इन मुद्दों पर सृजनात्मक और परिणामजनक वार्ताओं में लगे हैं। भारत भी राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान, अनुकूलन, उपशमन, वित्त, प्रौद्योगिकी अंतरण, कार्रवाई और सहायता के लिए पारदर्शी ढ़ांचे, वैश्विक रूप से जायजा लेने सहित पेरिस नियम पुस्तिका के लिए प्रक्रियाओं, दिशा- निर्देशों और तौर-तरीकों के क्रमिक विकास पर विचार-विमर्श में सकारात्मक रूप से लगा है।

 

स्रोत:- हिंदी पत्रिका पर्यवारण  

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Post By: Shivendra
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