अंतिम संस्कार-पद्धति बदलना भी सफाई

गंगा की इस अपार दुर्गति की शुरुआत ब्रिटिश शासन के ही दौर में शुरू हुई थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी क्षेत्रीय और प्रादेशिक निहित स्वार्थों के चलते गंगा क्षीण होती गई, अस्वस्थ होती रही। वर्तमान में मरणासन्न है। यह भारतीय बहुसंख्यक लोगों का सामाजिक व मानसिक चरित्र है कि हम दो सत्ताओं पर समस्त कर्तव्यों का दायित्व सौंप देते हैं और सिर्फ अधिकार को निजी क्षेत्र का विषय मानते हैं। प्रथम, कर्तव्य-पालन की भूमिका परम संप्रभुता संपन्न ईश्वर के ऊपर होती है और द्वितीय सरकार पर। गंगा यात्रा का संस्कृत, हिंदी या अन्य प्रादेशिक भाषाओं में सीधा अर्थ है अंतिम यात्रा। परंतु हिंदी में गंगा स्वयं गंगा यात्रा के पथ पर है। कभी उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग की कक्षा सात के भूगोल पुस्तक में नदी और नदी के तीन प्रमुख कार्य बच्चों को पढ़ाए जाते थे कटाव, बढ़ाव व निक्षेप। नदी पहाड़ से मिट्टी काट कर नीचे उतरती थी, अपने प्रवाह से प्रवाहित करती थी और सागर में निक्षेप करती थी। गंगा इस नदी चरित्र के व्यतिरेक नहीं रही। भारतीय सभ्यता के एक विशाल अंश ने गंगापारीय जीवन जीकर गांगेय संस्कृति का निर्माण किया।

संस्कृति धर्म का हिस्सा है या धर्म संस्कृति का, यह विवेचन करना कठिन काम है परंतु यह एक सर्वमान्य सत्य है कि संस्कृति या धर्म के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। ये दोनों तत्व मानव जीवन के लिए ‘धारिकाशक्ति’ हैं। धर्म कोई सरोवर का नाम नहीं है। धर्म एक प्रवाहित नदी जैसी है, जिसमें रूढ़ियों के पत्थर को काट कर प्रवाहित कर निक्षेप करने का गुण विद्यमान है।

इस मानक पर गंगा नदी या हिंदू को सामने रखकर विवेचन करने की आवश्यकता है। विवेचन के पूर्व इसकी आवश्यकता या वस्तु स्थिति का आकलन नितांत आवश्यक है। शताधिक कारणों से गंगा प्रदूषित हो रही है। विभिन्न बांधों के चलते आवश्यक प्रवाह की मात्रा की अनुपस्थिति, औद्योगिक व नगरीय अशोधित जल का अत्याधिक प्रवाह; विभिन्न कैनालों के माध्यम से गंगा जल का अन्य नदियों में जलांतरण, हिमालयी क्षेत्रों में लगातार वन व जंगलों का कटना और जड़ी-बूटी व औषधियों की तस्करी, तटवर्ती इलाकों का शहरीकरण, संवेगशून्य जनता द्वारा कूड़े-कचड़े का गंगा में निक्षेप, कुल मिलाकर भारत की समस्त नदियों विशेषकर गंगा साल भर खतरे के निशानों के बीच ही रह रही है।

गंगा की इस अपार दुर्गति की शुरुआत ब्रिटिश शासन के ही दौर में शुरू हुई थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी क्षेत्रीय और प्रादेशिक निहित स्वार्थों के चलते गंगा क्षीण होती गई, अस्वस्थ होती रही। वर्तमान में मरणासन्न है। यह भारतीय बहुसंख्यक लोगों का सामाजिक व मानसिक चरित्र है कि हम दो सत्ताओं पर समस्त कर्तव्यों का दायित्व सौंप देते हैं और सिर्फ अधिकार को निजी क्षेत्र का विषय मानते हैं। प्रथम, कर्तव्य-पालन की भूमिका परम संप्रभुता संपन्न ईश्वर के ऊपर होती है और द्वितीय सरकार पर। कर्त्तव्य में कभी आम सहभागिता नहीं होती है। शायद इसी का परिणाम है कि हमारे देश में सिंदूर के आकार पर सतीत्व का निरुपण होने लगता है।

ईश्वर या प्रकृति में हिम प्रवाह को वैश्विक उषमा वृद्धि के चलते पूर्ववत सघन और अधिक घनत्व सम्पन्न नहीं बना रहे हैं। पहाड़ों पर अत्याधिक भौतिक संसाधन और जन समावेश के चलते ये प्रवाह खंडित किए गए हैं। वनों के असामयिक निर्मलीकरण ने पर्वतों की जल-धारण की शक्ति को कम किया है, वहीं मानवीय या सरकारी कृपा से जल विद्युत के सपने दिखा कर मात्रातिरिक्त वनों का निर्माण, सिंचाई व अन्य जल स्रोतों के कैनालीकरण प्रवाह को क्षीण किया गया है। लगातार प्रदूषण से कई नदियां वर्तमान से अतीत की ओर जाने लगी हैं, जिनमें गंगा प्रमुख है।

गंगा नदी के शरीर में रोज साढ़े 18 हजार क्यूसेक जल की आवश्यकता है, जो गंगा को वर्ष में नौ महीने अनुपलब्ध है। परिणाम कटाव जारी है, बहाव और निक्षेप नहीं है। इन जटिल परिस्थितियों में नदी गर्भ का खनन यानी ड्रेजिंग व समतलीकरण तथा गहराई में वृद्धि नितांत आवश्यक है, जहां सरकारी भूमिका होनी चाहिए। देश की नवनिर्वाचित सरकार ने गंगा पर मंडरा रहे इस संकट को अत्यंत गंभीरता से लिया है। अतीत में भी इस तरह के प्रयास पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के समय और केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री के तौर पर राजनाथ सिंह के समय किए गए थे, परंतु सफलता या पूर्णता नहीं मिल पाई थी।

इन वास्तविकताओं के बीच एक गंभीर प्रश्न आता है कि जनसाधारण के बीच नदी संरक्षण और गंगा संरक्षण की क्या भूमिका होनी चाहिए? वैसे भी वाराणसी पुराकाल से भारतीय संस्कृति, शिक्षा व धर्म की राजधानी रही है, वहीं राजमुकुट में एक मोरपंख लगा है कि वाराणसी देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है। अतीत में भी भारत में कई सद्कार्यों का आरंभ वाराणसी से हुआ जिसे देश ने सराहा और अनुकरण करना शुरू किया।

गंगा की इस भीषण दुर्गति के क्षण में वाराणसी के निवासियों को अपनी सहभागिता के कर्तव्यों को सोचना चाहिए। चूंकि काशी को लेकर अति प्राचीन या सनातन मान्यता है कि काशी में शरीर छोड़ने पर मुक्ति मिल जाती है। यहां शव भी शिव है। शिव को जलाया नहीं जा सकता है। पंचभूत के समन्वय से बने शरीर का ही दाह होता है। इसका जलने से मतलब है- चिता चाहे लकड़ी की हो या विद्युत की। यह मुक्तिपथ में बाधक नहीं है। कथित कर्मकांडियों और शवदाह से जुड़े आजीविकाधारियों के चलते वाराणसी में विद्युत शवदाह सफल नहीं हो पा रहा है। वहीं प्राचीन शवदाह पद्धति के चलते गंगा में समागत चितावशेषों का प्रवाह जल को अत्यधिक प्रदूषित करता रहता है।

गंगामहापंडित चाणक्य ने अपने नीति शास्त्र में लिखा है कि सर्वनाश की स्थिति में विद्वान आधा छोड़ देता है और आधे से ही काम चलाता है क्योंकि सर्वनाश असहनीय होता है। इस नीति वाक्य के आलोक में देखें तो गंगा सर्वनाश की स्थिति में है और हमें शवदाह पद्धति और प्रवृत्ति में सामान्य परिवर्तन लाना होगा। धर्मानुशासन में अपराध नहीं होगा परंतु हो सकता है कि हम अनुकरण करें तो भारत की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या गंगा में चितावशेष प्रवाहित करने में संकोच करेगी और गंगा निर्मलीकरण की दिशा में, भले ही नल-नील भूमिका नहीं होगी परंतु सार्थक गिलहरी की भूमिका में होगी।

बीएचयू के पर्यावरण विज्ञान और तकनीकी केंद्र का कहना है-

1. बनारस में एक साल में 33,000 से ज्यादा दाह संस्कार
2. इसमें 16,000 टन जलावन लकड़ी का उपयोग
3. 700 टन ज्यादा राख अधजले कंकाल गंगा में विसर्जित प्रवाहित
4. शहर के बाहर 10 किमी. तक 3,250 शव और 6,000 से ज्यादा शव बहाए गए
5. बनारस के 14.3 लाख लोगों की रोजी-रोटी चलती है अंतिम संस्कार के धंधे से
6. तीनों की क्षमता 10.2 करोड़ लीटर जलशोधन की
7. बाकी 30 करोड़ लीटर पानी में गंगा में छोड़ दिया जाता है
8. शोधन की सहुलियतें न होने से 10,000 कल कारखाने अपना-अपना कूड़ा कचरा और दूषित पानी नगर पालिका के नालों में डालते हैं
9. इसमें हानिकारक धातु; जैसे शीशा, कैडमियम, क्रोमियम, तांबा आदि मिले होते हैं
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Post By: Shivendra
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