अगर बात वैश्विक जलवायु नीतियों की चल रही हो तो निश्चय ही नाटकीयता वह पहला शब्द नहीं है जो हमारे जेहन में आये। पेरिस जलवायु समझौते का नसीब एक शब्द से बयान हो तो वह ‘नाटकीय’ ही होगा। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने 1 जून को अहम फैसला लिया जिसके बाद अमेरिका समझौते का हिस्सा नहीं रहा। समझौते का उद्देश्य वैश्विक तापमान में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना है।
अपने चिर-परिचित अन्दाज में ट्रम्प ने अर्धसत्यों एवं सफेद झूठों की झड़ी लगा दी और पेरिस समझौते को “अमेरिकी नागरिकों के लिये अन्यायपूर्ण” बताया। पिछले साल के अपने राष्ट्रपति पद के अभियान के दौरान तो ट्रम्प ने जलवायु परिवर्तन को एक षडयंत्र कहकर खारिज कर दिया था। ट्रम्प के राष्ट्रपति चुने जाने के उपरान्त कई सलाहकारों ने उन्हें इस मुद्दे की बारीकियाँ समझाने की कोशिश की है। इसके बावजूद वाइट हाउस ने रोज गार्डन में दिये गए भाषण में ट्रम्प ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कुछ भी कहने से इनकार कर दिया। इसके उलट, ट्रम्प पचीस मिनट जमकर बरसे और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को अमेरिकी अर्थव्यवस्था के खिलाफ वैश्विक साजिश बताया।
ट्रम्प का मानना है कि जीवाश्म ईंधन अमेरिकी अर्थव्यवस्था को तीन से चार प्रतिशत तक की बढ़त हासिल करने में मदद कर सकते हैं। अतः मार्च में राष्ट्रपति ट्रम्प ने एक व्यापक अधिशासी आदेश पारित किया। “ऊर्जा स्वावलम्बन एवं वित्तीय विकास” नामक यह आदेश संघीय भूमि पर कोयला खनन को बढ़ावा देने के साथ-साथ ऊर्जा के क्षेत्र में मौजूद कानूनी मानकों को भी रद्द करता है। इसके अलावा यह आदेश स्वच्छ ऊर्जा योजनाओं के कार्यान्वयन को भी रोक देगा जिनका उद्देश्य अमेरिका ऊर्जा उत्पादन संस्थानों से कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है। यहाँ एकमात्र समस्या यह आती है कि ऊर्जा के नवीकरणीय साधनों के मुकाबले कोयला काफी कमजोर पड़ गया है। सौर ऊर्जा संयंत्र समय के साथ लगातार सस्ते होते जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के ही ऊर्जा विभाग की लॉरेंस बर्कले राष्ट्रीय प्रयोगशाला (बर्कले प्रयोगशाला) के मुताबिक, सौर वैद्युत सेल संयंत्रों की कीमत में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। रिहायशी संयंत्रों के लिये यह गिरावट पाँच प्रतिशत प्रतिवर्ष मापी गई है जबकि लघुतर गैर रिहायशी संयंत्रों के लिये सात प्रतिशत। इस रपट के लेखक गैलेन बारबोस की मानें तो 2015 लगातार छठा ऐसा वर्ष रहा जब अमेरिका में वितरित किये जा रहे सौर विद्युतीय सेलों की कीमत में महत्त्वपूर्ण गिरावट दर्ज की गई।
पिछले अमेरिकी प्रशासन ने भी नवीकरणीय स्रोतों के इस्तेमाल की वकालत की थी। 2016 में अमेरिका की विद्युत उत्पादन क्षमता में 27 गीगावाट का इजाफा हुआ जिसमें से 60 प्रतिशत से ज्यादा नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के माध्यम से हुआ। हालिया अध्ययनों की मानें तो अमेरिका में विद्युत वाहनों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।
यह भी साफ है कि अमेरिकी राष्ट्रपति को पेरिस समझौते की कोई समझ नहीं है। उनका मानना है कि यह समझौता अमेरिकियों पर “कठोर एवं अर्थव्यवस्था के लिये घातक” बोझ डाल रहा है जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। पेरिस समझौते की शर्तें दरअसल अमेरिका के हितों को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। मिसाल के तौर पर इस समझौते को ऐच्छिक एवं गैर दंडात्मक रखा गया ताकि पूर्व राष्ट्रपति ओबामा सेनेट में ले जाये बिना इसे पारित करा सकें। इस शर्त के परिणामस्वरूप ही राष्ट्रपति ट्रम्प पेरिस समझौते से बाहर निकल पाये। बात यहीं खत्म नहीं हो जाती।
इस समझौते के साझीदार अन्य 194 देशों ने अमेरिकी दबाव की वजह से ही अपने ग्रीनहाउस गैस के उत्पादन में कटौती करने की शपथ ली है। इसके बदले में अमेरिका ने वर्ष 2005 को आधार रेखा मानते हुए अपने उत्सर्जन में केवल 26 से 28 प्रतिशत की कटौती को स्वीकार किया है। अगर 1990 को आधार रेखा मानकर देखें तो वर्ष 2025 तक यह कटौती केवल 13 से 15 प्रतिशत तक सीमित रह जाएगी। इसकी तुलना में यूरोपीय राष्ट्रसंघ ने वर्ष 2030 तक अपने उत्सर्जन में 1990 के स्तर से 40 प्रतिशत नीचे तक की कटौती का लक्ष्य निर्धारित किया है।
राष्ट्रपति ट्रम्प ने अमेरिका को चीन और भारत के साथ एक ही खाँचे में डाल दिया है। उन्होंने ऐसा तब किया है जब वर्ष 1913 से लेकर 2013 के बीच अमेरिका के कुल उत्सर्जन चीन का दोगुना एवं भारत का लगभग 10 गुना है। विश्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन भी (16.4 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड) भारत (1.7 टन कार्बन डाइऑक्साइड) एवं चीन (7.6 टन कार्बन डाइऑक्साइड), दोनों के कुल उत्सर्जन से लगभग दोगुना है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के इस कटौती में सफल होने की सूरत में भी उत्सर्जन का आँकड़ा 12 मीट्रिक टन तक ही गिरेगा जो विश्व के सर्वाधिक प्रदूषणकारी राष्ट्रों के समकक्ष होगा। (चार्ट देखें)। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च नामक एक नॉन प्रॉफिट संस्था के नवरोज दुबाश का कहना है कि ऐसा प्रतीत होता है कि ट्रम्प को पेरिस समझौते की बिल्कुल भी समझ नहीं है। यह समझौता प्रतिस्पर्धा पर आधारित न होकर सहयोग पर आधारित है। वह आगे कहते हैं कि यह समझौता तभी फलीभूत हो सकता है जब सहभागी राष्ट्र अपने निर्धारित अंशदान से आगे बढ़कर मदद करें। उदाहरण के तौर पर चीन और भारत ऐसा कर भी रहे हैं। ताजा निवेश प्रवृत्तियों के मुताबिक, भारत के ताजा आँकड़े तैंतीस से पैंतीस प्रतिशत एवं चीन के साठ से पैंसठ प्रतिशत तक हैं।
फिर से वही गलती
हालांकि ट्रम्प के रवैए में विसंगतियाँ सुस्पष्ट हैं फिर भी कई लोगों का मानना है कि समझौते से अमेरिका का निकलना इतिहास की पुनरावृत्ति के अलावा और कुछ भी नहीं है। सन 2001 के क्योटो प्रोटोकॉल से निकलना ऐसा ही एक कदम था। अमेरिका के इस कदम के बाद क्योटो प्रोटोकॉल की प्रभावकारिता जाती रही क्योंकि केवल 55 प्रतिशत अनुसमर्थन के साथ जलवायु परिवर्तन के मामले में किसी प्रभावी कार्यवाही की सम्भावना बेमानी होगी। डर तो यह भी है कि कहीं पेरिस समझौते का भी ऐसा ही हश्र न हो।
सम्भव है कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के इस कदम से अन्य राष्ट्रों के पेरिस समझौते में विश्वास डगमगा जाये। अन्तरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार ऐसी कोई सम्भावना नहीं बनती जिसमें पेरिस समझौते का बलपूर्वक बहिष्कार किया जा सके किन्तु सहभागी राष्ट्र अमेरिका की देखा देखी करते हुए ऐसा जरूर कर सकते हैं। अमेरिका के समझौते से हटने को ‘परिस्थितियों में मूलभूत परिवर्तन’ बताकर यह सम्भव है।
अब जलवायु परिवर्तन का मुद्दा नेतृत्व की कमी से भी जूझ रहा है। क्योटो प्रोटोकॉल के कार्यकाल में यूरोपीय राष्ट्रसंघ ने जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित समझौतों में अग्रणी भूमिका निभाई थी। फिलहाल यूरोपीय राष्ट्रसंघ की अपनी उलझनें भी कम नहीं हैं। संघ के अन्दर अलग-अलग देश अलग ऊर्जा स्रोतों को प्राथमिकता देते हैं। हाल के वर्षों में चीन ने विभिन्न वैश्विक मंचों से जाहिर किया है कि वह जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित प्रयासों में नेतृत्व करने का इच्छुक है। चीन अपनी नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता में लगातार वृद्धि करता आ रहा है। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में चीन की कोई प्रमाणित उपलब्धि नजर नहीं आती। इस स्थिति के एक व्यावहारिक समाधान के रूप में चीन एवं यूरोपीय संघ के बीच में गठबन्धन को देखा जा रहा है।
इस गठबन्धन के सामने पहली चुनौती अमेरिका के विरुद्ध कदम उठाना होगा ताकि अन्य राष्ट्रों को ऐसा करने से रोका जा सके। चीन और यूरोपीय संघ साथ मिलकर वियना करार के अन्तर्गत अमेरिका के खिलाफ कदम उठा सकते हैं। हालांकि अमेरिका वीसीएलटी (वियना कन्वेंशन ऑन लॉ ऑफ ट्रीटीज) का हिस्सा नहीं है परन्तु इस करार के अन्तर्गत ऐसे प्रावधान हैं जो प्रचलित अन्तरराष्ट्रीय क्रियाकलापों को अभिप्रमाणित करते हैं। विश्व के एक बड़े हिस्से द्वारा समर्थित कोई भी ऐसा प्रत्युपाय अमेरिका अर्थव्यवस्था के लिये विनाशकारी साबित हो सकता है क्योंकि इस अर्थव्यवस्था के कई खण्ड संवेदनशील वैश्विक आपूर्ति कड़ियों पर आधारित हैं।
पेरिस समझौते की शर्तों के अन्तर्गत तीन साल की लॉकइन की अवधि निर्धारित की गई है जिस दौरान साझीदार देश इस समझौते से बाहर नहीं निकल सकते। यह अवधि समझौते को स्वीकार करने के साथ ही शुरू हो जाती है। कोई भी सहभागी राष्ट्र एक वर्ष की अधिसूचना के उपरान्त ही इस समझौते से निकल सकता है। बताते चलें कि यह अधिसूचना संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को सौंपी जानी होती है। अतः अमेरिका 4 नवम्बर 2020 के पहले चाहकर भी इस समझौते से अलग नहीं हो सकता है। मजे की बात है कि अमेरिका में अगले राष्ट्रपति चुनाव भी इसी दौरान होने हैं। ऐसा होने तक अमेरिका अपने एनडीसी (अनुच्छेद 4.2) को बनाए रखने एवं नियमित रूप से अद्यतन करने को बाध्य है। अनुच्छेद 4.2 की अगली माँग के अनुसार अमेरिका को घरेलू परिपालन भी सुनिश्चित करना होगा। अनुच्छेद 13.7 के अनुसार अमेरिका अपने उत्सर्जन एवं एनडीसी के परिपालन में हो रही प्रगति के बारे में नियमित सूचना देने को भी बाध्य है। चूँकि अमेरिका अब भी इस समझौते का हिस्सा है, ऐसे में इनकार नहीं किया जा सकता कि वह बातचीत में व्यवधान पैदा करने की कोशिश नहीं करेगा। भविष्य में अमेरिका से मोल-तोल में अन्य राष्ट्रों के अहम योगदान होना तय है। यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन फॉर क्लाइमेट चेंज के सहभागी कुल 197 राष्ट्रों में से 148 अब तक इस समझौते को अभिप्रमाणित कर चुके हैं और पिछले वर्ष की 4 नवम्बर से ही यह कार्यान्वित किया जा चुका है।
क्योटो प्रोटोकॉल के मुकाबले वर्तमान परिदृश्य बेहतर प्रतीत होता है क्योंकि पेरिस समझौते को व्यापक घरेलू समर्थन प्राप्त है। 2001 के विपरीत अमेरिका जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा - जिसमें व्यापार घराने शामिल हैं- इस समझौते के पक्ष में खड़ा नजर आ रहा है। मजेदार बात यह है कि ट्रम्प प्रशासन का सबसे कड़ा विरोध अन्तरराष्ट्रीय कूटनीतिज्ञों द्वारा न होकर आम अमेरिका जनता द्वारा होना निश्चित प्रतीत होता है। ट्रम्प का यह फैसला अमेरिका में कितना अलोकप्रिय है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 12 राज्यों के राज्यपालों ने पोर्टो रीको के साथ मिलकर एक द्विपक्षीय जलवायु गठबन्धन का निर्माण किया है जो ट्रम्प सरकार पर जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में कड़े कदम उठाने हेतु दबाव बना रहा है।
अमेरिकी सरकार द्वारा पेरिस समझौते की उपेक्षा के बावजूद घरेलू दबाव अमेरिकी सरकार को ऐसे नियामक फैसले लेने पर मजबूर कर सकता है जो अमेरिका की स्वयं की एनडीसी (नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूटर्स) से ज्यादा कठोर हों। और हाँ, ऐसा पेरिस समझौते से बाहर रहकर भी किया जा सकता है। फिलहाल तो अमेरिकी सरकार के सामने एक ऐतिहासिक मुकदमा मुँह बाए खड़ा है। इस मुकदमे में मुद्दई 9 से 20 वर्ष के बीच की उम्र के 21 युवा हैं जिनका आरोप है कि अमेरिकी सरकार जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न हुए खतरों से धरती की रक्षा करने में नाकाम साबित हुई है। इन युवाओं का मानना है कि जीवाश्म ईंधनों के प्रचार एवं ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन से उत्पन्न समस्याओं की अनदेखी से ऐसी स्थिति आ गई है जिसमें जलवायु “खतरनाक रूप से अस्थिर हो गई है।” यह अस्थिरता भावी पीढ़ियों के लिये घातक साबित हो सकती है, ऐसी आशंका इस मुकदमे में प्रकट की गई है।
मुकदमे का मूल लक्ष्य सरकार को एक ऐसी आरोग्य योजना बनाने के लिये बाध्य करना है जिसका लक्ष्य वर्ष 2100 तक वातावरण में कार्बन कणों की सान्द्रता को वर्तमान 400 भाग प्रति मिलियन से घटाकर 350 भाग प्रति मिलियन करना हो। पिछले वर्ष के नवम्बर माह में ओरेगन की जिला न्यायाधीश ऐन आईकन ने इस मुकदमे को खारिज करने हेतु अमेरिकी सरकार एवं जीवाश्म ईंधन उद्योगों द्वारा दायर प्रतिवाद पर कड़ा रुख अपनाया। अपने 54 पृष्ठों के लिखित फैसले में न्यायाधीश ने युवाओं का पक्ष लेते हुए कहा, “हालांकि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने कई अन्तरराष्ट्रीय संकल्प लिये हैं जो जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हैं किन्तु इस मुकदमे में उल्लिखित राहतों को प्रदान करना उन संकल्पों के पूर्णतया अनुरूप होगा। अन्य राष्ट्रों से अपने कार्बन उत्सर्जन की कटौती में कमी लाने एवं एक न्यायिक आदेश निर्गत कर सरकारी तंत्र को ऐसा करने का निर्देश देने में कोई विरोधाभास नहीं है।”
यहाँ यह भी जान लें कि ट्रम्प प्रशासन ने पेरिस समझौते पर अपना फैसला सुनाने से हफ्तों पहले एक त्वरित अपील दायर करने की विफल कोशिश की थी। इस प्रकार के घरेलू दबाव से ही पेरिस समझौते की शर्तों का अनुपालन सम्भव है। एक सम्भावना तो यह भी बताई जा रही है कि ट्रम्प प्रशासन के पेरिस समझौते से आधिकारिक रूप से बाहर रहने के बावजूद आम जनता एवं उद्योग घराने अपने स्वयं के स्तर से शर्तों का परिपालन करें ताकि जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से बचा जा सके।
कसौटी पर खरा नहीं उतरता ट्रम्प का दावा अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का दावा है कि पेरिस समझौते से अमेरिका के लोगों के सामने नौकरी का संकट खड़ा हो जाएगा। हालांकि वर्तमान और भविष्य के अनुमान ट्रम्प के दावों को सही नहीं ठहराते सहूलियत का समझौता जलवायु के मुद्दे पर त्वरित कार्यवाही के प्रति दो दशकों से लुंज-पुंज रवैया अपनाने के बावजूद इस मुद्दे पर अमेरिका की सहभागिता सुनिश्चित नहीं हो पाई है। इसके कई उदाहरण हैं। दिसम्बर 1997। पेरिस में कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज की तीसरी बैठक के दौरान क्योटो प्रोटोकॉल को अंगीकार किया गया। यह बैठक जापान के क्योटो शहर में यूएनएफसीसीसी (यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज) के तत्वावधान में संचालित हुई नवम्बर 1998। क्योटो प्रोटोकॉल के परिपालन हेतु एक एक्शन प्लान बनाया गया। अमेरिका दबाव में आकर 2012 तक कुल जमा केवल पाँच प्रतिशत की कटौती का लक्ष्य (1990 को आधार रेखा मानते हुए) निर्धारित किया गया। हालांकि, भारत एवं चीन इस समझौते से अपने उत्सर्जनों में बिना कोई कटौती किये बच निकलने में सफल रहे जुलाई 2001। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश क्योटो समझौते से बाहर हो गए। इसका कारण उन्होंने उत्सर्जन कटौती लक्ष्य निर्धारण से भारत एवं चीन को अलग रखना बताया। फरवरी 2005। क्योटो प्रोटोकॉल लागू हो तो गया परन्तु इसमें विकसित देशों के लिये काफी कमजोर एवं महत्वाकांक्षाहीन लक्ष्य निर्धारित किये गए थे। दिसम्बर 2007। बाली रोडमैप के एक द्विवर्षीय समझौते को अपनाया गया। इसके पीछे सोच यह थी कि वर्ष 2009 में कोपेनहेगन बैठक में इसे अमलीजामा पहनाया जाएगा। इस समझौते में हिस्सेदार होने के बावजूद अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकॉल के अनुसमर्थन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई दिसम्बर 2009। कोपेनहोगेन समझौते का मसौदा तैयार करने में अमेरिका ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई पर यह फलीभूत नहीं हो सका। यह मसौदा भागीदार देशों को क्योटो प्रोटोकॉल के उत्तराधिकारी के तौर पर वचनबद्ध करा पाने में असफल रहा जिसका नतीजा यह हुआ कि यह समझौता क्योटो की बनिस्पत और ज्यादा कमजोर हो गया। यहाँ यह बताते चलें कि क्योटो समझौते का कार्यकाल 2012 तक ही था नवम्बर 2010। कैनकुन की सीओपी (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) बैठक के दौरान अमेरिका ने 2020 तक 2005 के मुकाबले अपने उत्सर्जन में 17 प्रतिशत कटौती की प्रतिबद्धता जताई। कटौती को 2025 तक तीस प्रतिशत, 2030 तक 42 प्रतिशत एवं 2050 तक 83 प्रतिशत तक बढ़ाने का संकल्प था। यह किसी भी विकसित राष्ट्र के लिये न्यूनतम उत्सर्जन होता 26 नवम्बर से 8 दिसम्बर 2012, दोहा। दोहा शिखर सम्मेलन मसीन क्योटो प्रोटोकॉल का विस्तारण। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने स्वयं को इससे अलग रखा दिसम्बर 2013। वारसॉ शिखर सम्मेलन में राष्ट्रों ने मिलकर एक राष्ट्रीय स्तर की जलवायु कार्ययोजना एनडीसी बनाई जिसके मुताबिक जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित फैसले लिये जाते मार्च 31, 2015। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने अपनी एनडीसी पेश की जिसका लक्ष्य 2005 को आधार मानकर उत्सर्जन में 26 से 28 प्रतिशत की कटौती थी जो कैनकुन समझौते से भी कम था। दिसम्बर 2015।12 दिसम्बर 2015 को पेरिस समझौता अपनाया गया। इसका उद्देश्य भूमंडलीय तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना और अन्ततः 1.5 डिग्री तक लाना था। सितम्बर 3, 2016। राष्ट्रपति ओबामा के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने पेरिस समझौते का अनुसमर्थन किया< मई 1, 2017। अपने संघीय बजट में अमेरिका हरित जलवायु कोष को 3 बिलियन डॉलर देने के अपने वायदे से मुकर गया।<br> जून 2, 2017। राष्ट्रपति ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका ने स्वयं को पेरिस समझौते से अलग कर लिया और इसका ठीकरा चीन एवं भारत के सिर पर फोड़ा। |
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