आंकड़ों के आईने में पानी

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भारत के अनेक इलाकों का जल संकट, यदि एक ओर समाज की तकलीफों का प्रतिबिम्ब है तो दूसरी ओर सरकारी प्रयासों की दिशा एवं दशा की हकीकत को बयान करता है। यह परिदृश्य, पानी को लेकर समाज की चिंता करने वाले लोगों के लिए चुनौतियों से निबटने का अवसर भी है, पर समाज के लिए इन आंकड़ों का बहुत उपयोग नहीं है। समाज के लिए आंकड़ों के स्थान पर हकीकत का महत्व अधिक है। समाज अपने आसपास देखकर समस्या का अनुमान लगाता है। उपलब्धता की कमी को कमी और पर्याप्तता को भरपूर पानी कहता है। पानी, समाज और सरकार की कहानी के इस पायदान पर आंकड़ों की दृष्टि से पानी की बात करना उचित होगा क्योंकि आधुनिक युग में पानी के वजूद को कई तरीकों से बयान किया जाता है। सरकार सहित कुछ लोग, इसके वजूद की सच्चाई को आंकड़ों के माध्यम से भी कहते हैं। उनकी मान्यता है कि पानी के वजूद की सारी कहानी, उसकी सारी सच्चाई, पानी के भरोसेमंद आंकड़ों की मदद से बयान की जा सकती है।

इन आंकड़ों की प्रस्तुति को देखकर, अक्सर ऐसा लगता है जैसे सच में, सब कुछ कहा जा रहा है। लगता है, मानो गागर में सागर समाया हो। यह आंकड़ों की बेजोड़ ताकत है। आंकड़े बताते हैं कि धरती पर पानी की कुल मात्रा लगभग 13,100 लाख क्यूबिक किलोमीटर है। इस पानी की लगभग 97 प्रतिशत मात्रा समुद्र में, खारे पानी के रूप में और लगभग तीन प्रतिशत मात्रा अर्थात 390 लाख क्यूबिक किलोमीटर साफ या स्वच्छ पानी के रूप में धरती पर अनेक रूपों में मौजूद है।

यह साफ पानी, धरती पर किसी खास जगह, किसी खास देश या किसी खास रूप में हर जगह एक जैसी मात्रा में नहीं मिलता। वह बर्फ की नदियों, स्थाई हिम रेखा के ऊपर के इलाकों में बर्फ की चादर के रूप में, उत्तर और दक्षिण के ध्रुवीय प्रदेशों में, बारहमासी नदियों तथा झीलों और जमीन के नीचे मौजूद भूमिगत जल भंडरों में मिलता है। अनुमान है कि धरती पर मौजूद साफ पानी का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा धरती के ऊपर और लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा धरती के नीचे विभिन्न गहराइयों में मिलता है।

आंकड़े बताते हैं कि धरती की सतह के ऊपर तथा भूमिगत जल के रूप में लगभग 390 लाख क्यूबिक किलोमीटर पानी मिलता है। इस पानी का लगभग 75 प्रतिशत भाग अर्थात 292.5 लाख क्यूबिक किलोमीटर पानी बर्फ की ग्लेशियरों, नदियों, तालाबों और झीलों में मिलता है। नदियों, तालाबों और झीलों में मिलने वाले पानी की कुल अनुमानित मात्रा लगभग 1.3 लाख क्यूबिक किलोमीटर हैं धरती के वातावरण (वायुमंडल) में भाप के रूप में मौजूद पानी की मात्रा बहुत ही कम है।

यह मात्रा धरती पर मिलने वाले कुल पानी का लगभग 0.035 प्रतिशत या लगभग 0.1365 लाख क्यूबिक किलोमीटर है। आंकड़े बताते हैं कि जमीन के नीचे मिलने वाला पानी लगभग 97.5 लाख क्यूबिक किलोमीटर है। इस अनुमानित मात्रा में से लगभग 700 मीटर की गहराई तक मिलने वाले भूमिगत जल की मात्रा लगभग 42.9 लाख क्यूबिक किलोमीटर और 700 से 3800 मीटर की गहराई तक मिलने वाले पानी की मात्रा लगभग 54.6 लाख क्यूबिक किलोमीटर है।

इन आंकड़ों से पता चलता है कि जमीन की सतह पर बहने वाले पानी की तुलना में भूमिगत जल की मात्रा बहुत अधिक है। इन आंकड़ों को सरकार का अमला तो बखूबी समझता है पर आम आदमी के लिए वे किसी तिलिस्म से कम नहीं हैं।

पानी की समझ रखने वाले विद्वानों ने सभी महाद्वीपों की नदियों में साल भर बहने वले पानी की मात्रा का हिसाब लगाया है। इस हिसाब से पता चलता है कि दुनिया भर की नदियों में साल भर में लगभग 35,600 लाख हेक्टेयर मीटर पानी बहता हैं नदियों में बहने वाले पानी और महाद्वीपों के रकबे (1,34,430 लाख हेक्टेयर) के बीच हिसाब लगाने से पता चलता है कि नदियों में बहने वाले पानी की औसत गहराई लगभग 0.26 मीटर या 26 सेंटीमीटर है।

भारत में सतही एवं भूमिगत जल भंडारों की स्थिति निम्नानुसार है-

क्रमांक

सरल घटक

मात्रा लाख हे.मी. में

1.

देश की धरती पर हिमपात जोड़कर बरसने वाले पानी की मात्रा

4000

2.

सतही जल की संभावित सकल उपलब्धता

1,963

3.

उपयोग में आने वाला संभावित सतही जल

690

4.

संभावित भूमिगत जल भंडार

432

5.

उपयोग में आ सकने वाला संभावित भूमिगत जल

396

6.

उपयोग में आने वाला संभावित सकल जल               

1,086

7.

शेष सतही जल (1963-690=1273)

1,273

जलनीति के अनुसार इस पानी का सदुपयोग नहीं हो रहा है। यही 1273 लाख हे.मी. पानी जल संकट के निराकरण का आधार बन सकता है।

 



टिप - विभिन्न संस्थाओं द्वारा सतही एवं भूमिगत जल भंडारों से संबंधित आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं। सामान्यतः इन आंकड़ों में थोड़ा बहुत अंतर होता है। आंकड़ों की सच्चाई को आंकने का कोई तरीका नहीं है। उपर्युक्त आंकड़े भारत सरकार द्वारा जारी हैं अतः उन्हें यथावत स्वीकार किया जा सकता है।

एक अनुमान के अनुसार भारतीय प्रायद्वीप की नदियों में साल भर में बहने वाले पानी की औसत गहराई 51 सेंटीमीटर है। भारत की नदियों में बहने वाला यह औसत बहाव पूरे यूरोप (0.26 मीटर), एशिया (0.17 मीटर), उत्तर अमेरिका (0.13 मीटर), दक्षिण अमेरिका (0.45 मीटर), अफ्रीका (0.20 मीटर) और आस्ट्रेलिया महाद्वीप (0.08 मीटर) की नदियों में साल भर में बहने वाले पानी के बहाव की औसत गहराई से अधिक है।

देश के भूजल भंडारों में संचित पानी की कुल मात्रा 396 लाख हेक्टेयर मीटर है। भूजल के भंडारों में एकत्रित होने वाला पानी और जमीन के रकबे के आंकड़ों के सह-संबंधों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत का औसत भूजल भंडार लगभग 11 सेंटीमीटर है। सतही और भूजल के औसत आंकड़ों का योग करने से भारत के इकाई क्षेत्र में औसतन हर साल लगभग 62 सेंटीमीटर पानी उपलब्ध है। ये आंकड़े सिद्ध करते हैं कि संसार के किसी भी देश की तुलना में भारत में सबसे ज्यादा पानी मौजूद है।

नदियों में बहने वाले सतही पानी और जमीन के नीचे छिपे भूजल भंडार के उपर्युक्त सरकारी आंकड़ों को देखकर किसी भी व्यक्ति को लग सकता है कि पानी के मामले में भारत बहुत समृद्ध देश है। आंकड़ों पर आधारित समृद्धि और देश के अनेक हिस्सों में लगातार बढ़ रही पानी की किल्लत की हकीकत, बहुत से लोगों की समझ में नहीं आती।

आम आदमी को यह हकीकत विरोधाभासी लगती है। यह विरोधाभास आंकड़ों का दोष नहीं है। यह आंकड़ों की प्रस्तुति के तरीके का भी दोष नहीं है। कुछ लोग, जो आंकड़ों की भाषा और उनकी सीमा रेखा को ठीक से नहीं समझते, उनके लिए आंकड़ों की कहानी एक अबूझ पहेली लगती है।

इसी तरह पानी की किल्लत भोगने वाले लोगों की चिंता, पीड़ा हरने वाले जन प्रतिनिधियों, पानी का इंतजाम करने वाले निकायों, प्रशासनिक अधिकारियों, अर्थशास्त्रियों, मीडिया कर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी यह अबूझ पहेली पूरी तरह समझ में नहीं आती। उन्हें भी इस पहेली को समझने या समझाने या आंकड़ों के आधार पर उसका हल निकालने में कठिनाई का अनुभव होता है। इसलिए पहले आंकड़ों की समझ बना लें फिर आगे बात करेंगे।

आंकड़े, सांख्यिकी विज्ञान की देन हैं। इस विज्ञान की मदद से राजस्व, आबादी, जमीन-खेतीबाड़ी जैसे बहुत से विषयों से संबंधित जानकारियों और तथ्यों को वर्गीकृत कर अनेक रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। जब-जब इन जानकारियों और तथ्यों को संख्या के रूप में प्रदर्शित किया जाता है, तब वे आंकड़े कहलाते हैं।

आम आदमी के लिए आंकड़े मात्र एक संख्या हैं जो किसी विषय की जानकारी के सागर को गागर के रूप में, पेश करती हैं। सांख्यिकी-विज्ञान का काम एकत्रित आंकड़ों को प्रोसेस करना है। प्रोसेस किए आंकड़े सामान्यतः फौरी फैसले करने या नतीजों पर पहुंचने में सहायक होते हैं। आज के युग में आंकड़ों का विश्लेषण और उनकी विभिन्न स्वरूपों में प्रस्तुति, अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक हो गई है और उसका हर क्षेत्र में दखल और उपयोग बढ़ रहा है।

सर्वेक्षकों द्वारा विभिन्न विधियों से आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं। बातचीत द्वारा सीधे-सीधे प्राप्त किए जाने वाले आंकड़ों को प्राथमिक आंकड़े कहते हैं। पहले से इकट्ठे किए एवं विश्लेषित आंकड़ों को द्वितीयक आंकड़े कहते हैं। प्राथमिक आंकड़ों को काम में लेने के पहले उनको संपादित किया जाता है। संपादन का उद्देश्य, आंकड़ों की पूर्णता, संबद्धता, सत्यता एवं एकरसता की परख करना होता है।

आंकड़ों की समझ की सीमा होती है। उनकी मदद से किसी तथ्य की गुणवत्ता को जानना या समझना संभव नहीं है। इसी तरह, विश्लेषित आंकड़ों की मदद से किसी एक सूचना या तथ्य के बारे में सही-सही पूरी जानकारी प्राप्त करना संभव नहीं होता; पर उन आंकड़ों की सहायता से हो रहे बदलाव को किसी हद तक समझा जा सकता है। इसी तरह सांख्यिकी के आंकड़ों या उन पर आधारित निष्कर्षों को किसी एक खास परिस्थिति या स्थिति विशेष के बारे में हकीकत बयान करने में उपयोग में नहीं लाया जा सकता, पर औसत स्थिति का वर्णन करने में वे बहुत उपयोगी हैं।

उदाहरण के लिए जैसे नदी की औसत गहराई दो मीटर है, पर हर स्थान पर गहराई दो मीटर होना आवश्यक नहीं है। दूसरे शब्दों में आंकड़े सच बोलते है, आंकड़े झूठ बोलते हैं और कभी-कभी सच और झूठ दोनों बोलते हैं। यही आंकड़ों का अप्रिय यथार्थ है और इसी यथार्थ को ध्यान में रखकर उनका उपयोग करना चाहिए।

पानी के बारे में दी गई सांख्यिकी जानकारी (आंकड़ों) को उपर्युक्त वर्णित सच्चाइयों और सीमाओं को ध्यान में रखकर समझना होगा। इस तथ्य को निम्नलिखित उदाहरणों की मदद से समझा जा सकता है-

भारत की धरती पर पानी की मात्रा 4,000 लाख हेक्टेयर मीटर आंकी गई है। आंकड़ों में बताया गया है कि पूरे देश में सतही जल की सकल सालाना उपलब्धता 1,953 लाख हे.मी. है और उपयोग में आ सकने वाले संभावित सतही जल की मात्रा 690 लाख हे.मी. तथा भूजल भंडार की मात्रा 396 लाख हे.मी. है। ये आंकड़े औसत स्थिति को ही दर्शाते हैं। इसलिए यह कहना संभव नहीं है कि पूरे देश में या देश के किसी हिस्से में सतही जल या भूजल की उपलब्धता एक जैसी होगी। इसी तरह, यह भी नहीं कहा सकता कि आंकड़ों के माध्यम से बताया पानी साल के किस-किस खास माह में, किस-किस इलाके में मिलेगा।

आंकड़े बताते हैं कि भारत प्रायद्वीप की नदियों में सलाना औसत बहाव की गहराई 51 सेंटीमीटर है, पर इस कथन का यह अर्थ लगाना गलत होगा कि भारतवर्ष की प्रत्येक नदी की पूरी लंबाई में यह मात्रा समान रूप से हर जगह, पूरे साल या हर मौसम में पाई जाएगी। यही बात देश में भूजल के भंडारों में संचित पानी की मात्रा पर भी लागू होती है। इन आंकड़ों की मदद से यह नहीं कहा जा सकता कि पूरे देश में भूजल की उपलब्धता सब जगह एक जैसी है। इसी तरह यह भी नहीं कहा सकता कि जमीन के नीचे का यह पानी किस गहराई पर किस खास माह में कितना-कितना मिलेगा।

सरकार द्वारा अनेक बार प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता को विभिन्न वर्षों के आंकड़ों के माध्यम से पेश किया जाता है। इस विधि से दर्शाए आंकड़ों को देखने से प्रतीत होता है कि देश में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता साल दर साल तेजी से घट रही है। चूंकि यह निष्कर्ष पानी की सकल मात्रा में आबादी का भाग देकर प्राप्त किया गया है, इसलिए आबादी के बढ़ने के कारण इसी तरह का परिणाम प्राप्त होगा।

परंतु यदि उपलब्धता जानने का तरीका बदल दिया जाए और किसी देश के कुल रकबे में उपलब्ध पानी की सकल मात्रा का भाग देकर प्रति इकाई क्षेत्र में पानी की उपलब्धता के आंकड़े निकाले जाएं तो पता चलेगा कि हजारों सालों से पानी की उपलब्धता में मोटे तौर पर कोई बदलाव नहीं आया है।

सांख्यिकी के नजरिए से दोनों परिणाम सही हैं पर पानी की घटती मात्रा को इंगित करने वाला पहला परिणाम व्यक्ति, समाज और किसी हद तक सरकार को डराता है; तो दूसरा परिणाम व्यक्ति, समाज और सरकार को विदेह दृष्टि देता है। जमीनी हकीकत अलग मामला है जो समाज और सरकार के प्रयासों की दिशा एवं दशा पर निर्भर होता है।

आंकड़े कुछ भी कहें, भारत के अनेक इलाकों का जल संकट, यदि एक ओर समाज की तकलीफों का प्रतिबिम्ब है तो दूसरी ओर सरकारी प्रयासों की दिशा एवं दशा की हकीकत को बयान करता है। यह परिदृश्य, पानी को लेकर समाज की चिंता करने वाले लोगों के लिए चुनौतियों से निबटने का अवसर भी है, पर समाज के लिए इन आंकड़ों का बहुत उपयोग नहीं है। समाज के लिए आंकड़ों के स्थान पर हकीकत का महत्व अधिक है।

समाज अपने आसपास देखकर समस्या का अनुमान लगाता है। उपलब्धता की कमी को कमी और पर्याप्तता को भरपूर पानी कहता है। भागीदारी के अभाव में सोचता है, “बाजार से गुजरा हूं, खरीददार नहीं हूं।” सरकार, आंकड़ों की जुबानी बात कहती है और कई बार उनके मायाजाल में उलझ जाती है। यही मायाजाल, समाज और सरकार के बीच की अपारदर्शी परत है। इस गुमराह करने वाली अपारदर्शी परत को हटाकर नजरिए के अंतर को मिटाया जा सकता है।

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