एक महान संत ने एक बार मुझसे कहा था कि वे गौ हत्या का विरोध मात्र धर्म के आधार पर नहीं बल्कि वैज्ञानिक आधार पर भी करते हैं। उन्होंने कहा था कि भारत विश्व का सबसे बड़ा गौमांस निर्यात देश है। उन्होंने यह भी बताया कि हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारी भूमि की उर्वरता बनाए रखने के केवल दो स्रोत हैं, वृक्ष तथा पशुधन। वृक्षों से झड़ी पत्तियाँ सड़कर और पशुधन का मल-मूत्र मिलकर भारत भूमि की स्वाभाविक उर्वरता की क्षमता को बनाए रखते हैं। यदि हमारे जंगल कटते जाएँगे और पशुधन कम होता जाएगा तो भूमि को प्रकृति से मिलने वाली उर्वरता उसको नहीं मिलेगी। उनके उस तर्क से मैं पूर्णतः सहमत हूं।
बचपन में मैं घर के सामने वाले छोटे से कमरे में अकेला सोया करता था। उस कमरे के सामने की खिड़की रात को भी खुली रखता था, जिससे हवा आ सके। सुबह सैकड़ों मच्छर उस कमरे में प्रवेश करके मेरी मच्छरदानी के इर्द-गिर्द मंडराते रहते थे। मैं सूर्योदय होते ही दरवाजे खोलता था तो दर्जनों गोरैया तत्काल मेरे कमरे में आकर मच्छरों का भक्षण करती थी। मुझे उन गोरैया से बेहद प्यार हो गया था और वे मेरे दिनचर्या का अंग बन गई थीं। जब भी अब उस घर में जाता हूँ तो दुर्भाग्य से एक भी गोरैया नजर नहीं आती। वैसे ही गाँव और शहरों में भी कौंवे सुबह-सुबह कांव-कांव करके सबको उठाते थे किन्तु अब वह ध्वनि भी सुनाई नहीं देती। गाँव में जब कोई जानवर मर जाता था तो खेत में आसमान की उच्चतम ऊँचाइयों से उसे देखकर न जाने कितने गिद्ध आ जाते थे और स्वच्छता अभियान में अपना योगदान देकर वापस चले जाते थे। अब गिद्ध विलुप्त होती हुई प्रजाति में आ गए हैं। हमने जानबूझकर प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ किया है उसके गम्भीर परिणाम हमें भोगने पड़ रहे हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि हम आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बहुत ही कठिन समय छोड़कर जा रहे हैं।
लोग इस परिवर्तन को ग्लोबल वाॅर्मिंग (वैश्विक उष्णता) भी कहते हैं। 1950 के दशक के बाद इसे और अधिक महसूस किया जा रहा है। वातावरण में निरन्तर कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा सीमा से कई गुना अधिक बढ़ गई है। परमाणु ऊर्जा और गैर पारम्परिक ऊर्जा के स्रोत जैसे बायो गैस और वनस्पति से बनाए जाने वाली गैस का उपयोग बढ़ाना जरूरी है। उपलब्ध ऊर्जा का संरक्षण भी एक अच्छा कदम होगा। मेरे विचार से तो जंगल से पेड़ों की कटाई पूर्णतया बंद कर देनी चाहिए। घरों और अन्य निर्माण कार्यों में लकड़ी का उपयोग कम-से-कम होना चाहिए। वर्तमान अर्थव्यवस्था मिम्न कार्बन में परिणित करना होगा।
पर्यावरण संसार के सभी जीवों को अनवरत स्पर्श करता रहता है और वही उनके जीवन को सुखी करता है। हम जो श्वास लेकर छोड़ते हैं उसी छोड़ी गई श्वांस को वृक्ष ग्रहण करके ऑक्सीजन बनाकर मानव जाति के लिए पर्यावरण में छोड़ देते हैं। यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि विश्व के सबसे प्रदूषित देशों में पाकिस्तान और बांग्लादेश के बाद हमारा देश आता है। उसी प्रकार दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी में हमारी अपनी दिल्ली है। दुनिया के सबसे प्रदूषित 20 शहरों में 15 भारत में स्थित हैं। विश्व का सबसे प्रदूषित नगर गुड़गाँव (गुरूग्राम) भारत में ही है। एक समय ऐसा था जब इससे भी खराब स्थिति चीन की थी, पर पिछले कुछ वर्षों में चीन ने चमत्कारिक कदम उठाकर काफी हद तक प्रदूषण को रोकने में सफलता पाई है। वहाँ अब दुनिया की 50 प्रतिशत विद्युत प्रचालित गाड़ियाँ और लगभग शत-प्रतिशत विद्युत से चलने वाली बसें हैं। उद्योगों के बंद होने का जोखिम उठाने के बावजूद वहाँ उद्योगों के लिए प्रदूषण सम्बन्धी बड़े कड़े कानून बनाए गए हैं। जैसे भारत के इतिहास में बंगाल के अकाल को याद किया जाता है उसी तरह चीन के इतिहास में 1957-1959 तक के अकाल की गणना इतिहास में सबसे ऊपर होती है। उसके कारणों का वहाँ के वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया तो उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि उसके लिए चीन के राष्ट्र नायक माओत्से तुंग जवाबदार थे जिन्होंने पिछड़े हुए चीन को प्रगति के पथ पर ले जाने के लिए ‘‘ग्रेट लीप फाॅरवर्ड’’ अर्थात बहुत लम्बी छलांग के नाम से अन्धाधुंध औद्योगिकीकरण अधोसंरचना इत्यादि के इतने कार्य किए कि चीन न केवल प्रदूषित हुआ बल्कि उसे अभूतपूर्व अकाल का सामना भी करना पड़ा। अंग्रेजी में बारम्बार सभी जवाबदार लोग ‘‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’’ अर्थात ऐसा विकास जिसे प्रकृति सहन कर सके की बात कहते हैं और अब विश्व के स्तर पर लगभग इस पर सहमति भी बनती जा रही है। सबका यह मानना है कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए और जो भी कदम हम तथाकथित रूप से आधुनिकता के नाम पर आगे बढ़ाते हैं उनको कभी भी प्रकृति और पर्यावरण के ऊपर नहीं रखा जाना चाहिए।
पेट्रोल और डीजल के बढ़ते हुए उपयोग अथवा कोयले से उत्पादित बिजली के उपयोग ने हमारी वायु को ऐसा प्रदूषित कर दिया है कि कैंसर, फेफड़े और श्वास के रोग बड़ी तेजी से हमें प्रभावित करते हैं। उद्योगों से निकलने वाले रसायन, मवेशियों और जानवरों का मल मूत्र हमारे नालों तथा नदियों के जल में तथा झीलों व तालाबों में आकर जमा होते हैं। उसी तरह खेतों में कृषि में उपयोग आने वाले रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाईयाँ अंततः बहकर पानी को इतना प्रदूषित कर देते हैं कि पेट की बीमारियों और कैंसर जैसी बीमारियों से हम प्रभावित हो रहे हैं। लगातार रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाइयों के प्रयोग से हमारी भूमि बर्बाद हो गई है। खेतों में पहले अच्छे और बुरे दोनों तरह के कीड़े आया करते थे पर इन कीटनाशकों से बुरों के अतिरिक्त अच्छे कीड़े भी मर रहे हैं। खाद और दवाई से उत्पादित अन्न भी पहले जैसा स्वादिष्ट और लाभकारी नहीं रहा है। वनों की अंधाधुंध कटाई और कांक्रीट के जंगलों का विस्तार भी भूमि की उपलब्धता और क्षरण को बढ़ा रहे हैं। इन्हीं कारणों से बाढ़ और भंयकर रूप लेकर सामने आ रही है। वाहनों और उद्योगों से निकलने वाली आवाज ध्वनि प्रदूषण का कारण है जो मनुष्यों की मानसिक भावना और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है, जिससे तनाव, रोष और चिन्ता बढ़ती है। आज विश्व के सामने ऐसे वायु, जल, भूमि और ध्वनि प्रदूषण को रोकना बहुत बड़ी चुनौती है। वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि हमारे पर्यावरण में वृक्षों तथा पशुओं की जैव विविधता के कारण प्रकृति में ऐसे हजारों सूक्ष्म आर्गेनिज्म पाए जाते हैं जो पर्यावरण को संतुलित बनाए रखते हैं। हमारे शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और विकास ने इस संतुलन को बिगाड़ दिया है। मनुष्य अपनी असीमित आवश्यकताओं से अपने अनुकूल पर्यावरण को ही बदलने की चेष्टा कर रहा है। इसी वर्ष हमने भंयकर लम्बे ग्रीष्मकाल को अनुभव किया है।
दुनिया में बदलते हुए मौसम के कारण हम सबको सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। लोग इस परिवर्तन को ग्लोबल वाॅर्मिंग (वैश्विक उष्णता) भी कहते हैं। 1950 के दशक के बाद इसे और अधिक महसूस किया जा रहा है। वातावरण में निरन्तर कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा सीमा से कई गुना अधिक बढ़ गई है। परमाणु ऊर्जा और गैर पारम्परिक ऊर्जा के स्रोत जैसे बायो गैस और वनस्पति से बनाए जाने वाली गैस का उपयोग बढ़ाना जरूरी है। उपलब्ध ऊर्जा का संरक्षण भी एक अच्छा कदम होगा। मेरे विचार से तो जंगल से पेड़ों की कटाई पूर्णतया बंद कर देनी चाहिए। घरों और अन्य निर्माण कार्यों में लकड़ी का उपयोग कम-से-कम होना चाहिए। वर्तमान अर्थव्यवस्था मिम्न कार्बन में परिणित करना होगा। जनसंख्या पर नियंत्रण तथा खपत आधारित अर्थव्यवस्था को बदलना होगा। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि हमें अपने भोजन को पूर्णतः शाकाहारी बनाना तथा रेल, वायुयान और कारों से कम यात्रा भी कुछ हद तक सहायक होगी। प्रसिद्ध वैज्ञानिक मेयर हिनमैन का कहना है कि विभिन्न सरकारों द्वारा व्यक्तिगत और राजनैतिक कदम उठाना ही पर्याप्त नहीं होगा किन्तु ‘‘ज़ीरो सीएचजी’’ वैश्विक स्तर पर लागू करके और जनसंख्या में नियंत्रण लाकर ही हमें जलवायु परिवर्तन अर्थात वैश्विक उष्णता से मुक्ति मिल सकेगी।
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