छोटी-छोटी पहाड़ियों और टीलों में स्थित पोर्ट ब्लेयर, जो कि अंडमान निकोबार राज्य की राजधानी है। समुद्र से घिरा, नारियल, सुपारी, ताड़, केला आदि वृक्षों से आच्छादित था। छोटी-बड़ी नौकाओं के अलावा बड़े-बड़े पानी के जहाज़ या तो लंगर डाले थे या समुद्र के बीच में आवत-जावत करते दिखाई दिए। मेरा प्रवास समुद्र के दक्षिण किनारे पर स्थित विश्राम गृह में था, जहां से समुद्र का दृश्य बहुत ही सुंदर था। रात को तो झिलमिलाती रोशनी में आस-पास का भव्यतम नज़ारा दिखता था। हमारे यहां एक स्वतंत्रता सेनानी यदा-कदा ‘काले पानी’ का उदाहरण अंग्रेजों के अत्याचार के साथ जोड़ कर सुनाते थे तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते थे, तब हम 12-14 वर्ष के रहे होंगे। हमारे बाल मन पर यह बात जम गई थी कि दूर कहीं ऐसा यातना स्थल है, जहां से लोग निकल-उबर नहीं सकते। इसकी तुलना कहानियों में वर्णित यम लोक के रास्ते की जैसी थी। बहुत बाद में पता चला कि यह हमारे देश के ही सुदूर द्वीप समूहों में एक स्थान है। जिसका नाम है पोर्ट ब्लेयर। यह अंडमान द्वीप समूह का मुख्यालय है। इन सबको देखने और समझने की लालसा दिनों दिन बढ़ती गई, लेकिन कोई ऐसा अवसर नहीं ला जिससे इन द्वीप समूहों को देख सकूं। सुदूर भारत के दक्षिण में स्थित इन द्वीपों तक पहुँचना आर्थिक दृष्टि से मुझ जैसे सामाजिक कार्यकर्ता के लिए संभव ही नहीं था। लेकिन सन् 2002 में मुझे अंडमान एवं निकोबार शासन की ओर से पत्र मिला कि उच्चतम न्यायालय के निर्देश के अनुसार अंडमान के जंगलों के अतिक्रमण से संबंधित उप राज्यपाल की अध्यक्षता में गठित समिति में मुझे भी सदस्य नामित किया गया है। इसलिए मैं उस पल की प्रतिक्षा में था जब अंडमान की धरती को देख सकूं। मेरे लिए यह इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि इससे जंगल और पेड़ों पर अवलंबित लोगों को रोज़गार एवं अन्य उपक्रमों से जंगल ज़मीन से संबंधित यह विषय समझने का भी अवसर था।
इस प्रकार 27 जुलाई 2003 की शाम को मैं कोलकाता पहुंचा। 28 जुलाई की सुबह 5.15 पर जहाज़ ने पोर्ट ब्लेयर के लिए उड़ान भरी। पूर्व दिशा में लाल परछाई ने वातावरण को सुहावना बना दिया था। थोड़ी देर बाद देखा हर ओर नीला सागर। बीच-बीच में सफेद फेन सागर की लहरों का अहसास करा रहा था। लेकिन कुछ ही देर बाद यह सब ओझल हो गया। रह गई लालिमा और बाद में सूर्य की किरणें, डेढ़ घंटे बाद जहाज हिचकोले भरने लगा। फिर वही नीला सागर धीरे-धीरे एक के बाद एक द्वीप, जो हरियाली से लदे हुए दिख रहे थे। यह दृश्य मनोहारी था। मुझे लग रहा था कि मैं स्वप्न देख रहा हूं।
छोटी-छोटी पहाड़ियों और टीलों में स्थित पोर्ट ब्लेयर, जो कि अंडमान निकोबार राज्य की राजधानी है। समुद्र से घिरा, नारियल, सुपारी, ताड़, केला आदि वृक्षों से आच्छादित था। छोटी-बड़ी नौकाओं के अलावा बड़े-बड़े पानी के जहाज़ या तो लंगर डाले थे या समुद्र के बीच में आवत-जावत करते दिखाई दिए। मेरा प्रवास समुद्र के दक्षिण किनारे पर स्थित विश्राम गृह में था, जहां से समुद्र का दृश्य बहुत ही सुंदर था। रात को तो झिलमिलाती रोशनी में आस-पास का भव्यतम नज़ारा दिखता था।
मैंने समय निकाल कर काला पानी की राजनैतिक बंदियों के लिए बनी काल कोठरियों को देखने, जहां आज़ादी के दीवानों ने देश को आज़ाद कराने के लिए यह सब वरण किया था, का निश्चय किया। इस प्रकार में सैल्यूलर जेल देखने गया। वहां राष्ट्रहित में सर्वस्व समर्पित करने वाले देश भक्तों को नमन किया। बेड़ियां, काल कोठरियां, कोल्हू, फांसी का फंदा आदि देखकर आज भी स्मरण मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आजादी के दीवानों के हौसले कितने बुलंद थे यह इन शब्दों से जाहिर होता है, “तैयार हैं हम बेत की मार सहने के लिए, तैयार हैं हम बैल बन कोल्हू चलाने के लिए, जब तक नहीं स्वाधीन भारत, स्वर्ग में भी सुख नहीं, तैयार हैं हम यातनाएँ कष्ट पाने के लिए, पर सदा होंठों पैं गूंजे यार बंदे मातरम-शहीद उल्लासकर दत्त।”
जहां से मुख्य भूमि में आने के लिए कोई सर्वसुलभ यातायात न था। न तैर कर ही आना संभव था। जो एक बार गया, फिर वापस न लौट सकने के वास्ते । इस प्रकार सैल्यूलर जेल के साथ सीधे काला पानी का पर्याय जुड़ा था। इस प्रकार काला पानी का दंड मृत्यु से भी भयंकर माना जाता होगा। जिसे यहां भेज दिया जाता था उसके घर वालों के लिए तो भयावह स्थिति का द्योतक रहा होगा कि अब वह कभी नहीं लौटेगा।
आज भी देश के दूरस्थ, असाध्य, सुविधाविहीन तथा कष्टमय इलाके में यदि किसी कर्मचारी का स्थानांतरण हो जाए तो ऐसे व्यक्ति को कालापानी भेजने की बात कहकर ही संबोधित किया जाता है। लेकिन मुख्य बात तो यही है कि असह्य यंत्रणा के बाद लौटे व्यक्ति ने ही यह नाम दिया होगा।
लेकिन सैल्यूलर (कालापानी) के बाहर अंडमान का दृश्य अपने आप में अनुपम है। यहां पेड़, पहाड़ियां, पानी, सागर की अद्भुत दृश्यावलियां हैं। हमने अगले दिन आसमान से यात्रा की। एक घंटे तक आसमान में विचरण करते समय नीचे द्वीपों का दृश्य सुंदर दिख रहा था। सागर, बादल और द्वीप एक के बाद एक अनेकों द्वीपों के ऊपर से हम गुजर रहे थे। कई द्वीपों की ज़मीन विशाल और घनी वृक्षावली के कारण दिख ही नहीं रही थी। इस दौरान हमें बताया गया कि हम सैंडल पीक, जो उत्तरी अंडमान में स्थित है, जिसकी ऊंचाई 730 मीटर है, के ऊपर से जा रहे हैं। इसी प्रकार वेरन द्वीप, जो 352 मीटर ऊंचा है, एक समुद्री ज्वालामुखी है। यह ज्वालामुखी अभी सुप्त है। पायलट ने इस ज्वालामुखी के बिल्कुल नज़दीक से दो बार चक्कर काटे, जिससे हम ज्वालामुखी से पूर्व में निकला मलबा भी साफ तौर से देख सके।
मैंने दो बार हेलिकाप्टर से उत्तरी अंडमान की यात्रा की। उस समय धरती का नज़ारा और साफ दिख रहा था। एक के बाद एक द्वीप हरियाली से आच्छादित दिख रहे थे। हमने यह यात्रा पोर्ट ब्लेयर से जहां सड़क मार्ग नहीं था वहां की। वहां से फिर सड़क मार्ग से लोगों के बीच गए। उनसे बातचीत की, वन और लोगों के बारे में जानकारी हासिल की।
इसी प्रकार हम जैटी से भी गए। जैटी सुंदर ढंग से सजाई गई थी। उसके ऊपर बैठने का खुला स्थान था जिससे चारों ओर दिखाई दे रहा था। इससे हम लोग हैवलोक और राधानगरपुरम तक गए। रास्ते में काफी देर तक एक गलियारे से गुज़रे। इस गलियारे के दोनों ओर घने मैंग्रोव के झुंड के झुंड दिखते थे। उनकी अनेकों टहनियां बार-बार सागर के जल को स्पर्श करने के लिए आतुर दिखती थीं। जब समुद्र की लहरें वापस जा रही होती तो मैंग्रोव की जड़ों का जाल सा बुना हुआ दिखता था जो सागर के थपेड़ों को सहने के लिए तैयार रहता था। जड़ों से लेकर टहनियों तक छोटे-छोटे जीवों और पक्षियों के कलरव के साथ सागर की लहरों का संगीतमय स्वर हो जाता था। विशाल जटाधारी वृक्षों, जो सम्पूर्णता को लिए हुए थे, को नज़दीक से देखने का मौका भी मिला।
इस दौरान महात्मा गांधी समुद्र तटीय राष्ट्रीय उद्यान जौली बौय (वंडूर) को देखने का भी अवसर मिला। जहां समुद्री जीवों को देखा। यहां प्रकृति का अलग संसार और अद्भुत नज़ारा है। भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे कोराल देखे। बताया गया कि यहां के द्वीपों में 120 प्रजाति के कोराल हैं। इसी प्रकार इस उद्यान में 300 प्रजाति के रंग-बिरंगी मछलियाँ हैं। सन् 1983 में स्थापित इस उद्यान का क्षेत्रफल 281.5 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें 61 किलोमीटर भूमि तथा बाकी 220.5 वर्ग किमी. सागर (पानी) से आच्छादित है। इसके अंदर 15 द्वीप आते हैं।
इस दौरान मुझे अंडमान ट्रंक रोड से जाने का मौका भी मिला। जिसके अंतर्गत जरावा ट्राईवल्स रिजर्व भी आता है। जहां से ट्राईवल्स रिजर्व शुरू होता है वहां वन विभाग एवं पुलिस द्वारा छानबीन की जाती है। इसके बाद यहां घने जंगल हैं। बताया जाता है कि यही एक सड़क है जो अंडमान के कई द्वीपों को जोड़ती है। कुछ लोग इसे अंडमान द्वीप की हृदय रेखा मानते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि यह यहां के मूल आदिम जाति का आवास स्थल भी है। यह सड़क घने जंगल के बीचों-बीच गुजरती हैं। मीलों तक सूर्य की किरणें सड़क तक नहीं पहुंच पाती हैं। इस रास्ते में हमें हिरण भी काफी संख्या में दिखे।
इस सबको देखकर लगा कि आज भी इन द्वीपों में घने जंगल हैं। विशाल वृक्षों की मोटाई पांच-सात मीटर से अधिक लगती है एवं ऊंचाई आसमान छूने वाली है। इन वृक्षों के बीच कई प्रकार की लताएं हैं, जो उन्हें लपेटी रहती तथा छोटी बड़ी वनस्पतियों से धरती आच्छादित रहती है। यहां पर सदाबहार, पतझड़, समुद्रतटीय और मैंग्रोव वन हैं। इनमें मुख्य रूप से पड़ोक, धूप, कोको, बादाम, चुगलुम आदि प्रजातियाँ हैं। बीसवीं सदी के आरंभ से यहां के जंगलों की कटाई विभिन्न प्रयोगों के लिए शुरू हुई, जिसमें स्थानीय खपत प्रमुख थी। फिर रास्ते में जरावा दंपति एवं उनके साथ चार बच्चे दिखाई दिए। वे आराम सड़क ही सड़क आगे बढ़ रहे थे। लगता था कि वे भोजन की तलाश कर लौट रहे थे। उनके हाथ में कंदमूल भी थे। धनुष और बाण भी एक के पास था। बाण के आगे से लोहा लगा था, जो नुकीला था। उनका शरीर सुदृढ़ व मांसपेशिया मजबूत दिख रही थी। वे सभी नग्न थे। कमर पर लाल डोरी बंधी थी। कुछ हरे पत्ते भी लगे थे। उनका शरीर चमक-सा रहा था। ड्राइवर ने कार को धीमा किया। उन्होंने हमें देख लिया था। वे भी रूक गए थे। स्त्री और बच्चे हमारी ओर लपके। हमारे पीछे से आ रही कार में बैठे व्यक्ति ने उन्हें केले दिए, जिन्हें हमारे सामने ही चट कर दिया था। वे हाथ से इशारा भी कर रहे थे। शायद और देने के लिए कह रहे हो? मैंने देखा कि बच्चों एवं स्त्री की आंखों में करुणा का भाव था। देखा कि एकाएक पुरुष का चेहरा तमतमाने लगा। उसने कार के अंदर हाथ डालकर झोला निकालना चाहा, पर उन्होंने मिलकर उससे झोला वापस ले लिया। रास्ते में सड़क के ऊपरी भाग में घास फूस की झोपड़ी दिखी, जिसमें जरावा रात्रिवास करते हैं। उसके बाद हम बिना रुके कुछ आगे बढ़े, जहां फिर से पुलिस चौकी मिली। पता चला कि जरावा हिरण को नहीं मारते हैं, वे सुअर और मछलियों का ही शिकार करते हैं।
यद्यपि मैंने सुना और पढ़ा था कि जरावा शत्रुभाव रखते हैं। पर इनको देखने से मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा। बल्कि मुझे लगा कि उनकी स्वछंदता में हम आगंतुक लोग बाधा डालते हैं। अंडमान ट्रंक रोड के कारण उनके जंगल और समुद्र के किनारे जाने में बाधा तो है ही उसका उनके भोजन संग्रह पर भी दुष्प्रभाव अवश्य पड़ रहा होगा। लोगों द्वारा दी जा रही खाने की वस्तुओं का उनके आहार-व्यवहार पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है यह सब विचारणीय तो है ही। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस सबसे उनके परिवेश पर अतिक्रमण तो हो ही रहा है। इसलिए ट्रंक रोड़ के विकल्प पर तो निर्णय लिया ही जाना चाहिए।
बताया जाता है कि अंडमान में चार आदिम जातियां हैं। ये जरावा, सेंटिनली, अंडमान और ओंगी हैं। इन चार जातियों में से जरावा और सेंटिनली ऐसी है जिनका मानव सभ्यता के साथ संपर्क नहीं है। इन दोनों जातियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग रहा है। इस प्रकार मैं जरावा ट्राईवल्स रिजर्व होते हुए मिडिल स्ट्रीट तक गया। इस सड़क से लगभग 60 किलोमीटर से अधिक लंबी यात्रा की।
माउंट हैरियट, जो लगभग 364 मीटर ऊंचा पहाड़ है, गया। यहां से आसपास का दृश्य बहुत ही सुहावना था। यहां पर पर्यटक भी थे। इसी प्रकार चिड़ियां टापू भी गया। चिड़ियां टापू में सूर्यास्त एवं सूर्योदय का अनुपम दृश्य एवं सागर की हिलोरे देखकर चित्त प्रसन्न होता था। यहां पर नए-नए होटल बन रहे हैं तथा पर्यटकों की भारी भीड़ थी। चिड़ियां टापू के बारे में बताते हैं कि यहां पहले बहुत चिड़ियाएं थीं। विश्रामागृह के सामने काला पहाड़ है। रात को बार-बार समुद्र की लहरों की थाप की आवाज़ सुनाई देती थी।
इसके अलावा जहां भी संभव हुआ सड़क मार्ग से गया। वहां लोगों से भेंट तथा चर्चा की। उनकी समस्या को समझने का प्रयास किया। इसमें दिगलीपुर, मायाबंदर, बड़ाटांग, रंगत, शिवपुरम, इसी प्रकार दक्षिणी अंडमान के मंगलुटन, तुशानाबाद, लिटिल अंडमान, हटवेव, व्हाईट सर्फ और इनके आस-पास की बस्तियों में गया।
इस सबको देखकर लगा कि आज भी इन द्वीपों में घने जंगल हैं। विशाल वृक्षों की मोटाई पांच-सात मीटर से अधिक लगती है एवं ऊंचाई आसमान छूने वाली है। इन वृक्षों के बीच कई प्रकार की लताएं हैं, जो उन्हें लपेटी रहती तथा छोटी बड़ी वनस्पतियों से धरती आच्छादित रहती है। यहां पर सदाबहार, पतझड़, समुद्रतटीय और मैंग्रोव वन हैं। इनमें मुख्य रूप से पड़ोक, धूप, कोको, बादाम, चुगलुम आदि प्रजातियाँ हैं। बीसवीं सदी के आरंभ से यहां के जंगलों की कटाई विभिन्न प्रयोगों के लिए शुरू हुई, जिसमें स्थानीय खपत प्रमुख थी। लेकिन बाद के वर्षों में विस्थापितों को बसाने के लिए जंगल काटे गए, साथ ही चाथम और बेरापुर में बड़ी-बड़ी लकड़ी चीरने की आरा मशीन तथा लकड़ी पर आधारित कारखाने स्थापित हुए। ऊपर से कामगारों ने भी जहां मौका मिला जंगल काटकर खेत एवं झोपड़ियां बना डाली।
यह भी पता चला कि प्राकृतिक जंगल काटकर उनके स्थान पर टीक-वुड, रबर और पाम का प्लांटेशन भी किया गया। इस प्रकार के प्लांटेशन कई जगह देखने को मिले। इन कारख़ानों एवं जंगल कटाई में लगे व्यक्ति भारत की मुख्य भूमि से अपनी गरीबी एवं बेरोज़गारी के कारण यहां काम पर आए। फिर यहीं बस गए। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपने रिश्तेदारों को बुला दिया था। इस प्रकार के लोग भी जंगल काटकर जहां भी मौका मिला ज़मीन पर खेती करने लग गए थे। इनमें वे मज़दूर भी थे जो यहां ठेकेदार या कारखाने वाले जंगल कटाई के लिए लाए थे। इनमें दिगलीपुर, मायाबंदर और दक्षिणी अंडमान में ज्यादा है। हमें दिगलीपुर और मायाबंदर के कुछ इलाकों की बस्तियों में जाने का मौका मिला था। बातचीत में पाया कि उनका बाप या दादा यहां पेड़ काटने के लिए बिहार या बंगाल से लाया गया था। लड़कों ने वही कर्म किया। पूछने पर उन्हें अब अपने गांव का पता भी नहीं है। केवल इतना भर याद है कि वे सासाराम (बिहार) से आए हैं। इनकी परिस्थिति मुख्य भूमि की गरीबी, बेरोज़गारी तथा भूमिहीनता के साथ जुड़ी है।
कुछ ऐसे भी लोग हैं जो यहां नौकरी करते थे। उसी के आस-पास की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इनमें जंगलात, स्कूल एवं अन्य विभागों के कर्मचारी भी थे। साथ ही कुछ रिटायर व्यक्ति भी सम्मिलित हैं। इस प्रकार सन् 1978 के पूर्व में कब्ज़ा किए हुए कुल 722 परिवारों तथा 1978 के बाद के 4427 परिवारों के कब्ज़े में कुल 4600 हेक्टेयर के लगभग जंगल की ज़मीन पर कब्ज़ा था। जिस पर उनकी खेती, बाग एवं मकान और झोपड़ी थीं।
इस प्रकार जंगल की ज़मीन पर बिना अनुमति के कब्ज़े को हटाने के लिए उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन करवाने के लिए राज्यों को हिदायत दी गई है। उसी के अंतर्गत अंडमान और निकोबार शासन को भी कार्यवाही करनी थी। इसमें यहां के मुखिया रहे पूर्व उप राज्यपाल श्री एन.एन.झा तथा उप राज्यपाल प्रो. राम कपासे थे। दोनों ही इस समस्या के प्रति अति संवेदनशील थे। एक ओर जंगल की ज़मीन सुरक्षित रहे, दूसरी ओर मुख्य भूमि से आए गरीब एवं भूमिहीन लोगों की समस्या का समाधान भी हो। उन्हें दर-दर न भटकना पड़े। इसके लिए चर्चा के बाद एक रास्ता यह निकाला गया कि इन परिवारों को राजस्व की भूमि, जो वृक्ष विहीन है, में स्थापित किया जाए। इसके लिए सन् 1978 से पूर्व के परिवार है, उन्हें कम से कम 1 हेक्टेयर ज़मीन दी जाय। उन्हें वह ज़मीन पहले दिखा दी जानी चाहिए। उनको स्थान बदलने के लिए सारी सुविधा दी जानी चाहिए। पुनर्वास के लिए आर्थिक पैकेज भी दिया जाना चाहिए। सन् 1978 के बाद के बाद के परिवारों को आवास के लिए भूमि तथा रोजी-रोटी के लिए संसाधन मुहैया कराए जाने चाहिए। अगर सरकार यह सब करेगी तो ये परिवार इतने दुःखी नहीं होंगे और ज्यादातर परिवार नई जगह आ पाएंगे। अन्यथा इस शांत क्षेत्र में तनाव और नई परिस्थिति पैदा होगी। इसलिए समय रहते इस पर निर्णय ही नहीं कार्यान्वयन करने की आवश्यकता है।
इस प्रकार 27 जुलाई 2003 की शाम को मैं कोलकाता पहुंचा। 28 जुलाई की सुबह 5.15 पर जहाज़ ने पोर्ट ब्लेयर के लिए उड़ान भरी। पूर्व दिशा में लाल परछाई ने वातावरण को सुहावना बना दिया था। थोड़ी देर बाद देखा हर ओर नीला सागर। बीच-बीच में सफेद फेन सागर की लहरों का अहसास करा रहा था। लेकिन कुछ ही देर बाद यह सब ओझल हो गया। रह गई लालिमा और बाद में सूर्य की किरणें, डेढ़ घंटे बाद जहाज हिचकोले भरने लगा। फिर वही नीला सागर धीरे-धीरे एक के बाद एक द्वीप, जो हरियाली से लदे हुए दिख रहे थे। यह दृश्य मनोहारी था। मुझे लग रहा था कि मैं स्वप्न देख रहा हूं।
छोटी-छोटी पहाड़ियों और टीलों में स्थित पोर्ट ब्लेयर, जो कि अंडमान निकोबार राज्य की राजधानी है। समुद्र से घिरा, नारियल, सुपारी, ताड़, केला आदि वृक्षों से आच्छादित था। छोटी-बड़ी नौकाओं के अलावा बड़े-बड़े पानी के जहाज़ या तो लंगर डाले थे या समुद्र के बीच में आवत-जावत करते दिखाई दिए। मेरा प्रवास समुद्र के दक्षिण किनारे पर स्थित विश्राम गृह में था, जहां से समुद्र का दृश्य बहुत ही सुंदर था। रात को तो झिलमिलाती रोशनी में आस-पास का भव्यतम नज़ारा दिखता था।
मैंने समय निकाल कर काला पानी की राजनैतिक बंदियों के लिए बनी काल कोठरियों को देखने, जहां आज़ादी के दीवानों ने देश को आज़ाद कराने के लिए यह सब वरण किया था, का निश्चय किया। इस प्रकार में सैल्यूलर जेल देखने गया। वहां राष्ट्रहित में सर्वस्व समर्पित करने वाले देश भक्तों को नमन किया। बेड़ियां, काल कोठरियां, कोल्हू, फांसी का फंदा आदि देखकर आज भी स्मरण मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आजादी के दीवानों के हौसले कितने बुलंद थे यह इन शब्दों से जाहिर होता है, “तैयार हैं हम बेत की मार सहने के लिए, तैयार हैं हम बैल बन कोल्हू चलाने के लिए, जब तक नहीं स्वाधीन भारत, स्वर्ग में भी सुख नहीं, तैयार हैं हम यातनाएँ कष्ट पाने के लिए, पर सदा होंठों पैं गूंजे यार बंदे मातरम-शहीद उल्लासकर दत्त।”
जहां से मुख्य भूमि में आने के लिए कोई सर्वसुलभ यातायात न था। न तैर कर ही आना संभव था। जो एक बार गया, फिर वापस न लौट सकने के वास्ते । इस प्रकार सैल्यूलर जेल के साथ सीधे काला पानी का पर्याय जुड़ा था। इस प्रकार काला पानी का दंड मृत्यु से भी भयंकर माना जाता होगा। जिसे यहां भेज दिया जाता था उसके घर वालों के लिए तो भयावह स्थिति का द्योतक रहा होगा कि अब वह कभी नहीं लौटेगा।
आज भी देश के दूरस्थ, असाध्य, सुविधाविहीन तथा कष्टमय इलाके में यदि किसी कर्मचारी का स्थानांतरण हो जाए तो ऐसे व्यक्ति को कालापानी भेजने की बात कहकर ही संबोधित किया जाता है। लेकिन मुख्य बात तो यही है कि असह्य यंत्रणा के बाद लौटे व्यक्ति ने ही यह नाम दिया होगा।
लेकिन सैल्यूलर (कालापानी) के बाहर अंडमान का दृश्य अपने आप में अनुपम है। यहां पेड़, पहाड़ियां, पानी, सागर की अद्भुत दृश्यावलियां हैं। हमने अगले दिन आसमान से यात्रा की। एक घंटे तक आसमान में विचरण करते समय नीचे द्वीपों का दृश्य सुंदर दिख रहा था। सागर, बादल और द्वीप एक के बाद एक अनेकों द्वीपों के ऊपर से हम गुजर रहे थे। कई द्वीपों की ज़मीन विशाल और घनी वृक्षावली के कारण दिख ही नहीं रही थी। इस दौरान हमें बताया गया कि हम सैंडल पीक, जो उत्तरी अंडमान में स्थित है, जिसकी ऊंचाई 730 मीटर है, के ऊपर से जा रहे हैं। इसी प्रकार वेरन द्वीप, जो 352 मीटर ऊंचा है, एक समुद्री ज्वालामुखी है। यह ज्वालामुखी अभी सुप्त है। पायलट ने इस ज्वालामुखी के बिल्कुल नज़दीक से दो बार चक्कर काटे, जिससे हम ज्वालामुखी से पूर्व में निकला मलबा भी साफ तौर से देख सके।
मैंने दो बार हेलिकाप्टर से उत्तरी अंडमान की यात्रा की। उस समय धरती का नज़ारा और साफ दिख रहा था। एक के बाद एक द्वीप हरियाली से आच्छादित दिख रहे थे। हमने यह यात्रा पोर्ट ब्लेयर से जहां सड़क मार्ग नहीं था वहां की। वहां से फिर सड़क मार्ग से लोगों के बीच गए। उनसे बातचीत की, वन और लोगों के बारे में जानकारी हासिल की।
इसी प्रकार हम जैटी से भी गए। जैटी सुंदर ढंग से सजाई गई थी। उसके ऊपर बैठने का खुला स्थान था जिससे चारों ओर दिखाई दे रहा था। इससे हम लोग हैवलोक और राधानगरपुरम तक गए। रास्ते में काफी देर तक एक गलियारे से गुज़रे। इस गलियारे के दोनों ओर घने मैंग्रोव के झुंड के झुंड दिखते थे। उनकी अनेकों टहनियां बार-बार सागर के जल को स्पर्श करने के लिए आतुर दिखती थीं। जब समुद्र की लहरें वापस जा रही होती तो मैंग्रोव की जड़ों का जाल सा बुना हुआ दिखता था जो सागर के थपेड़ों को सहने के लिए तैयार रहता था। जड़ों से लेकर टहनियों तक छोटे-छोटे जीवों और पक्षियों के कलरव के साथ सागर की लहरों का संगीतमय स्वर हो जाता था। विशाल जटाधारी वृक्षों, जो सम्पूर्णता को लिए हुए थे, को नज़दीक से देखने का मौका भी मिला।
इस दौरान महात्मा गांधी समुद्र तटीय राष्ट्रीय उद्यान जौली बौय (वंडूर) को देखने का भी अवसर मिला। जहां समुद्री जीवों को देखा। यहां प्रकृति का अलग संसार और अद्भुत नज़ारा है। भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे कोराल देखे। बताया गया कि यहां के द्वीपों में 120 प्रजाति के कोराल हैं। इसी प्रकार इस उद्यान में 300 प्रजाति के रंग-बिरंगी मछलियाँ हैं। सन् 1983 में स्थापित इस उद्यान का क्षेत्रफल 281.5 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें 61 किलोमीटर भूमि तथा बाकी 220.5 वर्ग किमी. सागर (पानी) से आच्छादित है। इसके अंदर 15 द्वीप आते हैं।
इस दौरान मुझे अंडमान ट्रंक रोड से जाने का मौका भी मिला। जिसके अंतर्गत जरावा ट्राईवल्स रिजर्व भी आता है। जहां से ट्राईवल्स रिजर्व शुरू होता है वहां वन विभाग एवं पुलिस द्वारा छानबीन की जाती है। इसके बाद यहां घने जंगल हैं। बताया जाता है कि यही एक सड़क है जो अंडमान के कई द्वीपों को जोड़ती है। कुछ लोग इसे अंडमान द्वीप की हृदय रेखा मानते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि यह यहां के मूल आदिम जाति का आवास स्थल भी है। यह सड़क घने जंगल के बीचों-बीच गुजरती हैं। मीलों तक सूर्य की किरणें सड़क तक नहीं पहुंच पाती हैं। इस रास्ते में हमें हिरण भी काफी संख्या में दिखे।
इस सबको देखकर लगा कि आज भी इन द्वीपों में घने जंगल हैं। विशाल वृक्षों की मोटाई पांच-सात मीटर से अधिक लगती है एवं ऊंचाई आसमान छूने वाली है। इन वृक्षों के बीच कई प्रकार की लताएं हैं, जो उन्हें लपेटी रहती तथा छोटी बड़ी वनस्पतियों से धरती आच्छादित रहती है। यहां पर सदाबहार, पतझड़, समुद्रतटीय और मैंग्रोव वन हैं। इनमें मुख्य रूप से पड़ोक, धूप, कोको, बादाम, चुगलुम आदि प्रजातियाँ हैं। बीसवीं सदी के आरंभ से यहां के जंगलों की कटाई विभिन्न प्रयोगों के लिए शुरू हुई, जिसमें स्थानीय खपत प्रमुख थी। फिर रास्ते में जरावा दंपति एवं उनके साथ चार बच्चे दिखाई दिए। वे आराम सड़क ही सड़क आगे बढ़ रहे थे। लगता था कि वे भोजन की तलाश कर लौट रहे थे। उनके हाथ में कंदमूल भी थे। धनुष और बाण भी एक के पास था। बाण के आगे से लोहा लगा था, जो नुकीला था। उनका शरीर सुदृढ़ व मांसपेशिया मजबूत दिख रही थी। वे सभी नग्न थे। कमर पर लाल डोरी बंधी थी। कुछ हरे पत्ते भी लगे थे। उनका शरीर चमक-सा रहा था। ड्राइवर ने कार को धीमा किया। उन्होंने हमें देख लिया था। वे भी रूक गए थे। स्त्री और बच्चे हमारी ओर लपके। हमारे पीछे से आ रही कार में बैठे व्यक्ति ने उन्हें केले दिए, जिन्हें हमारे सामने ही चट कर दिया था। वे हाथ से इशारा भी कर रहे थे। शायद और देने के लिए कह रहे हो? मैंने देखा कि बच्चों एवं स्त्री की आंखों में करुणा का भाव था। देखा कि एकाएक पुरुष का चेहरा तमतमाने लगा। उसने कार के अंदर हाथ डालकर झोला निकालना चाहा, पर उन्होंने मिलकर उससे झोला वापस ले लिया। रास्ते में सड़क के ऊपरी भाग में घास फूस की झोपड़ी दिखी, जिसमें जरावा रात्रिवास करते हैं। उसके बाद हम बिना रुके कुछ आगे बढ़े, जहां फिर से पुलिस चौकी मिली। पता चला कि जरावा हिरण को नहीं मारते हैं, वे सुअर और मछलियों का ही शिकार करते हैं।
यद्यपि मैंने सुना और पढ़ा था कि जरावा शत्रुभाव रखते हैं। पर इनको देखने से मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा। बल्कि मुझे लगा कि उनकी स्वछंदता में हम आगंतुक लोग बाधा डालते हैं। अंडमान ट्रंक रोड के कारण उनके जंगल और समुद्र के किनारे जाने में बाधा तो है ही उसका उनके भोजन संग्रह पर भी दुष्प्रभाव अवश्य पड़ रहा होगा। लोगों द्वारा दी जा रही खाने की वस्तुओं का उनके आहार-व्यवहार पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है यह सब विचारणीय तो है ही। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस सबसे उनके परिवेश पर अतिक्रमण तो हो ही रहा है। इसलिए ट्रंक रोड़ के विकल्प पर तो निर्णय लिया ही जाना चाहिए।
बताया जाता है कि अंडमान में चार आदिम जातियां हैं। ये जरावा, सेंटिनली, अंडमान और ओंगी हैं। इन चार जातियों में से जरावा और सेंटिनली ऐसी है जिनका मानव सभ्यता के साथ संपर्क नहीं है। इन दोनों जातियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग रहा है। इस प्रकार मैं जरावा ट्राईवल्स रिजर्व होते हुए मिडिल स्ट्रीट तक गया। इस सड़क से लगभग 60 किलोमीटर से अधिक लंबी यात्रा की।
माउंट हैरियट, जो लगभग 364 मीटर ऊंचा पहाड़ है, गया। यहां से आसपास का दृश्य बहुत ही सुहावना था। यहां पर पर्यटक भी थे। इसी प्रकार चिड़ियां टापू भी गया। चिड़ियां टापू में सूर्यास्त एवं सूर्योदय का अनुपम दृश्य एवं सागर की हिलोरे देखकर चित्त प्रसन्न होता था। यहां पर नए-नए होटल बन रहे हैं तथा पर्यटकों की भारी भीड़ थी। चिड़ियां टापू के बारे में बताते हैं कि यहां पहले बहुत चिड़ियाएं थीं। विश्रामागृह के सामने काला पहाड़ है। रात को बार-बार समुद्र की लहरों की थाप की आवाज़ सुनाई देती थी।
इसके अलावा जहां भी संभव हुआ सड़क मार्ग से गया। वहां लोगों से भेंट तथा चर्चा की। उनकी समस्या को समझने का प्रयास किया। इसमें दिगलीपुर, मायाबंदर, बड़ाटांग, रंगत, शिवपुरम, इसी प्रकार दक्षिणी अंडमान के मंगलुटन, तुशानाबाद, लिटिल अंडमान, हटवेव, व्हाईट सर्फ और इनके आस-पास की बस्तियों में गया।
इस सबको देखकर लगा कि आज भी इन द्वीपों में घने जंगल हैं। विशाल वृक्षों की मोटाई पांच-सात मीटर से अधिक लगती है एवं ऊंचाई आसमान छूने वाली है। इन वृक्षों के बीच कई प्रकार की लताएं हैं, जो उन्हें लपेटी रहती तथा छोटी बड़ी वनस्पतियों से धरती आच्छादित रहती है। यहां पर सदाबहार, पतझड़, समुद्रतटीय और मैंग्रोव वन हैं। इनमें मुख्य रूप से पड़ोक, धूप, कोको, बादाम, चुगलुम आदि प्रजातियाँ हैं। बीसवीं सदी के आरंभ से यहां के जंगलों की कटाई विभिन्न प्रयोगों के लिए शुरू हुई, जिसमें स्थानीय खपत प्रमुख थी। लेकिन बाद के वर्षों में विस्थापितों को बसाने के लिए जंगल काटे गए, साथ ही चाथम और बेरापुर में बड़ी-बड़ी लकड़ी चीरने की आरा मशीन तथा लकड़ी पर आधारित कारखाने स्थापित हुए। ऊपर से कामगारों ने भी जहां मौका मिला जंगल काटकर खेत एवं झोपड़ियां बना डाली।
यह भी पता चला कि प्राकृतिक जंगल काटकर उनके स्थान पर टीक-वुड, रबर और पाम का प्लांटेशन भी किया गया। इस प्रकार के प्लांटेशन कई जगह देखने को मिले। इन कारख़ानों एवं जंगल कटाई में लगे व्यक्ति भारत की मुख्य भूमि से अपनी गरीबी एवं बेरोज़गारी के कारण यहां काम पर आए। फिर यहीं बस गए। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपने रिश्तेदारों को बुला दिया था। इस प्रकार के लोग भी जंगल काटकर जहां भी मौका मिला ज़मीन पर खेती करने लग गए थे। इनमें वे मज़दूर भी थे जो यहां ठेकेदार या कारखाने वाले जंगल कटाई के लिए लाए थे। इनमें दिगलीपुर, मायाबंदर और दक्षिणी अंडमान में ज्यादा है। हमें दिगलीपुर और मायाबंदर के कुछ इलाकों की बस्तियों में जाने का मौका मिला था। बातचीत में पाया कि उनका बाप या दादा यहां पेड़ काटने के लिए बिहार या बंगाल से लाया गया था। लड़कों ने वही कर्म किया। पूछने पर उन्हें अब अपने गांव का पता भी नहीं है। केवल इतना भर याद है कि वे सासाराम (बिहार) से आए हैं। इनकी परिस्थिति मुख्य भूमि की गरीबी, बेरोज़गारी तथा भूमिहीनता के साथ जुड़ी है।
कुछ ऐसे भी लोग हैं जो यहां नौकरी करते थे। उसी के आस-पास की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इनमें जंगलात, स्कूल एवं अन्य विभागों के कर्मचारी भी थे। साथ ही कुछ रिटायर व्यक्ति भी सम्मिलित हैं। इस प्रकार सन् 1978 के पूर्व में कब्ज़ा किए हुए कुल 722 परिवारों तथा 1978 के बाद के 4427 परिवारों के कब्ज़े में कुल 4600 हेक्टेयर के लगभग जंगल की ज़मीन पर कब्ज़ा था। जिस पर उनकी खेती, बाग एवं मकान और झोपड़ी थीं।
इस प्रकार जंगल की ज़मीन पर बिना अनुमति के कब्ज़े को हटाने के लिए उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन करवाने के लिए राज्यों को हिदायत दी गई है। उसी के अंतर्गत अंडमान और निकोबार शासन को भी कार्यवाही करनी थी। इसमें यहां के मुखिया रहे पूर्व उप राज्यपाल श्री एन.एन.झा तथा उप राज्यपाल प्रो. राम कपासे थे। दोनों ही इस समस्या के प्रति अति संवेदनशील थे। एक ओर जंगल की ज़मीन सुरक्षित रहे, दूसरी ओर मुख्य भूमि से आए गरीब एवं भूमिहीन लोगों की समस्या का समाधान भी हो। उन्हें दर-दर न भटकना पड़े। इसके लिए चर्चा के बाद एक रास्ता यह निकाला गया कि इन परिवारों को राजस्व की भूमि, जो वृक्ष विहीन है, में स्थापित किया जाए। इसके लिए सन् 1978 से पूर्व के परिवार है, उन्हें कम से कम 1 हेक्टेयर ज़मीन दी जाय। उन्हें वह ज़मीन पहले दिखा दी जानी चाहिए। उनको स्थान बदलने के लिए सारी सुविधा दी जानी चाहिए। पुनर्वास के लिए आर्थिक पैकेज भी दिया जाना चाहिए। सन् 1978 के बाद के बाद के परिवारों को आवास के लिए भूमि तथा रोजी-रोटी के लिए संसाधन मुहैया कराए जाने चाहिए। अगर सरकार यह सब करेगी तो ये परिवार इतने दुःखी नहीं होंगे और ज्यादातर परिवार नई जगह आ पाएंगे। अन्यथा इस शांत क्षेत्र में तनाव और नई परिस्थिति पैदा होगी। इसलिए समय रहते इस पर निर्णय ही नहीं कार्यान्वयन करने की आवश्यकता है।
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