टर्मीनेटर/जी.एम. तकनीक को कृषि का ‘अणु बम’ कहा गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका की एक जैवप्रौद्योगिकी कम्पनी बायर ने इस तकनीक को पेटेन्ट भी करवा लिया है। इस तकनीक के तहत बनाए गए बीजों की विशेषता है कि उन्हें एक बार ही फसल उत्पादन के लिये उपयोग किया जा सकता है एवं उसके द्वारा ली गई फसल से पुनः आगे फसल नहीं ली जा सकती है। अतः यह स्वाभाविक है कि टर्मीनेटर/जी.एम. बीजों से फसल लेने के पश्चात अगली फसल के लिये किसानों को पुनः नया बीज कम्पनियों से खरीदना पड़ेगा।
15 वर्ष पहले बाजार में मिलने वाला तरबूज का पाँच हजार रुपये प्रति किलो वाला बीज आज एक लाख रुपये प्रति किलो तक बिक रहा है और पहले जैसा स्वाद भी उनमें नहीं है, न ही हमारा वह उन्नत बीज। विशेषकर सब्जियों के बीज की दृष्टि से कोरिया, जापान, यू.एस.ए. एवं चीन ने कब्जा कर लिया है। किसान महँगा बीज खरीदने को मजबूर हैं। अतः ऐसी तकनीकियों को भारत में अपनाने से पूर्व इसके आर्थिक एवं सामाजिक पहलुओं की विवेचना अति आवश्यक है।
अब प्रश्न यह उठता है कि टर्मीनेटर/जी.एम. बीज में ऐसा क्या है जिससे उसकी दूसरी फसल नहीं ली जा सकती है। इस तकनीक में कम्पनी ने जैव प्रौद्योगिकी की सहायता से विभिन्न फसलों के बीज में एक ऐसा जीन संलग्न कर दिया है जो उस फसल से प्राप्त बीजों को बन्ध्य बना देता है। इस जीन को ‘डेथजीन’ कहा गया है। बन्ध्यता होने की वजह से इसकी फसल में पुनः बीज नहीं बन सकता। यही कारण है कि किसानों को पुनः नया बीज खरीदना पड़ता है। इस तकनीक को विनाशकारी और गरीब किसानों का दुश्मन बताया गया है क्योंकि भारत के अधिकतर कृषक छोटे और सीमान्त है और प्रतिवर्ष नया बीज खरीदने में हमेशा असमर्थ ही रहते हैं। इसलिये भारत सरकार ने ऐसे बीजों को भारत में आयात की अनुमति नहीं दी है। यह तकनीक किसान को अपनी उपज से प्राप्त बीजों को पुनः काम में लेने के हक से वंचित करती है।कनाडा स्थित रूरल एडवान्समेंट फाउण्डेशन इन्टरनेशनल ने भी इस तकनीक का विरोध करते हुए आरोप लगाया है कि यह ‘विश्व खाद्यान्न बाजार’ पर जबरदस्ती कब्जा करने का प्रयास है। यदि चावल व गेहूँ जैसी मुख्य फसलों को इस तकनीक के तहत ले लिया जाए तो यह तकनीक अमेरिका जैसे अमीर व समृद्धशाली देशों के लिये पैसा खींचने का एक साधन बन जाएगा। परिणामस्वरूप विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी। इस तकनीक के समर्थकों का मानना है कि इससे बीज उत्पादन के क्षेत्र में प्रगति होगी तथा इस व्यवसाय को लाभ मिलेगा। फसलों के अच्छे बीजों के मिलने से उत्पादन व उत्पादकता में वृद्धि होगी।
बीज कम्पनियाँ यह दलील दे रही हैं कि टर्मीनेटर/जी.एम. बीज सभी किसान समूह/कृषक खरीदें यह जरूरी नहीं है। छोटे और गरीब कृषकों के लिये इसकी अनिवार्यता समाप्त की जा सकती है किन्तु आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न किसानों को टर्मीनेटर/जी.एम. तकनीक के बीज उगाने से भी आस-पास के कृषकों के लिये बीज उत्पादन घातक हो सकता है। टर्मीनेटर/जी.एम. बीज से प्राप्त परागकण, सामान्य फसल के बीजों को बन्ध्य बना सकते हैं। दूसरा खतरा यह भी हो सकता है कि यह बन्ध्य उत्पाद खाने वाले जीवों पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं। जैसा कि पिछले दिनों एक वैज्ञानिक ने पराजीनी आलू चूहों को खिलाकर यह पाया कि इससे चूहे के आन्तरिक अंगों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। हालांकि यूरोप की संसद ने कानून पारित किया है कि जो कम्पनी पराजीनी फसलों को बाजार में खाने के लिये लायेगी या उसके व्यंजन बनाएगी एवं इस प्रकार के उत्पाद नुकसानदेह साबित हुए तो वह कम्पनी जिम्मेदार होगी और नुकसान व हर्जाना की भरपाई कम्पनी स्वयं करेगी।
इस प्रश्न का हल आसान नहीं है क्योंकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कितनी अच्छी तरह अपनी जिम्मेदारी निभाती हैं और नुकसान की भरपायी करती हैं इसका अन्दाज ‘भोपाल गैस काण्ड’ के पीड़ितों की स्थिति को देखकर लगाया जा सकता है। सही बात तो यह है कि अमेरिका जैसे कई देश जो कि विकसित कहलाते हैं, लेकिन उनके पास अपनी जैव सम्पदा नाममात्र की ही है। वहाँ ज्यादातर फसलों के बीज और पौध सामग्री में जैवप्रौद्योगिकी की तकनीक से कोई नया जीन डालकर, नयी किस्म बना देंगे और उसे पेटेन्ट करवाकर अपना अधिकार समझेंगे कि यह उत्पाद उनके माध्यम से विकसित किया गया है।
इसलिये यह जरूरी है कि हमें अपनी प्राकृतिक सम्पदा की सम्पूर्ण जानकारी हो एवं उनका उचित संरक्षण हो। भारत जैसे विकासशील कृषि प्रधान देश के लिये टर्मीनेटर/जी.एम. बीज प्रौद्योगिकी ज्यादा कारगर नहीं हो सकती क्योंकि आर्थिक बदहाल किसान हर वर्ष महँगे बीजों पर निर्भर रहकर कृषि को स्थायित्व नहीं दे सकता। हम यदि सब्जी बीजों की ही बात करें तो आज से 15-20 वर्ष पहले भारतीय बाजार में उन्नत देशी एवं संकर दोनों तरह का बीज उपलब्ध था लेकिन धीरे-धीरे विदेशी कम्पनियों ने संकर बीज बाजार में सस्ती दर पर उतारा। किसान अपने उन्नत बीज को छोड़कर उसको अपनाने लगा। 15 वर्ष पहले बाजार में मिलने वाला तरबूज का पाँच हजार रुपये प्रति किलो वाला बीज आज एक लाख रुपये प्रति किलो तक बिक रहा है और पहले जैसा स्वाद भी उनमें नहीं है, न ही हमारा वह उन्नत बीज। विशेषकर सब्जियों के बीज की दृष्टि से कोरिया, जापान, यू.एस.ए. एवं चीन ने कब्जा कर लिया है। किसान महँगा बीज खरीदने को मजबूर हैं। अतः ऐसी तकनीकियों को भारत में अपनाने से पूर्व इसके आर्थिक एवं सामाजिक पहलुओं की विवेचना अति आवश्यक है।
लेखक परिचय
डॉ. एम. के. यादव
उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग, अमरपाटन (सतना) 485 775 (मध्य प्रदेश) ई-मेल : manoj_kadali11@hotmail.com
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