अनुपम मिश्र - आँखों में पानी के हिमायती

अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र

प्रख्यात गाँधीवादी अनुपम मिश्र सच्चे अर्थों में अनुपम थे। वह पानी मिट्टी पर शोध के अलावा चिपको आन्दोलन में भी सक्रिय रहे वे कर्म और वाणी के अद्वैत योद्धा थे। बड़ी-से-बड़ी सच्चाई को भयरहित, स्वार्थरहित, दोषरहित और पक्षपातरहित बोल देने के लिये प्रतिबद्ध थे। अनुपम मिश्र गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के ट्रस्टी और राष्ट्रीय गाँधी स्मारक निधि के उपाध्यक्ष रहे।

वह ऐसे पहले भारतीय थे, जिन्होंने पर्यावरण पर ठीक तब से काम और चिन्तन शुरू कर दिया था जबकि देश में पर्यावरण का कोई भी सरकारी विभाग तक नहीं था। उन्होंने हमेशा ही परम्परागत जलस्रोतों के संरक्षण, प्रबन्धन तथा वितरण के सन्दर्भ में अपनी आवाज बुलन्द की। अनुपम मिश्र की पहल पर ही गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में पर्यावरण अध्ययन कक्ष की स्थापना हुई थी जहाँ से ‘हमारा पर्यावरण’ और ‘देश का पर्यावरण’ जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक आई।

वह अक्सर कहा करते पूरा देश ही मेरा घर है। राजस्थान के अलवर में मृतप्राय अरवरी नदी को पुनर्जीवित करने का उनका संकल्प कैसे भुलाया जा सकता है? अरवरी नदी के पुनर्जीवन ने उन्हें नई पहचान से लबालब कर दिया। राजस्थान के ही लापोड़िया और उत्तराखण्ड में परम्परागत जलस्रोतों को दोबारा जीवित कर देने में भी उनका सराहनीय योगदान था। बावजूद इसके उनकी विशेषताएँ यहीं थी कि वे कभी भी अपने द्वारा सुझाए या सम्पादित किये गए काम पर किसी भी तरह के निजी श्रेय का दावा नहीं करते थे।

उन्होंने अपनी उपलब्धियों को कभी भी अपने सरल तत्व यानी सहजता पर हावी ही नहीं होने दिया। उनका होना पानी का होना था। उनका होना पानीदार आदमी का होना था। उनका होना साधारण में असाधारण का होना था। उनका होना गाँधी के न होने वाले वक्त में गाँधी मार्ग का होना था। अनुपम मिश्र इसलिये भी अनुपम थे कि उन्होंने हमें मनुष्यों पर विश्वास करना सिखाया। वे मानते थे जो विश्वास करता है वही मनुष्य है।

पर्यावरण के लिये सतत चिन्ता और चिन्तन करते रहने वाले अनुपम मिश्र ने दूसरी संस्थाओं सहित सरकारों को भी पर्यावरण के लिये चिन्ता और चिन्तन करना सिखाया। उनकी चिन्ता और चिन्तन के केन्द्र में सिर्फ किसी भूखण्ड पर तालाब का होना और तालाब में पानी का होना ही महत्त्वपूर्ण नहीं था। बल्कि उन्होंने अपने व्यवहार से यह तक प्रतिष्ठित किया था कि आदमी की आँखों में भी पानी का होना कितना जरूरी है।

नब्बे के दशक की शुरुआत में जब अनुपम मिश्र की लिखी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब प्रकाशित हुई तब तक हमारे समाज में पर्यावरण कर लेकर कोई खास गम्भीरता दिखाई नहीं देती थी और पानी का प्रबन्धन तो बहुत दूर की कोई कौड़ी हुआ करती थी। नदियाँ आज जितनी जहरीली नहीं हुई थीं और गंगा भी कमोबेश गन्दगी से अछूती कही जा सकती थी। पीने के पानी का भी इस कदर बाजारीकरण नहीं हुआ था। किन्तु अनुपम मिश्र की चिन्ताएँ भविष्य के संकट को भली भाँति भाँप रही थीं।

उन्होंने अपने समाज से जिस भाषा में संवाद किया उस भाषा का भी उनकी चिन्ताओं पर गहरा प्रभाव दिखाई देता है। वे जिस भाषा में बोलते और लिखते थे। वह लोगों को भीतर तक छू जाने वाली अपनी सी लगने लगती थी। अन्यथा नहीं है कि अनुपम मिश्र के कवि पिता भवानी प्रसाद मिश्र भी अपनी बात जिस भाषा में बोलते थे उसी भाषा में लिखते थे। प्रख्यात समाजवादी चिन्तक डॉ. राम मनोहर लोहिया भी ऐसी ही भाषा और मुहावरों में अपनी बात कहते थे। वह समाजवादी चिन्तन धारा से निकले एक गाँधीवादी विचारक थे। समाजवाद और गाँधीवाद उनके रग-रग में रच-बस गए थे।

गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान से प्रकाशित होने वाली पत्रिका गाँधी मार्ग के हरेक अंक और हरेक पृष्ठ पर उनकी अनुपम सम्पादकीय दृष्टि देखी जा सकती है। अपने मुद्दों और आग्रहों पर कायम रहने की उनमें एक जिद तो थी लेकिन वहाँ बड़ बोलापन और दोहराव नहीं होता था। वहाँ भाषा की परवाह थी और खामियों से मुक्ति होती थी। किन्तु उनकी समूची सोच किसी भी दृष्टिकोण से मात्र अकादमिक अनुसन्धान नहीं थी बल्कि लोक-संवाद और लोक विद्या से ही जुड़ी थी। लोक और समाज से उनका रिश्ता इतना विस्तृत और इतना विविध था कि वे जीवनपर्यन्त समाज को कुछ सिखाने की बजाय समाज से सीखने की ही बात दोहराते रहे।

नदियों को अपनी आजादी चाहिए। इंसानों जैसी आजादी चाहिए। जब से हमने नदियों की आजादी छीनी है नदियाँ नाला बनकर रह गई हैं। जैसा मौलिक विचार देने वाले अनुपम मिश्र नदियों को लेकर स्पष्ट मत था कि जब लोग नदियों से जुड़ जाएँगे, तो फिर नदियों को नदियों से जोड़ने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। सरकार को, सरकारी अफसरों को और नेताओं को जाहिर है कि जनता के बीच जाकर जनता से संवाद करना चाहिए।

देश में हो रहे मौजूदा विकास से होने वाले खतरों के प्रति वे हमेशा आगाह करते रहे। आज भी खरे हैं तालाब इसका प्रमाण है। उनकी इस पुस्तक में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गोवा से गुवाहाटी तक समूचे भारत में फैले पानी के अद्वितीय जल प्रबन्धन का खुलासा उपलब्ध है। उन्होंने परम्परागत भारतीय जल प्रबन्धन पर दो मूल्यवान पुस्तकें लिखी थीं आज भी खरे है तालाब (1993) और राजस्थान की रजत बूंदें (1995) नपे तुले शब्दों में प्रामाणिक बातें करना उनकी लेखकीय प्रतिभा का प्रमाण था।

‘आज भी खरे हैं तालाब’ की खूबी यह थी कि वह अनेकों भाषाओं में अनूदित हुई। किन्तु यह तथ्य वाकई विस्मयकारी रहा कि उन्होंने अपनी इस पुस्तक की कभी कोई रायल्टी नहीं ली। आज भी खरे हैं तालाब आज भी कॉपीराइट से मुक्त किताब है कोई भी कहीं भी कभी भी चाहे जितनी प्रतियाँ स्वतंत्रतापूर्वक छाप सकता है।

वे सच्ची वैज्ञानिकता और सच्ची साहित्यिक गहराई से अपने काम में जुट जाते थे। उन्हें सच बोलने के लिये किसी भी आडम्बर अथवा नाटकीयता की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। वे एक ऐसे सीधे-सच्चे आदमी थे जो किसी भी सच को सम्पूर्ण व सीधे-सीधे ही बोल देते थे। उनके सोच विचार की प्रक्रिया और जीवनक्रम में प्राकृतिक तौर पर प्रकृति और सिर्फ प्रकृति समाहित थी। उन्हें एक खास अर्थ में प्रकृति पुरुष भी कहा जा सकता है। वह मानते थे कि पारम्परिक कृषि हवा रोशनी और पानी पर सबका समान अधिकार था। सिंचाई के अपने संसाधन थे।

सामूहिकता का सफल जीवन-दर्शन था। किसान के पास पालतू जानवर थे। जिनसे आय भी मिलती थी और खाद का बन्दोबस्त भी हो जाता था। किन्तु वह सब पता नहीं कहाँ चला गया? आज सब कुछ बिक रहा है। कौन नहीं जानता है कि आज का सबसे बड़ा सवाल पानी और पर्यावरण ही है? जल जंगल और जमीन की मूल्य बताकर विनयशील अनुपम मिश्र ने वक्त से पहले ही विदा ले गए।

राजकुमार कुम्भज वरिष्ठ कवि एवं लेखक हैं।

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