अनुमान से बड़ी त्रासदी

जो लोग उत्तराखंड या हिमाचल प्रदेश या ऐसी पहाड़ी जगहों पर कभी गए नहीं हैं वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि पहाड़ी रास्ते और बस्तियों का तानाबाना कितने खतरे से भरा होता है। रास्तों के लिए पहाड़ों को काटकर जगह बनाई जाती है, पत्थरों से खाली जगहों को भरा जाता है। बहुत मेहनत और धैर्य से पहाड़ों की सड़कें तैयार होती हैं। रहने के लिए जहां भी समतल जगह मिलती है घर बनाए जाते हैं और जहां जगह नहीं मिलती वहां भी सीमेंट के खंभों के सहारे घर बना लिए जाते हैं। कहीं-कहीं पहाड़ों के मकान में बाहर से आने वालों को सिहरन होने लगती है, लगता है यह मकान अभी ढ़ह जाएगा या सड़क अभी भहरा जाएगी।

केंद्रीय गृहमंत्री को भी यह बयान देना पड़ा कि मरनेवालों की सही संख्या की सही जानकारी नहीं है। मुख्यमंत्री भी इस तथ्य से अनजान हैं कि उनके प्रदेश में हुई त्रासदी ने कितने मनुष्यों और पशु-पक्षियों को अपना शिकार बनाया है। त्रासदी का असली केंद्र केदार घाटी थी, परंतु उसका असर बहुत दूर तक देखा जा रहा है। हरिद्वार तक लाशें बहकर आती रहीं, कुछ को किनारे लगाया गया परंतु कुछ तो बहती ही चली गईं।अभी उत्तराखंड में जो त्रासदी आई है वह शायद सदियों में एक बार आती होगी। इसकी भयावहता का अनुमान लगाने में अभी और समय लगेगा क्योंकि किसी को नहीं मालूम कि कितने लोग मरे हैं। सरकार को और स्थानीय लोगों को भी निश्चित रूप से मृतकों की संख्या का अनुमान तक नहीं है।

अब दस से पंद्रह फुट के मलबे में हजारों दब गए हैं तो मलबा हटाने तक तो उनकी हड्डियां भी सड़ जाएंगी, फिर उनकी गिनती कौन कर सकता है। हजारों फुट गहरी खाइयों में लोग गिरे हैं, कारें, बसें भी लापता हो गई हैं, उनमें हुई मौतों की गिनती करना आसान नहीं है। कई ऐसी जगहें हैं जहां लोग मलबों के साथ समाहित हो चुके हैं जहां मनुष्य का जाना ही संभव नहीं।

जो लोग केदार घाटी के आसपास के क्षेत्रों से पूरी तरह परिचित हैं, उनका भी मानना है कि मरनेवालों की संख्या हम जितना सोच रहे हैं उससे बहुत अधिक है। केंद्रीय गृहमंत्री को भी यह बयान देना पड़ा कि मरनेवालों की सही संख्या की सही जानकारी नहीं है। मुख्यमंत्री भी इस तथ्य से अनजान हैं कि उनके प्रदेश में हुई त्रासदी ने कितने मनुष्यों और पशु-पक्षियों को अपना शिकार बनाया है।

त्रासदी का असली केंद्र केदार घाटी थी परंतु उसका असर बहुत दूर तक देखा जा रहा है। हरिद्वार तक लाशें बहकर आती रहीं, कुछ को किनारे लगाया गया परंतु कुछ तो बहती ही चली गईं। जो मकान सूखे पेड़ के पत्तों की तरह भरभरा गए उनमें कितने लोग थे, कितने बचे, कितने मलबे में दब गए, इन सब बातों की जानकारी प्राप्त करना आसान नहीं है।

इस भयंकर त्रासदी ने केवल जन ही नहीं धन-संपदा, मकान, पुल आदि को इतनी बड़ी संख्या में तबाह किया है कि पुनर्निर्माण में बरसों लग सकते हैं। कितनी जमीने हाहाकार करती वेगवती जल-धारा की भेंट चढ़ गई हैं, उसी अनुपात में पेड़-पौधों की भी क्षति हुई है।

हो सकता है कि जब स्थानीय और पर्यटकों के बारे मे पूरी जानकारी प्राप्त हो तब एक अनुमान लगाया जा सके कि कितनी जनहानि हुई है। धन और संपदा की हानि का अनुमान लगाना भी संभव नहीं हो सकता है। इस दैवी विपदा में जो लोग बचे भी हैं, उन्होंने जो विनाश लीला देखी है उनकी मानसिक स्थिति सामान्य नहीं है।

अपने जीवन को बचाने के लिए जिन्होंने अथक प्रयास किया और मरते-मरते जी गए उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर प्रकृति ने यह कैसा बदला लिया है। प्रकृति के साथ जिन्होंने खिलवाड़ किया उनको तो शायद ही सजा मिली हो, परंतु निर्दोष लोगों ने विनाश देखा है।

उत्तराखंड में हुई इस त्रासदी ने पूरे भारत को ही पीड़ा पहुंचाई है। ऐसा कोई प्रदेश शायद ही बचा हो जहां के लोग इस त्रासदी के शिकार न हुए हों। इस त्रासदी ने सरकार ही नहीं, सभी राजनीतिक दलों के लोगों की पोल खोल दी है। जहां लोगों को बिना जात-पांत, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, प्रदेश की परवाह किए बिना नेताओं की सहानुभूति और सहायता की जरूरत थी, वहीं कोई अपने प्रदेश के लोगों को बचाने में लगा रहा तो कोई अपने जिले और क्षेत्र के लोगों को बचाने में लगा रहा।

कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने राजनीति चमकाने के लिए अनावश्यक दौरे किए और उनके दौरे के कारण कई मौतें हुई और कई लोगों को बचाया नहीं जा सका और हमारे कई जांबाज सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी। आने वाले कई दशकों तक पूरे देशवासियों को यह त्रासदी सालती रहेगी और हजारों-लाखों लोगों की आंखें इस त्रासदी के याद आते ही नम हो उठेंगी।

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Post By: pankajbagwan
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