हमारी योजनाओं की समस्या यह रही है कि इनमें लक्ष्यों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता रहा है और उद्देश्य को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। इसलिये सरकारी आँकड़ों में लक्ष्य तो पूरे दिखा दिये जाते हैं, लेकिन उद्देश्य पूरे नहीं हो पाते और यहीं वह योजना पराजित हो जाती है। मनरेगा के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ है। हालांकि इसमें तो स्थिति और भी बदतर है। जितना लक्ष्य था, वह भी पूरा नहीं हो सका है और उस लक्ष्य से जो उद्देश्य हासिल होने थे, वे तो बिल्कुल भी नहीं हुए हैं। महात्मा गाँधी नेशनल रूरल इंप्लॉयमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) 2005 में बना था। इसके 10 साल पूरे हो गए हैं। इस बीच इसकी क्या उपलब्धियाँ रहीं और यह कितना नाकाम रहा, इस पर चर्चा होना स्वाभाविक है, क्योंकि इसके आधार पर ही इसे और भी ज्यादा फलदायी बनाने की रणनीतियाँ बनाई जा सकती हैं, अथवा यह विचार किया जा सकता है कि इसे रहने दिया जाये भी या नहीं। यह यूपीए सरकार की एक बहुत ही महत्त्वाकांक्षी योजना थी।
कहा जाता है कि अपनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सलाह पर सोनिया गाँधी ने इसे लागू करने के लिये कहा था। यह गाँवों की बेरोजगारी को दूर करने की अब तक की केन्द्र सरकार की सबसे बड़ी योजना मानी जाती है। इसके तहत रोजगार चाहने वाले किसी भी ग्रामीण व्यक्ति को 100 दिनों के लिये रोजगार की गारंटी का प्रावधान है।
यदि सरकार 100 दिनों का काम किसी को नहीं दे सकती तो उस व्यक्ति का हक बनता है कि वह बेरोजगारी भत्ता हासिल करे। सवाल उठता है कि क्या इस कानून पर पूरी तरह अमल हो पाया है? जवाब एक ही है और वह है कि इस कानून का पालन नहीं किया जा सका है। उदाहरण के लिये एक व्यक्ति के लिये साल में सौ दिनों तक काम दिया जाना था, लेकिन यह लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका। कहीं-कहीं तो 40 दिनों के काम तक नहीं दिये जा सके।
बेरोजगारी भत्ते का प्रावधान
काम नहीं मिलने पर बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता दिये जाने का प्रावधान था, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ। इसकी एक विसंगति यह रही है कि रोजगार पाने वालों को भुगतान करने का जिम्मा तो केन्द्र सरकार का है, लेकिन रोजगार न पाने वालों को बेरोजगारी भत्ता देने का जिम्मा इस कानून के तहत राज्य सरकार का है। इस विसंगति का प्रभाव इसके अमल पर पड़ा है। इस योजना के तहत अकुशल मजदूरों को ही काम देने का प्रावधान है। कुशल मजदूरों को इससे दूर रखकर इस कानून को पहले से ही कमजोर बनाकर रखा गया है। जाहिर है, सरकार यह मान रही है कि कुशल मजदूरों को काम पाने में दिक्कत नहीं होती। पर सच्चाई यह नहीं है।
यह गरीबों के लिये बनाई गई योजना है, लेकिन यदि हम इसके तहत कोष के बँटवारे को देखें, तो पाते हैं कि उन राज्यों के पास ज्यादा पैसे गए हैं, जहाँ गरीबों की संख्या कम है और उन राज्यों को पैसे कम गए हैं, जहाँ गरीबों की संख्या बहुत ज्यादा है। तमिलनाडु और बिहार में इस योजना के तहत किये गए खर्च की तुलना करने पर यह बेतुकापन देखा जा सकता है।
जाहिर है, गरीबों को राहत पहुँचाने वाली यह योजना गरीब राज्यों तक अपनी अच्छी पहुँच बनाने में विफल रही है। इसके कारण क्षेत्रीय असन्तुलन कम होना चाहिए था, लेकिन इसने क्षेत्रीय असन्तुलन बढ़ाने का ही काम किया है। इस कानून की एक खामी यह भी है कि यह रोजगार मिटाने की एक ऐसी योजना है, जिसमें पूँजी निर्माण का उद्देश्य नदारद है। यानी मजदूर काम कर रहे हैं, तो उनके काम करने से कुछ निर्माण भी होना चाहिए और वह दिखना भी चाहिए, लेकिन उसके द्वारा किये गए निर्माणों का सही रिकॉर्ड रखा जाये, यह आवश्यक नहीं है। इसके कारण पता नहीं चलता कि पैसे यदि मजदूरों को गए भी हैं, तो उन पैसोें से हुआ क्या?
कहने को तो इस योजना के आरम्भ के 10 साल पूरे हो गए हैं, लेकिन यह 10 साल पहले देश के कुछ जिलों में ही शुरू हुई थी। देश के सभी प्रदेशों के सभी जिलों में इसे 2008 में लागू किया गया था। इसलिये हम यह भी नहीं कह सकते कि इस योजना के 10 साल पूरे हो गए हैं। ज्यादा-से-ज्यादा हम यह कह सकते हैं कि इस कानून के बने 10 साल पूरे हो चुके हैं।
हमारी योजनाओं की समस्या
हमारी योजनाओं की समस्या यह रही है कि इनमें लक्ष्यों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता रहा है और उद्देश्य को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। इसलिये सरकारी आँकड़ों में लक्ष्य तो पूरे दिखा दिये जाते हैं, लेकिन उद्देश्य पूरे नहीं हो पाते और यहीं वह योजना पराजित हो जाती है।
मनरेगा के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ है। हालांकि इसमें तो स्थिति और भी बदतर है। जितना लक्ष्य था, वह भी पूरा नहीं हो सका है और उस लक्ष्य से जो उद्देश्य हासिल होने थे, वे तो बिल्कुल भी नहीं हुए हैं। इसका कारण हमारी सरकारी मशीनरियों में व्याप्त भ्रष्टाचार है और भ्रष्टाचार की गुंजाईश इसकी नीति में ही छोड़ दी गई थी।
जब रोजगार देकर किये गए काम का सही-सही रिकॉर्ड नहीं रखने का विकल्प अमल करने और करवाने वाली मशीनरी के पास मौजूद हो, तो फिर भ्रष्टाचार को कौन रोक सकता। इसका नतीजा यह होता है कि बिना काम कराए ही पैसे बाँट दिये जाते हैं और बाँटे गए पैसों में बन्दरबाट कर दिया जाता है।
मजदूरों को जितना पैसा मिलना चाहिए, उतना उन्हें नहीं मिलता, फिर भी वे खुश रहते हैं, क्योंकि उन्हें बिना काम किये जो पैसा मिल गया और उसका एक हिस्सा दूसरे लोगों के पास जाये, इसकी उन्हें शिकायत भी नहीं रहती, क्योंकि उन्हें जो मिला वह मुफ्त में ही मिल गया।
भ्रष्टाचार सरकार की सभी योजनाओं में होता है, लेकिन मनरेगा में जितना भ्रष्टाचार हो रहा है, उतना शायद ही किसी और योजना में होता होगा।
भ्रष्टाचार के अलावा समय पर पैसा नहीं मिलने की शिकायतें भी खूब आती हैं। कानून के अनुसार 15 दिनों में ही भुगतान कर दिया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा विरले ही होता है। इस महत्त्वाकांक्षी कानून के 10 साल पूरे होने के बाद इसकी समीक्षा होनी चाहिए और इसकी कमियों को समाप्त करने की कोशिश की जानी चाहिए।
सबसे पहले जो काम है, उसे पूँजी और इन्फास्ट्रक्चर के निर्माण से जोड़ दिया जाना चाहिए। इससे क्या निर्माण हुए हैं, उनका पूरा रिकार्ड होना चाहिए। दूसरा, मजदूरों के बैंक खाते में सीधे पैसे जाने चाहिए और उनके खातों को आधार के साथ लिंक कर दिया जाना चाहिए ताकि कोई फेक खाता खोलकर उसमें पैसे डाल न सके। गाँवों में विकास की अन्य अनेक योजनाएँ भी चलती रहती हैं। उन योजनाओं में मजदूरी के भुगतान के लिये मनरेगा के कोष का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
1. भ्रष्टाचार सरकार की सभी योजनाओं में होता है, लेकिन मनरेगा में जितना भ्रष्टाचार हो रहा है, उतना शायद ही किसी और योजना में
2. गरीबों को राहत पहुँचाने वाली यह योजना गरीब राज्यों तक अपनी अच्छी पहुँच बनाने में विफल रही है। इसके कारण क्षेत्रीय असन्तुलन कम होना चाहिए था, लेकिन इसने क्षेत्रीय असन्तुलन बढ़ाने का ही काम किया है
3. सबसे पहले जो काम है, उसे पूँजी और इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण से जोड़ दिया जाना चाहिए। निर्माण का पूरा रिकार्ड होना चाहिए। दूसरा, मजदूरों के बैंक खाते में सीधे पैसे जाने चाहिए
लेखक आर्थिक विश्लेषक हैं।
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Post By: RuralWater