अनपहचाना घाट

धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर!!

यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहिचानते हैं।

सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है।

यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहिचानते हैं।

और मैं कितनी शती से यहां तुझको जोहता हूँ।
आह!
तूने नहीं पहिचाना मुझे।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं।
इसी नदिया तीर मेरे गान
डूबे हैं कहीं।
प्राण! तूने नहीं पहिचाना मुझे।
मैं तुझे जोहा किया,
रोया किया,
गाया किया,
किसी मुट्ठी में युगों से बंद बादल-सा विकल हूँ हर घड़ी।

प्राण मैं हूँ वह बवंडर,
जो कहीं पथरा गया।
आह! मैं कितनी शती से, यहाँ
तुझको जोहता हूँ,
किंतु तुने नहीं पहिचाना मुझे।
इन्हीं पत्तों में दबी है, बाँसुरी मेरी कहीं।

किसी टहनी पर कहीं यदि डबडबाए फूल
अधरो को छुला दे,
बाँसुरी मेरी
उठाकर किन्हीं लहरों में सिरा दे।
मुझे गा दे... मुझे गा दे!!

घाट हूँ मैं भी मगर
मुझको नदी छूती नहीं है!!
सुबह से ही प्राण! तुझको जोहता हूँ
पूछता हूँ,
झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारता हूँ।

आह! मेरी सब पुकारें, मेघ बनकर भटकती हैं।
किंतु तुने
नहीं पहिचाना मुझे!!

धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर!
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं!!

‘भटका मेघ’ से। राजपाल एंड संस, 1983

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