आने वाला विश्व पर्यावरण दिवस का त्यौहार

गंगा नदी मैली और संकरी हो रही है। देश कि अन्य छोटी व मझली नदियों को तो बीझन लग गई है। धरती के सीने में अमृत समान जल को अधिक से अधिक बाहर खींचने की होड़ मची है। पेड़ों पर कुल्हाड़ा चल रहा है जिससे जंगल सिमट रहे हैं। पानी बचाने के स्रोत उनकी औलाद ने ही मिटा दिए हैं जिन्होंने उन्हें सींचा था। खान-पान जहरीला हो गया है। शुभ-लाभ में से शुभ गायब करके लाभ कमाने वाले उद्योग बंधु साफ पीने और सिंचाई के पानी में जहर मिलाने से हिचकर ही नहीं रहे हैं।

एक बार फिर विश्व पर्यावरण दिवस का उत्सव मनाने की तैयारी चल रही है। सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाएं व मीडिया अपने-अपने तरीके से विश्व पर्यावरण के त्यौहार को मनाने की चिंता में डूबे हैं। समाज का एक वह वर्ग जो अपने आपको समाजसेवी व जागरूक कहलाना पसंद करता है भी पर्यावरण के चिंतन में गमगीन है। यह वर्ग उस बरसाती मेंढक की तरह कुछ विशेष दिनों में ही प्रकट होते हैं जोकि बरसात में ही बाहर आता है और कतई पीला जर्द रंग का होता है। राज्य सरकारें और केंद्र सरकार यहां तक कि विश्व के सभी देशों की सरकारें पर्यावरण उत्सव को सेलीब्रेट करने के विभिन्न माध्यमों से पैसा लुटाएंगी। अधिकतर स्वयंसेवी संगठन विशेषतौर पर इन विशेष दिनों का इंतजार करते हैं और जुगाड़ लगाते फिरते हैं कि पर्यावरण की चिंता करने के लिए कहीं से पैसा पल्ले पड़ जाए। अगर कहीं से पैसा झटक लिया तो उस दिन बहुत सारे दिखवटी टोटके करेंगे व बहुत बड़े पर्यावरणविद् कहलाने से गुरेज नहीं करेंगे और अगर सरकार, दानदाता संस्थाओं व पर्यावरण के लुटेरे उद्योगपतियों ने पैसा नहीं दिया तो ताना मारेंगे कि उन्हें पर्यावरण की चिंता ही कहां है?

खबरनवीसों की अपनी अलग दुनिया है, हालांकि सभी क्षेत्रों की गिरावट का कुछ असर यहां भी दिखता है, लेकिन फिर भी एक सकारात्मक संदेश समाज तक पहुंचाने में ये कामयाब हो ही जाते हैं। अपनी बात को आंकड़ों में न उलझाकर सीधे-सपाट अगर कहूं तो गंगा नदी मैली और संकरी हो रही है। देश कि अन्य छोटी व मझली नदियों को तो बीझन लग गई है। धरती के सीने में अमृत समान जल को अधिक से अधिक बाहर खींचने की होड़ मची है। पेड़ों पर कुल्हाड़ा चल रहा है जिससे जंगल सिमट रहे हैं। पानी बचाने के स्रोत उनकी औलाद ने ही मिटा दिए हैं जिन्होंने उन्हें सींचा था। खान-पान जहरीला हो गया है।

शुभ-लाभ में से शुभ गायब करके लाभ कमाने वाले उद्योग बंधु साफ पीने और सिंचाई के पानी में जहर मिलाने से हिचकर ही नहीं रहे हैं। यहां तक कि अन्नदाता किसान कैसा मदमस्त हुआ है कि जहरीला अन्न स्वयं भी खा रहा है और दूसरों को भी परोस रहा है। उपरोक्त बातें अपने अनुभव से सीखते हुए मन की पीड़ा बरकरार है कि आखिर क्या ऐसे ही प्रत्येक वर्ष पर्यावरण बचाने का दिखावा चलता रहेगा? आखिर हम कैसे दुखियारे हो गए हैं कि एक-दूसरे से ही पृथ्वी बचाने का रोना रोत रहते हैं? कुछ ऐसा ठोस करने पर कौन और कब ध्यान देगा? क्या हमारी सरकारें गंभीर चिंतन कर पाएंगी? क्या स्वयंसेवी संगठन अपनी ही सेवा करते रहेंगे? क्या फैशन का टोकरा सिर पर धरे चन्द पर्यावरणविद् प्रत्येक वर्ष ऐसे ही अखबारों की सुर्खियां बनते रहेंगे? आखिर समाधान कैसे होगा?

आखिर सरकारें क्यों नहीं पूरे देश के तालाब खाली करा देती हैं? क्यों नहीं शहरों में वर्षाजल संरक्षण न करने वाले को कानून और देश का अपराधी घोषित कर दिया जाता है? आखिर क्यों नहीं प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक वर्ष मात्र एक पेड़ लगाना कानूनन बाध्य कर देती है? क्यों नहीं गंगा जैसी संस्कृति को समाप्त करने पर उतारू भेड़ियों पर लगाम कसी जाती है? इन तथाकथित स्वयंसेवी संगठनों पर भी लगाम कसने का समय है कि आखिर ये समाज के नाम का पैसा हजम क्यों कर जाते हैं? पर्यावरण की ही इतनी अधिक समस्याएं हैं कि अगर हम आगामी एक हजार वर्ष तक भी इसी तरह से दिखावटी विश्व पर्यावरण दिवस मनाते रहे तो भी समाधान संभव नहीं है। वक्त कुछ करने का है न कि सोचने का।

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