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Agriculture
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उन पाठकों को यह पुस्तक पढ़कर आश्चर्य होगा जो इसे मात्र कृषि पर लिखी हुई पुस्तक मानकर पढ़ेंगे। क्योंकि उसमें उन्हें आहार, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक मूल्यों तथा मानवीय ज्ञान की सीमाओं के बारे में भी बहुत कुछ पढ़ने को मिलेगा। दूसरे, यह उन पाठकों को भी चैकाएगी जो इसके प्रति उसके दर्शन के बारे में दूसरों से सुनकर आकर्षित हुए क्योंकि वह एक जापानी फार्म पर चावल, जाड़े की फसलों, नीबूं तथा सब्जियों की खेती के बारे में व्यावहारिक जानकारियों से भी ओतप्रोत है।

चूंकि हमें यह मानकर चलने की आदत सी पड़ गई है कि कोई भी पुस्तक आमतौर से एक ही विषय पर तथा उसी विषय के विशेषज्ञ द्वारा लिखी जाती है। हमें इस समय ‘द वन स्ट्रा रिवोल्यूशन’ ; एक तिनके से आई क्रांति’ जैसी किताब की सख्त जरूरत है। यह किताब हमारे लिए खासतौर से मूल्यवान है। क्योंकि वह एक साथ ही व्यावहारिक और दार्शनिक दोनों है। खेती के बारे में यह एक आवश्यक और प्रेरणादायक किताब इसलिए भी है कि वह केवल खेती के बारे में ही नहीं है।

कृषि की जानकारी रखनेवाले कुछ पाठकों को महसूस होगा कि श्री फुकूओका की तकनीकें हमारे अधिकांश फार्मों पर प्रत्यक्षतः लागू नहीं की जा सकेंगी। मगर इसी वजह से यह मान लेना भी भूल होगी कि इस पुस्तक के व्यावहारिक अंशों की कोई उपयोगिता नहीं है। पुस्तक के ये हिस्से इस दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं कि वे इस बात की मिसाल है कि जब हम भूमि, जलवायु और फसलों का अध्ययन एक नई दिलचस्पी, स्पष्ट दृष्टि तथा सही सरोकारों के साथ करते हैं, तो कितना कुछ हासिल किया जा सकता है। यह व्यावहारिक जानकारी इसलिए उपयोगी है कि उसका लहजा सुझावात्मक और प्रेरणादायी है। जो भी पाठक इन्हें पढ़ेगा, उसका ध्यान बार-बार पुस्तक के पन्नों से अपने खेतों की तरफ खिंचेगा और वहां से वह उपयुक्त संबंध जोड़कर अपनी समूची कृषि प्रणाली पर विचार करने को बाध्य होगा।

हमारे देश में कई लोगों की तरह, मगर उनसे काफी पहले श्री फुकूओका की समझ में यह बात आ गई कि हम जीवन के विभिन्न पहलुओं को एक-दूसरे से अलग नहीं कर सकते। जब हम खाद्यान्न उगाने का अपना तरीका बदलते हैं तो उसके साथ ही हमारा आहार भी बदल जाता है, समाज और हमारे जीवनमूल्य भी। अतः यह किताब संबंधें, कारणों और परिणामों तथा जो कुछ हम जानते हैं, उसके बारे में जवाबदेह होने के बारे में है।

जो लोग जैव-कृषि पर उपलब्ध साहित्य से परिचित हैं, उन्हें श्री फुकूओका तथा पश्चिम में जैव-कृषि विज्ञान के संस्थापक सर आल्बर्ट हॉवर्ड के जीवन में कई समानताएं नजर आएंगी। हॉवर्ड की तरह ही फुकूओका ने भी शुरुआत एक प्रयोगशाला वैज्ञानिक के रूप में की और उन्हीं की तरह उनके सामने भी प्रयोगशाला की सीमाएं शीघ्र ही उजागर हो गयी। हॉवर्ड ने अपना कार्यक्षेत्र प्रयोगशाला से हटाकर खेतों में बनाया और अपनी जीवनशैली भी उसी हिसाब से बदली। क्योंकि उन्हें लगा कि उनकी यह जिम्मेदारी है कि अपनी सलाह दूसरों को देने के पूर्व वे स्वयं उसके अनुसार आचरण करें। इसी ढंग से श्री फुकूओका ने भी अपना रास्ता खुद तय किया। ‘अंत में मैंने अपने विचारों को साकार रूप देने तथा उन्हें व्यावहारिकता की कसौटी पर कसने का फैसला किया, ताकि मुझे पता चल सके कि मेरी समझ सही है या गलत। खेती करते हुए ही अपना जीवन बिताना, यह था वह रास्ता जिस पर मैं चल पड़ा।’ वे आगे कहते हैं, ‘सैकड़ों हिदायतें देने से क्या यह बेहतर नहीं था कि अपने दर्शन को मैं खुद अपने ही जीवन में उतारूं? जब भी कोई विशेषज्ञ अपने परामर्श को खुद ग्रहण करने का निर्णय करता है तथा वैसा ही ‘करना’ शुरू कर देता है, जैसा वह ‘कहता’ है तो वह अपनी विशेषता की सीमाओं को तोड़ देता है। तभी हम उसकी बात पर कान देते हैं - क्योंकि अब उसकी बात सिर्फ उसके ज्ञान पर आधारित न होकर ठोस प्रामाणिकता लिए होती है।’

जब श्री फुकूओका उन कृषि विधियों की बात करते हैं जिन्हें वे ‘कुछ-मत-करो-विधि कहते हैं तो पश्चिम के लोगों को बरबस बाईबल में संत मॅथ्यू की किताब का यह उद्धरण (6: 26) याद आता हैः ‘देखो आसमान में उड़ती उन चिडि़यों को, वो ना कुछ बोती हैं ना काटती हैं, न कुछ खलिहानों में सहेजती हैं, फिर भी परमपिता ईश्वर उनका पेट भरता है।’ इन दोनों ही मामलों में मेरे खयाल से, हमें आगाह किया जा रहा है कि हम ईश्वरीय व्यवस्था में अपनी सही जगह का पहचानें हमने न तो यह दुनिया बनाई है न खुद को बनाया है हम जीवन का उपयोग करते हुए जिंदा हैं न कि उसकी रचना करते हुए। लेकिन जिस तरह परिंदों को भोजन खोजना तो पड़ता ही है, उसी तरह बेशक किसान भी बिल्कुल बिना कुछ किए खेती नहीं कर सकता। इस तथ्य को श्री फुकूओका भी अपनी सहज विनोदप्रियता के साथ स्वीकार करते हैं, ‘मैं कुछ-मत-करो खेती की हिमायत करता हूं यह जानकर कुछ लोग यह सोच लेते हैं कि वे बगैर अपने बिस्तरों से उठे ही अपना जीवन जी लेंगे। निश्चय ही इन लोगों को चौंकाने के लिए मेरी विधि में काफी मसाला है।’ यह तर्क ‘काम’ के विरुद्ध न होकर ‘निरर्थक’ काम के खिलाफ है। कई बार लोग अपनी इच्छित वस्तुएं पाने के लिए आवश्यकता से अधिक काम करते हैं। तथा कई बार ऐसी वस्तुओं की इच्छा भी करते हैं, जिनकी उन्हें जरूरत ही नहीं है।

और कुछ-मत-करो का उल्लेख हम हमारी उस सहजबुद्धि से उपजी मुद्रा के चलते भी कर रहे हैं। जब हम विशेषज्ञों के किसी फतवे के प्रत्युत्तर में पूछते हैं - ‘यदि हम ऐसा न करें या वैसा करें तो भला क्या होगा?’ मेरे सोचने का तरीका कुछ इसी प्रकार का है। यह आम बच्चों और कुछ वृद्धों की वही उलटी चलने की प्रवृत्ति है, जिसके चलते वे इस तरह के कूट तर्कों को ठुकराकर ‘किस लिए’ की उपेक्षा कर आगे बढ़ जाते हैं और ऐसा करते हुए वे गलत नहीं होते।’

श्री फुकूओका एक ऐसे वैज्ञानिक हैं जो विज्ञान या उसके नाम पर चलनेवाली चीजों को ही शंका की नजर से देखते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि वे अव्यावहारिक हैं या ज्ञान को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं। वास्तव में उनका संशयवाद उनकी व्यावहारिकता या जो कुछ वे जानते हैं उससे उपजा है।

सिर्फ अल्बर्ट हॉवर्ड की तरह ही वे ज्ञान को विशिष्टीकरण (स्पेशलाईजेशन) द्वारा टुकड़ों में बांटकर देखने की प्रवृत्ति का विरोध् करते हैं। हॉवर्ड की तरह ही वे अपने विषय का अध्ययन उसकी समग्रता के साथ करना चाहते हैं। तथा उसमें वो जो जानते हैं तथा जो नहीं जानते हैं, वह दोनों ही शामिल हैं।

आधुनिक व्यावहारिक विज्ञान की जो बात उन्हें पसंद नहीं है वह है रहस्यमयता के प्रति उसकी विमुखता, जीवन को उसके ज्ञात पहलुओं तक ही सीमित कर देने की तत्परता तथा वह पूर्व धरणा कि जो कुछ विज्ञान को पता नहीं है उसे जाने बगैर भी उसका काम चल सकता है। वे कहते हैं, ‘विज्ञान द्वारा जिस प्रकृति को हमने जाना है वह, प्रकृति है जिसे नष्ट कर दिया गया है। वह उस कंकाल की तरह है जिसपर किसी आत्मविहीन प्रेत ने कब्जा कर लिया है। ‘कुछ ऐसी ही बात प्रकृतिवादी कवि वर्डस्वर्थ ने भी अपनी इन पंक्तियों में कही हैः

‘हमारी हस्तक्षेपकरी बुद्धि
उन सुंदर आकारों को विकृत कर देती है,
जिनकी हत्या हमने, अपने ही हाथों
उन्हें विच्छेदित करने के वास्ते कर दी।’


श्री फुकूओका के विज्ञान का आदि और अंत, एक ऐसा सम्मान भाव है, एक ऐसी चेतना है जो जानती है कि मानव जिस किसी चीज को भी एक बार अपने हाथों से छूता है उसे वह अनिवार्य रूप से अवमूल्यित कर देता है। वे ऐसा कहते प्रतीत होते हैं कि हम में समग्रता का अहसास ज्ञान से नहीं बल्कि उस आनंद की आनंनभूति से प्राप्त होता है जो उस ज्ञान की अपूर्णता के अहसास मात्र से प्राप्त होती है।

इस विचित्र अनुभूति का समर्थन हमें बाइबल के कुछ प्रसंगों में तथा विलियम ब्लॅक की इन पंक्तियों में भी दिखलाई दे जाता हैः

‘वह जो अपने आप को बांध् देता है
किसी सुख के साथ,
नष्ट कर देता है जीवन की स्वच्छंद उड़ान को,
अगर वह जो, उड़ते आनंद को ही,
चूम, छोड़ देता है, वह सर्वथा जीता है
अनंत के प्रभाव में।’


यही है वह गरिमा जो श्री फुकूओका की कृषि संबंधी अंतर्दृष्टियों के मूल में विद्यमान हैः ‘जब यह बात समझ ली जाती है कि हम सुख को हमेशा के लिए अपना लेने की कोशिश में खो देते हैं, तो हम प्राकृतिक कृषि के सार को हृदयंगम कर लेते हैं।’

और यही प्राकृतिक कृषि, जिसका उद्गम और समापन सम्मान भाव में है ही हर जगह मानवीय और कृपाशील भी है। मानव सबसे अधिक कार्यकुशल तभी होता है जब वह मानव-कल्याण के लिए काम करता है, न कि तब, जब वह और ज्यादा उत्पादन या ‘और अधिक कुशलता’ के लिए, जो कि औद्योगिक कृषि का लगभग अंतिम लक्ष्य है, के लिए काम करता है। ‘कृषि का अंतिम लक्ष्य केवल फसलें उगाना नहीं है।’ श्री फुकूओका कहते हैं, ‘बल्कि इंसानों की परवरिश कर उन्हें संपूर्णता प्रदान करना है।’ और कृषि के बारे में बातें करते हुए वे उसे ‘यहां एक छोटे से खेत पर रहकर, उसकी देखभाल करते हुए पूरी आजादी के साथ, प्रतिदिन की विफलता को सभी दिनों में भोगते हुए जीने का रास्ता’ मानते हैं। क्योंकि निश्चय ही कृषि-कर्म का मौलिक रास्ता भी यही रहा होगा। यह ऐसी खेती है जो सम्पूर्ण व्यक्ति का, सम्पूर्ण शरीर और आत्मा, दोनों का पोषण करती है। यह सही भी है क्योंकि मानव सिर्फ रोटी के लिए और रोटी के बल पर ही नहीं जिया करता है।

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