अमृत का जहर हो जाना

गोरखपुर की महापौर अंजु चौधरी का कहना है कि नदी समस्या बन गई है। यहां के विकास अधिकारी नए-नए उद्योगों को नदी किनारे लगाने की अनुमति देते जा रहे हैं। न पहले लगे कारखाने नियमों का पालन कर रहे है, न नए लगे कारखाने। भला तब अमि साफ कैसे होगी?

इंद्रपाल सिंह भावुक होकर बचपन में ‘अमि’ नदी से मीठा पानी पीने की याद करते हैं। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि नदी को अपना यह नाम आम और अमृत से मिला है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में बह रही 136 किलोमीटर लंबी यह अमि नदी अब जहर बन गई है। गोरखपुर औद्योगिक विकास क्षेत्र (गिडा) से निकलने वाले गंदे पानी के एक नाले ने इस नदी को भी गंदे पानी की एक नदी में बदल कर रख दिया है। नदी के निचले बहाव की ओर रह रहे परिवारों के निवासी अक्सर सर्दी जुकाम, रहस्यमय बुखार, मितली आने और उच्च रक्तचाप की शिकायत करते हैं। रात में गंदे पानी से उठने वाली बदबू से उनका सांस लेना तक दूभर हो गया है। निवासियों का कहना है कि सूर्यास्त के बाद प्रवाह का स्तर आधा मीटर तक बढ़ जाता है।

उत्तर प्रदेश, नोएडा की राह पर गिडा की स्थापना सन् 1980 के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह द्वारा की गई थी। यहां पर कुल 158 औद्योगिक इकाइयां हैं। इनमें कागज मिल और कपड़ा बनाने वाली फैक्टरियां भी हैं। ये इकाइयां प्रतिदिन 4.5 करोड़ लीटर गंदा पानी नालियों में छोड़ती हैं। इस उद्योग क्षेत्र की निगरानी के लिए ही गिडा का गठन किया गया था।

यहां लगे सारे उद्योगों से निकलने वाले गंदे पानी को एक साझा संयंत्र लगाकर साफ करना था और यह काम सन् 1989 तक हो जाना चाहिए था। लेकिन यह तो अभी तक नहीं लग पाया है। इस अधूरे काम को पूरा करने के लिए वर्ष 2009 में एक समिति भी गठित की गई। लेकिन उसकी अब तक केवल एक ही बैठक हुई है।

इस उद्योग नगरी के अलावा नजदीक के दो शहरों का भी सारा गंदा पानी इसी नदी में मिलता है। गोरखपुर स्थित मदन मोहन इंजीनियरिंग कॉलेज के गोविंद पांडे नदी की बिगड़ती सेहत के लिए उद्योग और शहरों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि यहां से 70 लाख लीटर गंदा पानी प्रतिदिन निकलता है और प्रदूषण का यह भार ‘अमि’ के पानी इकट्ठा होने वाले क्षेत्र पर भी पड़ता है।

इस नदी किनारे उद्योग लगने से पहले नदी के 552 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में रहने वाले अधिकांश मछुआरे और किसान ‘अमि’ नदी से जुड़े थे। धान इस इलाके की मुख्य फसल है और गेहूं, जौ भी यहां बोया जाता है। परंतु अब प्रदूषण की वजह से उपज एक तिहाई रह गई है। बोई और रोहू जैसी ताजे पानी की मछलियां अब दिखलाई ही नहीं देती। कई हजार मछुआरे या तो शहरी क्षेत्रों में दिहाड़ी मजदूरी कर रहे हैं या शराब बेच रहे हैं।

देश में नदियां बहुत पहले से बर्बाद हो रही हैं पर यहां के लोगों को तो सन् 1990 तक अपनी ‘अमि’ का अमृत याद है। उन्होंने सन् 1991 में पहली बार नदी में आ रहे परिवर्तनों को देखा। वर्ष 1994 के विश्व पर्यावरण दिवस पर नदी किनारे बसे एक गांव के प्रधान ने सभा का आयोजन किया और इसी में से निकला ‘अमि’ को बचाने का अभियान। वर्ष 1994 में ही यहां के कालेज के श्री पांडे ने गिडा के मुख्य कार्यकारी से क्षेत्र में पर्यावरण प्रभाव का आकलन करने और पर्यावरण प्रबंध की योजना बनाने को भी कहा। वे तैयार तो हो गए लेकिन धन की कमी की वजह से योजना कार्यान्वित नहीं हो पाई। अब तो इस बात को 15 वर्ष से अधिक बीत चुके हैं।

देश में नदियां बहुत पहले से बर्बाद हो रही हैं पर यहां के लोगों को तो सन् 1990 तक अपनी ‘अमि’ का अमृत याद है। उन्होंने सन् 1991 में पहली बार नदी में आ रहे परिवर्तनों को देखा।

देश की हर छोटी-बड़ी नदी की तरह यह अमि भी गंदा नाला बन गई। जनवरी 2009 की मकर संक्रांति दिन यहां एक नया आंदोलन प्रारंभ हुआ। श्री पांडे ने इस दिन नदी में प्रतीक स्वरूप मुट्ठी भर फिटकरी, स्कंदक या जामन और ब्लीचिंग पाउडर प्रवाहित किया। कुछ समय बाद पूर्व छात्र नेता विश्वविजय सिंह ने आंदोलन की बागडोर संभाली और पूरे नदी क्षेत्र की पदयात्रा भी की। तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को यहां की स्थिति से अवगत कराया गया। उन्होंने मुख्यमंत्री मायावती को पत्र लिखा और अप्रैल 2011 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को इस पूरे मामले की जांच का आदेश भी दिया।

इस बीच उत्तर प्रदेश प्रदूषण निवारण बोर्ड व नागरिकों के बीच हुए संघर्ष की भी खूब खबरें बनीं। बोर्ड द्वारा प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को प्रमाण पत्र दिए जाने से उत्तेजित लोगों ने नदी के पानी का नमूना लेने आए अधिकारियों का मुंह काला कर गांव में घुमाया। जिला कलेक्टर की मध्यस्थता के बाद ही उन्हें छोड़ा गया। अब प्रदूषण बोर्ड का कहना है कि इकाइयों को बंद करना समस्या का कोई हल नहीं है। उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं। लेकिन इकाइयां अभी चल रही हैं और नदी को बराबर प्रदूषित कर रही हैं।

अप्रैल 2011 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक तीन सदस्यीय टीम को नदी के पानी की गुणवत्ता की निगरानी के लिए तैनात किया गया। प्रदूषण फैलाने वाले छह उद्योगों की जांच भी की गई।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पानी का सर्वप्रथम परीक्षण गांव के पास एक ऐसे स्थान पर किया, जहां पानी में उद्योगों का गंदा रिसाव नहीं मिलता। रिपोर्ट के अनुसार यहां पानी सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता (ए श्रेणी) का था। इसके बाद ऐसे स्थान से पानी का नमूना लिया गया, जहां पर गंदा पानी नदी में मिलता है। वहां पर पानी गुणवत्ता (डी श्रेणी) की है। ऐसा पानी नहाने तक के लिए ठीक नहीं माना जाता है। निचले हिस्से पर पानी ई श्रेणी का पाया गया। यह रिपोर्ट जून 2011 में पर्यावरण मंत्रालय को सौंप दी गई।

यह कैसा चमत्कार! नदी गंदी और उसे गंदा करने वाला नाला ‘साफ’ निकला! इसकी वजह यह है कि जब नमूने एकत्रित किए गए, उस दौरान प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग उत्पादन ही नहीं कर रहे थे।

फिर उद्योगों से गंदा पानी लेकर आने वाले नाले के पानी की भी जांच हुई। पर इसके पानी की गुणवत्ता प्रदूषण मापदंडों के अंतर्गत ही पाई गई! यह कैसा चमत्कार! नदी गंदी और उसे गंदा करने वाला नाला ‘साफ’ निकला। इसकी वजह यह है कि जब नमूने एकत्रित किए गए, उस दौरान प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग उत्पादन ही नहीं कर रहे थे। विजय सिंह का कहना है हमने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कहा था कि वे निरीक्षण के बारे में उद्योगों को न बताएं। जिस दौरान निरीक्षण हो रहा था, उस दौरान उद्योगों ने अपनी सुविधा के कारण कुछ समय के लिए उत्पादन रोक दिया था। एक संयंत्र रखरखाव के लिए बंद था, एक विद्युत कनेक्श्न के लिए और दो अन्य कच्चा माल न मिलने के कारण। उस कागज बनाने वाली एक बड़ी मिल हाल ही में बंद हुई थी। बोर्ड ने गिडा को एक शोधन संयंत्र लगाने की सलाह दी थी। साथ ही शहर को भी अपने सीवर का पानी साफ करने के लिए कहा। पर सुना दोनों ने ही नहीं।

गोरखपुर की महापौर अंजु चौधरी का कहना है कि नदी समस्या बन गई है। यहां के विकास अधिकारी नए-नए उद्योगों को नदी किनारे लगाने की अनुमति देते जा रहे हैं। न पहले लगे कारखाने नियमों का पालन कर रहे है, न नए लगे कारखाने। भला तब अमि साफ कैसे होगी?

हर जगह अमृत जहर बनता जा रहा है।

लेखक 'सेंटर फॉर साईंस एंड एनवायर्नमेंट' की अंग्रेजी पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ के संवाददाता हैं।

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