अमरत्व की आकांक्षा

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भारतीय संस्कृति के उपासक रहे यम देवता को उपवासी अतिथि को वरदान दिये बिना कैसे चैन पड़ता? तीन वरदान दिये गये। प्रथम वरदान से पिता का क्रोध शान्त हो और वापस जाने पर पिता प्रेम से स्वागत करेंगे ऐसा वर नचिकेता नें माँग लिया। निष्कामी नचिकेता अब समाज के लिये दूसरा वरदान माँगता है। स्वर्ग-सुख प्राप्ति का साधन रूप ऐसा जो यज्ञ आवश्यक होता है उसका तंत्र व मंत्र यमराज से यह बच्चा सीख लेता है। मृत्यु की इस समस्या का अवभान कठोपनिषद के छोटे किन्तु वीर नचिकेता नाम के नायक को हुआ। और वह जीवन-मृत्यु की पहेली को सुलझाने के लिये सीधे यमराज के दरवाजे पर पहुँच गया। प्रत्यक्ष मृत्यु के सिवा जीवन का रहस्य, जीने की कला कौन समझा सकता है? एक अद्भुत रहस्य कठोपनिषद ने विस्फोटित किया है। अमरत्व की, न मरने की गुरु चाभी नचिकेता को यहाँ प्राप्त हुई है। उसका अल्प दर्शन हम यहाँ पर करेंगे। क्योंकि जीवन की एकात्मता ही यहाँ भी व्यक्त हो गई है यह हम देख सकेंगे।

यम के दरबार में पहुँचने के लिये नचिकेता को क्यों निकलना पड़ा-इस कथा में हमें अधिक जाने की आवश्यकता नहीं है। इतना ही घटित हुआ कि पिता की भलाई के लिये नचिकेता ने स्वयं आगे होकर मृत्यु का वरण किया। इसमें पिता क्रुद्ध भी हुआ और उदासी ने उसे घेर भी लिया जब नचिकेता मृत्यु के द्वार पर पहुँचा तब जीवन का नियमन करने वाला यमराज उपस्थित नहीं था। तीन दिनों तक यह छोटा उपवासी साधक राह देखता रहा। जब यमराज लौटकर आए तब उन्हें इस बालक को देखकर अपराधी जैसा लगा।

भारतीय संस्कृति के उपासक रहे यम देवता को उपवासी अतिथि को वरदान दिये बिना कैसे चैन पड़ता? तीन वरदान दिये गये। प्रथम वरदान से पिता का क्रोध शान्त हो और वापस जाने पर पिता प्रेम से स्वागत करेंगे ऐसा वर नचिकेता नें माँग लिया। निष्कामी नचिकेता अब समाज के लिये दूसरा वरदान माँगता है। स्वर्ग-सुख प्राप्ति का साधन रूप ऐसा जो यज्ञ आवश्यक होता है उसका तंत्र व मंत्र यमराज से यह बच्चा सीख लेता है। यमराज बहुत सन्तुष्ट होकर यह विधि समझा देते हैं। क्योंकि अपने लिये नहीं, सभी के लिये अग्नि की यह उपासना इस बालक ने माँग ली इसका कौतुक यमदेव को लगा।

अब आखिर का तीसरा वरदान नचिकेता अपने लिये माँग लेता है। मृत्यु का और जीवन का सत्य स्वरूप क्या है। जीवन का सत्य स्वरूप समग्रता से कैसे मालूम करें, कैसे पचा लें और उसे कैसे प्रत्यक्ष में जी लें यह सब वह समझ लेना चाहता है। ऐसा यह अद्भुत शिष्य मिलने का आश्चर्य यमराज को नहीं होता तो ही आश्चर्य की बात हो जाती। इतने से इस बालक को जीवन-मृत्यु का रहस्य खोलकर देखने की प्रेरणा किसलिये हुई है? इससे तो वह भोग के, लड्डू-जलेबी के, अनुपम सौन्दर्यवान अप्सराओं के साम्राज्य माँग लेता और इनके उपभोग के लिये चाहे तो सैकड़ों वर्षों की लम्बी आयु भी माँग लेनी थी। यमराज कहते हैं-

ये ये कामाः दुर्लभा मर्त्यलोके
कामानां त्वा कामभाजं करोमि।


मृत्यु लोक में अत्यन्त दुर्लभ ऐसी सभी कामनाओं की तृप्ति हो, सभी भोग तुम्हारे सामने हाथ जोड़कर, अंजलि बद्ध होकर खड़े रहें, ऐसी व्यवस्था मैं कर सकता हूँ। चाहे तो धरती का साम्राज्य माँगो। लेकिन जन्म-मृत्यु के सत्य-स्वरूप समझा देने की माँग मत करो। ‘नचिकेता मरण माSनुत्रेक्षी।’

परन्तु नचिकेता भोगवाद के जाल में फँसा नहीं था। इन्द्रिय-सुख के प्रलोभनों को एक ही झटके से दूर करके वह यमराज से जो कहता है वह तो महावीर को शोभा देने वाली बात ही है। इन शब्दों में उसकी शिष्यत्व माँगने के लिये यमराज के निकट दी हुई एंट्रेंस परीक्षा ही थी।

श्वोSभावा मर्त्यस्य यदंकैतत्।
सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।।
अपि सर्वं जीवितं अल्पमेव।
तवैव वाहास्तव नृत्य गीते।।


आपके सुझाये हुए ये सभी भोग क्षण भर के साथी होते है यमराज! कल उनका ताजापन नाम शेष हो जाएगा। इसके सिवा यह भी ध्यान देने की बात है कि इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होती जाती है। मनुष्य का जीवन ही कितना अल्प होता है! इसलिये ये स्त्रियाँ, इनका नृत्यगायन तुम्हें ही लखलाभ हो!

नचिकेता की इतनी तैयारी देखकर यमदेव अधिक ही प्रसन्न हो गए। फिर भी इस बालक को समझाने के लिये वे बता देते हैं कि तुम्हें जो रहस्य खोलकर समझना है वह तो बड़े-बड़ों को भी समझने में कठिन होता है। क्योंकि इन्द्रियों के दरवाजे बाह्य जगत में खुलते हैं और यह रहस्य तो हृदय की गुफा में, अन्तरात्मा में छिपा है।

पराञ्चिखानी व्यतृणत् स्वयंभूः
तस्मात् पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्।


विश्वकर्ता ने इन्द्रियों को बाह्य विश्व की ओर देखने लायक ही बनाया है, इसी वजह से बहुत से लोग नित्य नूतन बाह्य जीवन में ही मोहित होकर जीते रहते हैं। अन्तरात्मा की ओर उनकी दृष्टि ही मुड़ती नहीं।

फिर किसकी नजर हृदयस्थ चैतन्य की ओर मुड़ती है? यमदेव को मालूम है कि यह अल्प उमर का महावीर यही जिज्ञासा लेकर यहाँ पहुँचा है। रहस्य खोलने का प्रारम्भ अब होता है।

कच्यित धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत्।
आवृत्त चक्षुः अमृतमिच्छन्।।


अमृतत्व की आकांक्षा जिसके चित्त में उग आई ऐसे किसी धीर गम्भीर महात्मा को इन्द्रियों के बाहर खुलने वाले द्वार बन्द करके दृष्टि अन्तरंग में लगाकर प्रत्यगात्मा के दर्शन पाने की प्रेरणा होती है। इस आन्तरिक चैतन्य का प्रत्यय-प्रत्यक्ष अनुभूति हरेक मनुष्य को लेना सम्भव है। परन्तु इसके लिये- ‘प्रेय’ का इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले भोगों का मोह टालकर ‘श्रेय का’ – सर्वव्याप्त एकत्व का-साक्षात्कार करा लेना होता है। प्रत्यगात्मा की अनुभूति में यही घटित होता है। इसके बिना मृत्यु को जीतना सम्भव नहीं होता है। अमरत्व का मार्ग मीरा के समान सर्वस्व त्याग की तैयारी रखने वाले व्यक्तियों के लिये होता है।

‘उलट भयी मेरे नयनन की
मोहे लागी लटक गुरु चरनन की!’


ऐसा मीरा कह सकी थी। उसके नयन उलटी दिशा में अन्तरात्मा की ओर लग गए थे। इसीलिये उसे मृत्यु का भय भी लगना सम्भव नहीं था। फिर भवसागर? मृत्यु का विकराल स्वरूप ऐसों के लिये कैसे शेष रहेगा? फिकर नहीं मुझे तरनन की। मीरा आत्मविश्वास से गा सकी थी।

 

सन्तुलित पर्यावरण और जागृत अध्यात्म

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम संख्या

अध्याय

1.

वायु, जल और भूमि प्रदूषण

2.

विकास की विकृत अवधारणा

3.

तृष्णा-त्याग, उन्नत जीवन की चाभी

4.

अमरत्व की आकांक्षा

5.

एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त

6.

निष्ठापूर्वक निष्काम सेवा से ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति

7.

एकात्मता की अनुभूति के लिये शिष्यत्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका

8.

सर्व-समावेश की निरहंकारी वृत्ति

9.

प्रकृति प्रेम से आत्मौपम्य का जीवन-दर्शन

10.

नई प्रकृति-प्रेमी तकनीक का विकास हो

11.

उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम

12.

अपना बलिदान देकर वृक्षों को बचाने वाले बिश्नोई

13.

प्रकृति विनाश के दुष्परिणाम और उसके उपाय

14.

मानव व प्रकृति का सामंजस्य यानी चिपको

15.

टिहरी - बड़े बाँध से विनाश (Title Change)

16.

विकास की दिशा डेथ-टेक्नोलॉजी से लाइफ टेक्नोलॉजी की तरफ हो

 


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