अमर उजाला फ़ाउंडेशन : राष्ट्रीय पत्रकारिता फ़ेलोशिप

किसी दैनिक अखबार का फाउंडेशन होने के नाते किया गया यह एक बेहतरीन काम है। अखबारों को रोजमर्रा की खबरों से ऊपर उठकर कभी-कभी किसी समस्या की गहराई तक जाते हुए ऐसे अध्ययन करने चाहिए। अमर उजाला फ़ाउंडेशन ने अपने से जुड़े व न जुड़े कुछ पत्रकारों को ऐसी जिम्मेदारी सौंपकर अच्छा काम किया। मुझे इस बात की भी प्रसन्नता है कि जिन अध्ययनकर्ताओं को यह जिम्मेदारी दी गई, उन्होंने क्षेत्र में जाकर, अनुभवी लोगों से बात करते हुए, तथ्यों के आधार पर अध्ययन को पूरा किया। अमर उजाला फ़ाउंडेशन हमेशा से सामाजिक मूल्यों से जुड़ी पत्रकारिता के लिये जाना-माना जाता रहा है। प्रतिष्ठान द्वारा गठित अमर उजाला फ़ाउंडेशन ने धुन के पक्के और दृष्टिवान, हिन्दी के युवा पत्रकारों को अपने सरोकारों और पेशेगत कुशलता को तराशने में मदद करने के उद्देश्य से एक मीडिया फेलोशिप कार्यक्रम शुरू करने का फैसला किया है। भारत के किसी भी मीडिया संस्थान में कार्यरत पत्रकार इसके लिये आवेदन कर सकते हैं।

फ़ाउंडेशन का मानना है कि पत्रकारिता से जुड़े संवेदनशील और प्रतिभाशाली युवाओं को करियर के शुरुआती दौर में लीक से हटकर काम करने का मौका मिलना चाहिए, ताकि उनमें देश और समाज को गहराई से प्रभावित वाले मुद्दों पर सुलझे नज़रिए से काम करने का उत्साह कम न हो।

1. अवधि एवं कार्यक्षेत्रः एक साल की इस फेलोशिप के इच्छुक अभ्यार्थी देश के किसी खास क्षेत्र या समूचे देश को अपना कार्यक्षेत्र बना सकते हैं। आप कोई भी ऐसा मुद्दा ले सकते हैं जिस पर शोध से सामाजिक पत्रकारिता में योगदान के अवसर खुल सकें।

2. उम्र की सीमाः पत्रकारिता के क्षेत्र में कम-से-कम पाँच साल का अनुभव रखने वाले 35 साल की उम्र के पत्रकार आवेदन कर सकते हैं।

3. आवेदन का तरीकाः जिस भी विषय को आप चुनना चाहते हैं, उसके बारे में 1,000 शब्दों का प्रस्ताव (सिनॉप्सिस) हमें भेज दें।

4. संस्थान की अनुमतिः आवेदन के साथ, जिस संस्थान से आप सम्बद्ध हैं, उसका अनापत्ति प्रमाण पत्र फ़ाउंडेशन को प्रस्तुत करना होगा।

5. चयन प्रक्रिया एवं प्रगति की समीक्षाः निर्णायकों की एक समिति आपके प्रस्ताव (सिनॉप्सिस) के प्राथमिक रूप से चुने जाने के बारे में विचार करेगी। इसके बाद साक्षात्कार के माध्यम से फ़ेलोशिप दिये जाने का अन्तिम फैसला निर्णायक मण्डल द्वारा किया जाएगा। चयनित अभ्यर्थियों के काम की प्रतिमाह अनिवार्य समीक्षा होगी। माह के पहले सप्ताह, पिछले माह के बिल जमा कराने होंगे।

6. शोध का प्रकाशनः एक साल के भीतर ही अपना शोधकार्य पूरा करके अपना पूरा काम दो प्रतियों में आपको फाउंडेशन को सौंपना होगा। इसके पुस्तक रूप में प्रकाशन के लिये आप अपने स्तर से किसी प्रकाशक से बात करने के लिये स्वतन्त्र होंगे। फ़ाउंडेशन भी इस काम में यथासम्भव आपकी मदद करेगा। फ़ाउंडेशन को यह अधिकार होगा कि फ़ेलोशिप के अन्तर्गत किये गए शोध का आंशिक या पूर्ण उपयोग बिना किसी अतिरिक्त भुगतान के अपने प्रकाशकों में कर सके।

फ़ेलोशिप के माध्यम से तैयार हुए अपने शोध का प्रकाशन यदि फ़ेलोशिप प्राप्तकर्ता अपने स्तर से कर रहा है, तो उसमें इस फ़ेलोशिप का उल्लेख यथोचित तरीके से किया जाना अनिवार्य होगा।

7. फेलोशिप राशिः एक-एक लाख की दो फ़ेलोशिप इस बार दिया जाना प्रस्तावित है। इसमें अध्ययन से सम्बद्ध होने वाला व्यय शामिल है।

8. आवेदन का प्रारूपः अपने संक्षिप्त बायोडाटा के साथ 1,000 शब्दों का प्रस्ताव (सिनॉप्सिस) भेजें। बायोडाटा में शैक्षणिक योग्यता, कार्य अनुभव के साथ ही अगर पहले कोई और पत्रकारिता- फ़ेलोशिप मिली है, उसका भी उल्लेख करें और अपनी बाइलाइन वाली तीन श्रेष्ठ रिपोर्ट/ आलेख की फोटो कॉपी भी संलग्न करें। दो ऐसे व्यक्तियों के नाम, पता और ईमेल, फोन नम्बर लिखें जो आपको और आपके पत्रकारीय काम के बारे में जानते हों।

किसी दैनिक अखबार का फाउंडेशन होने के नाते किया गया यह एक बेहतरीन काम है। अखबारों को रोजमर्रा की खबरों से ऊपर उठकर कभी-कभी किसी समस्या की गहराई तक जाते हुए ऐसे अध्ययन करने चाहिए। अमर उजाला फ़ाउंडेशन ने अपने से जुड़े व न जुड़े कुछ पत्रकारों को ऐसी जिम्मेदारी सौंपकर अच्छा काम किया। मुझे इस बात की भी प्रसन्नता है कि जिन अध्ययनकर्ताओं को यह जिम्मेदारी दी गई, उन्होंने क्षेत्र में जाकर, अनुभवी लोगों से बात करते हुए, तथ्यों के आधार पर अध्ययन को पूरा किया। यह पहला अनुभव था। इस अध्ययन में यदि कुछ कमियाँ रह गई होंगी तो उनको समझकर अगले प्रयासों में निखारा जाएगा।
अनुपम मिश्र, लेखक व पर्यावरणविद् (अध्यक्ष, निर्णायक मण्डल अमर उजाला फाउंडेशन फेलोशिप- 2015)

घाघरा की तबाही, विस्थापितों का दर्द


शोधार्थीः विवेक मिश्रा

अंग्रेजों ने कोसी नदी को ‘बिहार का शोक’ कहा था। अब पूर्वी उत्तर प्रदेश में घाघरा को शोक कह कर पुकारा जा रहा है। एक नदी जो कभी वरदान थी, आज शोक कैसे हो गई? समूचे पूर्वी उत्तर प्रदेश में उर्वरा जमीन का निर्माण ही घाघरा (कर्णाली), ताप्ती, शारदा के कारण हुआ है। इन नदियों के बलबूते ही बहराइच से लेकर बलिया तक की भूमि में ताकत आई है। किसानों में विश्वास पैदा हुआ कि वे कुछ भी पैदा कर लेंगे। शोध में पाया गया कि नदियों के कछार में सबसे ज्यादा मल्लाह और यादव जाति के लोग रहते हैं। इन दोनों जातियों का नदी से गहरा रिश्ता है। इन्हें तट से अलग करने पर इनका जीवन रुक जाता है लेकिन बाढ़ की विभीषिका के चलते इनका खूब विस्थापन हुआ है। बलिया में चाँद दियार, बकुलहाँ, सितादियारा, बिहार के छपरा के माँझी और माँझीघाट में लोग बुरी स्थितियों में हैं। यहाँ बाढ़ की वजह से आबादी साल में सिर्फ एक फसल पैदा करती है। कुछ जगह पर लोग दो से तीन फसलें पैदा करते थे, लेकिन पिछले कुछ सालों से बाढ़ ने किसानों को एक फसल पर जीने को मजबूर कर दिया है। बाढ़ की विभीषिका में शासन की नीतियाँ और अव्यवस्थाएँ प्रबल जिम्मेदार हैं। बाढ़ की तिथियाँ सभी को पता हैं तो फिर पहले से तैयारियाँ क्यों नहीं करते? बाढ़ में बह जाने के नाम पर इनमें जमकर घोटाले भी होते हैं।

पंजाब की शिक्षा में नवाचार


शोधार्थीः सुरेन्द्र बांसल

शिक्षा के ऐसे कठिन दौर के बीच पंजाब के गुरदासपुर जिले के तुगलवाला गाँव का बाबा आया सिंह रियाड़की कॉलेज आशा की अकम्प जोत की तरह टिमटिमा रहा है। कॉलेज 1925 के गुलामी के दौर से लेकर आज तक न केवल टिका रहा बल्कि अपने दृढ़ संकल्प के कारण धीरे-धीरे मिसाल बनता रहा। शिक्षा जगत के कड़वे अनुभवों भरे दौर में इस मीठे संस्थान में सेवा, सुमिरन, ईमानदारी, सच्ची कीरत (कर्म) तथा परोपकार का व्यवहारिक पाठ पढ़ाया जाता है। इसकी स्थापना रियाड़की क्षेत्र के परोपकारी बाबा आया सिंह जी ने 1925 में पुत्री पाठशाला के रूप में की थी। बाबा आया सिंह जी के जाने के बाद 1975 में मात्र 14 लड़कियों को लेकर इस विद्यालय की पुनर्स्थापना में श्री स्वर्ण सिंह जी जुटे। आज इस पाठशाला में लगभग 4,000 विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिनमें 2,500 लड़कियाँ हैं। 15 एकड़ में फैले कॉलेज में 10 एकड़ भूमि में खेती की जाती है। भोजन पकाने के लिये सूखी घास का प्रयोग होता है और प्रतिदिन सवेरे घास काटने की 45 मिनट की सामूहिक कक्षा होती है। मात्र इतना ही नहीं शाला के पास अपनी आटा चक्की है, मसाला चक्की, तेल पिराई और गन्ने का रस निकालने वाली मशीन भी है। पूरे कॉलेज में न कोई नौकर, न चपरासी, न धोबी, न चौकीदार। सभी काम छात्राएँ स्वयं करती हैं।

खाप पंचायतें


शोधार्थीः अंतिमा सिंह

पंचायतें हमारे समाज में प्राचीन काल से प्रचलित हैं। ऋग्वेद में भी सभा और समिति का वर्णन मिलता है। इसके बाद की सभी कालों में पंचायतों का जिक्र किसी-न-किसी रूप में मिलता है। लेकिन मूल रूप से खाप पंचायतों के उदय के बारे में कोई ठोस जानकारी किसी के पास नहीं है। हाँ, हर्षवर्धन काल से सर्वखाप पंचायतों का जिक्र इतिहासकारों को मिलता रहा है। अब यह माना जाने लगा है कि 1500 साल से सर्वखाप पंचायतें चलन में हैं। 19वीं शताब्दी से यह शब्द चलन में आया लेकिन इसके बाद यह कैसे चलन में आता गया, इसका कोई ठोस सबूत या प्रमाण नहीं है। स्वतन्त्रता आन्दोलन में इनके अनुकरणीय योगदान का भी इतिहास मिलता है। आजादी के बाद पहली सर्वखाप की पंचायत शोरो गाँव में 1950 में आठ और नौ मार्च को हुई थी। किसान आन्दोलन में खापों की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। लेकिन आज-कल खापें अपने कुछ विवादास्पद फैसलों के कारण चर्चा में आईं। इनकी चर्चा इस हद तक हुई कि इन्हें सुप्रीम कोर्ट ने भी तलब किया और कानून के दायरे में रहकर काम करने की हिदायत दे डाली। लगातार निशाने पर रहने के बावजूद आज भी खापों की सामाजिक स्वीकार्यता बनी हुई है।

लिफाफे पर स्पष्ट रूप से अंकित हो-
अमर उजाला फ़ाउंडेशन राष्ट्रीय पत्रकारिता फ़ेलोशिप के लिये
आवेदन प्राप्ति की अन्तिम तिथि हैः 10 जुलाई, 2015

आवेदन


वर्ष 2015-16 की फ़ेलोशिप के लिये निर्धारित प्रारूप में आवेदन इस पते पर भेजे जा सकते हैं-

प्रोजेक्ट निदेशक, अमर उजाला फ़ाउंडेशनसी- 21,22 सेक्टर -59 नोएडा-201301
ईमेल : foundation@amarujala.com


नोटः अमर उजाला समूह से सीधे या परोक्ष रूप से जुड़े लोग इसमें आवेदन नहीं कर सकते।

Path Alias

/articles/amara-ujaalaa-phaaundaesana-raasataraiya-patarakaaraitaa-phaelaosaipa

Post By: RuralWater
×