अम्लीय मृदा का उपचार

पूर्वी राज्यों (प. बंगाल, बिहार, झारखण्ड और उड़ीसा) में कृषि उत्पादकता बढ़ाने की किसी भी योजना के क्रियान्वयन में कई प्रकार के अवरोध सामने आते हैं। इन क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की समस्या वाली भूमि हैं जिनमें इष्टतम उत्पादन में जो अवरोध हैं, वे या तो मृदा के भौतिक-रासायनिक गुणों की वजह से है या फिर भूमि में पहले से ही मौजूद विशिष्टताएं हैं और/अथवा वहाँ की पर्यावरणीय दशायें हैं, जो फसल की इष्टतम वृद्धि नहीं होने देती और उसे सीमित कर देती हैं। इसके परिणामस्वरूप इन भूमि की उत्पादकता काफी हद तक कम हो जाती है। मृदा की अम्लता भी इसी प्रकार का एक कारक है जिससे फसल के उत्पादन पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव उड़ीसा सहित पूर्वी राज्यों के काफी बड़े क्षेत्र में काफी वर्षा तथा हल्की संरचना वाली मिट्टी में विशेष रूप से देखा जा सकता है।
 

2.समस्यायें:-


मृदा (मिट्टी) की अम्लता मिट्टी में मौजूद, उन सूक्ष्म पादपों (micro flora) के लिए प्रतिकूल माध्यम सृजित करती है, जो मृदा के जटिल कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थों को ज्यादा सरल और घुलनशील स्वरूप में विघटित कर देते हैं। इस अम्लता के कारण मिट्टी में लाभप्रद सूक्ष्म-जीव ठीक से वृद्धि नहीं कर पाते हैं और प्राथमिक, द्वितीयक और सूक्ष्म-पोषक तत्व मिट्टी में यथावत् स्थिर अथवा अघुलनशील स्वरूप में पड़े रहते हैं और पौधे इनका उपयोग नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा, अत्यधिक अम्लता वाली मृदा में `फास्फेट स्थिरीकरण` की विकट समस्या है। फास्फेट अम्लीय मृदा में मौजूद घुलनशील लोहे (आयरन) के साथ स्थिर हो जाता है।

मृदा की पीएच (pH)इसकी अभिक्रिया (Reaction) की सूचक है। यदि मृदा की पीएच (pH) 7 होती है तो ऐसी मृदा की अभिक्रिया उदासीन होती है और यदि मृदा की पीएच (pH) 7 से अधिक होती है तो ऐसी मृदा की अभिक्रिया क्षारीय होती है और यदि मृदा की पीएच (pH) 7 से कम होती है तो इस प्रकार की मृदा की अभिक्रिया अम्लीय होती है। मृदा में अत्यधिक अम्लीय और क्षारीय दोनों ही प्रकार की अभिक्रिया से फसल की वृद्धि रुक जाती है। इसलिए इष्टतम फसल उत्पादन के लिए ऐसी मृदा का उपचार किया जाना चाहिए। अत्यधिक अम्लीय अर्थात् 4.5 से कम पीएच (pH) वाली मृदाओं में सूक्ष्म पादपों की वृद्धि क्षीण पड़ जाती है और लोहा, ताँबा और अल्यूमीनियम जैसे तत्वों की विषाक्तता बढ़ जाती है।

अम्लीय मृदा को मोटे तौर पर श्रेणियों में बाँटा जा सकता है अर्थात् कम अम्लीय मृदाएं (पीएच 5.5 से 6.5 तक), मध्यम अम्लीय मृदाएं (पीएच 4.5 – 5.5 तक) और अत्यधिक अम्लीय मृदाएं (पीएच 4.5 से कम)। फसल उत्पादन की दृष्टि से, इनमें से प्रथम श्रेणी की मृदा में कम समस्या होती है। इस प्रकार की मृदा में फास्फेट के स्थिरीकरण की समस्या होती है, जिसे जैविक सामग्री और रॉक-फास्फेट का मिश्रण तथा सुपर फास्फेट को मिलाकर सुरक्षित ढंग से ठीक किया जा सकता है। वास्तविक रूप से समस्या उस अम्लीय मृदा का उपचार करने में आती है, जिसकी पीएच (pH) 5.5 से कम होती है।

उड़ीसा की लाल लेटेराइट मृदाएं अधिकांशत: मोटे कणों की संरचना वाली मिट्टी है। यह मृदा एकल कणीय से लेकर हल्की दानेदार तक है और इसमें जल संचयन क्षमता कम होती है। इसलिए, जहाँ तक इनमें सफल वर्षा सिंचित कृषि का संबंध है, अभी तक इन मृदाओं में काफी गंभीर समस्यायें मौजूद हैं। इनमें सतह पर पपड़ी पड़ जाने से बीजों के अंकुरण पर प्रतिकूल असर पडत़ा है।

3.मृदा की अम्लता के कारण:-


अम्लीय मृदाएं अवसादी (Sedimentary) प्रकृति की होती हैं। ये लेटेराइट, लौहमय लाल और अन्य लाल मृदा समूह की मृदाएं होती है। इनका विकास मुख्यत: भू-आकृति, अम्लीय मूल सामग्री और नमीयुक्त जलवायु के प्रभाव से होता है। गर्म व नमीयुक्त जलवायु और अत्यधिक वर्षा की स्थिति में मृदाओं की मूल सामग्री में तीव्र अपक्षयण (Weathering) होता है और क्षारों (bases) की लीचिंग काफी बढ़ जाती है। संक्षेप में, उच्च तापमान के साथ भारी वर्षा और अत्यधिक लीचिंग से अम्लीय मृदाओं का निर्माण होता है।

उदाहरण के लिए उड़ीसा में, जलवायु पर उच्च तापमान और भारी वर्षा का प्रभाव रहता है। राज्य में औसत सामान्य वर्षा 1502 मिमी होती है, जिसकी रेन्ज (Range) 1300 से 1650 मिमी के बीच रहती है। करीब 76 वर्षा जून से सितम्बर के बीच लगभग 72 दिन होती है। अधिकतम तापमान 45 डिग्री से 48 डिग्री सेलीसियस रहता है और न्यूनतम तापमान 9 डिग्री सेलिसियस से 10 डिग्री सेलिसियस तक रहता है।

4. अम्लीय मृदा की प्रकृति और विस्तारः-


ऐसा अनुमान है कि पूरे विश्व में अम्लीय मृदाओं का विस्तार 800 मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में है। भारत में इनका विस्तार लगभग 100 मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में है। राज्यवार अम्लीय मृदा क्षेत्र अनुबंध-I; में दिया गया है। उड़ीसा में इनका विस्तार अनुमानतः 12.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में है, जोकि पूरे राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 80% हिस्सा है। इसके अलावा, अम्लीय मृदा क्षेत्र में 80% से अधिक कृषि योग्य भूमि वर्षा सिंचित है और विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में कुल वार्षिक वर्षा और इसके विस्तार में काफी भिन्नता है। वर्षा सिंचित दशाओं में फसल प्रणाली वर्षा के वितरण, कुल वर्षा और मृदा की नमी संग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। उड़ीसा के आठ मुख्य मृदा समूहों में से लेटेराइटस और लेटेरिटिक मृदाओं, लाल मृदाओं, मिश्रित लाल और पीली मृदाओं, मिश्रित लाल और काली मृदाओं और भूरे रंग की वनीय मृदाओं की अभिक्रिया सामान्यत: अम्लीय हैं। अवसादी (Sedimentary) प्रकृति की ऊँची भूमि की मृदाएं भी अम्लीय प्रकृति की होती हैं क्योंकि उनमें काफी मात्रा में घुलनशील सल्फेट और क्लोराइड मौजूद होते हैं। इसके अतिरिक्त, समुद्र-तट के मैदानी इलाके की बजाय अम्लीय मृदाएं ज्यादातर अन्त: स्थलीय जिलों में पाई जाती हैं। समुद्र तटीय मैदानी क्षेत्रों के अन्तर्गत, कटक जिले का अथागढ़ क्षेत्र, गंजम जिले के पहाड़ी क्षेत्र, खुर्दा के आसपास का लेटेराइट क्षेत्र राज्य के अम्लीय मृदा क्षेत्र के अंतर्गत आता है। मृदा परीक्षण शालाओं द्वारा किये गये मृदा परीक्षण यह दर्शाते हैं कि बालासोर जिले में 37% अम्लीय मृदा की तुलना में मयूरभंज जिले की 85% से अधिक मृदा अम्लीय प्रकृति की है। सम्बलपुर, सुन्दरगढ़, फुलबनी और ढेंकानाल जिलों की 60% से अधिक मृदाएं अम्लीय प्रकृति की हैं। किन्तु, कालाहांडी जिले की सिर्फ 35% मृदाएं अम्लीय प्रकृति की हैं क्योंकि यहाँ पर बीच-बीच में काफी बड़े-बड़े हिस्सों में गैर अम्लीय काली मृदाएं पाई जाती हैं। बोलनगीर जिले में, लगभग 44 और कोरापुट जिले के 33% क्षेत्र में इनका फैलाव है।

इसके साथ ही, अम्लीय मृदाओं के इन समूहों की पीएच (pH) में काफी अंतर पाया गया है। उड़ीसा के विभिन्न क्षेत्रों की लेटेरिटिक मृदाओं की पीएच (pH) 4.2 से 6.7 के बीच पाई गई है और लाल मृदाओं की पीएच (pH) 4.5 से 6.5 के बीच पाई गई है। नयागढ़ की मिश्रित लाल और काली मृदाएं तुलनात्मक रूप से अधिक अम्लीय (पीएच 4.7 से 5.2) हैं। भूरे रंग की वनीय मृदाएं हल्के तौर पर अम्लीय (पीएच 6.3 से 6.5) हैं।

5. अम्लीय मृदाओं की उर्वरता की स्थितिः-


भूरे रंग की वनीय मृदाओं को छोड़कर, उड़ीसा में अम्लीय मृदाओं के अन्य समूहों में जैविक सामग्री और नाइट्रोजन की कुल मात्रा कम होती है। इनमें नाइट्रोजन की कुल मात्रा 0.027 से 0.093 प्रतिशत के बीच पाई जाती है और कार्बन/नाइट्रोजन का अनुपात 8:1 से 13.7:1 के बीच होता है। उड़ीसा की अधिकांश लाल और लेटेरिटिक अम्लीय मृदाओं में फास्फोरस की मात्रा भी कम होती है, जबकि इसकी कुल मात्रा पर्याप्त है। उड़ीसा की लौहमय अम्लीय मृदाओं में पोटाश की थोड़ी मात्रा पाई जाती है।

6. अम्लीय मृदा का प्रबंधनः-


अम्लीय मृदाओं के प्रबंधन में उद्देश्य यह होना चाहिए कि उत्पादन की संभावना बढ़े। इसके लिए अम्लता को दूर करने के लिए सुधार किये जाने चाहिए और खेती करने की पद्धतियों में बदलाव किया जाना चाहिए ताकि मृदा की अम्लीय स्थितियों में फसल की इष्टतम उपज प्राप्त की जा सके। इस प्रकार की एक पद्धति यह है कि मृदा की अम्लीय स्थिति को सहन कर सकने वाली फसलें/प्रजातियाँ उगाई जायें और उन्हें उपयुक्त संवाहकों के माध्यम से पूरक पोषक तत्व दिये जायें।

मृदा जब अत्यधिक अम्लीय होती है और जहाँ अम्ल के प्रति संवेदनशील फसलें लगाकर बहुफसलन (मल्टीक्रापिंग) की जाती है, तो ऐसी स्थितियों, में लाइमिंग (Liming) की पद्धति अपनाना वांछनीय होता है। लाइमिंग (Liming) से बेस संतृप्तता (base saturation)और कैल्शियम एवं मैगनीशियम की उपलब्धता बढ़ जाती है। फास्फोरस (P) और मॉलीबिडेनम (Mo) का स्थिरीकरण अभिक्रियाशील घटकों को निष्क्रिय बनाकर कम किया जाता है। अधिक घुलनशील अल्यूमीनियम (Al), आयरन (Fe) और मैगनीज (Mn) से उत्पन्न विषाक्तता को घटाया जाता है और इस तरह जड़ों की वृद्धि को बेहतर बनाया जाता है और पोषकतत्वों को ग्रहण करने में सुधार होता है। लाइमिंग (Liming) सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता को अभिप्रेरित करती है और नाइट्रोजन स्थिरीकरण और नाइट्रोजन खनिजीकरण को बढ़ाती है। इस प्रकार लाइमिंग से फलीदार फसलों को बहुत लाभ होता है।

एक सामान्य अनुमान के अनुसार उत्तरीय पठार में फसल क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली भूमि के लगभग 30 प्रतिशत, मध्यवर्ती टेबल-भूमि में 18 प्रतिशत, पूर्वी घाट क्षेत्र में 21 प्रतिशत और उड़ीसा के समुद्रतटीय किनारे में 24 प्रतिशत हिस्से में अम्लीय मृदा सुधार की जरूरत है। लाइमिंग से पादप पोषक तत्वों (स्थानीय और सहायक स्रोतों से प्राप्त) का बेहतर ढंग से उपयोग हो पाता है।

6. 1 चूने (Caco3 ) का उपयोग करके मृदा-उपचार


लाइमिंग कार्यक्रम में पहली और मुख्य बात यह है कि संबंधित मृदा के लिए चूने की उस आवश्यक मात्रा का आकलन किया जाये जिससे फसल/फसलों की इष्टतम उपज प्राप्त हो सके मृदा की विनिमय अम्लता (Exchange acidity) और प्रतिशत बेस संतृप्तता (base saturation)के आधार पर लाइम आवश्यकता अनुमानित की जाती है। लाइम आवश्यकता का निर्धारण करने के लिए प्रस्तावित विभिन्न विधियों में से, सुरक्षित साम्यीकरण विधियाँ (Buffer equilibration methods बहुत आसान और परिशुद्ध है। उड़ीसा में अम्लीय मृदा की लाइम आवश्यकता का आकलन करने के लिए संशोधित वुडरफ विधि का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है (2.02 से 6.08 टन/हेक्टेयर)। हालांकि, कई फील्ड स्तरीय परीक्षणों में यह सत्यापित किया गया है कि इस विधि द्वारा आकलित की गई लाइम आवश्यकता की पूरी खुराक, जो पीएच 7.0 अथवा उससे अधिक कर देती है, अधिकाँश फसलों की इष्टतम उपज को प्राप्त करने के लिए जरूरी नहीं है। लेटेराइट मृदाओं हेतु लाइम की वांछित खुराक (डोज) मक्का और कपास के लिए वुडरफ बफर (पीएच 7.0) विधि द्वारा निर्धारित की गई लाइम आवश्यकता (एलआर) की खुराक (डोज) की आधी पाई गई थी। वैज्ञानिकों ने सेमिलीगुड़ा की लाल दुमट मृदाओं (पीएच 5.0) में विभिन्न प्रकार की फसलों में 0.5 लाइम आवश्यकता के हिसाब से गाढ़े लाइम की खुराक (डोज) का प्रयोग करके इकोनामिक रेस्पान्स को भी रिकार्ड किया है। जब इसकी उच्च स्तर की खुराक (डोज) उपयोग की गई तो ऊपर की हल्की संरचना की मृदाओं में लीचिंग से काफी चूना (लाइम) व्यर्थ चला गया। क्योंकि इन मृदाओं की विनिमय क्षमता कम थी। लीचिंग से होने वाली क्षति को कम करने के लिए इसे हिस्सों में बाँट कर प्रयोग करने की अनुशंसा की गई है। लाइम को तीन-चार साल में बड़ी मात्रा में डालने के बजाय एक-एक साल छोड़कर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में डाला जाना चाहिए। लाइम आवश्यकता (एलआर) की पूर्ण खुराक (डोज) फास्फोरस की उपलब्धता को निरुद्ध (Suppressed) करती है और बोरॉन की कमी पैदा करती है। इसलिए इसका अधिक मात्रा में उपयोग हानि कारक होता है।

• लाइम आवश्यकता की रेंज लगभग 1.5 से 15 टन प्रति हेक्टेयर है।
• लाइम की खुराक (डोज) को हिस्सों में बांटकर मृदा में उपयोग किया जाना चाहिए अर्थात् थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कई बार।
• बुआई के समय खाँचों (furrows) में 3 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लाइम का उपयोग किया जाना चाहिए।
• जब तक मृदा की पीएच सामान्य स्तर तक न पहुँच जाये, तब तक एक-एक साल छोड़कर लाइम का प्रयोग करना होता है।
• यह कार्यक्रम क्षेत्र आधारित होना चाहिए। (प्रखण्ड/पंचायत को एक इकाई के रूप में लेकर)

6.2 लाइमिंग सामग्री का चयन


दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है- लाइमिंग सामग्री का चयन। चूना (लाइम) कम खर्च पर मिले और कृषक चूने को आसानी से प्राप्त कर सकें और यह उपयुक्त भी हो। वाणिज्यिक लाइम स्टोन अर्थात् डोलोमाइट लाइम पत्थर का पाउडर महंगा होता है। लाइम के स्रोतों के विकल्प के रूप में पहले कई प्रकार के औद्योगिक अवशिष्टों को आजमाया जा चुका है। चार स्रोतों अर्थात् लाइम स्टोन, डोलोमाइट, बेसिक स्लैग (Basic slag) और लाइम स्लज (Lime sludge) की क्षमताओं को लेटेरिटिक मृदा में मक्के की तीन फसलें लगातार लेकर तुलना की गई। इन चारों प्रकार की सामग्रियों को एक दूसरे के समक्ष तुलना योग्य पाया गया। इसके अलावा, राज्य में तीन पेपर मिलों (इमामी पेपर मिल, बालासोर, जेके पेपर मिल, रायगढ़ और सेवा पेपर मिल, जैपुर) से प्रतिवर्ष लगभग 57500 टन पेपर मिल स्लज (Paper Mill Sludge) निकलता है जो कि मुफ्त में उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त, ओरियन्ट पेपर मिल (जोकि वर्तमान में बंद हो गया है) के पास 100000 टन पेपर मिल स्लज का स्टॉक है। मृदा सुधार के लिए लाइम स्लज (Lime sludge) का उपयोग करने से राज्य में न सिर्फ कृषि उत्पादन बढ़ेगा बल्कि इससे मिलों के आसपास के क्षेत्रों में पर्यावरणीय प्रदूषण भी घटेगा। लाइम स्लज (Lime sludge) में कुछ अंश फ्री-सोडा (free soda) का होता है जिसका मृदा और फसल पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। ढेंकानाल जिले के कृषकों ने इस सामग्री का उपयोग किया है और मूंगफली की काफी अच्छी फसल प्राप्त की है। इसमें अपेक्षित मुख्य कार्य फैक्टरी साइट से उक्त सामग्री को लेकर खेतों तक पहुँचाना है और फिर इस सामग्री को उर्वरकों के साथ खेत के खाँचों (farrows) में डालना होता है। दूसरी अन्य सस्ती सामग्री, स्ट्रोमेटोटाइक लाइम स्टोन, जोकि सम्बलपुर और कोरापुरट जिलों में काफी बड़े निक्षेपों (डिपोजिटस्) के रूप में उपलब्ध है। यह मैग्नीशियम की कमी वाली अम्लीय मृदाओं के लिए लाइम का बढ़िया स्रोत हो सकता है।

चीनी मिलों की प्रेस-मॅड (Press mud) भी लाइम के लिए संभावित स्रोत है। बेसिक स्लेग भी एक अन्य उपयोगी सह-उत्पाद हैं। किन्तु यथापेक्षा बारीक करने के लिए इसे पीसने की लागत बहुत ज्यादा है। अभी हाल में, आईआरएल मृदा कंडीशनर ट्रेड नाम से टिस्को का स्लेग पाउडर (Slag Powder) बाजार में आया है। फेरोक्रोम स्लेग पाउडर की भू-शक्ति ट्रेड नाम से मार्केटिंग की जा रही है। केन्द्रीय चावल अनुसंधान केन्द्र, कटक ने बेसिक स्लज का प्रयोग करके चावल की उपज में 6% और 14% की वृद्धि दर्ज की है। बहाल्दा (मयूरभंज) में उच्चभूमि (अपलैण्ड) पर चावल की खेती में टाटा स्लेग पावडर (Tata slag powder) के उपयोग का बड़े पैमाने पर निदर्शन (डिमान्स्ट्रेशन) किया गया था और इससे चावल की उपज में 25% से 30% की वृद्धि दिखाई पड़ी थी।

लाल लेटेरिटिक अम्लीय मृदा क्षेत्र में शुष्क भूमि की स्थितियों में, सूखे की अवधि के दौरान पपड़ी निर्माण (Crust formation) और नमी की अत्यन्त कमी ऐसे दो मुख्य कारण हैं जो कि मृदा के क्षरण को बढ़ाते हैं। जैविक खाद जैसे - फार्म यार्ड खाद अथवा हरी पत्तियों की खाद (ग्लाइरीसीडिया) का उपयोग पपड़ी निर्माण को रोकने और मृदा की नमी धारण क्षमता को बढ़ाने में काफी प्रभावी साबित हुआ था। लाइम जैविक संशोधन (organic amendment) और फास्फेट का उचित तरीके से उपयोग करने से फसल को लाभ होता है।

6.3 विभिन्न मृदाओं के लिए लाइम की आवश्यकता


लाइम की आवश्यकता मृदा की बनावट (चिकनी मिट्टी की मात्रा), कैट आयन विनिमय क्षमता (Cat-ion Exchange Capacity) और मृदा के सेस्क्यू ऑक्साइड अंश (Sesquioxide content of soil) पर निर्भर करती है। वुडरफ बफर विधि के अनुसार मृदा में लाइम की आवश्यकता 4 से 6 टन प्रति हेक्टेयर के बीच होती है। अधिक परिशुद्ध अनुशंसा के अभाव में, मृदा की पीएच को विभिन्न डिग्रेडेशन से 6.5 तक बढ़ाने हेतु जो त्वरित परिकलक (Ready reckoner) अपनाये जाते हैं वे अनुबंध-II में दिये गए हैं।

यदि अम्लीय मृदाओं के सुधार हेतु लाइम की पूरी खुराक उपयोग की जाती है तो काफी मात्रा में लाइम की जरूरत होती है। इसके अलावा, लाइम का प्रभाव टिकाऊ नहीं होता है क्योंकि अत्यधिक बारिश के कारण Ca2+ और Mg2+ का जमीन के अंदर रिसाव (लीचिंग) हो जाता है। ओयूएटी (OUAT) (जोकि राष्ट्रीय कृषि विकास योजना – धारा 1 के अंतर्गत निधीकृत है) द्वारा अम्लीय मृदाओं में चलाई गई नेटवर्क परियोजना के प्रायोगिक परिणाम यह दर्शाते हैं कि एक-एक वर्ष छोड़कर, हर तीसरे वर्ष में कुल लाइम आवश्यकता के 25% की दर से लाइम के उपयोग को उतना ही अच्छा माना गया है, जितना कि लाइम की पूरी खुराक को माना जाता है। इसके अतिरिक्त, उक्त प्रायोगिक परिणाम यह भी दर्शाते हैं कि फर्टीलाइजर और फार्मयार्ड खाद के साथ लाइम आवश्यकता के दसवें हिस्से की दर से खाँच (furrows) में लाइम (पेपर मिल की स्लज लगभग 5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में) डालने से फसल की उपज 14.52% बढ़ जाती है। इसका असर धान अथवा ज्वार - बाजरे की तुलना में अरहर, कपास, मक्का, मूँगफली, चना, मटर, गेहूँ इत्यादि की फसलों में ज्यादा स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।

7. अम्लीय मृदा क्षेत्र हेतु फसल प्रणालियाँ


परम्परागत रूप से अम्लीय मृदा क्षेत्रों के भूमि (उच्च भूमि, मध्यम भूमि और निचली भूमि) के प्रकार पर विचार किये बिना चावल की फसल उगाते रहे हैं। चावल में मृदा की अम्लता को सहन करने की कुछ शक्ति होती है और खेत में जल भराव की स्थिति भी चावल उगाने के लिए अनुकूल परिस्थिति (पीएच में वृद्धि और फास्फोरस, सिलिका और पोटेशियम की उपलब्धता) उत्पन्न करती है। कई फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए लाइमिंग वांछनीय है। उपयुक्त लाइमिंग से कपास, सोयाबीन, मूँगफली, फ्रेंचबीन, अरहर इत्यादि जैसी अम्ल संवेदी फसलें अम्लीय मृदा में बेहतर ढंग से उगती है। फसलों को लाइमिंग के प्रति उनकी सापेक्ष प्रतिक्रिया (रेस्पांस) के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है। इस जानकारी को उपयुक्त फसल-क्रम तय करने के लिए उपयोग किया जा सकता है। वर्षा सिंचित दशाओं में, कपास, सोयाबीन, अरहर इत्यादि जैसी अत्यधिक अनुकूल फसलों को लाइमिंग के प्रथम वर्ष में उगाया जा सकता है और इसके बाद मक्का और गेहूँ जैसी मध्यम दर्जे की अनुकूल फसलों को आगामी सीजन में उगाया जा सकता है। जब लाइमिंग का असर कुछ और कम हो जाये तब ज्वार-बाजरा, चावल, जौ, अलसी आदि कम अनुकूलता वाली फसलों को उगाया जा सकता है।
अम्लीय मृदा क्षेत्र के पहाड़ी क्षेत्रों में मृदा का क्षरण (Soil erosion) और शिफ्टिंग कृषि मुख्य समस्या है। इन क्षेत्रों में कृषि बागवानी और कृषि वानिकी प्रणाली को अपनाने की जरूरत है।

सामान्य रूप से, जिन क्षेत्रों में 900 मिमी से ज्यादा वर्षा होती है और पौधों के जड़ वाले भाग में 200 मिमी नमी सोखने की क्षमता होती है, उनमें दोहरी फसल ली जा सकती है।

फसल पैटर्न

अ.वर्षा सिंचित क्षेत्र

भूमि का प्रकार

फसल

अन्त:फसलन/क्रमिक फसलन

उच्च भूमि

मेस्ता, अरहर, मक्का, मूंगफली

अरहर + मूंगफली का अन्त: फसल

मध्यम भूमि

रागी, चावल (अल्प अवधि)

चावल, रागी, मक्का, कुल्थी (Horse Gram), लोबिया

निम्न भूमि

चावल

चावल - दलहन, चावल - रेपसीड

आ. सिंचित क्षेत्र



खरीफ

रबी

ग्रीष्म

मध्यम भूमि
(बीबीएसआर)

चावल

पत्ता गोभी

भिण्डी

हरी मटर

चावल

चावल

चावल

टमाटर

लोबिया

चावल

आलू

भिण्डी

मध्यम भूमि (चिपलीमा)

चावल

मूँगफली

--

चावल

हरी मटर

चावल

हरी मटर

चावल

चावल

8. अम्लीय मृदा सुधार कार्यक्रम


उपर्युक्त में बताया जा चुका है कि उडी़सा में करीब 125 लाख हेक्टेयर क्षेत्र मृदा की अम्लता से प्रभावित है। इसमें से 5 लाख हेक्टेयर भूमि गंभीर स्थिति में है। इस भूमि क्षेत्र में ज्यादातर उच्च-मध्यम कृषि भूमि, बंजर भूमि और त्रिकोणीय ढालों वाली भूमि शामिल है। यह मृदाएं हल्की संरचना वाली, बहुत गहरी, अच्छी पारगम्य और तिलहन, दलहन, सब्जियों और बागवानी फसलों को उगाने के लिए बहुत अच्छी हैं। किन्तु, इनको प्रतिबंधित करने वाला एकमात्र कारक है अम्लीयता, इसे ध्यान में रखते हुए, हर तरह के संभावित उत्पादन- विकल्प सुझाए गये हैं और आर्थिकी सहित मॉडल परियोजनाओं का निरुपण किया गया है।

यद्यपि ये मॉडल गहन क्षेत्र अध्ययनों (Extensive Field Studies) और उड़ीसा राज्य से एकत्र किए गए आँकडों के आधार पर विकसित किये गये हैं तथापि इन मॉडलों को मार्गदर्शक के रूप मे अपनाया जा सकता है और उन अन्य राज्यों मे परियोजना निरुपण के लिए उपयोग किया जा सकता है, जहाँ अम्लीय मृदा सुधार की अवधारणा इसी रूप में मौजूद है।

9. फार्म मॉडल


एक हेक्टेयर के फार्म हेतु एक फार्म मॉडल तैयार किया गया है। चार हेक्टेयर के फार्म हेतु फार्म मॉडल को आवश्यक नहीं माना गया है। चूँकि मॉडल की लागत लाइम की आवश्यकता (एल आर) पर निर्भर करती है जो कि पीएच की रेंज पर निर्भर है, इसलिए विभिन्न पीएच रेंजों के साथ फार्म मॉडल तैयार किये गये हैं और इन्हे अनुबन्ध-III में प्रस्तुत किया गया है।

10. वित्तीय सहायता


अम्लीय मृदा सुधार हेतु वित्तपोषण के मामले में पुनर्वित्त देने हेतु नाबार्ड द्वारा विचार किया जाएगा। अत: सभी प्रतिभागी बैंक इस कार्यकलाप के वित्तपोषण हेतु विचार कर सकते हैं बशर्ते कि विशिष्ट योजनाएँ तकनीकी रूप से संभाव्य, वित्तीय रूप से व्यवहार्य और बैंक योग्य हों।

11. मार्जिन राशि


लाभार्थियों/कृषकों को सामान्यत: मार्जिन राशि के रूप में अपने संसाधनों से परियोजना लागत की 10 प्रतिशत राशि लगानी है। हालांकि, समय-समय पर जारी किये जाने वाले दिशानिर्देशों के अनुसार इसमें परिवर्तन हो सकता है।

12. वित्तीय विश्लेषण


अम्लीय मृदाओं के एक हेक्टेयर क्षेत्र के मॉडल के लिए खेती की लागत, सकल आय और निवल आय अनुबंध- IV में दी गई है। लाभ लागत अनुपात (Benefit cost Ratio), निवल वर्तमान मूल्य (NPW) और आंतरिक/वित्तीय प्रतिफल की दर (IRR/FRR) को शामिल करते हुए, परियोजना के लिए नकदी प्रवाह विवरण का परिकलन किया गया है। परियोजना वित्तीय रूप से व्यवहार्य होने के लिए, लाभ लागत अनुपात 1 से ज्यादा होना चाहिए, एनपीडब्ल्यू धनात्मक होना चाहिए और आंतरिक प्रतिफल की दर 15% से ज्यादा होनी चाहिए। डिस्काउन्टेड नकदी प्रवाह तकनीक के आधार पर, उक्त परियोजना हेतु वित्तीय विश्लेषण के परिणाम अनुबंध-V में दिये गये हैं।

13. ऋण की शर्तें

13.1 ब्याज दर


ब्याज दर का निर्धारण वित्तपोषक बैंक द्वारा किया जाता है। हालांकि, चुकौती अनुसूची तैयार करने के लिए मौजूदा मॉडल हेतु ब्याज दर 12% अनुमानित की गई है।

13.2 प्रतिभूति


बैंक भारतीय रिजर्व बैंक के मानदंडों के अनुसार प्रतिभूति प्राप्त कर सकते हैं।

13.3 चुकौती अवधि


चुकौती की अवधि सृजित सकल अधिशेष (सरप्लस) पर निर्भर करती है। मूलधन और ब्याज की चुकौती 4 वर्ष (एक वर्ष की छूट अवधि सहित) में की जा सकती है।

13.4 पुनर्वित्त सहायता


वर्तमान नीति के अनुसार, नाबार्ड द्वारा बैंक ऋण की 90% के बराबर पुनर्वित्त सहायता प्रदान की जाती है। किंतु, पुनर्वित्त की राशि और ब्याज की दर समय-समय पर परिवर्तित हो सकती है।

14. निष्कर्ष


अम्लीय मृदाओं वाले क्षेत्रों के कृषकों हेतु वित्तीय सहायता देने के लिए 4 वर्ष की चुकौती अवधि वाली उक्त योजना तकनीकी रूप से संभाव्य और वित्तीय रूप से व्यवहार्य है।

अनुबंध – I


उड़ीसा में अम्लीय मृदाओं के उपचार हेतु मॉडल योजना
(क्षेत्र : मिलियन हेक्टेअर में)
भारत में अम्लीय मृदा क्षेत्र

क्र.

सं.

राज्य का नाम

भौगोलिक क्षेत्रफल

अम्लीय मृदा के अंतर्गत क्षेत्र

1

आन्ध्र प्रदेश

27.7

5.5

20

2

असम और पूवोर्रवी राज्य

25

20

80

3

बिहार और झारखण्ड

17.4

5.2

33

4

हिमाचल प्रदेश

5.6

5

90

5

जम्मू और कश्मीर

22.2

15.5

70

6

कर्नाटक

19.2

9.6

50

7

केरल

3.9

3.5

90

8

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़

44.3

8.9

20

9

महाराष्ट्र

30.8

3.1

10

10

उड़ीसा

15.6

12.5

80

11

तमिलनाडु

13

2.6

20

12

उत्तर प्रदेश

29.4

2.9

10

13

पश्चिम बंगाल

8.8

3.5

40

अनुबंध – II


उड़ीसा में अम्लीय मृदाओं के उपचार हेतु मॉडल योजना
अम्लीय मृदाओं के उपचार हेतु चूने किग्रा हेक्टेअर

क्र. सं.

पीएच(pH) सीमा

मृदा का प्रकार

बलुई दुमट मिट्टी

दुमट मिट्टी

चिकनी एवं दुमट चिकनी मिट्टी

1

4.5 से 5.0 (शुद्ध CaCO3 )

1750

2650

4100

पेपर मिल स्लज की समतुल्य मात्रा

2300

3500

5450

2

5.1 से 5.5 (शुद्ध CaCO3 )

1100

1600

2550

पेपर मिल स्लज की समतुल्य मात्रा

1450

2100

3400

3

5.6 से 6.0 (शुद्ध CaCO3 )

600

900

1350

पेपर मिल स्लज की समतुल्य मात्रा

800

1200

1800

 


नोट:- यहाँ 4.5 से कम पीएच वाली मृदा के उपचार हेतु विचार नहीं किया गया है।

अनुबंध – III


उड़ीसा में अम्लीय मृदाओं के उपचार हेतु मॉडल योजना
इकाई लागत

क्र.सं.

कार्य की मद

मात्रा/हेक्टेअर

दर (रू.)

राशि (रू.)

(अ)

पीएच सीमा 4.5 से 5.0

1

परिवहन प्रभार सहित लाइमिंग सामग्री की लागत

3.75 टन

200/-

750/-

2

फैलाने का खर्च

8 मजदूर दिन (मजदूर दिन)

75/- मजदूर /दिन

600/-

3

मृदा परीक्षण, एमबी हल / सीड ड्रिल / सीड - सह - फर्टीलाइजर ड्रिल की लागत

-

-

1550/-

4

सालाना फसलों को उगाना (औसत लागत)

-

13125/-

13125/-

जोड़

16025/- यानि 16000/-

(आ)

पीएच सीमा 5.1 से 5.5

1

परिवहन प्रभार सहित लाइमिंग सामग्री की लागत

2.30 टन

200/-

460/-

2

फैलाने का खर्च

5 मजदूर दिन

75/- प्रति मजदूर /दिन

375/-

3

मृदा परीक्षण, एमबी हल / सीड ड्रिल / सीड - सह - फर्टीलाइजर ड्रिल की लागत

-

-

1550/-

4

सालाना फसलों को उगाना (औसत लागत)

-

13125/-

13125/-

जोड़

15510/- यानि 15500/

(इ)

पीएच सीमा 5.6 से 6.0

1

परिवहन प्रभार सहित लाइमिंग सामग्री की लागत

1.25 टन

200/-

250/-

2

फैलाने का खर्च

3 मजदूर दिन

75/- प्रति मजदूर दिन

225/-

3

मृदा परीक्षण, एमबी हल / सीड ड्रिल / सीड - सह - फर्टीलाइजर ड्रिल की लागत

-

-

1550/-

4

सालाना फसलों को उगाना (औसत लागत)

-

13125/-

13125/-

जोड़

15150/-

नोट :-


यह सुझाव है कि प्रथम वर्ष के फसल ऋण तथा परिवहन लागत और लाइम फैलाने के प्रभार सहित प्रथम वर्ष की लाइमिंग लागत को पूँजीकृत किया जा सकता है। यह सुझाव इसलिए दिया जाता है कि लाइमिंग के बावजूद, पहले वर्ष सीमित भूमि सुधार की वजह से संभवत: लाभार्थी प्रथम वर्ष में इष्टतम उपज/ उत्पादन प्राप्त न कर सके।

अनुबंध – IV


उड़ीसा में अम्लीय मृदा के सुधार हेतु मॉडल योजना
नकदी प्रवाह स्टेटमेंट क्षेत्रफल हेक्टेयर


अनुबंध चार देखने के लिए डाउनलोड करें

अनुबंध - VI (ग)


चुकौती अनुसूची
(राशि रूपये में)

परियोजना लागत

15150.00

बैंक ऋण

13635.00

परियोजना लागत की 90 राशि की दर से

मार्जिन

1515.00

परियोजना लागत की 10 राशि की दर से

ब्याज दर

12 प्रति वर्ष

वर्ष

चुकौती से पूर्वबकाया बैंक ऋण

निवल आय

निर्गामी राशि (Out going)

निवल अधिशेष

(सरप्लस)

मूलधन

ब्याज

जोड़

1

13635.00

5770.00

635.00

1636.00

2271.00

3499.00

2

13000.00

11383.00

4000.00

1560.00

5560.00

5823.00

3

9000.00

11383.00

4000.00

1080.00

5080.00

6303.00

4

5000.00

11383.00

5000.00

600.00

5600.00

5783.00

अनुबंध VI (ख)


चुकौती अनुसूची
(राशि रूपये में)

परियोजना लागत

15500.00

बैंक ऋण

13950.00

परियोजना लागत की 90 राशि की दर से

मार्जिन

1550.00

परियोजना लागत की 10 राशि की दर से

ब्याज दर

12 प्रति वर्ष

वर्ष

चुकौती से पूर्व बकाया बैंक ऋण

निवल आय

निर्गामी राशि

निवल अधिशेष (सरप्लस)

मूलधन

ब्याज

जोड़

1

13950.00

5770.00

950.00

1674.00

2624.00

3146.00

2

13000.00

11383.00

4000.00

1560.00

5560.00

5823.00

3

9000.00

11383.00

4000.00

1080.00

5080.00

6303.00

4

5000.00

11383.00

5000.00

600.00

5600.00

5783.00

 

 

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