पेरिस के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में दो सप्ताह गहन मंथन हुआ। हाथ क्या लगा शायद ही किसी को समझ आया हो। ऐसे सम्मेलनों का आयोजन गरीब व विकासशील देशों के लिये अमीर व विकसित देशों द्वारा लॉलीपोप देने के लिये किया जाता है। पेरिस सम्मेलन में भी यही हुआ।
अमीरों ने सीनाजोरी करते हुए तय कर दिया है कि हम चोरी भी करेंगे और सीना जोरी भी। जलवायु परिवर्तन के इस सम्मेलन को पिछली कुछ बैठकों के आइने में देखना बहुत जरूरी है। इससे यह समझने में कतई परेशानी नहीं होगी कि अमीर देश आखिर चाहते क्या हैं?
जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव पद पर बान की मून आसीन हुए तो उन्होंने अपने पहले ही सम्बोधन में दुनिया को आगाह कर दिया था कि जलवायु परिवर्तन भविष्य में युद्ध और संघर्ष की बड़ी वजह बन सकता है। बाद में जब संयुक्त राष्ट्र द्वारा ग्लोबल वार्मिंग के सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट पेश की गई तो उससे इसकी पुष्टि भी हो गई थी।
हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान भी ग्लोबल वार्मिंग पर अपनेे दस वर्षों के कार्यकाल में चिन्ता जताते रहे। इससे भी एक कदम आगे दुनिया भर के पर्यावरण विशेषज्ञ पिछले दो दशकों से चीख-चीख कर कह रहे हैं कि अगर पृथ्वी व इस पर मौजूद प्राणियों के जीवन को बचाना है तो ग्लोबल वार्मिंग को रोकना होगा।
विश्व मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन व यूनाइटेड नेशन्स के पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा वर्ष 1988 में गठित की गई समिति इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के पूर्व अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र कुमार पचौरी व अमेरिका के पूर्व उप राष्ट्रपति अल गोर को नोबल समिति वर्ष 2007 में शान्ति को नोबल पुरस्कार दिया गया तो विषय की गम्भीरता इससे साफ झलक गई थी।
यह साफ जाहिर है कि क्लाइमेट चेंज को लेकर पेरिस में सम्मेलन में विश्व बिरादरी ने जो मंथन किया उससे विष और अमृत दोनों निकले। यह बात अलग है कि विष गरीबों के हिस्से आया और अमृत अमीरों की प्याली में चला गया।
यह भी पहले से साफ नजर आ रहा था कि अमीर देश विष ग्रहण शायद ही करें और गरीब देशों को अमृत का घूँट शायद ही मिल पाये। ऐसे में जब दुनिया अमीरों की बढ़ती विलासिता के आगे गरीबों को मरने पर मजबूर करेगी तो सम्भव है कि झगड़े बढ़ेंगे ही।
बान की मून ने अपने पहले सम्बोधन में दुनिया पर दादागिरी चलाने वाले अमेरिका से भी आग्रह किया था कि वह ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को कम करने के लिये सम्पूर्ण विश्व की अगुवाई करे। लेकिन अमेरिका क्योटो सन्धि तक पर सहमत नहीं हुआ, जबकि दुनिया में कुल उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसों का एक चौथाई अकेले अमेरिका उत्सर्जन करता है।
अमेरिका अपने व्यापारिक हितों पर तनिक भी आँच नहीं आने देना चाहता है। अमेरिका, अफ्रीका जैसे देशों से पैसे देकर उसके कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के अधिकार खरीदना चाहता है लेकिन अपने यहाँ कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में कमी नहीं लाना चाहता।
सन् 1997 में क्योटो में हुए सम्मेलन में दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के सम्बन्ध में की गई सन्धि में प्रत्येक देश को सन् 2012 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सन् 1990 के मुकाबले 5.2 प्रतिशत तक की कमी करना तय किया गया था।
इस सन्धि को सन् 2001 में बॉन में हुए जलवायु सम्मेलन में अन्तिम रूप दिया गया था। इस सन्धि पर दुनिया के अधिकतर देशों द्वारा अपनी सहमति भी दी गई थी।
गौरतलब है कि पर्यावरण विशेषज्ञ ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को 2 प्रतिशत करने के हक में थे। लेकिन अमेरिका जहाँ पर दुनिया की कुल आबादी के मात्र 4 प्रतिशत लोग ही बसते हैं इस पर सहमत नहीं हुआ, हालांकि सन् 1997 में क्योटो सन्धि के दौरान बिल क्लिंटन द्वारा इस पर सहमति जताई गई थी लेकिन बुश ने राष्ट्रपति बनने के पश्चात् इसको मानने से इनकार कर दिया था और अब ओबामा भी अपने हितों को सुरक्षित करते हुए कुछ बदलावों के साथ बुश की नीतियों को ही आगे बढ़ा रहे हैं।
अमेरिका के अधिकतर उद्योग तेल व कोयले पर आधारित हैं इसलिये वहाँ अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। ब्रिटेन के एक व्यक्ति के मुकाबले अमेरिका का प्रत्येक नागरिक दो गुनी कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन करता है।
ग़ौरतलब है कि ब्रिटेन व भारत उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसों का मात्र तीन-तीन प्रतिशत ही उत्सर्जन करते हैं। अमेरिका के इस रवैए से क्योटो सन्धि का भविष्य ही संकट में पड़ गया था।
लेकिन प्रारम्भ में क्योटो सन्धि पर झिझकने वाले रूस के इससे जुड़ जाने के कारण दुनिया के अन्य ऐसे देशों पर दबाव बना जोकि इससे बचते रहे। इसका श्रेय रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन की दूरदर्शिता को जाता है।
उस समय अमेरिका के 138 मेयर ने इस सन्धि के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया था, हालांकि तमाम प्रयासों के पश्चात भी यह सन्धि तब तक अधूरी ही रहेगी जब तक कि ग्रीनहाउस समूह की 55 प्रतिशत गैसों का उत्सर्जन करने वाले सभी देश इस पर सहमत नहीं हो जाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न रिपोर्टें हमें आगाह कर रही हैं कि धरती के सपूतों सावधान, धरती गर्म हो रही है। वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों (कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन व क्लोरो फ्लोरो कार्बन आदि) की मात्रा में इजाफ़ा हो रहा है। यही कारण है कि धरती का तापमान लगातार बढ़ रह है।
ओजोन परत छलनी हो रही है जिसके कारण सूर्य की पराबैंगनी किरणें सीधे मानव त्वचा को रौंद रही हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं तथा समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा है। इस रिपोर्ट ने सम्पूर्ण विश्व को दुविधा में डाल दिया है। सब-के-सब भविष्य को लेकर चिन्तित नजर आ रहे हैं। इस विषय पर औद्योगिक देशों का रवैया अभी भी ढुल-मुल ही बना हुआ है।
विश्व का जो भी बड़ा आयोजन आज हो रहा है उसमें ग्लोबल वार्मिंग को रोकने की बात कही जा रही है। यहाँ तक कि आइफा भी इसके लिये आगे आया है। सार्क के सम्मेलनों में भी इस पर चर्चा की जाने लगी है।
वर्ष 2002 में काठमांडू में हुए सार्क सम्मेलन में मालदीव के राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम ने अपनी चिन्ता प्रकट करते हुए कहा था कि अगर धरती का तापमान इसी तेजी से बढ़ता रहा तो मालदीव जैसे द्वीप शीघ्र ही समुद्र में समा जाएँगे। उनकी यह चिन्ता उन देशों व द्वीपों पर भी लागू होती है जोकि समुद्र के किनारों या उसके बीच में स्थित हैं।
वर्ष 2002 में ही जलवायु परिवर्तन पर दिल्ली में हुए एक सम्मेलन में जो घोषणापत्र जारी हुआ था उसमें मौजूद 186 देशों में से अधिकतर देश इस बात पर सहमत थे कि ग्रीन हाउस गैसों में कमी लाई जानी चाहिए। लेकिन यूरोपीय संघ, कनाडा व जापान जैसे देश इससे नाखुश थे।
इस सम्मेलन में अटल बिहारी वाजपेई का यह कहना कि जो देश अधिक प्रदूषण फैलाते हैं उन्हें प्रदूषण रोकने के लिये अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए भी इन देशों को चुभ गया था। तथाकथित विकसित व औद्योगिक देश अपने विकास में किसी भी प्रकार का रोड़ा नहीं चाहते हैं। वे अपनी मर्जी के मालिक बने हुए हैं।
यूनाइटेड नेशन्स की रिपोर्ट के अनुसार अगर ग्रीन हाउस गैसों पर रोक नहीं लगाई गई तो वर्ष 2100 तक ग्लेशियरों के पिघलने के कारण समुद्र का तापमान 28 से 43 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। उस समय पृथ्वी के तापमान में भी करीब तीन डिग्री सेल्शियस की बढ़ोत्तरी हो चुकी होगी।
ऐसी स्थितियों में सूखे क्षेत्रों में भयंकर सूखा पड़ेगा तथा पानीदार क्षेत्रों में पानी की भरमार होगी। वर्ष 2004 में नेचर पत्रिका के माध्यम से वैज्ञानिकों का एक दल पहले ही चेतावनी दे चुका है कि जलवायु परिवर्तन से इस सदी के मध्य तक पृथ्वी से जानवरों व पौधों की करीब दस लाख प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी तथा विकासशील देशों के अरबों लोग भी इससे प्रभावित होंगे।
रिपोर्ट के सम्बन्ध में ओस्लो स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लाइमेट एंड एनवायरनमेंट रिसर्च के विशेषज्ञ पॉल परटर्ड का कहना है कि आर्कटिक की बर्फ का तेजी से पिघलना ऐसे खतरे को जन्म देगा जिससे भविष्य में निपटना मुश्किल होगा।
रिपोर्ट का यह तथ्य भारत जैसे कम गुनहगार देशों को चिन्तित करने वाला है कि विकसित देशों के मुकाबले कम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करने वाले भारत जैसे विकासशील तथा दक्षिण अफ्रीका जैसे गरीब देश इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे।
नोबल पुरस्कार विजेता वांगरी मथाई का यह कथन कि जो भी देश क्योटो सन्धि से बाहर हैं वे अपनी अति उपभोक्तावाद की शैली को बदलना नहीं चाहते, सही है क्योंकि वातावरण में हमारे बदलते रहन-सहन व उपभोक्तावाद के कारण ही अधिक मात्रा में ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित हो रही हैं।
जिस कारण से जलवायु में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं। अगर दुनिया के तथाकथित विकसित देशों द्वारा अपने रवैए में बदलाव नहीं लाया गया तो पृथ्वी पर तबाही तय है। इस तबाही को कुछ हद तक सभी देश महसूस भी करने लगे हैं तथा भविष्य की तबाही का आईना हॉलीवुड फिल्म ‘द डे आफ्टर टूमारो’ के माध्यम से दुनिया को परोसा भी गया।
गर्मी-सर्दी का बिगड़ता स्वरूप, रोज-रोज आते समुद्री तूफान, किलोमीटर की दूरी तक पीछे खिसक चुके ग्लेशियर आदि, ये सब कुछ एक शुरूआत है।
आज पूरी दुनिया पेरिस की ओर निगाह गड़ाए बैठी हैं। इसी त्रासदी को रोकने की योजना बनाने व क्योटो सन्धि पर विचार करने के लिये कोपेनहेगन में पुनः दुनिया के देशों के प्रतिनिधि एकत्रित हैं, यह विकासशील व गरीब देशों के लिये मौका है जब अमेरिका जैसे देशों को संगठित होकर घेरा जा सकता है।
लेकिन कहीं ऐसा न हो कि विकसित देश डरा-धमका कर व चिकनी-चुपड़ी नीतियों से अपने हित साध जाएँ तथा विकासशील व गरीब देश उनका मुँह ताकते ही रह जाएँ। इसीलिये अभी से दूसरों का हक छीनने वालों के खिलाफ लामबन्द हो जाना चाहिए।
भारत इस सब में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने लंदन में कहा था कि विश्व के सामने दो सबसे बड़े संकट हैं आतंकवाद और क्लाइमेट चेंज, और इन दोनों से लड़ने के लिये गाँधी दर्शन पर्याप्त है। उनकी यह बात सौ फीसदी सच है। भारत के पास एक दर्शन है इसीलिये भारत को इसकी अगुवाई करनी ही चाहिए।
अमीरों ने सीनाजोरी करते हुए तय कर दिया है कि हम चोरी भी करेंगे और सीना जोरी भी। जलवायु परिवर्तन के इस सम्मेलन को पिछली कुछ बैठकों के आइने में देखना बहुत जरूरी है। इससे यह समझने में कतई परेशानी नहीं होगी कि अमीर देश आखिर चाहते क्या हैं?
जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव पद पर बान की मून आसीन हुए तो उन्होंने अपने पहले ही सम्बोधन में दुनिया को आगाह कर दिया था कि जलवायु परिवर्तन भविष्य में युद्ध और संघर्ष की बड़ी वजह बन सकता है। बाद में जब संयुक्त राष्ट्र द्वारा ग्लोबल वार्मिंग के सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट पेश की गई तो उससे इसकी पुष्टि भी हो गई थी।
हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान भी ग्लोबल वार्मिंग पर अपनेे दस वर्षों के कार्यकाल में चिन्ता जताते रहे। इससे भी एक कदम आगे दुनिया भर के पर्यावरण विशेषज्ञ पिछले दो दशकों से चीख-चीख कर कह रहे हैं कि अगर पृथ्वी व इस पर मौजूद प्राणियों के जीवन को बचाना है तो ग्लोबल वार्मिंग को रोकना होगा।
विश्व मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन व यूनाइटेड नेशन्स के पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा वर्ष 1988 में गठित की गई समिति इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के पूर्व अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र कुमार पचौरी व अमेरिका के पूर्व उप राष्ट्रपति अल गोर को नोबल समिति वर्ष 2007 में शान्ति को नोबल पुरस्कार दिया गया तो विषय की गम्भीरता इससे साफ झलक गई थी।
यह साफ जाहिर है कि क्लाइमेट चेंज को लेकर पेरिस में सम्मेलन में विश्व बिरादरी ने जो मंथन किया उससे विष और अमृत दोनों निकले। यह बात अलग है कि विष गरीबों के हिस्से आया और अमृत अमीरों की प्याली में चला गया।
यह भी पहले से साफ नजर आ रहा था कि अमीर देश विष ग्रहण शायद ही करें और गरीब देशों को अमृत का घूँट शायद ही मिल पाये। ऐसे में जब दुनिया अमीरों की बढ़ती विलासिता के आगे गरीबों को मरने पर मजबूर करेगी तो सम्भव है कि झगड़े बढ़ेंगे ही।
बान की मून ने अपने पहले सम्बोधन में दुनिया पर दादागिरी चलाने वाले अमेरिका से भी आग्रह किया था कि वह ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को कम करने के लिये सम्पूर्ण विश्व की अगुवाई करे। लेकिन अमेरिका क्योटो सन्धि तक पर सहमत नहीं हुआ, जबकि दुनिया में कुल उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसों का एक चौथाई अकेले अमेरिका उत्सर्जन करता है।
अमेरिका अपने व्यापारिक हितों पर तनिक भी आँच नहीं आने देना चाहता है। अमेरिका, अफ्रीका जैसे देशों से पैसे देकर उसके कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के अधिकार खरीदना चाहता है लेकिन अपने यहाँ कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में कमी नहीं लाना चाहता।
सन् 1997 में क्योटो में हुए सम्मेलन में दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के सम्बन्ध में की गई सन्धि में प्रत्येक देश को सन् 2012 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सन् 1990 के मुकाबले 5.2 प्रतिशत तक की कमी करना तय किया गया था।
इस सन्धि को सन् 2001 में बॉन में हुए जलवायु सम्मेलन में अन्तिम रूप दिया गया था। इस सन्धि पर दुनिया के अधिकतर देशों द्वारा अपनी सहमति भी दी गई थी।
गौरतलब है कि पर्यावरण विशेषज्ञ ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को 2 प्रतिशत करने के हक में थे। लेकिन अमेरिका जहाँ पर दुनिया की कुल आबादी के मात्र 4 प्रतिशत लोग ही बसते हैं इस पर सहमत नहीं हुआ, हालांकि सन् 1997 में क्योटो सन्धि के दौरान बिल क्लिंटन द्वारा इस पर सहमति जताई गई थी लेकिन बुश ने राष्ट्रपति बनने के पश्चात् इसको मानने से इनकार कर दिया था और अब ओबामा भी अपने हितों को सुरक्षित करते हुए कुछ बदलावों के साथ बुश की नीतियों को ही आगे बढ़ा रहे हैं।
अमेरिका के अधिकतर उद्योग तेल व कोयले पर आधारित हैं इसलिये वहाँ अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। ब्रिटेन के एक व्यक्ति के मुकाबले अमेरिका का प्रत्येक नागरिक दो गुनी कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन करता है।
ग़ौरतलब है कि ब्रिटेन व भारत उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसों का मात्र तीन-तीन प्रतिशत ही उत्सर्जन करते हैं। अमेरिका के इस रवैए से क्योटो सन्धि का भविष्य ही संकट में पड़ गया था।
लेकिन प्रारम्भ में क्योटो सन्धि पर झिझकने वाले रूस के इससे जुड़ जाने के कारण दुनिया के अन्य ऐसे देशों पर दबाव बना जोकि इससे बचते रहे। इसका श्रेय रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन की दूरदर्शिता को जाता है।
उस समय अमेरिका के 138 मेयर ने इस सन्धि के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया था, हालांकि तमाम प्रयासों के पश्चात भी यह सन्धि तब तक अधूरी ही रहेगी जब तक कि ग्रीनहाउस समूह की 55 प्रतिशत गैसों का उत्सर्जन करने वाले सभी देश इस पर सहमत नहीं हो जाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न रिपोर्टें हमें आगाह कर रही हैं कि धरती के सपूतों सावधान, धरती गर्म हो रही है। वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों (कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन व क्लोरो फ्लोरो कार्बन आदि) की मात्रा में इजाफ़ा हो रहा है। यही कारण है कि धरती का तापमान लगातार बढ़ रह है।
ओजोन परत छलनी हो रही है जिसके कारण सूर्य की पराबैंगनी किरणें सीधे मानव त्वचा को रौंद रही हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं तथा समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा है। इस रिपोर्ट ने सम्पूर्ण विश्व को दुविधा में डाल दिया है। सब-के-सब भविष्य को लेकर चिन्तित नजर आ रहे हैं। इस विषय पर औद्योगिक देशों का रवैया अभी भी ढुल-मुल ही बना हुआ है।
विश्व का जो भी बड़ा आयोजन आज हो रहा है उसमें ग्लोबल वार्मिंग को रोकने की बात कही जा रही है। यहाँ तक कि आइफा भी इसके लिये आगे आया है। सार्क के सम्मेलनों में भी इस पर चर्चा की जाने लगी है।
वर्ष 2002 में काठमांडू में हुए सार्क सम्मेलन में मालदीव के राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम ने अपनी चिन्ता प्रकट करते हुए कहा था कि अगर धरती का तापमान इसी तेजी से बढ़ता रहा तो मालदीव जैसे द्वीप शीघ्र ही समुद्र में समा जाएँगे। उनकी यह चिन्ता उन देशों व द्वीपों पर भी लागू होती है जोकि समुद्र के किनारों या उसके बीच में स्थित हैं।
वर्ष 2002 में ही जलवायु परिवर्तन पर दिल्ली में हुए एक सम्मेलन में जो घोषणापत्र जारी हुआ था उसमें मौजूद 186 देशों में से अधिकतर देश इस बात पर सहमत थे कि ग्रीन हाउस गैसों में कमी लाई जानी चाहिए। लेकिन यूरोपीय संघ, कनाडा व जापान जैसे देश इससे नाखुश थे।
इस सम्मेलन में अटल बिहारी वाजपेई का यह कहना कि जो देश अधिक प्रदूषण फैलाते हैं उन्हें प्रदूषण रोकने के लिये अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए भी इन देशों को चुभ गया था। तथाकथित विकसित व औद्योगिक देश अपने विकास में किसी भी प्रकार का रोड़ा नहीं चाहते हैं। वे अपनी मर्जी के मालिक बने हुए हैं।
यूनाइटेड नेशन्स की रिपोर्ट के अनुसार अगर ग्रीन हाउस गैसों पर रोक नहीं लगाई गई तो वर्ष 2100 तक ग्लेशियरों के पिघलने के कारण समुद्र का तापमान 28 से 43 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। उस समय पृथ्वी के तापमान में भी करीब तीन डिग्री सेल्शियस की बढ़ोत्तरी हो चुकी होगी।
ऐसी स्थितियों में सूखे क्षेत्रों में भयंकर सूखा पड़ेगा तथा पानीदार क्षेत्रों में पानी की भरमार होगी। वर्ष 2004 में नेचर पत्रिका के माध्यम से वैज्ञानिकों का एक दल पहले ही चेतावनी दे चुका है कि जलवायु परिवर्तन से इस सदी के मध्य तक पृथ्वी से जानवरों व पौधों की करीब दस लाख प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी तथा विकासशील देशों के अरबों लोग भी इससे प्रभावित होंगे।
रिपोर्ट के सम्बन्ध में ओस्लो स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लाइमेट एंड एनवायरनमेंट रिसर्च के विशेषज्ञ पॉल परटर्ड का कहना है कि आर्कटिक की बर्फ का तेजी से पिघलना ऐसे खतरे को जन्म देगा जिससे भविष्य में निपटना मुश्किल होगा।
रिपोर्ट का यह तथ्य भारत जैसे कम गुनहगार देशों को चिन्तित करने वाला है कि विकसित देशों के मुकाबले कम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करने वाले भारत जैसे विकासशील तथा दक्षिण अफ्रीका जैसे गरीब देश इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे।
नोबल पुरस्कार विजेता वांगरी मथाई का यह कथन कि जो भी देश क्योटो सन्धि से बाहर हैं वे अपनी अति उपभोक्तावाद की शैली को बदलना नहीं चाहते, सही है क्योंकि वातावरण में हमारे बदलते रहन-सहन व उपभोक्तावाद के कारण ही अधिक मात्रा में ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित हो रही हैं।
जिस कारण से जलवायु में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं। अगर दुनिया के तथाकथित विकसित देशों द्वारा अपने रवैए में बदलाव नहीं लाया गया तो पृथ्वी पर तबाही तय है। इस तबाही को कुछ हद तक सभी देश महसूस भी करने लगे हैं तथा भविष्य की तबाही का आईना हॉलीवुड फिल्म ‘द डे आफ्टर टूमारो’ के माध्यम से दुनिया को परोसा भी गया।
गर्मी-सर्दी का बिगड़ता स्वरूप, रोज-रोज आते समुद्री तूफान, किलोमीटर की दूरी तक पीछे खिसक चुके ग्लेशियर आदि, ये सब कुछ एक शुरूआत है।
आज पूरी दुनिया पेरिस की ओर निगाह गड़ाए बैठी हैं। इसी त्रासदी को रोकने की योजना बनाने व क्योटो सन्धि पर विचार करने के लिये कोपेनहेगन में पुनः दुनिया के देशों के प्रतिनिधि एकत्रित हैं, यह विकासशील व गरीब देशों के लिये मौका है जब अमेरिका जैसे देशों को संगठित होकर घेरा जा सकता है।
लेकिन कहीं ऐसा न हो कि विकसित देश डरा-धमका कर व चिकनी-चुपड़ी नीतियों से अपने हित साध जाएँ तथा विकासशील व गरीब देश उनका मुँह ताकते ही रह जाएँ। इसीलिये अभी से दूसरों का हक छीनने वालों के खिलाफ लामबन्द हो जाना चाहिए।
भारत इस सब में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने लंदन में कहा था कि विश्व के सामने दो सबसे बड़े संकट हैं आतंकवाद और क्लाइमेट चेंज, और इन दोनों से लड़ने के लिये गाँधी दर्शन पर्याप्त है। उनकी यह बात सौ फीसदी सच है। भारत के पास एक दर्शन है इसीलिये भारत को इसकी अगुवाई करनी ही चाहिए।
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Post By: RuralWater