अमीरों के हितों में पिसते गरीब

रिपोर्ट कहती है कि अगर ग्रीन हाउस गैसों पर रोक नहीं लगाई गई तो वर्ष 2100 तक ग्लेशियरों के पिघलने के कारण समुद्र का तापमान 28 से 43 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। उस समय पृथ्वी के तापमान में भी करीब तीन डिग्री सेल्शियस की बढ़ोतरी हो चुकी होगी। ऐसी स्थितियों में सूखे क्षेत्रों में भयंकर सूखा पड़ेगा तथा पानीदार क्षेत्रों में पानी की भरमार होगी। वर्ष 2004 में नेचर पत्रिका के माध्यम से वैज्ञानिकों का एक दल पहले ही चेतावनी दे चुका है कि जलवायु परिवर्तन से इस सदी के मध्य तक पृथ्वी से जानवरों व पौधों की करीब दस लाख प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी तथा विकासशील देशों के अरबों लोग भी इससे प्रभावित होंगे।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पद पर आसीन होते ही बान की मून ने अपने पहले ही संबोधन में दुनिया को आगाह कर दिया था कि जलवायु परिवर्तन भविष्य में युद्ध और संघर्ष की बड़ी वजह बन सकता है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा ग्लोबल वार्मिंग के संबंध में पेश की गई रिपोर्ट मून की बातों की पूरी तरह से पुष्टी करती है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान भी ग्लोबल वार्मिंग पर अपने दस वर्ष के कार्यकाल में चिंता जताते रहे। इससे भी एक कदम आगे दुनिया भर के पर्यावरण विशेषज्ञ पिछले दो दशकों से चीख-चीख कर कह रहे हैं कि अगर पृथ्वी व इस पर मौजूद प्राणियों के जीवन को बचाना है तो ग्लोबल वार्मिंग को रोकना होगा। विश्व मेटरोलोजिकल ऑर्गेनाइजेशन व यूनाइटेड नेशन्स के पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा वर्ष 1988 में गठित की गई समिति इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र कुमार पचौरी व अमेरिका के पूर्व उप राष्ट्रपति अल गोर को नोबल समिति द्वारा शांति का वर्ष 2007 का नोबल पुरस्कार दिया जाना भी मुद्दे की गंभीरता को बयां कर देता है।

बान की मून ने अपने पहले सम्बोधन में ही दुनिया पर दादागिरी चलाने वाले अमेरिका से भी आग्रह किया था कि वह ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को कम करने के लिए सम्पूर्ण विश्व की अगुवाई करे। लेकिन अमेरिका क्योटो संधि तक पर सहमत नहीं है, जबकि दुनिया में कुल उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैसों का एक चौथाई अकेले अमेरिका उत्सर्जन करता है। अमेरिका अपने व्यापारिक हितों पर तनिक भी आंच नहीं आने देना चाहता है। अमेरिका, अफ्रीका जैसे देशों से पैसे देकर उसके कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के अधिकार खरीदना चाहता है लेकिन अपने यहां कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में कमी नहीं लाना चाहता। सन 1997 में क्योटो में हुए सम्मेलन में दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के संबंध में की गई संधि में प्रत्येक देश को सन् 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में सन् 1990 के मुकाबले 5.2 प्रतिशत तक की कमी करना तय किया गया था। इस संधि को सन् 2001 में बॉन में हुए जलवायु सम्मेलन में अंतिम रूप दिया गया था।

इस संधि पर दुनिया के अधिकतर देशों द्वारा अपनी सहमति भी दी गई थी। गौरतलब है कि पर्यावरण विशेषज्ञ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को 2 प्रतिशत करने के हक में थे। लेकिन अमेरिका जहां पर दुनिया की कुल आबादी के मात्र 4 प्रतिशत लोग ही बसते हैं की इस पर सहमति नहीं हुआ, हालांकि सन 1997 में क्योटो संधि के दौरान बिल क्लिंटन द्वारा इस पर सहमति जताई गई थी लेकिन बुश ने राष्ट्रपति बनने के पश्चात् इसको मानने से इनकार कर दिया था और अब ओबामा भी अपने हितों को सुरक्षित करते हुए कुछ बदलावों के साथ बुश की नीतियों को ही आगे बढ़ाने को आतुर हैं। अमेरिका के अधिकतर उधोग तेल व कोयले पर आधारित हैं इसलिए वहां अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। ब्रिटेन के एक व्यक्ति के मुकाबले अमेरिका का प्रत्येक नागरिक दो गुनी कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन करता है। गौरतलब है कि ब्रिटेन व भारत उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैसों का मात्र तीन-तीन प्रतिशत ही उत्सर्जन करते हैं।

अमेरिका के इस रवैये से क्योटो संधि का भविष्य ही संकट में पड़ गया था। लेकिन प्रारम्भ में क्योटो संधि पर झिझकने वाले रूस के इससे जुड़ जाने के कारण दुनिया के अन्य ऐसे देशों पर दबाव बना है जोकि इससे बचते रहे हैं। इसका श्रेय रूस के पूर्व राष्ट्रपति व वर्तमान प्रधानमंत्री व्लादिमिर पुतिन की दूरदर्शिता को जाता है। अमेरिका के 138 मेयर इस संधि के पक्ष में माहौल बनाने में लगे हुए हैं। हालांकि तमाम प्रयासों के पश्चात् भी यह संधि तब तक अधूरी ही रहेगी जब तक कि ग्रीन हाउस समूह की 55 प्रतिशत गैसों का उत्सर्जन करने वाले सभी देश इस पर सहमत नहीं हो जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट हमें आगाह कर रही है कि धरती के सपूतों सावधान, धरती गर्म हो रही है। वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन व क्लोरो फ्लोरो कार्बन आदि) की मात्रा में इजाफा हो रहा है। यही कारण है कि धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। ओजोन परत छलनी हो रही है जिसके कारण सूर्य की पराबैंगनी किरणे सीधे मानव त्वचा को रौंध रही हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं तथा समुद्रों का जल स्तर बढ़ रहा है। इस रिपोर्ट ने सम्पूर्ण विश्व को दुविधा में डाल दिया है। सब के सब भविष्य को लेकर चिन्तित नजर आ रहे हैं। इस विषय पर औद्योगिक देशों का रवैया अभी भी ढुल-मुल ही बना हुआ है।

पर्यावरण संकट की वजह से कहीं सूखा तो कहीं बाढ़पर्यावरण संकट की वजह से कहीं सूखा तो कहीं बाढ़विश्व का जो भी बड़ा आयोजन आज हो रहा है उसमें ग्लोबल वार्मिंग को रोकने की बात कही जा रही है। यहां तक कि आइफा भी इसके लिए आगे आया है। सार्क के सम्मेलनों में भी इस पर चर्चा की जाने लगी है। वर्ष 2002 में काठमांडू में हुए सार्क सम्मेलन में मालदीव के राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम ने अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहा था कि अगर धरती का तापमान इसी तेजी से बढ़ता रहा तो मालदीव जैसे द्वीप शीघ्र ही समुद्र में समा जाएंगे। उनकी यह चिंता उन देशों व दीपों पर भी लागू होती है जो कि समुद्र के किनारों या उसके बीच में बसे हुए हैं। वर्ष 2002 में ही जलवायु परिवर्तन पर दिल्ली में हुए एक सम्मेलन में जो घोषणापत्र जारी हुआ था उसमें मौजूद 186 देशों में से अधिकतर देश इस बात पर सहमत थे कि ग्रीन हाउस गैसों में कमी लाई जानी चाहिए। लेकिन यूरोपीय संघ, कनाडा व जापान जैसे देश इससे नाखुश थे। इस सम्मेलन में अटल बिहारी वाजपेई का यह कहना कि जो देश अधिक प्रदूषण फैलाते हैं उन्हें प्रदूषण रोकने के लिए अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए भी इन देशों को चुभ गया था। तथाकथित विकसित व औधोगिक देश अपने विकास में किसी भी प्रकार का रोड़ा नहीं चाहते हैं। वे अपनी मरजी के मालिक बने हुए हैं।

रिपोर्ट कहती है कि अगर ग्रीन हाउस गैसों पर रोक नहीं लगाई गई तो वर्ष 2100 तक ग्लेशियरों के पिघलने के कारण समुद्र का तापमान 28 से 43 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। उस समय पृथ्वी के तापमान में भी करीब तीन डिग्री सेल्शियस की बढ़ोतरी हो चुकी होगी। ऐसी स्थितियों में सूखे क्षेत्रों में भयंकर सूखा पड़ेगा तथा पानीदार क्षेत्रों में पानी की भरमार होगी। वर्ष 2004 में नेचर पत्रिका के माध्यम से वैज्ञानिकों का एक दल पहले ही चेतावनी दे चुका है कि जलवायु परिवर्तन से इस सदी के मध्य तक पृथ्वी से जानवरों व पौधों की करीब दस लाख प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी तथा विकासशील देशों के अरबों लोग भी इससे प्रभावित होंगे। रिपोर्ट के संबंध में ओस्लो स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लाइमेट एंड एन्वायरन्मेंट रिसर्च के विशेषज्ञ पॉल परटर्ड का कहना है कि आर्कटिक की बर्फ का तेजी से पिघलना ऐसे खतरे को जन्म देगा जिससे भविष्य में निपटना मुश्किल होगा। रिपोर्ट का यह तथ्य भारत जैसे कम गुनहगार देशों को चिन्तित करने वाला है कि विकसित देशों के मुकाबले कम ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करने वाले भारत जैसे विकासशील तथा दक्षिण अफ्रीका जैसे गरीब देश इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे।

नोबल पुरस्कार विजेता वांगरी मथाई का यह कथन कि जो भी देश क्योटो संधि से बाहर हैं वे अपनी अति उपभोक्तावाद की शैली को बदलना नहीं चाहते, सही है क्योंकि वातावरण में हमारे बदलते रहन-सहन व उपभोक्तावाद के कारण ही अधिक मात्रा में ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित हो रही हैं। जिस कारण से जलवायु में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं। अगर दुनिया के तथाकथित विकसित देशों द्वारा अपने रवैये में बदलाव नहीं लाया गया तो पृथ्वी पर तबाही तय है। इस तबाही को कुछ हद तक सभी देश महसूस भी करने लगे हैं तथा भविष्य की तबाही का आईना हॉलीवुड की फिल्म ‘द डे आफ्टर टूमारो’ के माध्यम से देखा जा सकता है। गर्मी-सर्दी का बिगड़ता स्वरूप, रोज-रोज आते समुद्री तूफान, किलोमीटर की दूरी तक पीछे खिसक चुके ग्लेशियर आदि।दिसम्बर में इसी त्रासदी को रोकने की योजना बनाने व क्योटो संधि पर विचार करने के लिए कोपेनहेगन में पुनः दुनिया के देशों के प्रतिनिधि एकत्र होंगे। यह विकासशील व गरीब देशों के लिए मौका होगा जब अमेरिका जैसे देशों को संगठित होकर घेरा जा सकता है। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि विकसित देश डरा-धमका कर व चिकनी-चुपड़ी नीतियों से अपने हित साध जाएं तथा विकासशील व गरीब देश उनका मुंह ताकते ही रह जाएं। इसीलिए अभी से दूसरों का हक छीनने वालों के खिलाफ लामबंद हो जाना चाहिए। भारत की भूमिका इसमें महत्वपूर्ण हो सकती है।

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