जैसे-जैसे धन-दौलत और शिक्षा का व्यापार बढ़ता है, सफल लोगों में करुणा और संवेदना कम होती जातीहै। यह किसी धार्मिक गीत या गाँधीजी की कही हुई बात भर नहीं है। अब इसके सबूत आधुनिक मनोविज्ञानसे आ रहे हैं।
मान लिया जाता है कि धनवान और साधन-सम्पन्न लोग निर्धन लोगों की तुलना में ज्यादा न्यायसंगत होते हैं, वे गरीबों कि तुलना में झूठ कम बोलते हैं, भ्रष्टाचार कम करते हैं, और चोरी-चकारी भी कम ही करते हैं, क्योंकि अमीर लोगों को उस तरह की किल्लत नहीं झेलनी पड़ती, जो निर्धन लोगों को आए दिन सहनी पड़ती है।
कोई विदेशी पादरी एक बार गाँधीजी से अहमदाबाद में मिले। उन्होंने पूछा कौन-सी बात आपको अधिक-से-अधिक आश्वासन देती है। जवाब थाः “भारत की जनता को चाहे जितना ही परेशान किया जाए, फिर भी वह अपनी अहिंसावृत्ति नहीं छोड़ती। इससे मुझे सबसे अधिक आश्वासन मिलता है।”फिर पादरी ने जानना चाहा कि कौन-सी बात गाँधीजी को दिन-रात चिन्तित रखती है। “शिक्षित लोगों के अंदर दया-भाव सूख गया है। इस बात से मैं हमेशा चिन्तित रहता हूँ।”
थोड़ी अटपटी बात है यह। हर कहीं ऐसा कहा जाता है, माना जाता है कि शिक्षा से मनुष्य का उत्थान होता है, उसमें बेहतर मूल्य आते हैं। अगर किसी पढ़े-लिखे, डाॅक्टर-इंजीनियर किस्म के व्यक्ति के साथ कोई अन्याय हो जाए तो अखबार उनकी आपबीती को बड़ी-बड़ी सुर्खियों में छापते हैं। यही घटना अगर किसी गरीब व्यक्ति के साथ होती है तो खबर छोटी-सी छपती है, या नहीं भी छपती।
ठीक इसी तरह ऐसा भी मान लिया जाता है कि धनवान और साधन-सम्पन्न लोग निर्धन लोगों की तुलना में ज्यादा न्यायसंगत होते हैं, वे गरीबों कि तुलना में झूठ कम बोलते हैं, भ्रष्टाचार कम करते हैं, और चोरी-चकारी भी कम ही करते हैं, क्योंकि अमीर लोगों को उस तरह की किल्लत नहीं झेलनी पड़ती, जो निर्धन लोगों को आए दिन सहनी पड़ती है। जिनके पास अपनी कामनाएँ पूरी करने के साधन होते हैं उनमें आक्रोश और कुंठा भी कम ही होती होगी। और उन लोगों के प्रति करुणा भी होगी जिनके पास इतने साधन नहीं हैं। तो क्या हम यह मान सकते हैं कि धोखा और चोरी-चपाटी की तराजू पर अमीरी और गरीबी का बांट रख कर देखने पर परिणाम गरीबी को ही पकड़ता है।
अगर हम ऐसा मान लें तो ये गलत होगा। कुछ अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों का शोध इससे ठीक उलटी ओर इशारा करता है। उस तरफ जिसकी बात गाँधीजी ने की थी। उनकी छानबीन कहती है कि जैसे-जैसे लोगों के पास धन बढ़ता जाता है और उनका उठना-बैठना धनाढ्य वर्ग के लोगों के बीच हो चलता है, वैसे-वैसे उनके मन में करुणा का भाव कम होता जाता है। अमेरिका के बर्कली नामक शहर के ये दोनों वैज्ञानिक जानना चाहते थे कि सामाजिक वर्ग, धन-दौलत, ओहदा, व्यवसाय की शानो-शौकत, और ऊँची शिक्षा से किसी की दूसरों के प्रति भावनाएँ कैसे बदलती हैं। इसके लिये उन्होंने कई तरह के परीक्षण किए।
ऐसा एक परीक्षण एक भीड़-भाड़ वाले चौराहे पर किया गया। दोनों मनोवैज्ञानिक जानना चाहते थे कि किस तरह की गाड़ी चलाने वाले लोगों का व्यवहार कैसा होता है। उन्होंने पाया कि आलीशान और महंगी गाड़ी चलाने वाले लोग हड़बड़ी में दूसरी गाड़ियों की जगह हड़प लेते हैं, खासकर उन लोगों की जो धीरज से अपनी बारी का इन्तजार कर रहे हों।
इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता था कि चमचमाती गाड़ी कोई पुरुष चला रहा है या महिला। दिन का कौन-सा समय है, ट्रैफिक कम है या ज्यादा। महंगी गाड़ी चलाने वाले अमूमन दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन कर रहे थे। एक और परीक्षण में शोधकों ने यह भी पाया कि आलीशान गाड़ियों के चालक सड़क पैदल पार करने वालों के बगल से अपनी गाड़ी और तेज कर के निकालते हैं। उनकी तुलना में साधारण गाड़ियाँ चलाने वाले लोग पैदल चलने वालों को जगह भी देते थे और उनके लिये रुकते भी थे।
हमारे मनोवैज्ञानिक ये भी जानना चाहते थे कि स्वार्थ से साधन बढ़ते हैं, या साधन बढ़ने से स्वार्थ आता है। इसके लिये उन्होंने कुछ स्वयंसेवियों के साथ एक परीक्षण किया, जिसमें दूसरे वर्गों के लोगों के प्रति उनकी भावनाओं को परखना था। इसके लिये उन्हें अपने से ज्यादा धनवान और अपने से ज्यादा गरीब लोगों का ध्यान करने को कहा गया, ताकि वर्गों का अंतर उनकी चेतना में बैठ जाए।
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने यह जानना चाहा कि किस वर्ग के लोग आपत्ति में फँसे लोगों के प्रति ज्यादा करुणा, सहानुभूति रखते हैं। उन्होंने पाया कि साधारण तबके के लोगों की बातचीत में दूसरों के प्रति संवेदना अमीर वर्ग के लोगों से ज्यादा थी। जो वाक्य सहज ही स्वीकार्य लग रहे थे वे कुछ इस तरह थे: “मेरा ध्यान अक्सर ऐसे लोगों पर जाता है जिन्हें मदद की जरूरत है,” या “यह आवश्यक है कि कमजोर लोगों की मदद की जाए।” ऐसी भावनाएँ वर्ग पर निर्भर होती हैं, धर्म, लिंग या जाति नस्ल पर नहीं।
इसके बाद उनमें से हर एक को एक मिठाइयों का मर्तबान दिखाया गया, और उन्हें कहा गया कि वे जितना चाहे मिष्ठान्न ले सकते हैं। उन्हें यह भी बताया गया कि जो मिठाई वह मर्तबान में छोड़ देंगे, वह पास के बच्चों में बाँट दी जाएगी। जो स्वयंसेवी अपने आपको दूसरों से कहीं अधिक साधन-सम्पन्न और अमीर मानते थे उन्होंने दूसरों की तुलना में कहीं ज्यादा मिठाई मर्तबान से निकाल ली और बच्चों के लिये बहुत कम मिठाई छोड़ी। जो अपने आप को दूसरों से अमीर मानते थे, उनमें दूसरों के लिये सद्भावना कम दिखी।इसी तरह के एक और प्रयोग में कुछ मनोवैज्ञानिकों ने यह जानना चाहा कि किस वर्ग के लोग आपत्ति में फँसे लोगों के प्रति ज्यादा करुणा, सहानुभूति रखते हैं। उन्होंने पाया कि साधारण तबके के लोगों की बातचीत में दूसरों के प्रति संवेदना अमीर वर्ग के लोगों से ज्यादा थी। जो वाक्य सहज ही स्वीकार्य लग रहे थे वे कुछ इस तरह थे: “मेरा ध्यान अक्सर ऐसे लोगों पर जाता है जिन्हें मदद की जरूरत है,” या “यह आवश्यक है कि कमजोर लोगों की मदद की जाए।” ऐसी भावनाएँ वर्ग पर निर्भर होती हैं, धर्म, लिंग या जाति नस्ल पर नहीं।
ऐसे ही एक और परीक्षण में इन वैज्ञानिकों ने कुछ लोगों की हृदय गति नापी, जब वे कुछ विशेष चलचित्र देख रहे थे। एक हिस्से में कोई व्यक्ति एक आँगन बना रहा था, और दूसरे चलचित्र में कैंसर से पीड़ित बच्चे दिख रहे थे। इन चित्रों को दिखलाने के बाद उन लोगों से पूछा गया कि दोनों चलचित्रों को देखते हुए उन्हें कितनी करुणा की अनुभूति हुई। इनमें से हर व्यक्ति की माली और सामाजिक हालत पहले से ही पता कर ली गई थी।
कम धन कमाने वाले और कम शिक्षा पाए हुए लोगों ने कैंसर से पीड़ित बच्चों के प्रति ज्यादा करुणा भाव बताया। फिर वैज्ञानिकों ने उनकी कही हुई बातों की तुलना उनकी दिल की धड़कन से की, क्योंकि चलचित्र देखते समय उनकी हृदय गति नापी गई थी। शोधकों ने पाया कि कैंसर से पीड़ित बच्चों को देखते समय साधारण तबके के लोगों के दिल की धड़कन धीमी पड़ गई थी। वैज्ञानिक ये जानते हैं कि जब कोई व्यक्ति दूसरों की भावनाओं और प्रेरणाओं पर ध्यान देता है, तो उसकी हृदय गति औसत से धीमी हो जाती है।
जो दूसरों की भावनाओं पर ध्यान देता है, उसके लिये उनकी मदद करना सहज कर्म हो जाता है। इस तरह केविषयों पर पहले हुआ शोध भी यही बतलाता है कि अमीरी लोगों के दिल कठोर बना देती है। वैज्ञानिक पहले ये दिखला चुके हैं कि ऊँचे तबके के लोग दूसरों की भावनाएँ पहचानने में कमजोर होते हैं। दूसरों से मिलते-जुलते समय उन पर ध्यान भी कम देते हैं। जब उन्हें किसी बात को गम्भीरता से लेना चाहिए तब वे प्रायः अपना मोबाइल फोन टटोलते रहते हैं या किसी और मामूली चीज से खेलते से दिखते हैं।
कहा तो यही जाता है कि साधनों की तंगी मनुष्य को स्वार्थी बनाती है। ऐसा क्यों होता है कि धन और सामाजिक रुतबा दूसरों के प्रति करुणा घटा देता है? परीक्षण करने वाले वैज्ञानिकों को लगता है कि अधिक धन और साधन होने पर हम लोग अपने-आप को आजाद महसूस करते हैं, दूसरे लोगों पर निर्भरता से मुक्त पाते हैं। जब दूसरों पर हमारी निर्भरता कम हो जाती है तो हमारे मन में उनकी भावनाओं का लिहाज भी कम हो जाता है। इससे हम आत्म-केन्द्रित से होते जाते हैं।
इसका सीधा सम्बन्ध लोभ से है। ऊँचे वर्ग के लोग लोभ को अच्छा मानने लगते हैं। हमारे मनोवैज्ञानिकों ने पाया कि धनी लोग लालच को न्यायसंगत ठहराते हैं, उसे एक ऊँचा मूल्य बताते हैं, और उसका आधार नैतिक मानते हैं। इस तरह के संकेत व्यक्तियों के अनैतिक व्यवहार का पूर्वानुमान लगाने में काम आते हैं। एक और परीक्षण में शोधकों ने ‘मोनाॅपोली’ नामक खेल का सहारा लिया। हमारे यहाँ ये बोर्ड पर खेले जाने वाला खेल ‘व्यापार’ या ‘बिजनेस’ के नाम से बिकता रहा है।
कुछ खिलाड़ियों को दूसरों की तुलना में खिलौने वाली मुद्रा दुगुनी मात्रा में दी गई। और पांसे भी एक की जगह दो मिले। इसका मतलब था कि खेल शुरू होने के पहले ही उनके पास दूसरे खिलाड़ियों की तुलना में दुगुनी बढ़त थी। जैसे-जैसे ये लोग जीतते गए, वैसे-वैसे उनके व्यवहार और उनके हाव-भाव बदलते गए। जीतने वालों में से कुछ ने बाद में इसका विश्लेषण दिया कि जीत में उनकी कुशलता का कितना बड़ा हाथ था। उन्होंने ये नहीं सोचा कि असल में उनकी स्थिति पहले से ही बढ़त की थी। जैसे-जैसे ये विशेषाधिकार वाले खिलाड़ी जीतते गए, उनके हाव-भाव भड़काऊ और आक्रामक होते गए। उनका ध्यान दूसरे खिलाड़ी के दुर्भाग्य की ओर कतई नहीं गया। यही नहीं, जीतने वालों ने अपनी श्रेष्ठता लिये तरह-तरह की सफाई भी दी। उनका व्यवहार लगातार लापरवाही और स्वप्रशंसा का होता गया।
इस शोध को करने वाले मनोवैज्ञानिक ध्यान दिलाते हैं कि अमेरिका में गरीबों और अमीरों में अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसे में उनके प्रयोगों के निष्कर्ष उनके समाज के लिये और भी चिन्ताजनक हैं। जिन लोगों के हाथ में देश की राजनीतिक और आर्थिक सत्ता है वे धनाढ्य और साधन-सम्पन्न परिवारों से आते हैं। अगर अभिजात्य तबके में कमजोर लोगों के प्रति करुणा की कमी हो, अगर उस तबके के लोग अपने आप को गरीब लोगों से पृथक मानते हों, तो उनके निर्णय और नीतियों में पक्षपात निश्चित है।
यही नहीं, अनैतिक और भ्रष्ट काम करना उनके लिये लगातार आसान होता जा रहा है। शोधकों का कहना है कि लोभ केवल अमीर लोगों में ही होता हो, ऐसा नहीं है। लोभ हर मनुष्य में होता है। लेकिन लोभ के शिकंजे में सबसे ज्यादा कसे हुए लोग वही होते हैं, जिनके पास बाकी सबसे ज्यादा धन-दौलत होती है।
इस तरह का शोध हमारे देश में कम ही हुआ है। होता भी है तो हमारे वैज्ञानिक अपनी शोध का सामाजिक पहलू साधारण लोगों के सामने नहीं पहुँचा पाते हैं। लेकिन ये तो तय है कि गरीबों और अमीरों के बीच की खाई हमारे देश में तेजी से बढ़ रही है। एक अन्तरराष्ट्रीय बैंक का अंदाजा ये बताता है कि हमारी कुल आबादी का दसवां हिस्सा इतना अमीर है की उसके पास देश की कुल धन-सम्पत्ति का तीन-चौथाई हिस्सा है। यानी, सौ में से 10लोगों के पास सौ में से 74 के अंश बराबर धन है। बाकी 90 लोग केवल 26 फीसदी से काम चलाते हैं।
हमारी शिक्षा पद्धति पूरी तरह धन कमाने और नौकरी पाने पर केन्द्रित है। बच्चों से बहुत कम उमर से सवाल पूछा जाता है - बड़े हो कर क्या बनोगे? इसके माने यही होता है कि शिक्षा का एकमात्र ध्येय है धनवान बनना। धनवान बनने के बाद लोगों में वैसे ही गरीबों के प्रति संवेदना घट जाती है। तो धनवान केवल दूसरे धनवानों की मदद करते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे देश में स्कूल और काॅलेज की अच्छी शिक्षा पाने के लिये धनवान होना जरूरी है।
अमेरिका दुनिया का सबसे विकसित, सबसे अमीर देश माना जाता है। अगर वहाँ का शोध हमें यह सब बता रहा है कि अमीर होने पर लोगों में करुणा कम होती जाती है, तो हमारे जैसे देश के विकास के लिये इसमें क्या सबक है? क्या ये विकास एक छोटे-से तबके भर का विकास नहीं है?
इस विशेषाधिकार की एक झलक मिलती है हमारे देश में अंग्रेजी के रुतबे से। एक अंदाजा बताता है कि अंग्रेजी जानने वाले भारतीय भाषाओं भर को जानने वालों से एक-तिहाई ज्यादा कमाते हैं। मतलब और सभी योग्यताएँ एक-सी होने पर भी अंग्रेजी जानने वाले की आमदनी ज्यादा होती है। अंग्रेजी में शिक्षा भी महंगी है। जबकि हमारी कुल आबादी का केवल पाँचवा हिस्सा अंग्रेजी जानता है। उसमें भी, कुल आबादी में केवल 4 प्रतिशत लोग ठीक से अंग्रेजी जानते हैं। अंग्रेजी जानने वाले एक विशेष वर्ग में आते हैं। उनके पास अवसर भी ज्यादा होते हैं और सहूलियतें भी। फिर चाहे उनके पास हुनर और मेहनत हो या न हो। और अंग्रेजी जानने वालों में अंग्रेजी न जानने वाले को हीन भी माना जाता है।गरीब-अमीर की असमानता तब तो और कचोटती है जब शरीर बीमार हो जाए। अच्छी चिकित्सा और देखरेख तो दूर, बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएँ भी साधारण लोगों को आसानी से मिलती नहीं हैं। सरकारी अस्पतालों की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है और सरकार का ध्यान नए अस्पताल खोलने पर बिलकुल नहीं जाता। यह तो सभी जानते हैं कि खुद राजनीतिक नेता और सरकारी अधिकारी उन सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिये नहीं जाते हैं जिन्हें चलाने का काम उन्हीं के हाथों होता है। निजी अस्पताल मरीज की नब्ज देखने के पहले उसकी जेब में झाँकते हैं। तब भी जब गरीब मरीजों का इलाज उनकी कानूनन जिम्मेदारी है। ये सब संकेत समाज के धनाढ्य वर्ग में करुणा की कमी दिखलाते हैं।
इसका एक कारण तो ये है कि सत्ता में आने के बाद राज करने वालों का साधारण लोगों से नाता टूट जाता है।गाँव की गलियों की धूल में से ऊपर उठ कर सत्ता में पहुँचे लोग बड़ी जल्दी सब कुछ भूल जाते हैं। अफसर या मंत्री किसी गरीब या साधारण घर से ही क्यों न निकला हो, स्वास्थ्य और शिक्षा की नीति बनाते समय उसके मन में साधारण लोगों के प्रति करुणा कम हो चुकी होती है। यह दौलत का स्वभाव है। कई धर्मों ने अपने अनुयायियों को दौलत से आने वाली कठोरता के खिलाफ आगाह किया है। गाँधीजी ने यही चेतावनी शिक्षा के सम्बन्ध में दी थी। शिक्षित लोगों में दया-भाव सूखने की बात वे तब कर रहे थे जब शिक्षा और अमीरी, दोनों ही चीजें हमारे देश में आज की तुलना में बहुत कम थीं। आज हर राजनीतिक पार्टी विकास ही का नारा लगाती है। यह भी कहा जाता है कि हर तरह की समस्या का एक ही उपाय है, और वह है विकास, विकास, और विकास।
अमेरिका दुनिया का सबसे विकसित, सबसे अमीर देश माना जाता है। अगर वहाँ का शोध हमें यह सब बता रहा है कि अमीर होने पर लोगों में करुणा कम होती जाती है, तो हमारे जैसे देश के विकास के लिये इसमें क्या सबक है? क्या ये विकास एक छोटे-से तबके भर का विकास नहीं है? चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हम पर राज करे, सत्ता में आते ही सांसदों और अधिकारियों में अमीरी की निष्ठुरता आना सहज ही है।
इसमें आश्चर्य तो तब होना चाहिए जब किसी राजनेता या अधिकारी में करुणा बच जाए। सत्ता, धन-दौलत और रौब-रुतबा पाने के बाद ‘वैष्णव जन’ बने रहना आसान नहीं होता, क्योंकि फिर ‘पीड़ पराई’ जानना मुश्किल हो जाता है। यह बात धार्मिक साहित्य में सदियों से है। सामाजिक काम करने वाले गाँधीजी जैसे लोगों ने हमें इसकी फिर याद दिलाई थी। अब आधुनिक मनोविज्ञान भी इसी ओर इशारा कर रहा है।
लेख में जिस शोध का उल्लेख है, उसे करने वाली मंडली के मुख्य अनुसंधानकर्ता हैं ‘पाॅल पिफ और डॅशर केल्टनर’। दोनों ही संयुक्त राज्य अमेरिका के बर्कली शहर में युनिवर्सिटी आॅफ कैलिफोर्निया के मनोविज्ञान विभाग से हैं। इस शोध से सम्बन्धित पहले पत्र सन 2012 में छपे थे।
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