आमी: एक नदी की अकाल मौत


पहचानना मुहाल है शोलों की शक्ल का... हम आग से बचे थे और पानी से जल गए...शायर ने जब ये चंद लाइनें कोरे कागज पर उकेरी होंगी तो उसके जेहन में शायद आमी नदी के प्रदूषण की पीड़ा का अहसास भी न रहा हो, लेकिन मैली हो चुकी गांव की गंगा से सटे गांव के लोगों की आंखों में बेबसी को पढ़े तो ये लाइनें सटीक बैठती हैं। यहां के लोगों के लिए जीवनदायनी जल आग के शोलों से कम नहीं है। प्रदूषण से कराह रही आमी के दर्द का अहसास ही है कि नदी के किनारे के गांव जरलही निवासी रामदास को अंदर तक ऐसा झकझोरा की उन्होंने वर्ष 1995 में अन्न छोड़ने का प्रण ले लिया।

गोरखपुर जिला मुख्यालय से तकरीबन 25 किलोमीटर पर आमी तट पर बसे उनवल के गांव जरलही के 60 वर्षीय रामदास फलहारी को आमी की पीड़ा अंदर तक कचोटती है। नब्बे के दशक में रामदास को प्रदूषण से कराहती आमी का दर्द नहीं देखा गया। उन्होंने प्रण लिया कि आमी के प्रदूषण को लेकर सरकारी उपेक्षा के विरोध स्वरूप अन्न ग्रहण नहीं करेंगे। गांव में ही चाय की दुकान कर परिवार का गुजारा करने वाले रामदास कहते हैं कि प्रदूषण के लिए सरकारों के साथ हम भी दोषी हैं। जीवनदायनी नदी में जब हम कूड़ा-करकट डालेंगे तो उससे कैसे हम स्वच्छ आमी की कामना कर सकते हैं। रामदास ने 28 जून, 1995 के बाद अन्न ग्रहण नहीं किया है। 1998 की बाढ़ में जब पूरा इलाका कई दिनों तक जलमग्न था तब रामदास ने दो महीने घास खाकर गुजार दिया।

नदियां जीवनदायिनी हैं। यह हमेशा से इंसानी जिन्दगी को कुछ न कुछ देती ही रही हैं लेकिन इंसान ने जब से विकास की नयी परिभाषा पढ़ी है तब से वह नदियों का महत्व भी भूल गया है और शायद जीवन का महत्व भी उसने भुला दिया है। उत्तर प्रदेश में गंगा और गोमती के बाद अब आमी नदी पर संकट के बादल गहरा गए हैं। इस नदी में प्रदूषण इतना ज्यादा बढ़ गया है, आमी बचाओ मंच के अध्यक्ष विश्वविजय सिंह ने सूचना के अधिकार कानून के तहत उत्तर प्रदेश प्रदूषण बोर्ड ने आमी नदी की वर्तमान सच्चाई जानने के लिए जो सवाल पूछे उसके जवाब में बोर्ड ने स्वीकार किया है, कि आमी नदी का पानी न तो मानव के पीने के योग्य है और न ही मवेशियों के पीने के योग्य है।

महात्मा बुद्ध के गृह त्याग और कबीर की आखिरी यात्रा की गवाह रही आमी नदी उत्तर प्रदेश के सैकड़ों गांवों को जिन्दगी देती रही है। लगभग 102 किलोमीटर लम्बी यह नदी सिद्धार्थ नगर की डुमरियागंज तहसील के रसूलपुर के पास राप्ती नदी से निकलती है और संत कबीरनगर से होती हुई गोरखपुर जिले के सोहगौरा के पास वापस राप्ती नदी में ही मिल जाती है। आमी नदी के किनारों पर दो सौ से ज्यादा गांव बसे हुए हैं। इन दो सौ गांवों को यह नदी सदियों से जिन्दगी देने का काम करती रही है लेकिन 1990 के बाद सन्त कबीरनगर जिले के मगहर से गोरखपुर के गीडा के बीच जो औद्योगिक इकाइयां लगी हैं, उन्होंने इस जीवनदायिनी नदी को गटर में बदलकर रख दिया है। कभी जिस नदी का पानी चांदी की तरह से चमकता था अब वह नाले की तरह से काला और बदरंग हो गया है। अब इस नदी को देखकर भरोसा करना मुश्किल है कि इसी नदी को पार कर राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने राजसी वस्त्र और मुकुट उतारकर वह सफर शुरू किया था जिसने उन्हें बुद्ध में बदल दिया था। जब बौद्ध धर्म का विस्तार शुरू हुआ था तब इस नदी के किनारों पर सबसे पहले बौद्ध विहार बने थे। इस नदी के तट पर ही कबीर का गुरू गोरखनाथ से शास्त्रीय संवाद हुआ और यहीं से उन्होंने रूढ़ियों के खिलाफ अपनी जंग शुरू की थी। आमी नदी का इतिहास पांच हजार साल का है लेकिन इसके आस-पास रहने वाले इसे मरते हुए देखने को विवश हैं। इसके पांच हजार साल के इतिहास का साझी है सोहगौरा गांव। देश में दो गांव ऐसे हैं जिनका पांच हजार साल का इतिहास मिला है। एक गांव राजस्थान में है और दूसरा गोरखपुर का सोहगौरा गांव। यह गांव आमी नदी के तट पर बसा है। आमी नदी को पहले अनोमा नाम से जानते थे पर यह पुराने दस्तावेजों में आमी के नाम से ही दर्ज है। मगहर भी इसी नदी के तट पर बसा है। कबीर की रचनाओं में भी इस नदी का जिक्र मिलता है।

आमी नदी की तलहटी में गेंहूं, दाल और तिलहन की फसल पूर्वी उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा होती थी। इस फसल से सैकड़ों घरों का पेट भरता था। इस नदी के किनारों पर मछुआरों की बस्ती हुआ करती थी। यह मछुआरे इस नदी की मछलियों से अपने परिवार का भरण पोषण करते थे लेकिन औद्योगिक इकाइयों ने प्रदूषण फैलाना शुरू किया तो शुरू में किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। धीरे-धीरे हालात बिगड़ते चले गए और अब यह स्थिति हो गयी है कि चांदी सा चमकने वाला इसका पानी पूरी तरह से काला हो चुका है। जीवनदायिनी नदी बदबूदार गटर में बदल गयी है। नदी की सारी मछलियां मर चुकी हैं। इस नदी की हालत बिगड़ने की वजह से लगभग पैतीस लाख लोग प्रभावित हुए हैं। इस नदी का तिल-तिल कर मरना इसलिए दुखदायी है क्योंकि इस नदी में एक तरफ राप्ती का पानी आता है तो दूसरी ओर इस नदी में खुद जगह-जगह पर जल स्त्रोत पाए गए हैं। इन जल स्त्रोतों का जल भी नदी का हिस्सा बनता जाता है लेकिन अब प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि नदी के दोनों ओर पांच किलोमीटर तक की दूरी पर जो हैण्डपम्प लगे हैं उनसे आने वाला पानी भी प्रदूषित हो चुका है और उसे भी पिया नहीं जा सकता। इस स्थिति में यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि आमी नदी में हुए भंयकर प्रदूषण ने भूगर्भ जल को भी प्रदूषित कर दिया हैं। आमी नदी की वजह से मिलने वाली अच्छी फसलें और आर्थिक स्त्रोत मजबूत करने वाली मछलियां जब नदी में नही रहीं तो नदी के किनारों पर रहने वाले लोग पलायन को मजबूर हो गए। आमी नदी कभी सैकड़ो घरों को रौशन करने का काम किया करती थी, वह अब खुद बीमार हो चुकी है। नदी बीमार हो गयी है तो उसके भरोसे जिन्दगी बिताने वाले अपना घर परिवार छोड़ने को मजबूर हो गए हैं।

यह वह नदी है जिसमें गांव के लोग घंटों-घंटों पानी के भीतर रहा करते थे। मछुआरे मछली पकड़ने के लिए नदी का तट छोड़ते ही नहीं थे, लेकिन अब प्रदूषण इस कदर बढ़ गया है कि नदी के पास से गुजरना भी मुश्किल है। बदबू का इतना जोरदार झोंका उठता है कि कई किलोमीटर दूर भी सांस लेना दूभर हो जाता है। गंदगी से नदी में इतने मच्छर हो गए हैं कि तरह-तरह की बीमारियां फैलती रहती हैं।

गोरखपुर विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय ने आमी नदी के जल की जांच करायी तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए। इस जांच में यह पता चला कि नदियों का तापमान आमतौर पर 20 से 22 डिग्री होना चाहिए लेकिन आमी नदी का तापमान 28 डिग्री पाया गया। नदियों का जल रंगहीन होना चाहिए लेकिन आमी का जल काले रंग का मिला। नदियों का जल गंधहीन होना चाहिए लेकिन आमी नदी का जल दुर्गन्ध युक्त मिला। पानी में फास्फोरस की मात्रा बढ़ी हुई मिली जबकि आक्सीजन में कमी पायी गयी। आमी के पानी में जरूरत से एक तिहाई आक्सीजन ही मिली। आक्सीजन की यही कमी जलीय जन्तुओं की मौत का कारण बनी। एक तरफ आक्सीजन में कमी पायी गयी तो कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा सामान्य से दो सौ गुना ज्यादा पायी गयी। इसी तरह से सल्फेट की मात्रा भी सामान्य से दूनी पायी गयी। इस जांच रिपोर्ट के उलट प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को यह लगता है कि आमी के तट पर लगे उद्योग नदी को प्रदूषित नहीं कर रहे हैं। बोर्ड के अनुसार सभी उद्योगों ने ऐसे संयत्र लगा रखे हैं जो प्रदूषण को नियंत्रित करते हैं और नदी में उन उद्योगों से प्रदूषण नहीं जाता है। सवाल यह है कि अगर उद्योग नदी को प्रदूषित नहीं कर रहे हैं तो फिर प्रदूषण आ कहां से रहा है।

आमी के तट पर बसे पुराने लोगों के पास इसकी ढेरों यादें हैं। वह यादें है उन दिनों की जब इसका स्वर्णकाल था। जब इसकी तलहटी में सबसे ज्यादा पशुपालन होता था। पीने लायक पानी नही रहा तो पशुपालन भी खत्म हो गया। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यह मानता है कि परीक्षणोपरान्त आमी नदी के जल को सिंचाई में इस्तेमाल किया जा सकता है। सवाल यह है कि सिंचाई के लिए बार-बार इसका परीक्षण कौन कराएगा। नतीजा यह है कि किसान इस नदी के पानी को सिंचाई में इस्तेमाल करता है तो उसकी फसल ही जल जाती है। उद्योगों ने इसके पानी को इतना विषैला बना दिया है कि उसे पीकर गर्भवती पशुओं का गर्भपात हो जाता है। आमी नदी के किनारों पर स्थापित उद्योगों की शर्ते पर बात करें तो खलीलाबाद और गीडा के औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना की शर्तो में अन्य सुविधाओं के साथ-साथ केन्द्रीय साझा शोधन संयंत्र लगाने की बात भी शामिल है। अगर केन्द्रीय साझा शोधन संयंत्र लगा दिया गया होता तो शायद जलीय जीव भी मरने से बच जाते और जीवनदायिनी नदी लोगों को गांव से पलायन करने पर मजबूर नहीं करती। नियमों की अनदेखी से एक नदी मर चुकी है।

लेखक उत्कर्ष सिन्हा फितरत से यायावर हैं तो मिजाज से समाजकर्मी। वर्तमान में दैनिक लोकमत, लखनऊ के प्रमुख संवाददाता हैं। किसान आन्दोलन सहित लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए चल रहे जन आन्दोलनों में शिरकत करते रहते हैं। एमिटी यूनिवर्सिटी में अतिथि प्रोफ़ेसर के तौर पर छात्रों को मानवाधिकार का पाठ पढ़ाते हैं।
 

 

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