बाँध, बराज और तटबन्ध किसी समस्या के समाधान नहीं हैं। वे समस्या को केवल टाल देते हैं और नए किस्म की समस्याएँ पैदा करते हैं। इस बात को अब दुनिया के कई मुल्कों में समझ लिया गया है। संयुक्त राज्य अमेरीका में 1994 से ही बाँध बनाने पर रोक लगी है। कई नदियों के बाँध और तटबन्धों को तोड़ा भी गया है। अपने यहाँ नदी जोड़ के नाम पर नया कारोबार आरम्भ हुआ है। यह नहरों के जरिए नदियों का पानी कारपोरेट घरानों को देने की चाल है। इसके उदाहरण नर्मदा घाटी में दिखने लगे हैं। नदी जोड़ परियोजना को नदियों को बेचने की चाल ठहराते हुए मेधा पाटकर ने कहा कि बिहार को इस मामले में कठोर रुख अख्तियार करना चाहिए। उसे नदी जोड़ने की दिशा में नहीं जाकर वैकल्पिक जलनीति बनाने के बारे में सोचना चाहिए।
बिहार बाढ़ और सूखा दोनों से प्रभावित होता है। लेकिन बाढ़ केवल उत्तर बिहार में नहीं है और सूखा केवल दक्षिण बिहार में नहीं है। दोनों इलाके के लोग कमोबेश दोनों आपदाएँ झेलते हैं। यहाँ नदियों के प्रबन्धन का मामला अधिक मुखर होकर सामने आता है। फरक्का बैराज को हटाने की बात करके बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भागलपुर से लेकर फरक्का के निकट के गाँव पंचाननपुर तक के लोगों की दुखती रग पर हाथ रख दी है। उन्हें समस्या की जड़ तक जाना और वैकल्पिक समाधान की बात समझनी चाहिए।
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की सुप्रसिद्ध कार्यकर्ता पाटकर ने कहा कि बाँध, बराज और तटबन्ध किसी समस्या के समाधान नहीं हैं। वे समस्या को केवल टाल देते हैं और नए किस्म की समस्याएँ पैदा करते हैं। इस बात को अब दुनिया के कई मुल्कों में समझ लिया गया है। संयुक्त राज्य अमेरीका में 1994 से ही बाँध बनाने पर रोक लगी है। कई नदियों के बाँध और तटबन्धों को तोड़ा भी गया है। अपने यहाँ नदी जोड़ के नाम पर नया कारोबार आरम्भ हुआ है। यह नहरों के जरिए नदियों का पानी कारपोरेट घरानों को देने की चाल है। इसके उदाहरण नर्मदा घाटी में दिखने लगे हैं।
जनान्दोलनों के राष्ट्रीय सम्मेलन के ग्यारहवें द्विवार्षिक सम्मेलन में हिस्सा लेने पटना में आई मेधा पाटकर ने खास बातचीत में बताया कि नदी जोड़ परियोजना का खाका इसके सबसे बड़े पैरोकार पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के मन में भी स्पष्ट नहीं था। हम उनसे मिलने गए थे। पानी की अधिकता और अभाव के बारे में उनकी अपनी सोच थी। परियोजना से जुड़ी कठिनाइयों के बारे में उन्हें पता नहीं था। नदी घाटी की स्वायत्त संरचना के बारे में बताने पर पूछने लगे कि नदी घाटी क्या होती है।
दरअसल नदियों का प्रबन्धन अकेले-अकेले हो ही नहीं सकता। उसके साथ तटवर्ती जंगलों और खेतों-गाँवों के बारे में भी सोचना होगा। तटबन्ध बाढ़ को नहीं रोकते, केवल गाद को रोकते हैं। तटबन्धों के कारण नदी के गर्भ में एकत्र गाद का नतीजा एक ओर फरक्का बैराज के दुष्प्रभावों के रूप में दिखता है, दूसरी ओर कुसहा-त्रासदी होती है।
इस राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन सत्र की मुख्य वक्ताओं में शामिल मेधा ने जल, जंगल और जमीन के साथ-साथ संविधान में दिये गए विभिन्न जन अधिकारों का मामला उठाया। उन्होंने कहा कि वर्तमान सरकार विभिन्न कानूनों को बदलने की कोशिश में है।
हालांकि जनबल के दबाव में उसे भू-अधिग्रहण कानून वापस लेना पडा। पर सरकार विभिन्न उपायों से आम लोगों की जमीन लेकर उसे कारपोरेट घरानों को देने के फिराक में है। अभी झारखण्ड में सरकारी दमन चल रहा है। कोशिश उस कानून को बदलने की है जिसके अन्तर्गत आदिवासियों की जमीन की खरीद बिक्री पर अंग्रेजों के समय से ही प्रतिबन्ध लगी हुई है।
कश्मीर में हजारों लोगों को जेलों में भर दिया गया है। पैलेट गनों की फायरिंग में हजारों नौजवानों की आँखे फूट गई हैं। लोगों ने चार महीने से पूरे राज्य में बन्द रखा है। अब प्रश्न है कि कश्मीर अगर भारत का हिस्सा है तो वहाँ के लोगों के साथ सरकार संवाद क्यों नहीं कायम करती? सवाल सरकार के रवैए से ही उठता है।
जनता के संसाधनों को खींचकर कारपोरेट घरानों को देने की साजिश का आरोप लगाते हुए मेधा ने कहा कि दिल्ली से मुम्बई के बीच औद्योगिक कॉरीडोर बनाने की बात चल रही है। इस परियोजना में करीब तीन लाख 90 हजार हेक्टेयर उपजाऊ जमीन किसानों से लेकर औद्योगिक घरानों को दिया जाना है। इस बीच के खेत जंगल गाँव सब उजड़ जाएँगे।
विकास के इस ढंग को संसाधनों की लूट की संज्ञा देते हुए उन्होंने कहा कि इसके खिलाफ देश भर में जगह-जगह आन्दोलन चल रहे हैं। इन आन्दोलनों के बीच आपसी समन्वय कायम करना जरूरी है। सुश्री मेधा पाटकर ने कहा कि हम विकास के वर्तमान मॉडल का विरोध करते हैं क्योंकि यह आम लोगों के मानवीय अधिकारों का हनन करती है। इसकी जगह पर वैकल्पिक विकास का मॉडल समाने रखने की जरूरत है।
सम्मेलन में गुजरात के नौजवान दलित नेता जिग्नेश मेवानी, हैदराबाद के रोहित वेमुला के साथी प्रशान्त, जेएनयू के आन्दोलनकारी उमर खालिद खास आकर्षण हैं। ऐसे इसमें देश के 20 राज्यों में चल रहे विभिन्न आन्दोलनों के करीब 11 सौ प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। सम्मेलन तीन दिनों तक चलेगा।
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Post By: RuralWater