महाराष्ट्र के तटीय इलाके के पश्चिम में असीम सागर है और पूर्व में फैला है सह्याद्रि पर्वत। इन सीमाओं के बीच का इलाका कोंकण के नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि यह इलाका कभी परशुराम ने सागर को पीछे धकेल कर तैयार किया था। यह इलाका आज भी महाराष्ट्र के बाकी इलाकों से ज्यादा हरा-भरा है। यहाँ के बहुत सारे गाँवों में लोगों के अपने जंगल हैं और देवबनियाँ भी हैं।गाँव का नाम है मेढ़े। इस गाँव में हम अकसर आते-जाते रहते थे। वहाँ एक अच्छाई अभी तक बची हुई देवराई (देवबनी) थी। देवबनी के बारे में हम आगे कुछ विस्तार से समझाएँगे। देवबनी के अलावा इस गाँव में कुछ बड़े सयाने पेड़ भी थे। हम जनवरी 2009 में गाँव गये तो लगा कि कुछ बदला बदला-सा है यह गाँव! अचानक ध्यान में आया कि गाँव के रास्ते में हाइवे से दिखाई देने वाला आम का एक बड़ा वृक्ष काटकर गिरा दिया गया था और ककणेर धनेश चिड़ियों का जोड़ा उसके इर्द-गिर्द मंडरा रहा था।
उस बड़े आम के पेड़ को मैंने पहले कब देखा था, यह मुझे अच्छी तरह से याद है। कोंकण के अंदरूनी इलाके के इस गाँव में हम जंगल बचाने के काम में जुटे थे। इस गाँव से रत्नागिरी जाने वाला हाईवे गुजरता है। उसी के बगल में यह छोटा-सा गाँव है। रास्ते से 30-40 गज की दूरी पर गाँव की बस्ती शुरू हो जाती है। उसी बस्ती वाले रास्ते पर दो घरों के पास और दूसरे कई मकानों को छाँव देने वाला आम का यह बड़ा पेड़ जब मैंने पहली बार देखा तो बस देखती ही रह गई थी। सन 2009 से तीन चार साल पहले की बात है यह।
वैसे तो हर गाँव में एकाध बड़ा बरगद, पीपल या आम का पेड़ होना एक आम बात थी। मगर धीरे-धीरे ऐसे पेड़ भी धन कमाने का साधन बनने लगे और कटते चले गए। फलों के लालच में ही सही लोग घर और गाँव के आस-पास के आम के पेड़ बचाकर रखते थे। मुझे आज भी वह दिन याद है, जिस दिन मैंने इस मेढ़े गाँव के आम के पेड़ को देखा था-पहली बार। किस्सा लम्बा है फिर भी बताना ही पड़ेगा।
महाराष्ट्र के तटीय इलाके के पश्चिम में असीम सागर है और पूर्व में फैला है सह्याद्रि पर्वत। इन सीमाओं के बीच का इलाका कोंकण के नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि यह इलाका कभी परशुराम ने सागर को पीछे धकेल कर तैयार किया था। यह इलाका आज भी महाराष्ट्र के बाकी इलाकों से ज्यादा हरा-भरा है। यहाँ के बहुत सारे गाँवों में लोगों के अपने जंगल हैं और देवबनियाँ भी हैं। इन्हें यहाँ देवराहटी कहते हैं। जो इस क्षेत्र से परिचित नहीं हैं, उन्हें यह जानकर अचरज होगा कि यहाँ सरकारी जंगल यानी अभ्यारण्य या राष्ट्रीय उद्यान नहीं हैं। फिर भी यहाँ के जंगलों में हर प्रकार के पशु-पक्षी और पेड़ भरे पड़े हैं। जंगलों के सहारे सदियों से यह सब यहाँ के समाज के साथ पनपता फलता-फूलता रहा है।
इस सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला से अनेक छोटी-मोटी नदियाँ निकलती हैं। ये नदियाँ इस इलाके के जंगलों को हरा-भरा रखने में एक बड़ी भूमिका निभाती हैं। इन जंगलों को बनाए रखने और आगे बढ़ाने में, नए पेड़ पौधों को ईंधन देने का काम करती हैं, यहाँ की तरह-तरह की चिड़ियाँ। इन्हीं में से एक है धनेश। धन चिड़ी की दो सुंदर प्रजातियाँ हैं- ‘ग्रेट पाइड हाॅर्नबिल’ और ‘मलाबार पाइड हाॅर्नबिल।’ ये दोनों यहाँ के बरगद परिवार के कई पेड़ों और भी बहुत सारे जंगली पेड़ों के फल खाते हैं। ये पक्षी आम या बहेड़ा के बड़े पेड़ों पर ही अपना घोंसला बनाते हैं। इनके पेट से होकर जब बीज जंगल में गिरते हैं तभी फिर से जंगल बनता है। कठोर बीज इनके पेट में रसायनों के कारण नरम होकर बीट के साथ बाहर आकर अंकुरित होने लायक बन पाते हैं।
यह सब पढ़कर एक बड़ा अच्छा चित्र यहाँ की प्रकृति और लोगों के बारे में आपकी नजरों के सामने लहराने लगा होगा। मगर सब कुछ इतना भी सुंदर नहीं रहा अब। नए जंगलों को आसानी से जनम देने वाली, देवबनियों को बनाए रखने वाली यह चिड़ियाँ अब यहाँ धीरे-धीरे कम हो चली है। जंगल जो कि लोगों के हैं, वे बिना किसी की इजाजत के तेजी से कट रहे हैं- दूर दराज के शहरी इलाकों की भूख मिटाने के लिए। दूर की कौन कहे, यहीं की नई चाह के लिए, विकास के लिए भी ये जंगल कट रहे हैं। विकास के इस नए प्रारूप में बस जमीन चाहिए, जंगल नहीं, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी कुछ नहीं चाहिए। हाँ जल तो चाहिए ही पर वह बाद में देख लेंगे- ऐसा ही लगता है नए कर्णधारों को। फिर महाराष्ट्र के दूसरे हिस्से में चलने वाले शक्कर के बड़े-बड़े कारखानों के बाॅयलर्स के लिए यहीं से लकड़ी जाती है। और वह सस्ती भी है किसी अन्य वैकल्पिक ईंधन से! इसी लम्बी कहानी की एक कड़ी है यहाँ की देवबनी की पुरानी परम्परा और प्राकृतिक सम्बन्ध जैसे की हार्नबिल, धनेश चिड़िया और जंगल का पुनर्जीवन।
देवबनियों के बचे-खुचे पुराने बड़े पेड़ भी अब लोगों को नहीं जँचते। पुरानी परम्परा में भगवान के साथ देवबनी के जंगल और पेड़ों का भी बहुत महत्त्व था। अब देवबनियों से बड़े पेड़ कट रहे हैं और पुराने सुंदर खपरैल के मंदिर की जगह नए संगमरमर के मंदिर बन रहे हैं। लोग तरक्की जो कर रहे हैं। पर पक्षियों को यह तरक्की पसंद नहीं थी। उनको कष्ट था कि अब जंगल में घोंसला बनाने लायक पेड़ नहीं बचे थे। देवबनियाँ भी बिखरने लगीं, तब यहाँ की धनेश चिड़ियों ने गाँव में बचे-खुचे पेड़ों का सहारा लेना शुरू किया।
और हम ढूँढ़ रहे थे ऐसे ही पेड़। उस दिन जब मैंने यह आम का पेड़ पहली बार देखा, तब हम मेढ़े कोंडागाँव की देवबनी देखकर आ रहे थे। वहीं हमने एक मालाबार धनेश को इस पेड़ की तरफ उड़कर जाते देखा था। हाईवे के एक तरफ देवबनी है और दूसरी तरफ इस आम के पेड़ वाली बस्ती। रास्ते के किनारे वाले बस स्टाॅप पर गाँव के कुछ बूढ़े बैठे थे, वे किसी की राह देख रहे थे। उन्हें बस का इन्तजार नहीं था। हमने बातचीत शुरू कर दी। गनीमत थी कि बड़े बूढ़ों को अभी भी जंगली पेड़-पौधे और पशुओं के बारे में जानकारी है। आज के गाँव के बच्चे जब बूढ़े होंगे, तब उनके पास शायद बताने लायक कुछ होगा नहीं। क्या पता। खैर।
इन बूढ़ों ने बहुत चाव से अपनी देवबनी, जंगल और बड़े और सफेद-काले धनेश के बारे में जानकारी दी। एक काका ने बताया, इस बस स्टाॅप के ठीक पीछे एक पुराना बरगद का पेड़ है, उसी में एक बहेड़ा और बरगद की एक दूसरी प्रजाति का पेड़ भी घुलमिल गया था। उसी में एक पुरानी कोटर में, ढोली में एक बड़ा धनेश हर साल घर, घोंसला बनाता है। हम तो सुनकर चौंक गए। हाईवे के इतने नजदीक मानो हाइवे पर ही यह घोंसला बनाता है- हम पढ़े-लिखे वैज्ञानिकों को इस पर विश्वास नहीं हो पा रहा था।
तभी गाँव के उन बुजुर्गों में से एक ने कहा कि और वह काला-सफेद धनेश, तो कितने सालों से मेरे घर के सामने वाले आम के पेड़ पर अपना घोंसला बनाए चला जा रहा है। इसे हम लोग ककणेर कहते हैं। रोज नर आकर मादा और बच्चे को खाना देता है। यह सब देखने में बड़ा मजा आता है। बातचीत में कब शाम ढल गई पता ही नहीं चला। बस अंधेरे में कुछ समय बाकी था। हम काका के साथ उनके घर के पास गए। कोई दो मिनिट लगे होंगे। अब सामने खड़ा था बहुत पुराना, कम से कम सौ साल पुराना आम का वह पेड़। मानो हम सबका स्वागत-सा करता हुआ। सच में अद्भुत था वह पेड़। ऊंचाई करीबन 70 फुट थी। उसकी गोलाई होगी कोई 20-25 हाथ। और उसकी छाया देने वाली हरी ठंडी टहनियाँ न जाने कितनी दूर फैली थीं। लग रहा था मानो उसने आधी बस्ती को अपने में समेट लिया है। वह आधी बस्ती की, आधे गाँव की जिम्मेवारी ले रहा था! बस्ती के अनगिनत मकानों पर अपनी छांव की बरसात करता यह पेड़ मेरे लिए एक नई आशा थी। पहचान थी उन विचारों की जहाँ लोग पेड़ों के बारे में सोचते थे, उनका आदर करते थे। हम तब गाँव-गाँव में ऐसे बड़े और पुराने भव्य पेड़ों की गिनती कर रहे थे। यह पेड़ भी उस सुंदर सूची में दर्ज हो गया। नवम्बर-दिसम्बर की बात थी। अब हम देवबनी या जंगल बचाने के अन्य किसी काम से उस रास्ते से गुजरते तो इस पेड़ को जरूर देखते। जाते-जाते उसके बारे में दो अच्छी बातें कहते।
मनुष्यों ने ही देवताओं के वन बनाए थे। मगर नई शिक्षा पद्धति से पुरानी आस्था, अपनी संस्कृति के लिए आदर खत्म हो रहा था। नवीनीकरण और विकास के पीछे भाग रही युवा पीढ़ी को ऐसी व्यवस्था में कोई विश्वास या दिलचस्पी नहीं बची थी। कोंकण से बम्बई दूर नहीं था। उद्योग आने के बाद, सूती कपड़ा मिलें लगने के बाद यहाँ से लोग वहाँ गए ही थे- विकास की भट्टी में इनको भी झोंका गया और इनके गाँवों को भी।फिर आया फरवरी। हमने इसी पेड़ पर सफेद-काले धनेश का जोड़ा देखा, उनकी बात-चीत सुनी। वो लोगों से कैसे दूर रहना पसन्द करते हैं- यह भी देखा। फिर उसी आम के पेड़ में एक पूरी ढोली, कोटर बनी थी। बिलकुल जमीन के नजदीक दस फीट की ऊँचाई पर। यहाँ नर पंछी को बैठ कर फल खिलाने में भी कुछ सुविधा थी। यह जोड़ा यह भी जानता था कि लोग उन्हें प्यार करते हैं। इसी ढोली में उन्होंने फिर से घर बना लिया। मादा धनेश मार्च के पहले माह में कोटर के भीतर चली गई, शायद एक दो हफ्ते में अंडा दिया उसने और अब नर का काम शुरू हो गया उसे खिलाने का। मादा घोंसले में अंदर बैठती है। और सिर्फ एक छोटी-सी संकरी जगह खुली रहती है। बाकी भाग यह जोड़ा मिट्टी से बंद कर देता है। कोटर सुरक्षित रखने का यह काम वे कभी नहीं चूकते, कभी भूलते नहीं क्योंकि उन्हें अपने बच्चे को बहुत सुरक्षित रखना पड़ता है, पानी, गर्मी और साँप से व अन्य दूसरे बड़े पंछियों से। मादा करीबन ढाई तीन महीने कोटर में भीतर ही रहती है। जब बच्चा निकलता है तो उसके थोड़े बड़े होने तक मादा के साथ नन्हें धनेश को भी खाना खिलाना पड़ता है नर को। ये बहुत मजेदार दृश्य होता है। नर घोंसले की रखवाली करता है, पहले कुछ दिन मादा और फिर मादा और बच्चे दोनों को दिन में तीन बार फल खिलाता है।
अब जंगल तेजी से टूट रहे हैं, तो उसे फल लाने के लिए दूर उड़कर जाना पड़ता है। दो-तीन महीने तक यह काम करके नर कुछ दुबला-पतला हो जाता है। उधर मादा जब अपने बच्चे के साथ तीन महीने के बाद मिट्टी का दरवाजा तोड़कर कोटर से बाहर आती है, तो वह बहुत सुंदर और फुर्तीली दिखती है। नर की सेवा का असर उसकी सेहत पर, हर जगह दिखता है। फिर धीरे-धीरे दोनों मिलकर बच्चे को खाना खिलाते हैं, फिर उड़ना सिखाते हैं और फिर तीनों अगले साल तक शायद ही कभी घोंसले वाले पेड़ पर लौटते हैं।
हमारे काम के क्षेत्र संगमेश्वर में हम बड़े और छोटे धनेश पक्षियों के कई ऐसे घोंसले, कोटर तलाश करने लगे। और उन्हें गाँव के लोगों के साथ रखने की कोशिश करने लगे। धनेश का जोड़ा हर साल एक ही पेड़ पर घर बनाता है। और यह भी जान लें कि धनेश चिड़ियों का जोड़ा जन्म भर का साथ निभाता है। यह सब बताना जरूरी है क्योंकि जंगल टूटने से ये पक्षी भी कम होने लगे हैं और अगर उनके घर बनाने योग्य पेड़ नहीं बचे रहेंगे तो जंगल बनाने की धनेश से जुड़ी हुई कड़ी टूट जाएगी। नए जंगल प्राकृतिक रूप से तैयार होना बंद हो जाएगा। हम सब जानते हैं कि केवल पौधे लगाने से जंगल नहीं बनता है। वह बहुत हुआ तो पेड़ों की खेती कहला सकती है। जंगल नहीं।
मेढ़े गाँव के आम के पेड़ के साथ हमारा कुछ ज्यादा ही लगाव बढ़ गया था। हमने अगले दो साल धनेश के इस जोड़े को इसी पेड़ पर घोंसला बनाते देखा। और देखा कि वे अपनी अगली पीढ़ी को कितने लाड़-प्यार से खड़ा करते हैं, या कहें उड़ा देते हैं। लोगों को भी उसमें मजा आता था, वे भी हमारी मदद करते थे। एक बार तो हमने घोंसला बनना शुरू होने से पहले कोटर के भीतर एक कैमरा भी लगा दिया और कुछ ऐसा नया जानने की कोशिश की जो हमें बाहर से दिखता नहीं था। मगर बाद में हमें खुद लगा कि इस तरह की शोध करना ठीक नहीं। तो हमने अति उत्साह में जो कैमरा लगाया था, उसे हटा लिया था। फिर और एक साल गुजर गया। ककणेर की एक नई पीढ़ी ने मेढ़े गाँव के आम के पेड़ के कोटर से जन्म लिया।
और अब हम देख रहे थे पूरा कटा हुआ पेड़। उसकी बड़ी टहनियाँ लोग काट रहे थे। मैंने पेड़ के पास वाले घर के काका से पूछा कि यह क्या हो गया? उन्होंने बताया कि उन्हें डर लग रहा था कहीं ये बड़ा बूढ़ा पेड़ उनके घर पर न गिर जाए। पेड़ तो अच्छा खासा था, उसके टूटने की कोई आशंका नहीं थी। फिर भी बड़ी बेरहमी से उस पर कुल्हाड़ी चलाई गई थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने फिर पूछा आपने उस ककणेर के जोड़े के बारे में या उनके घोंसले के बारे में जरा भी नहीं सोचा? उसमें क्या सोचना? उनका उत्तर था कोई और पेड़ ढूँढ़ लेंगे वो। ये वही काका थे, जिन्होंने हमें इस प्रसंग की बारीकियाँ समझाई थीं और जो घोंसला, ककणेर बचाने के हमारे प्रयास से अच्छी तरह से परिचित भी थे। हमारी अभी यह बातचीत चल ही रही थी कि इतने में, ककणेर का वह जोड़ा पेड़ पर आया। बहुत बुझी-बुझी सी आँखों से उसने अब बिलकुल साफ दिखने वाली कोटर को देखा। कुछ अजीब-सी आवाजें निकालीं और दो-तीन बार कुछ ढूँढ़ने की कोशिश की। दोनों उसी टूटे हुए पेड़ पर कुछ देर बैठे रहे। शाम का अंधेरा गाँव पर अब पूरी तरह से छाने लगा था। उसी अंधेरे में वह जोड़ा जंगल की तरफ उड़ गया। हम काका और गाँव के आस-पास के लोगों से झगड़ते रहे। उनकी पैसों की जरूरत और गाँव की लकड़ी काटने वाले का लालच- दोनों मिल गए थे। हमने कहा कि इस एक पेड़ को काटने से मिलने वाला पैसा तो हम भी दे देते! मगर अब ऐसी बहस से कोई फायदा नहीं था।
अब हमारे मन में इससे कई सवाल पैदा हुए थे। पहले हम देवराहटी, देवबनी बचाने में लगे थे। इस पुरानी परम्परा से बचे हुए वनों में खूब जीव-विविधता थी। ये वन हमें पुराने जंगलों की याद दिलाते थे। ये असल में ‘जीन बैंक्स’ थे। यहाँ लोगों की परिभाषा अलग थी। लेकिन वे भी इसका महत्त्व अपने ढँग से जानते ही थे। तभी तो इस कोंकण समाज ने देवबनी बनाई थी। मनुष्यों ने ही देवताओं के वन बनाए थे। मगर नई शिक्षा पद्धति से पुरानी आस्था, अपनी संस्कृति के लिए आदर खत्म हो रहा था। नवीनीकरण और विकास के पीछे भाग रही युवा पीढ़ी को ऐसी व्यवस्था में कोई विश्वास या दिलचस्पी नहीं बची थी। कोंकण से बम्बई दूर नहीं था। उद्योग आने के बाद, सूती कपड़ा मिलें लगने के बाद यहाँ से लोग वहाँ गए ही थे- विकास की भट्टी में इनको भी झोंका गया और इनके गाँवों को भी।
हमने यह विश्वास फिर से बनाने का प्रयास किया। कुछ देवबनियाँ बचीं। कुछ पूरी नहीं टूटीं। कहीं देवबनी बची तो भी भगवान के सुंदर पुराने मंदिर टूट गए। नए सीमेंट, कंक्रीट के शहर जैसे चमकीले नकली मंदिर बन गए। हमें लग रहा था कि अपने घर के आस-पास के छायादार, फल देने वाले पेड़ लोग नहीं तोड़ेंगे। उनकी रक्षा करेंगे। उन्हें न काटेंगे, न काटने देंगे। हम गलत थे। इसके लिए और काम की जरूरत है यह भी समझ में आया।
2009 के बाद हमने इस गाँव में ज्यादा काम नहीं किया। मगर देवबनी में साल में एक दो कार्यक्रम जरूर करते हैं। जंगलों की, पेड़ की बात करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। इस बुरे अनुभव से हमने एक काम और जोड़ा। इस इलाके के करीबन चालीस से भी ज्यादा गाँवों में जितने भी बड़े पेड़ हैं, पुराने पेड़ हैं उनकी पूरी जानकारी ली। उसको नक्शों के साथ कागज पर उतारा। फिर वापस उसे कागज से गाँव में, गाँव के उस घर में उतारा, जिसके आँगन में, पड़ोस में यह पुराना पेड़ खड़ा है। उन लोगों को समझाया, प्यार किया, डाँटा भी। और आज नतीजा है कि अगर लोग ऐसा पेड़ काटना चाहें तो कम से कम हमें सूचना तो देते ही हैं। कारण समझाते हैं। जंगल, देवबनी और ऐसे पुराने सयाने पेड़ बचाने का काम कठिन ज़रूर है, मगर कोशिश जारी रखनी चाहिए हमें।
आम का पेड़ कटने के बाद हम कई बार शाम को वहाँ चले जाते। धनेश पक्षी का वह जोड़ा भी वहीं आता हर शाम, आस-पास कुछ उदास-सा मँडराता। कभी यह जोड़ा हमसे पहले वहाँ मिलता तो कभी हमारे पहुँच जाने के बाद। बाकी दुनिया ठीक ही चल रही है। पर दो-चार हम साथी और वह एक जोड़ा उस आम के पेड़ की मृत्यु पर आज भी शोक मना रहे हैं।
उस बड़े आम के पेड़ को मैंने पहले कब देखा था, यह मुझे अच्छी तरह से याद है। कोंकण के अंदरूनी इलाके के इस गाँव में हम जंगल बचाने के काम में जुटे थे। इस गाँव से रत्नागिरी जाने वाला हाईवे गुजरता है। उसी के बगल में यह छोटा-सा गाँव है। रास्ते से 30-40 गज की दूरी पर गाँव की बस्ती शुरू हो जाती है। उसी बस्ती वाले रास्ते पर दो घरों के पास और दूसरे कई मकानों को छाँव देने वाला आम का यह बड़ा पेड़ जब मैंने पहली बार देखा तो बस देखती ही रह गई थी। सन 2009 से तीन चार साल पहले की बात है यह।
वैसे तो हर गाँव में एकाध बड़ा बरगद, पीपल या आम का पेड़ होना एक आम बात थी। मगर धीरे-धीरे ऐसे पेड़ भी धन कमाने का साधन बनने लगे और कटते चले गए। फलों के लालच में ही सही लोग घर और गाँव के आस-पास के आम के पेड़ बचाकर रखते थे। मुझे आज भी वह दिन याद है, जिस दिन मैंने इस मेढ़े गाँव के आम के पेड़ को देखा था-पहली बार। किस्सा लम्बा है फिर भी बताना ही पड़ेगा।
महाराष्ट्र के तटीय इलाके के पश्चिम में असीम सागर है और पूर्व में फैला है सह्याद्रि पर्वत। इन सीमाओं के बीच का इलाका कोंकण के नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि यह इलाका कभी परशुराम ने सागर को पीछे धकेल कर तैयार किया था। यह इलाका आज भी महाराष्ट्र के बाकी इलाकों से ज्यादा हरा-भरा है। यहाँ के बहुत सारे गाँवों में लोगों के अपने जंगल हैं और देवबनियाँ भी हैं। इन्हें यहाँ देवराहटी कहते हैं। जो इस क्षेत्र से परिचित नहीं हैं, उन्हें यह जानकर अचरज होगा कि यहाँ सरकारी जंगल यानी अभ्यारण्य या राष्ट्रीय उद्यान नहीं हैं। फिर भी यहाँ के जंगलों में हर प्रकार के पशु-पक्षी और पेड़ भरे पड़े हैं। जंगलों के सहारे सदियों से यह सब यहाँ के समाज के साथ पनपता फलता-फूलता रहा है।
इस सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला से अनेक छोटी-मोटी नदियाँ निकलती हैं। ये नदियाँ इस इलाके के जंगलों को हरा-भरा रखने में एक बड़ी भूमिका निभाती हैं। इन जंगलों को बनाए रखने और आगे बढ़ाने में, नए पेड़ पौधों को ईंधन देने का काम करती हैं, यहाँ की तरह-तरह की चिड़ियाँ। इन्हीं में से एक है धनेश। धन चिड़ी की दो सुंदर प्रजातियाँ हैं- ‘ग्रेट पाइड हाॅर्नबिल’ और ‘मलाबार पाइड हाॅर्नबिल।’ ये दोनों यहाँ के बरगद परिवार के कई पेड़ों और भी बहुत सारे जंगली पेड़ों के फल खाते हैं। ये पक्षी आम या बहेड़ा के बड़े पेड़ों पर ही अपना घोंसला बनाते हैं। इनके पेट से होकर जब बीज जंगल में गिरते हैं तभी फिर से जंगल बनता है। कठोर बीज इनके पेट में रसायनों के कारण नरम होकर बीट के साथ बाहर आकर अंकुरित होने लायक बन पाते हैं।
यह सब पढ़कर एक बड़ा अच्छा चित्र यहाँ की प्रकृति और लोगों के बारे में आपकी नजरों के सामने लहराने लगा होगा। मगर सब कुछ इतना भी सुंदर नहीं रहा अब। नए जंगलों को आसानी से जनम देने वाली, देवबनियों को बनाए रखने वाली यह चिड़ियाँ अब यहाँ धीरे-धीरे कम हो चली है। जंगल जो कि लोगों के हैं, वे बिना किसी की इजाजत के तेजी से कट रहे हैं- दूर दराज के शहरी इलाकों की भूख मिटाने के लिए। दूर की कौन कहे, यहीं की नई चाह के लिए, विकास के लिए भी ये जंगल कट रहे हैं। विकास के इस नए प्रारूप में बस जमीन चाहिए, जंगल नहीं, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी कुछ नहीं चाहिए। हाँ जल तो चाहिए ही पर वह बाद में देख लेंगे- ऐसा ही लगता है नए कर्णधारों को। फिर महाराष्ट्र के दूसरे हिस्से में चलने वाले शक्कर के बड़े-बड़े कारखानों के बाॅयलर्स के लिए यहीं से लकड़ी जाती है। और वह सस्ती भी है किसी अन्य वैकल्पिक ईंधन से! इसी लम्बी कहानी की एक कड़ी है यहाँ की देवबनी की पुरानी परम्परा और प्राकृतिक सम्बन्ध जैसे की हार्नबिल, धनेश चिड़िया और जंगल का पुनर्जीवन।
देवबनियों के बचे-खुचे पुराने बड़े पेड़ भी अब लोगों को नहीं जँचते। पुरानी परम्परा में भगवान के साथ देवबनी के जंगल और पेड़ों का भी बहुत महत्त्व था। अब देवबनियों से बड़े पेड़ कट रहे हैं और पुराने सुंदर खपरैल के मंदिर की जगह नए संगमरमर के मंदिर बन रहे हैं। लोग तरक्की जो कर रहे हैं। पर पक्षियों को यह तरक्की पसंद नहीं थी। उनको कष्ट था कि अब जंगल में घोंसला बनाने लायक पेड़ नहीं बचे थे। देवबनियाँ भी बिखरने लगीं, तब यहाँ की धनेश चिड़ियों ने गाँव में बचे-खुचे पेड़ों का सहारा लेना शुरू किया।
और हम ढूँढ़ रहे थे ऐसे ही पेड़। उस दिन जब मैंने यह आम का पेड़ पहली बार देखा, तब हम मेढ़े कोंडागाँव की देवबनी देखकर आ रहे थे। वहीं हमने एक मालाबार धनेश को इस पेड़ की तरफ उड़कर जाते देखा था। हाईवे के एक तरफ देवबनी है और दूसरी तरफ इस आम के पेड़ वाली बस्ती। रास्ते के किनारे वाले बस स्टाॅप पर गाँव के कुछ बूढ़े बैठे थे, वे किसी की राह देख रहे थे। उन्हें बस का इन्तजार नहीं था। हमने बातचीत शुरू कर दी। गनीमत थी कि बड़े बूढ़ों को अभी भी जंगली पेड़-पौधे और पशुओं के बारे में जानकारी है। आज के गाँव के बच्चे जब बूढ़े होंगे, तब उनके पास शायद बताने लायक कुछ होगा नहीं। क्या पता। खैर।
इन बूढ़ों ने बहुत चाव से अपनी देवबनी, जंगल और बड़े और सफेद-काले धनेश के बारे में जानकारी दी। एक काका ने बताया, इस बस स्टाॅप के ठीक पीछे एक पुराना बरगद का पेड़ है, उसी में एक बहेड़ा और बरगद की एक दूसरी प्रजाति का पेड़ भी घुलमिल गया था। उसी में एक पुरानी कोटर में, ढोली में एक बड़ा धनेश हर साल घर, घोंसला बनाता है। हम तो सुनकर चौंक गए। हाईवे के इतने नजदीक मानो हाइवे पर ही यह घोंसला बनाता है- हम पढ़े-लिखे वैज्ञानिकों को इस पर विश्वास नहीं हो पा रहा था।
तभी गाँव के उन बुजुर्गों में से एक ने कहा कि और वह काला-सफेद धनेश, तो कितने सालों से मेरे घर के सामने वाले आम के पेड़ पर अपना घोंसला बनाए चला जा रहा है। इसे हम लोग ककणेर कहते हैं। रोज नर आकर मादा और बच्चे को खाना देता है। यह सब देखने में बड़ा मजा आता है। बातचीत में कब शाम ढल गई पता ही नहीं चला। बस अंधेरे में कुछ समय बाकी था। हम काका के साथ उनके घर के पास गए। कोई दो मिनिट लगे होंगे। अब सामने खड़ा था बहुत पुराना, कम से कम सौ साल पुराना आम का वह पेड़। मानो हम सबका स्वागत-सा करता हुआ। सच में अद्भुत था वह पेड़। ऊंचाई करीबन 70 फुट थी। उसकी गोलाई होगी कोई 20-25 हाथ। और उसकी छाया देने वाली हरी ठंडी टहनियाँ न जाने कितनी दूर फैली थीं। लग रहा था मानो उसने आधी बस्ती को अपने में समेट लिया है। वह आधी बस्ती की, आधे गाँव की जिम्मेवारी ले रहा था! बस्ती के अनगिनत मकानों पर अपनी छांव की बरसात करता यह पेड़ मेरे लिए एक नई आशा थी। पहचान थी उन विचारों की जहाँ लोग पेड़ों के बारे में सोचते थे, उनका आदर करते थे। हम तब गाँव-गाँव में ऐसे बड़े और पुराने भव्य पेड़ों की गिनती कर रहे थे। यह पेड़ भी उस सुंदर सूची में दर्ज हो गया। नवम्बर-दिसम्बर की बात थी। अब हम देवबनी या जंगल बचाने के अन्य किसी काम से उस रास्ते से गुजरते तो इस पेड़ को जरूर देखते। जाते-जाते उसके बारे में दो अच्छी बातें कहते।
मनुष्यों ने ही देवताओं के वन बनाए थे। मगर नई शिक्षा पद्धति से पुरानी आस्था, अपनी संस्कृति के लिए आदर खत्म हो रहा था। नवीनीकरण और विकास के पीछे भाग रही युवा पीढ़ी को ऐसी व्यवस्था में कोई विश्वास या दिलचस्पी नहीं बची थी। कोंकण से बम्बई दूर नहीं था। उद्योग आने के बाद, सूती कपड़ा मिलें लगने के बाद यहाँ से लोग वहाँ गए ही थे- विकास की भट्टी में इनको भी झोंका गया और इनके गाँवों को भी।फिर आया फरवरी। हमने इसी पेड़ पर सफेद-काले धनेश का जोड़ा देखा, उनकी बात-चीत सुनी। वो लोगों से कैसे दूर रहना पसन्द करते हैं- यह भी देखा। फिर उसी आम के पेड़ में एक पूरी ढोली, कोटर बनी थी। बिलकुल जमीन के नजदीक दस फीट की ऊँचाई पर। यहाँ नर पंछी को बैठ कर फल खिलाने में भी कुछ सुविधा थी। यह जोड़ा यह भी जानता था कि लोग उन्हें प्यार करते हैं। इसी ढोली में उन्होंने फिर से घर बना लिया। मादा धनेश मार्च के पहले माह में कोटर के भीतर चली गई, शायद एक दो हफ्ते में अंडा दिया उसने और अब नर का काम शुरू हो गया उसे खिलाने का। मादा घोंसले में अंदर बैठती है। और सिर्फ एक छोटी-सी संकरी जगह खुली रहती है। बाकी भाग यह जोड़ा मिट्टी से बंद कर देता है। कोटर सुरक्षित रखने का यह काम वे कभी नहीं चूकते, कभी भूलते नहीं क्योंकि उन्हें अपने बच्चे को बहुत सुरक्षित रखना पड़ता है, पानी, गर्मी और साँप से व अन्य दूसरे बड़े पंछियों से। मादा करीबन ढाई तीन महीने कोटर में भीतर ही रहती है। जब बच्चा निकलता है तो उसके थोड़े बड़े होने तक मादा के साथ नन्हें धनेश को भी खाना खिलाना पड़ता है नर को। ये बहुत मजेदार दृश्य होता है। नर घोंसले की रखवाली करता है, पहले कुछ दिन मादा और फिर मादा और बच्चे दोनों को दिन में तीन बार फल खिलाता है।
अब जंगल तेजी से टूट रहे हैं, तो उसे फल लाने के लिए दूर उड़कर जाना पड़ता है। दो-तीन महीने तक यह काम करके नर कुछ दुबला-पतला हो जाता है। उधर मादा जब अपने बच्चे के साथ तीन महीने के बाद मिट्टी का दरवाजा तोड़कर कोटर से बाहर आती है, तो वह बहुत सुंदर और फुर्तीली दिखती है। नर की सेवा का असर उसकी सेहत पर, हर जगह दिखता है। फिर धीरे-धीरे दोनों मिलकर बच्चे को खाना खिलाते हैं, फिर उड़ना सिखाते हैं और फिर तीनों अगले साल तक शायद ही कभी घोंसले वाले पेड़ पर लौटते हैं।
हमारे काम के क्षेत्र संगमेश्वर में हम बड़े और छोटे धनेश पक्षियों के कई ऐसे घोंसले, कोटर तलाश करने लगे। और उन्हें गाँव के लोगों के साथ रखने की कोशिश करने लगे। धनेश का जोड़ा हर साल एक ही पेड़ पर घर बनाता है। और यह भी जान लें कि धनेश चिड़ियों का जोड़ा जन्म भर का साथ निभाता है। यह सब बताना जरूरी है क्योंकि जंगल टूटने से ये पक्षी भी कम होने लगे हैं और अगर उनके घर बनाने योग्य पेड़ नहीं बचे रहेंगे तो जंगल बनाने की धनेश से जुड़ी हुई कड़ी टूट जाएगी। नए जंगल प्राकृतिक रूप से तैयार होना बंद हो जाएगा। हम सब जानते हैं कि केवल पौधे लगाने से जंगल नहीं बनता है। वह बहुत हुआ तो पेड़ों की खेती कहला सकती है। जंगल नहीं।
मेढ़े गाँव के आम के पेड़ के साथ हमारा कुछ ज्यादा ही लगाव बढ़ गया था। हमने अगले दो साल धनेश के इस जोड़े को इसी पेड़ पर घोंसला बनाते देखा। और देखा कि वे अपनी अगली पीढ़ी को कितने लाड़-प्यार से खड़ा करते हैं, या कहें उड़ा देते हैं। लोगों को भी उसमें मजा आता था, वे भी हमारी मदद करते थे। एक बार तो हमने घोंसला बनना शुरू होने से पहले कोटर के भीतर एक कैमरा भी लगा दिया और कुछ ऐसा नया जानने की कोशिश की जो हमें बाहर से दिखता नहीं था। मगर बाद में हमें खुद लगा कि इस तरह की शोध करना ठीक नहीं। तो हमने अति उत्साह में जो कैमरा लगाया था, उसे हटा लिया था। फिर और एक साल गुजर गया। ककणेर की एक नई पीढ़ी ने मेढ़े गाँव के आम के पेड़ के कोटर से जन्म लिया।
और अब हम देख रहे थे पूरा कटा हुआ पेड़। उसकी बड़ी टहनियाँ लोग काट रहे थे। मैंने पेड़ के पास वाले घर के काका से पूछा कि यह क्या हो गया? उन्होंने बताया कि उन्हें डर लग रहा था कहीं ये बड़ा बूढ़ा पेड़ उनके घर पर न गिर जाए। पेड़ तो अच्छा खासा था, उसके टूटने की कोई आशंका नहीं थी। फिर भी बड़ी बेरहमी से उस पर कुल्हाड़ी चलाई गई थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने फिर पूछा आपने उस ककणेर के जोड़े के बारे में या उनके घोंसले के बारे में जरा भी नहीं सोचा? उसमें क्या सोचना? उनका उत्तर था कोई और पेड़ ढूँढ़ लेंगे वो। ये वही काका थे, जिन्होंने हमें इस प्रसंग की बारीकियाँ समझाई थीं और जो घोंसला, ककणेर बचाने के हमारे प्रयास से अच्छी तरह से परिचित भी थे। हमारी अभी यह बातचीत चल ही रही थी कि इतने में, ककणेर का वह जोड़ा पेड़ पर आया। बहुत बुझी-बुझी सी आँखों से उसने अब बिलकुल साफ दिखने वाली कोटर को देखा। कुछ अजीब-सी आवाजें निकालीं और दो-तीन बार कुछ ढूँढ़ने की कोशिश की। दोनों उसी टूटे हुए पेड़ पर कुछ देर बैठे रहे। शाम का अंधेरा गाँव पर अब पूरी तरह से छाने लगा था। उसी अंधेरे में वह जोड़ा जंगल की तरफ उड़ गया। हम काका और गाँव के आस-पास के लोगों से झगड़ते रहे। उनकी पैसों की जरूरत और गाँव की लकड़ी काटने वाले का लालच- दोनों मिल गए थे। हमने कहा कि इस एक पेड़ को काटने से मिलने वाला पैसा तो हम भी दे देते! मगर अब ऐसी बहस से कोई फायदा नहीं था।
अब हमारे मन में इससे कई सवाल पैदा हुए थे। पहले हम देवराहटी, देवबनी बचाने में लगे थे। इस पुरानी परम्परा से बचे हुए वनों में खूब जीव-विविधता थी। ये वन हमें पुराने जंगलों की याद दिलाते थे। ये असल में ‘जीन बैंक्स’ थे। यहाँ लोगों की परिभाषा अलग थी। लेकिन वे भी इसका महत्त्व अपने ढँग से जानते ही थे। तभी तो इस कोंकण समाज ने देवबनी बनाई थी। मनुष्यों ने ही देवताओं के वन बनाए थे। मगर नई शिक्षा पद्धति से पुरानी आस्था, अपनी संस्कृति के लिए आदर खत्म हो रहा था। नवीनीकरण और विकास के पीछे भाग रही युवा पीढ़ी को ऐसी व्यवस्था में कोई विश्वास या दिलचस्पी नहीं बची थी। कोंकण से बम्बई दूर नहीं था। उद्योग आने के बाद, सूती कपड़ा मिलें लगने के बाद यहाँ से लोग वहाँ गए ही थे- विकास की भट्टी में इनको भी झोंका गया और इनके गाँवों को भी।
हमने यह विश्वास फिर से बनाने का प्रयास किया। कुछ देवबनियाँ बचीं। कुछ पूरी नहीं टूटीं। कहीं देवबनी बची तो भी भगवान के सुंदर पुराने मंदिर टूट गए। नए सीमेंट, कंक्रीट के शहर जैसे चमकीले नकली मंदिर बन गए। हमें लग रहा था कि अपने घर के आस-पास के छायादार, फल देने वाले पेड़ लोग नहीं तोड़ेंगे। उनकी रक्षा करेंगे। उन्हें न काटेंगे, न काटने देंगे। हम गलत थे। इसके लिए और काम की जरूरत है यह भी समझ में आया।
2009 के बाद हमने इस गाँव में ज्यादा काम नहीं किया। मगर देवबनी में साल में एक दो कार्यक्रम जरूर करते हैं। जंगलों की, पेड़ की बात करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। इस बुरे अनुभव से हमने एक काम और जोड़ा। इस इलाके के करीबन चालीस से भी ज्यादा गाँवों में जितने भी बड़े पेड़ हैं, पुराने पेड़ हैं उनकी पूरी जानकारी ली। उसको नक्शों के साथ कागज पर उतारा। फिर वापस उसे कागज से गाँव में, गाँव के उस घर में उतारा, जिसके आँगन में, पड़ोस में यह पुराना पेड़ खड़ा है। उन लोगों को समझाया, प्यार किया, डाँटा भी। और आज नतीजा है कि अगर लोग ऐसा पेड़ काटना चाहें तो कम से कम हमें सूचना तो देते ही हैं। कारण समझाते हैं। जंगल, देवबनी और ऐसे पुराने सयाने पेड़ बचाने का काम कठिन ज़रूर है, मगर कोशिश जारी रखनी चाहिए हमें।
आम का पेड़ कटने के बाद हम कई बार शाम को वहाँ चले जाते। धनेश पक्षी का वह जोड़ा भी वहीं आता हर शाम, आस-पास कुछ उदास-सा मँडराता। कभी यह जोड़ा हमसे पहले वहाँ मिलता तो कभी हमारे पहुँच जाने के बाद। बाकी दुनिया ठीक ही चल रही है। पर दो-चार हम साथी और वह एक जोड़ा उस आम के पेड़ की मृत्यु पर आज भी शोक मना रहे हैं।
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