अल्प बारिश से आगे होगी कठिनाई


कृषि पर जलवायु परिवर्तन का खतरा

वैश्विक स्तर पर मौसम में हो रहे बदलाव का एक दुष्प्रभाव पूरी दुनिया में सूखा, अकाल, वर्षा काल में कमी, अति व अल्प बारिश के रूप में सामने आ रहा हैं। पिछले दो दशक से दुनियाँ के सभी देश मौसम के ऐसे प्रभावों से दो-चार हो रहे हैं। भारत में भी पिछले एक दशक के दौरान अति व अल्प बारिश जनित समस्याएं सूखा व बाढ़ के चलते गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड में हजारों जाने जा चुकी हैं। प्रभावित क्षेत्रों में कई बार आधारभूत संरचना ध्वस्त हो चुकी हैं। जिसको ठीक करने का कार्य निरंतर जारी हैं। पिछले दशक में मुंबई में एक दिन में हुई रिकार्ड तोड़ बारिश, बिहार में कोसी नदी द्वारा धारा परिर्वतन से आई भयानक बाढ, व उत्तराखंड के केदारनाथ में हुआ जलप्रलय अति वर्षा का दुष्परिणाम है। इसी प्रकार पिछले कुछ सालों से मानसून के दौरान हो रही अल्प बारिश से बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश के बडें भागों में खड़ी फसलें सूख जा रही है। समय पर बारिश नहीं होने से बुआई नहीं हो पा रहीे है। मानसून के दगा देने से देश का अनाज उत्पादन लक्ष्य अधूरा रह जा रहा है। इससे अनाज की कीमतें बढ़ती जा रही हैं। जो महंगाई और मुद्रास्फीति बढ़ाने का कार्य कर रही है। किसानों की आय घटती जा रही है। कृषि घाटे का सौदा बनने लगी है। अनाज बेचने वाले किसान ऐसी स्थिति में अनाज खरीदने पे मजबूर हो रहे हैं।

झारखंड राज्य स्थित साहिबगंज जिला में हमेशा से आते और जाते मानसून के दौरान अच्छी बारिश होती रही है। लेकिन पिछले एक दशक से ज्यादा समय से लौटते मानसून के समय रबी सीज़न के दौरान बारिश की मात्रा में हो रही कमी से कृत्रिम सिंचाई पर निर्भरता बढ़ने लगी है जिससे खेती का खर्च बढ़ने लगा है। भूजल से हो रही सिंचाई से नलकूपों के बेकार होने के कारण किसान खेती छोड़ने लगे है। क्याेंकि कृत्रिम सिंचाई की बढ़ती लागत से लाभ की कौन कहे यहाँ खेती में लागत भी नहीं निकल पा रही है। जिले में यह स्थिति वर्ष 2000 के बाद लौटते मानसून के दौरान बारिश में हुई कमी के कारण उत्पन्न हुई हैं।

साहिबगंज जिला झारखंड राज्य के सुदूरवर्ती उत्तरी-पूर्वी भाग में राजमहल की पहाड़ियों व गंगा नदी के तट के बीच स्थित है। इस जिले का भौगोलिक विन्यास 1706 वर्ग किलोमीटर है। यह जिला 250 14‘26‘‘ उत्तरी अक्षाँश व 870 38‘12‘‘ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। यह झारखंड राज्य का एकमात्र जिला है जहाँ गंगा नदी पश्चिम से पूर्व की तरफ करीब 80 किलोमीटर प्रवाहित होती है।

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आश्रित है। जिले की कुल 103049 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से करीब 45000 हेक्टेयर पर धान, 13595 हेक्टेयर पर मक्का, 6500 हेक्टेयर पर गेहूँ, 19245 हेक्टेयर पर दलहन, 7709 हेक्टेयर पर तिलहन व 1000 हेक्टेयर पर मोटे अनाजों की खेती 2.5 लाख से ज्यादा किसान करते हैं और करीब 10000 हेक्टेयर भूमि बँजर है। जिले की कृषि हमेशा से मानसून पर निर्भर रही है। विशेषकर रबी सीज़न के दौरान होने वाली वर्षा हमेशा से किसानों की सहायक रही है। इससे किसानों का सिंचाई खर्च बचता रहा है व बिना भूजल व सतही जल स्रोतों से सिंचाई किए अच्छी पैदावार प्राप्त होती आई है। जिला कृषि विभाग, साहिबगंज से प्राप्त जानकारी के मुताबिक वर्ष 2013 तक जिले की कुल खेती योग्य 103049 हेक्टेयर भूमि में से 10000 हेक्टेयर भूमि को सरकारी प्रयास से अब तक सिंचित बनाया गया हैं।

इसके लिए 13000 हजार से ज्यादा नलकूपों व 3000 हजार तालाब उपयोग में लाए जा रहे हैं। वही करीब 2000 हेक्टेयर भूमि को किसानों ने अपने खर्च व प्रयास से सिंचित बनाया है। इसी सिंचित भूमि में रबी सीज़न के दौरान 6500 हेक्टेयर पर गेहूँ, 3500 हेक्टेयर पर मक्का व 2000 हेक्टेयर पर तिलहन की खेती वर्तमान में किसान कर रहे हैं। पूर्व में रबी सीज़न के दौरान बारिश के कारण किसानों को कृत्रिम पटवन में प्रयुक्त डीजल पंपसेट, नलकूप, तालाब खुदाई, मजदूरी आदि खर्च नहीं करना पड़ता था जो वर्ष 2000 के बाद बढ़ता गया। वर्ष 2000 के बाद वैश्विक स्तर पर मौसम में होने वाले बदलाव का लक्षण यहाँ भी दिखने लगा। रबी सीजन के दौरान बारिश की मात्रा घटने लगी, जो पहले नहीं थी। जिला कृषि विभाग साहिबगंज से प्राप्त आँकडों के जरिए पिछले ढ़ाई दशक में नवंबर से फरवरी माह के दौरान हुई बारिश को निम्न तालिका से दिखाया जा रहा है:-

.तालिका संख्या-1 से स्पष्ट है कि वर्ष 1987-88 से 1999-2000 के दौरान रबी सीज़न के चार महीनों में कुल 673 मिलीमीटर बारिश हुई वही 2000-01 से 2012-13 के दौरान रबी सीज़न के चार महीनों में कुल 85.63 मिलीमीटर बारिश हुई। तालिका से स्पष्ट है कि 1987-2000 की तुलना में 2000-2013 के बीच रबी सीज़न के दौरान बारिश की मात्रा में 7.83 प्रतिशत की कमी रिकार्ड की गई। तालिका से स्पष्ट है कि वर्ष 1987-88 से 1999-2000 के बीच रबी सीज़न के चार महीनों में बारिश का वार्षिक औसत 51.78 मिलीमीटर रहा वह 2000-2013 के बीच घट कर 6.58 मिलीमीटर वार्षिक हो गया। ऐसे में पूर्व की तुलना में बारिश की मात्रा में कमी और इसके अनियमित होने से रबी सीज़न के दौरान गेहूँ, मक्का, सरसों की अनिवार्य सिंचाई वर्ष 2000 के बाद किसानों को करनी पड़ रही है। जिसके लिए उन्हें प्रत्येक बार प्रति हेक्टेयर एक निश्चित राशि खर्च करनी पड़ रही है।

वर्ष 1987-88 से 2012-2013 के बीच रिकार्ड की गई वर्षा की मात्रा को निम्न सरल दण्ड चित्र से दिखाया जा रहा है:-

Dand chitraदण्ड चित्र सं. - 1

नोट:- 0 से 180 तक वर्षा की मात्रा (मिलीमीटर में) दर्शाई गई है व नीचे वर्ष को दर्शाया गया है।दण्ड चित्र में दिख रहा है कि वर्ष 1987-88 से 1999-2000 के बीच की रेखाएँ 2000-2013 की तुलना में बड़ी हैं। इस प्रकार वर्ष 2000 के बाद वर्षा की मात्रा में हो रही कमी का प्रभाव जिले में भूजल से अत्यधिक सिंचाई के रूप में सामने आने लगा। किसानों को खेतों की जुताई, बीज, उर्वरक, कीटनाशक खर्च के साथ नलकूप गड़वाने, तालाब खुदवाने, डीजल पंपसेट खरीदने, भाड़ा पर लेने, पटवन के लिए खेत में नाली बनाने, के साथ सिंचाई के लिए मजदूरी खर्च लगने लगा। जहाँ वर्ष 2000 से पूर्व रबी सीज़न के दौरान किसानों को नियमित व पर्याप्त बारिश के कारण ऐसे खर्च नहीं करने पड़ते थे, वह वर्ष 2000 के बाद अनिवार्य हो गए। जो धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। जिले के साहिबगंज सदर, राजमहल, उधवा व तालझारी प्रखंड में पिछले 10 वर्ष से पटवन से खेती कर रहे कुल 123 किसानों से प्राप्त सिंचाई खर्च संबंधी जानकारी को निम्न तालिका से दिखाया जा रहा है:

तालिका संख्या - 2

Talika -2नोट:- यहाँ एक हेक्टेयर में 3 एकड़ भूमि होती है। रबी सीज़न के दौरान किसान गेहूँ, मक्का व तिलहन की तीन सिंचाई करते है। एक बार में 1 एकड़ भूमि को डीजल पंपसेट द्वारा नलकूप या सतही जल स्रोत से सिंचित करने में 6 घंटे व एक हेक्टेयर में कुल 18 घंटे लगते हैं। यानि एक हेक्टेयर भूमि की फसल को तीन बार सिंचित करने में कुल 54 घंटे लगते हैं।

तालिका सं.-2 से स्पष्ट है कि वर्ष 2000-01 से 2012-13 के दौरान किसानों को रबी सीज़न के दौरान गेहूँ, मक्का व तिलहन फसल को सिंचित करने के लिए क्रमशः 25.55 करोड़, 13.97 करोड़ तथा 7.88 करोड़ की राशि खर्च करनी पड़ जो कुल 47.22 करोड़ होता है। जिले के किसानों को यह राशि सिंचाई की मद में बारिश में हुई कमी के कारण खर्च करनी पड़ी।

वर्ष 2000 के बाद वर्षा में हो रही कमी से भूजल से सिंचाई अनिवार्य हो गई हैं। पूर्व की तुलना में खेती की लागत ज्यादा होती जा रही है। भूजल पर खेती की बढ़ती निर्भरता से भूजल का स्तर नीचे जा रहा है। भूजल का स्तर नीचे जाने से पूर्व में लगाए गए नलकूप बेकार होते जा रहे है जो किसानों के लिए एक अलग समस्या हैं। किसानों से प्राप्त जानकारी के मुताबिक वर्ष 2000 के बाद भूजल पर बढ़ी निर्भरता के कारण पूर्व में लगवाए गए 1000 से ज्यादा नलकूप बेकार हो गए हैं। वर्ष 1995 में जहां 40 फीट पर नलकूप से सिंचाई के लायक पानी निकल आता था वह अब 70 फीट पहुँच गया है। बेकार हो गए नलकूपों से सिंचाई के लायक पानी नहीं निकलने से अब तक जिले के 1000 हजार से ज्यादा किसान पटवन की खेती छोड़ चुके हैं। ऐसे किसान मनरेगा या जिला के पत्थर उद्योग में दिहाड़ी पर कार्य कर जीवन यापन कर रहे हैं।

भविष्य में रबी सीज़न के दौरान बारिश में और कमी होने, भूजल से हो रही सिंचाई से भूजल स्तर नीचे जाने, डीजल पपंसेट ईंधन, मजदूरी आदि खर्च बढ़ते रहने से कृत्रिम सिंचाई दिनों-दिन मँहगी होती जाएगी। नलकूपों की गहराई बढ़ती जाएगी, किसान खेती छोड़ जीविका के लिए अन्य कार्य करने को मजबूर होते जाएंगे। जो बारिश में होने वाली और कमी का तथा भूजल दोहन की बढ़ती लागत परिणाम होगी।

स्रोत- जिला कृषि विभाग, साहिबगंज, 2013
लघु सिंचाई विभाग साहिबगंज, 2013
साहिबगंज सदर, राजमहल, उधवा व तालझाारी प्रखंड कार्यालय से प्राप्त जानकारी, 2013
चार प्रखंडों के 123 किसानों से प्राप्त जानकारी, 2013

डाॅ. विपिन कुमार,
मुहल्ला:- तालबन्ना काली स्थाऩ
वार्ड नंबर:- 1, साहिबगंज नगर पार्षद
थाना:- साहिबगंज नगर, पोस्टः- साहिबगंज
जिला:- साहिबगंज, पिन नंबरः- 816109
राज्यः-झारखंड
मोबाइल नंबरः-09006570551

ईमेलः-vipinkumar.sahibganj2011@gmail.com

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