अलकनंदा की यह अनदेखी


प्रतिमत

 


पर्यावरणवादियों और कुछ साधु-संतों ने उत्तरकाशी जिले में 480 मेगावाट क्षमता की पाला मनेरी और 381 मेगावाट की भैरोंघाटी जल विद्युत परियोजनाओं को बंद कराने के बाद अब गंगोत्री के नजदीक उसी क्षेत्र में बन रही लोहारी नागपाला को बंद कराने के लिए भी केंद्र सरकार को झुका ही दिया। इस प्रकार सरकार जोगियों की हठ के आगे फिर नतमस्तक हो गई।

केंद्र सरकार ने उत्तरकाशी जिले में 600 मेगावाट की जिस लोहारी नागपाला को बंद करने की घोषणा की, उस पर लगभग 40 प्रतिशत सिविल कार्य पूरा हो चुका था और करीब 600 करोड़ रुपये भी खर्च हो गए थे। अब वहां बनी सुरंगों को बंद करने पर 2,000 करोड़ से अधिक खर्च करने होंगे। यही नहीं, इससे देश के भावी पावर हाउस के रूप में प्रचारित उत्तराखंड गंभीर बिजली संकट में फंस गया है।

अब एक बड़ा सवाल यह भी उठ रहा है कि जब अलकनंदा और भागीरथी के देवप्रयाग में मिलन के बाद गंगा की यात्रा बंगाल की खाड़ी तक के लिए शुरू होती है, तो उसकी दो धाराओं में से केवल एक को ही गंगा मानकर बिजली परियोजनाओं का विरोध क्यों किया जा रहा है? तथाकथित पर्यावरणविदों को अलकनंदा के विशाल जलसंभरण क्षेत्र तथा दर्जनों ग्लेशियर समूहों के विशाल पारितंत्र की संवेदनशीलता नजर क्यों नहीं आ रही? अगर भागीरथी करोड़ों हिंदुओं की आस्था की प्रतीक है, तो अलकनंदा का धार्मिक महत्व भी कम नहीं है। फिर भी कोई अलकनंदा के 195 किलोमीटर लंबे मार्ग पर और धौली, बिरही, पिंडर, नंदाकिनी और मंदाकिनी जैसी उसकी सहायक नदियों पर प्राथमिक सर्वेक्षण से लेकर निर्माणाधीन 42 जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध नहीं कर रहा। अकेले अलकनंदा पर लगभग 2,200 मेगावाट की सात बड़ी परियोजनाएं विभिन्न चरणों में हैं।

देवप्रयाग में गंगा की यात्रा शुरू होने से पहले ही उसकी दो मुख्य धाराओं में से भागीरथी को असली गंगा कहे जाने पर ऐतराज इसलिए है कि एक तो गंगा का 65 प्रतिशत पानी अलकनंदा से और मात्र 35 प्रतिशत भागीरथी से आता है। अलकनंदा के किनारे पांच प्रयाग हैं। हर साल लाखों हिंदुओं को सर्वोच्च तीर्थ बद्रीनाथ और केदारनाथ तक यही नदी ले जाती है। बद्रीनाथ जैसा मोक्ष धाम इसी के किनारे है। आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए जब देश के चारों कोनों पर चार धार्मिक पीठों की स्थापना की, तो उन्हें हिमालयी पीठ के लिए अलकनंदा के पास जोशीमठ ही उपयुक्त लगा। अलकनंदा का उद्गम सतोपंथ ग्लेशियर है। उसके बगल में भगीरथ खर्क है। भगीरथ खर्क के बारे में धारणा है कि भगीरथ ने इसी स्थान पर तपस्या की होगी। एक मान्यता है कि गंगा की जो अलग-अलग धाराएं शिव की जटा से छिटकी थीं, उनमें एक सतोपंथ में अलकनंदा तथा दूसरी गोमुख में भागीरथी थी। पांडवों को भी असली गंगा अलकनंदा ही नजर आई थी, इसलिए वे स्वर्गारोहण के लिए सतोपंथ पर चढ़ाई के लिए निकल पड़े और उसी दौरान एक-एक कर बर्फ में गिरते गए।

जहां तक पारिस्थितिकी की संवेदनशीलता का सवाल है, तो अलकनंदा के इलाके में स्थिति ज्यादा चिंताजनक है। अलकनंदा जितनी बड़ी नदी है, उसका उतना ही बड़ा जल संग्रहण क्षेत्र भी है। भागीरथी का कैचमेंट इलाका खतलिंग और गंगोत्री ग्लेशियरों के बीच है, जबकि अलकनंदा का स्रोत इलाका पिंडारी से सतोपंथ ग्लेशियरों के बीच फैला है। अलकनंदा के कैचमेंट क्षेत्र में कुल 427 ग्लेशियर हैं, जबकि गंगोत्री क्षेत्र में केवल 238 और यमुना बेसिन में मात्र 52 ग्लेशियर हैं। अलकनंदा के ग्लेशियरों के पीछे खिसकने की गति भी विभिन्न अध्ययनों में अधिक दर्ज की गई है। इसलिए पर्यावरणविद् भागीरथी से अधिक अलकनंदा को संवेदनशील मान रहे हैं। दरअसल पर्यावरणवादी सुंदरलाल बहुगुणा ने एक बार टिहरी बांध का विरोध शुरू किया, तो बांध बन जाने के बाद भी विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस तरह धर्मांध लोगों को विरोध का भले ही एक बहाना मिल गया हो, मगर उसकी कीमत अंततः पूरे राष्ट्र को परियोजना लागत में भारी वृद्धि के रूप में चुकानी पड़ रही है। इससे आम उपभोक्ता को महंगी बिजली का उपयोग करना पड़ रहा है। विडंबना यह है कि जिन्हें सबसे ज्यादा बिजली चाहिए, वे ही परियोजनाओं का ज्यादा विरोध कर रहे हैं।
 

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