अल-नीनो के कारण ही भूमण्डल के एक हिस्से में बाढ़ और तूफान का बोलबाला रहता है, तो दूसरा हिस्सा भीषण सूखे और अकाल की चपेट में आ जाता है।
ला-नीना के प्रभाव के कारण पूरी दुनिया का सामान्य मौसम बुरी तरह प्रभावित होता है और इसके प्रभाव से विभिन्न क्षेत्रों में जबरदस्त बारिश होती है और इस कारण आने वाली बाढ़ तबाही मचाती है। ला-नीना की अवस्था में मौसम के प्रभाव साधारणतया अल-नीनो के विपरीत होते हैं। अब कई देशों के मौसम विज्ञानी मानने लगे हैं कि ला-नीना, अल-नीनो से भी ज्यादा नुकसानदायक है।
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क्या है अल-नीनो?
ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव के अलावा एक अन्य कारण जिससे वायुमण्डल के तापमान में वृद्धि होती है, वह है अल-नीनो प्रभाव। दूसरे शब्दों में अल-नीनो पूर्वी और मध्य विषुवतीय प्रशान्त महासागर के पानी के असामान्य रूप से गर्म होने की ऐसी अवस्था है जिससे हवाओं के पैटर्न में आने वाला परिवर्तन विश्व भर के मौसम में परिवर्तन लाता है। प्रत्येक तीन से सात साल के अन्तराल में प्रशान्त महासागर के मध्य तथा पूर्वी क्षेत्रों में गर्म पानी का एक विशाल स्रोत बहता है। इस बहाव के कारण वायुमण्डल का ताप अचानक बढ़ जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पूर्वी प्रशान्त क्षेत्र में जब हवा का उच्च दबाव पश्चिम की ओर अदृश्य रूप में एक झोंके की तरह बढ़ता है तो इससे इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया के चारों ओर समुद्र की सतह आधा मीटर ऊँची हो जाती है। इसी दौरान पेरू के समुद्र तट पर भी ऐसा ही दृश्य उपस्थित हो जाता है। हवा और गर्म जल का यही प्रभाव ‘अल-नीनो’ के संचालन के लिये जिम्मेदार होता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार जब इन झोकों का वेग धीमा पड़ता है, तो समुद्र का जल पतला हो जाता है। जल पतला होने के पहले चरण में समुद्र की सतह के ऊपर की गर्म व पतले जल की परत से लगी नीचे के ठण्डे और गाढ़े जल की ‘थर्मोक्लाइन’ नामक परत अलग होकर समुद्र की गहराई में उतरने लगती है। इससे समुद्र की ऊपरी परत गर्म होने लगती है और समुद्र के ऊपर व आस-पास का वायुमण्डल तेजी से गर्म होने लगता है। यही अल-नीनो प्रभाव है, जिससे गर्मी अचानक बढ़ जाती है। ‘अल-नीनो’ शब्द पेरू के उन मछुआरों की देन है, जिन्होंने यह महसूस किया कि क्रिस्मस के दिनों में अचानक पेरूवियन समुद्र की सतह गर्म हो जाती है, जिससे पूरे वातावरण में गर्म धाराएँ बहने लगती हैं। ईसा मसीह के जन्म से मौसम की इस गतिविधि को जोड़ते हुए मछुआरों ने गर्म धाराओं की उत्पत्ति को ‘अल-नीनो’ नाम दिया, जिसका स्पेनिश में अर्थ है ‘मानव पुत्र’। बहुत से लोग इसे ‘ईशु पुत्र’ भी कहते हैं।
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क्या है ला-नीना?
अल-नीनो के ठीक बाद की प्रक्रिया है ला-नीना। ला-नीना भी स्पेनिश भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘छोटी बच्ची’। ला-नीना के चलते गर्म हुआ प्रशान्त महासागर ठण्डा होने लगता है। वास्तव में पूर्वी और मध्य प्रशान्त में तापक्रम का असामान्य रूप से कम होना अर्थात ला-नीना, अल-नीनो से किसी मामले में कम खतरनाक नहीं है। ला-नीना के प्रभाव के कारण पूरी दुनिया का सामान्य मौसम बुरी तरह प्रभावित होता है और इसके प्रभाव से विभिन्न क्षेत्रों में जबरदस्त बारिश होती है और इस कारण आने वाली बाढ़ तबाही मचाती है। ला-नीना की अवस्था में मौसम के प्रभाव साधारणतया अल-नीनो के विपरीत होते हैं। अब कई देशों के मौसम विज्ञानी मानने लगे हैं कि ला-नीना, अल-नीनो से भी ज्यादा नुकसानदायक है।
ला-नीना अधिकांशतः दक्षिणी गोलार्द्ध को प्रभावित करता है। इसमें अमेरिका के मध्य पश्चिमी क्षेत्र में वर्षा बढ़ जाती है। उत्तरी रॉकी पर्वतीय क्षेत्र, उत्तरी कैलिफोर्निया और उत्तर पश्चिमी प्रशान्त के पूर्वी क्षेत्र में अधिक वर्षा होती है। दक्षिणी क्षेत्रों में वर्षा कम हो जाती है। कनाडा में ला-नीना के प्रभाव से बर्फ ज्यादा पड़ती है। जिससे सर्दी बहुत बढ़ जाती है। एशिया में उष्णकटिबन्धी चक्रवातों की संख्या बढ़ने से तटीय क्षेत्रों में विशेषकर चीन में इसका प्रभाव अधिक हो सकता है। भारत में इसके कारण सामान्य से अधिक वर्षा होती है। इस वर्ष सितम्बर-अक्टूबर के आस-पास ला-नीना की आशा की जा रही है। भारत के लिये यह एक अच्छी खबर है कि ला-नीना यहाँ मानसून के साथ होगा जबकि यहाँ खरीफ की फसल बोयी जाती है।
जब अल-नीनो मध्य प्रशान्त महासागर में उत्पन्न होता है तब इसको ‘मोदोकी’ कहते हैं। जापानी भाषा में मोदोकी का अर्थ है। ‘मिलता-जुलता किन्तु भिन्न’। इस अल-नीनो के प्रभाव भी पारम्परिक अल-नीनो के प्रभाव से भिन्न होते हैं। इसके प्रभाव के फलस्वरूप अनेक चक्रवात अटलांटिक महासागर के तटों पर टकराते हैं। इस अल-नीनो का कारण मानवीय क्रिया-कलापों के कारण जलवायु में होने वाले परिवर्तन को माना गया है।
विश्व के विभिन्न भागों पर अल-नीनो का प्रभाव
विश्व के विभिन्न भागों में अल-नीनो का प्रभाव भी अलग-अलग होता है। जैसे कि इसका प्रभाव उत्तरी अमेरिका की अपेक्षा दक्षिणी अमेरिका पर अधिक होता है। दक्षिणी अमेरिका में अल-नीनो के गर्म जल के कुंडों से पूर्वी मध्य तथा प्रशान्त महासागर में गरज वाले बादलों में जलवाष्प की मात्रा बहुत बढ़ जाने से अधिक वर्षा होने लगती है। उत्तरी पेरू तथा इक्वाडोर के समुद्री तटों पर भारी वर्षा के कारण ग्रीष्म ऋतु में भीषण बाढ़ आ जाती है। दक्षिणी अमेरिका के तटों पर ठण्डा पौष्टिक जल जिसमें मछलियाँ पलती हैं, अल-नीनो के कारण वहाँ जल का उत्प्रवाह कम हो जाता है। परिणामस्वरूप, इसके प्रभाव से पेरू के पास के समुद्री क्षेत्र में मछलियाँ मर जाती हैं और अन्य प्रवासी पक्षी भी प्रभावित होते हैं। दक्षिणी ब्राजील और उत्तरी अर्जेंटीना में सामान्य की अपेक्षा आरम्भिक ग्रीष्म ऋतु में अधिक वर्षा होने लगती है। अमेजन नदी के किनारों, कोलम्बिया तथा मध्य अमेरिका के कुछ भागों में शुष्क और भीषण गर्मी होने लगती है।
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भारत के मौसम विज्ञानियों ने भारतीय मानसून की वर्षा पर अल-नीनो प्रभाव के अनेक अध्ययन किए हैं। इनमें देखा गया कि अल-नीनो की अवस्था में भारत में सूखा पड़ने की संभावना अधिक हो सकती है। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक अल-नीनो वर्ष में भारत में सूखा ही पड़ेगा। किसी भी अल-नीनो वर्ष में भारत में बाढ़ के संकेत नहीं मिले हैं। अल-नीनो के वर्षों को एक चेतावनी अवश्य समझा जा सकता है।
स्वास्थ्य पर अल-नीनो का प्रभाव
अल-नीनो को आजकल बहुत सी बीमारियों का कारण भी माना जा रहा है। इसके प्रभाव से मलेरिया, डेंगू और रिट वैली ज्वर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। कुछ अध्ययनों में प्रशान्त महासागर के द्वीप, इंडोनेशिया आदि में डेंगू और अल-नीनो के बीच सम्बन्ध पाया गया है। वास्तव में यदि शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में भारी वर्षा हो जाती है तो, जगह-जगह जल एकत्रित होने से मच्छरों के पनपने के लिये अनुकूल जगह बन जाती हैं और ऐसे में मच्छरों के कारण फैलने वाली बीमारियों में बढ़ोत्तरी हो जाती है। एशिया में वर्ष 1998 में कई देशों में डेंगू की संख्या में वृद्धि हुई थी जिसका कारण अल-नीनो के कारण अजीब सा मौसम था। आस्ट्रेलियन एन्सिफेलाइटिस भी मच्छरों के कारण फैलने वाली बीमारी है। यह दक्षिणी पूर्वी आस्ट्रेलिया में भीषण वर्षा और बाढ़ के दौरान अधिक होती है जिसका मुख्य कारण ला-नीना प्रभाव को माना जाता है। रिट वैली ज्वर भी मच्छरों से फैलता है जिसका प्रभाव लोगों की अपेक्षा मवेशियों पर अधिक होता है।
जलवायु और अल-नीनो
पिछले कुछ दशकों में अल-नीनो की संख्या में वृद्धि हुई है और ला-नीना की घटनाओं में कमी देखी गई है। आजकल विभिन्न प्रकार के जलवायु के मॉडलों से अल-नीनो प्रभाव का अध्ययन किया जा रहा है जिनसे आने वाले वर्षों में वास्तविक परिणाम प्राप्त होने की आशा है। वैसे अल-नीनो के पूर्वानुमान में उपग्रहों से विशेष सहायता प्राप्त हुई है। ऐसे उपग्रहों से आँकड़े प्राप्त करने के लिये उनमें विशेष प्रकार के संसूचक लगे होते हैं। समुद्री क्षेत्र में अल-नीनो के उत्पन्न होते ही वहाँ तेज हवाएँ चलने लगती हैं। वायुमण्डल में घनघोर बादल छाने लगते हैं और वर्षा होने लगती है। समुद्र तल में उस स्थान पर जल का स्तर ऊँचा होने लगता है। इन्हीं अवस्थाओं को विभिन्न उपकरणों से मापकर मौसम विज्ञानी अल-नीनो का पूर्वानुमान लगाते हैं। अल-नीनो के पूर्वानुमान के प्रमुख केन्द्र अमेरिका, आस्ट्रेलिया, यूरोप और ब्रिटेन आदि देशों में स्थित हैं।
चूँकि मौसम और जलवायु परिवर्तन पर ही समूची मानव जाति का भविष्य टिका हुआ है, इसलिये मौसम विज्ञानी और पर्यावरणविद जलवायु बदलने वाली इन दोनों प्रक्रियाओं अर्थात अल-नीनो और ला-नीना के बारे में खोजबीन में जुटे हैं। इसके लिये एक ओर तो ताप और वर्षामापक माने जाने वाले प्राकृतिक तत्व मूँगा को समुद्र की तलहटी से खींचकर बाहर निकाला जा रहा है, तो दूसरी ओर बर्फ और रेत की विभिन्न परतों या तहों का अध्ययन किया जा रहा है। मौसम के बदलाव का प्रभाव चूँकि वृक्षों पर भी होता है, इसलिये पेड़ों के वृद्धि चक्रों की जाँच-पड़ताल भी की जा रही है। इन सबके जरिए वैज्ञानिक मौसम परिवर्तन के बारे में बहुत कुछ जान चुके हैं, लेकिन अभी वे इतने सक्षम नहीं हो पाए हैं कि प्रकृति को अपने बस में कर सकें। धरती पर कार्यरत विभिन्न पारिस्थितिक प्रणालियाँ जलवायु संतुलन बनाए रखती हैं, पानी को शुद्ध और संग्रहित करती हैं, व्यर्थ पदार्थों का पुनर्चक्रण कर उन्हें फिर से उपयोगी बनाती हैं, सभी प्राणियों के लिये भोजन उत्पन्न करती हैं और वह सब करती हैं जो पृथ्वी को हरा-भरा और जीवन से भरपूर बनाए रखने के लिये आवश्यक होता है। लेकिन आज तक किसी संस्था या संगठन ने यह जानने का प्रयास नहीं किया है कि धरती आखिर कब तक हमें ये उत्पादन और सेवाएँ उपलब्ध करा सकती है या विश्व की जल सम्पदा को इस बदलती जलवायु के कारण क्या खतरे हैं और ये भविष्य में क्या रूप लेने जा रही है। कोई नहीं जानता कि समुद्र की धाराओं में क्या बदलाव आ रहा है और भविष्य में उनकी क्या दिशा होगी और उसका मानव जीवन पर क्या प्रभाव होगा।
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विकसित देशों को जलवायु सन्धि के अनुरूप अपने यहाँ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अनिवार्य रूप से कमी लानी होगी। यह उनकी जिम्मेदारी भी है क्योंकि पूरे औद्योगिक क्रान्ति युग में अधिकांश ग्रीन हाउस गैसों का प्रदूषण उन्होंने ही किया है परन्तु अब इन देशों में उद्योग जगत की ओर से नई प्रौद्योगिकियाँ अपनाने का प्रतिरोध किया जा रहा है क्योंकि यह एक खर्चीला काम है। सन्धि के मुताबिक बिजलीघरों, परिवहन और उद्योगों को जीवाश्म ईंधन के उपयोग को सीमित करना होगा। इस आशंका के वशीभूत अमेरिका में तो जलवायु सन्धि का कड़ा विरोध किया जा रहा है। लेकिन पृथ्वी पर यदि जीवन-प्रणालियों की रक्षा करनी है तो ग्रीन हाउस गैसों में कटौती के प्रस्तावित लक्ष्यों को पूरा करना होगा।
सम्पर्क सूत्रः
डॉ. (श्रीमति) विनीता सिंघल
(पूर्व सह-सम्पादक, साइंस रिपोर्टर एवं सीएसआईआर समाचार), एच 61, रामा पार्क मोहन गार्डन, नियर द्वारका मोड़, नई दिल्ली 110059[ई-मेल : vineeta_niscom@yahoo.com]
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