अल-नीनो और ला-नीना क्या हैं (El-nino and La-nina in Hindi)


वे मौसमी कारक, जो मानसून की चाल पर असर डालते हैं, कुछ कम विलेन नहीं माने जाते हैं। इन्हीं में से एक है अल-नीनो (एल निन्यो)। मानसून की एक कमान अल-नीनो के हाथ रहती है।

कमान अल-नीनो और ला-नीनो के हाथप्रशान्त महासागर में पेरू देश के निकटवर्ती गहरे समुद्र में घटने वाली एक हलचल यानी अल-नीनो ही किसी किसी मानसून का भविष्य तय करती है।

अक्सर कहा जाता है कि अल-नीनो या फिर प्रशान्त महासागर में समुद्र की सतह का तापमान बढ़ने से पूरे एशिया और पूर्वी अफ्रीका के मौसमी स्थितियों में परिवर्तन हो जाता है। कभी इस वजह से दक्षिण अमेरिका में भारी बारिश के साथ बाढ़ की सम्भावना बनती है और भारत के पश्चिमी तट और मध्य भागों में अच्छी बारिश होती है, तो कभी यह समीकरण उलट जाता है।

वैसे तो अल-नीनो नामक घटना भूमध्य रेखा के आस-पास प्रशान्त क्षेत्र में घटित होती है लेकिन हमारी पृथ्वी के सभी जलवायु-चक्र इसके असर में हैं। लगभग 120 डिग्री पूर्वी देशान्तर के आस-पास इंडोनेशियाई क्षेत्र से लेकर 80 डिग्री पश्चिमी देशान्तर पर मैक्सिको की खाड़ी और दक्षिण अमेरिकी पेरू तट तक समूचा उष्ण क्षेत्रीय प्रशान्त महासागर अल-नीनो के प्रभाव क्षेत्र में आता है।

प्रशान्त महासागर के पूर्वी तथा पश्चिमी भाग के जल-सतह पर तापमान में अन्तर होने से हवाएँ पूर्व से पश्चिम की ओर विरल वायुदाब क्षेत्र की ओर बढ़ती हैं। लगातार बहने वाली इन हवाओं को ‘व्यापारिक पवन’ कहा जाता है। वायुमंडल में भी समुद्र तल के ऊपर हवाई धाराएँ बहती रहती हैं। अल-नीनो के कारण लगभग 10 किलोमीटर से 25 किलोमीटर ऊपर तक वायुमंडल के बीच वाले स्तर में बहने वाली जेट स्ट्रीम पर भी असर पड़ता है।

वायु दाब के एक बदलाव ‘दक्षिणी कम्पन’ से भी अल-नीनो का सीधा सम्बन्ध बताया जाता है। ‘दक्षिणी कम्पन’ असल में हवाओं के बहाव में आने वाले बदलाव के लिये दिया गया भौगोलिक नाम है।

प्रशान्त महासागर से लेकर हिन्द महासागर के भारतीय-ऑस्ट्रेलियाई क्षेत्र के वायुदाब में होने वाला परिवर्तन ही अक्सर दक्षिणी कम्पन को जन्म देता है। जब प्रशान्त महासागर में उच्च दाब की स्थिति होती है, तब अफ्रीका से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक हिन्द महासागर के दक्षिणी हिस्से में निम्न दाब की स्थिति पाई जाती है।

दक्षिणी कम्पन्न ऋणात्मक हो तो एल-नीनो की स्थिति बनती है और धनात्मक हो तो ला-नीना की स्थिति होती है।

अलनीनो स्पेनिश का शब्द है। इसके शाब्दिक मायने हैं- लिटिल ब्वाय। दक्षिण अमेरिका के पैसिफिक ओसन (प्रशान्त महासागर) में क्रिसमस के फौरन बाद समुद्र का पानी अचानक असामान्य रूप से गर्म और ठंडा होने की घटना को सांकेतिक रूप से बालक ईसा मसीह से जोड़ा गया है।

देखा गया है कि जिस साल अलनीनो की सक्रियता बढ़ती है, उस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून पर उसका निश्चित असर पड़ता है। इससे पृथ्वी के कुछ हिस्सों में भारी वर्षा होती है तो कुछ हिस्से अकाल की मार सहते हैं। भारत में तो यह मानसून सीजन में ही अपना असर दिखाता है, लेकिन इसकी सक्रियता की कुल अवधि 9 महीने तक होती है। अक्सर 2 से 7 साल के अन्तराल में इसके सक्रिय होने का ट्रेंड देखा गया है। बीते दो दशकों के दौरान 1991, 1994, 1997 के वर्षों में व्यापक तौर पर अल-नीनो का प्रभाव दर्ज किया गया जिसमें वर्ष 1997-98 में इस घटना का प्रभाव सबसे ज्यादा रहा।

अल-नीनो जैसी एक अन्य प्राकृतिक घटना ला-नीना भी है। ला-नीना की स्थितियाँ पैदा होने पर भूमध्य रेखा के आस-पास प्रशान्त महासागर के पूर्वी तथा मध्य भाग में समुद्री सतह का तापमान असामान्य रूप से ठंडा हो जाता है। मौसम विज्ञानियों की भाषा में इसे ‘कोल्ड इवेंट’ कहा जाता है।

ला-नीना यानी समुद्र तल की ठंडी तापीय स्थिति आमतौर पर अल-नीनो के बाद आती है किन्तु यह जरूरी नहीं कि दोनों बारी-बारी से आएँ ही। एक साथ कई अल-नीनो भी आ सकते हैं। अल-नीनो के पूर्वानुमान के लिये जितने प्रचलित सिद्धान्त हैं, उनमें यह मान्यता है कि विषुवतीय समुद्र में सन्चित ऊष्मा एक निश्चित अवधि के बाद अल-नीनो के रूप में बाहर आती है। इसलिये समुद्री ताप में हुई अभिवृद्धि को मापकर अल-नीनो के आगमन की भविष्यवाणी की जा सकती है।

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