आंध्रप्रदेश में 2011 में खरीफ सीजन के दौरान 47 लाख हेक्टेयर जमीन पर बीटी कपास बोया गया था और खुद राज्य सरकार का कहना है कि 33.73 लाख हेक्टेयर पर खड़ी फसल असफल हो चुकी है। यानी दो-तिहाई किसान बर्बाद हो चुके हैं और तीन हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हुआ है। आंध्रप्रदेश की तस्वीर देश के बाकी इलाकों से अलग नहीं है। बीते एक दशक में मोनसेंटो ने बीटी कॉटन का रकबा आठ सौ फीसदी बढ़ा लिया है लेकिन इसके एवज में चुकाई गई कीमत खुदकुशी कर रहे किसानों के परिजन ही बता सकते हैं।
महाराष्ट्र के विदर्भ के इलाकों में किसान और आत्महत्या कर चुके किसानों की विधवाएं देश में बीटी कॉटन के दस साल पूरे होने पर न केवल अपना रोष प्रकट कर रहे हैं बल्कि उनमें से कुछ अपनी फसलों को आग के हवाले भी कर चुके हैं। किसानों का कहना है कि उनकी त्रासदी की असली वजह बैंक और सूदखोर नहीं बल्कि 'हत्यारी बीटी कॉटन' है। दस साल पहले बीटी कॉटन के फायदे गिनाकर मोनसेंटो की मशाल लेकर किसानों के पास पहुंचने वाली सरकार ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और कपास सलाहकार बोर्ड की ओर से तैयार की गई कृषि मंत्रालय की आंतरिक रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि बीटी कॉटन का जादू चुक गया है। यह सांप मरने के बाद लाठी पीटने की सरकारी कवायद है क्योंकि बीते एक दशक में किसान बीटी कॉटन के कहर से बर्बाद हो चुके हैं और सबसे ज्यादा आत्महत्याएं कपास बेल्ट में हुई हैं। कपास की खेती सात हजार सालों से होती आई है लेकिन पिछली सदी का अंतिम दशक इस फसल की खेती करने वाले किसानों की तकदीर में निर्णायक मोड़ लेकर आया।
1999 में दुनिया की सबसे बड़ी बीज निर्माता कंपनी मोनसेंटो बीटी कॉटन बीज के साथ भारत में आई। अकूत दौलत के दम पर मोनसेंटो ने बीटी तकनीक के पक्ष में जोरदार पीआर अभियान छेड़ा और महाराष्ट्र हाइब्रिड बीज कंपनी (महिको) से साझेदारी करके मोनसेंटो महिको बायोटेक (एमएमबी) का गठन किया। एमएमबी ने पहले छोटे स्तर पर बीटी कॉटन का परीक्षण किया और 2002 में तमाम विरोध-प्रदर्शनों के बावजूद बड़े पैमाने पर बीटी कॉटन के परीक्षण की अनुमति दे दी गई। इन पीआर अभियानों में कहा गया कि बीटी कॉटन के इस्तेमाल से खेती की लागत देसी कपास के मुकाबले आधी रह जाएगी वहीं उपज दोगुनी हो जाएगी। इन सुनहरे दावों की हकीकत देश के सामने है और मोनसेंटो कह रही है कि वह नई दिक्कतों से निपटने के लिए बीटी कपास की नई किस्म बॉलगार्ड-3 भारतीय बाजार में पेश करेगी। दरअसल, मोनसेंटो पूरी दुनिया में इसी मॉडल के साथ काम करती है। जब पहली पीढ़ी का बीज असफल हो जाता है तो किसानों को दूसरी पीढ़ी के महंगे बीज की पेशकश करने के साथ कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल की सलाह दी जाती है।
भारत में मोनसेंटो ने बीटी कपास की पहली किस्म बॉलगार्ड-1 पेश करते समय कहा था कि तंबाकू लट, अमेरिकन सुंडी, पिंक और स्पॉटेड बॉलवर्म जैसे कीट इन बीजों से उगी फसल का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे। कुछ समय बाद ही कीटों ने मोनसेंटो के तथाकथित कीटरोधी बीजों के खिलाफ सहनशीलता पैदा कर ली और 2006 में मोनसेंटो ने बॉलगार्ड-2 किस्म के बीज बाजार में उतारे। समय के साथ चितकबरी लट और कपास की पत्तियों को गलाने वाले छल्लेदार कीटों ने मोनसेंटो के बॉलगार्ड-2 बीजों का कवच भी भेद दिया है। आलम यह है कि फसलों के कुल बुआई क्षेत्र के महज पांच फीसदी पर बीटी कपास की खेती की जाती है लेकिन 55 फीसदी कीटनाशकों का इस्तेमाल इस फसल पर किया जाता है। देश में कीटनाशकों पर 28 अरब रुपए खर्च किए जाते हैं और इसमें से 16 अरब रुपए के कीटनाशक बीटी कॉटन पर छिड़के जाते हैं।
अगर दूरसंचार क्षेत्र को छोड़ दिया जाए तो हमारे देश में मोनसेंटो के बीटी कॉटन ने सबसे तेज बढ़ोतरी दर्ज की है। 2001 में बीटी कॉटन का नामोनिशान नहीं था लेकिन आज देश की 93 फीसदी कपास की खेती मोनसेंटो के बीजों से होती है। बंगाल देसी जैसी कपास की उम्दा भारतीय किस्मों का मरसिया पढ़ा जा चुका है और एक दशक में बीटी जनित कपास की संकर किस्मों की संख्या दो से बढ़कर 1090 तक पहुंच गई है। महाराष्ट्र में बीटी कपास की चमक 2005 में ही फीकी पड़ गई थी लेकिन उस वक्त सरकार ने कपास के बढ़े उत्पादन का हवाला देकर किसानों की आवाज अनसुनी कर दी। महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के कपास बेल्ट के किसान मौत को गले लगा रहे थे लेकिन गुजरात के कपास उत्पादन में हुई बढ़ोतरी के सहारे बीटी कपास के काले सच पर साल-दर-साल परदा डाला गया।
गौर करने लायक बात यह है कि गुजरात में भी कपास उत्पादन में बढ़ोतरी बीटी कॉटन के दम पर नहीं हो रही थी। असल में मूंगफली बोने वाले किसानों ने गुजरात में बनाए गए 100,000 छोटे बांधों से सिंचाई सुविधा मिलने पर कपास का रुख कर लिया है। 2000 में गुजरात की 15 लाख हेक्टेयर जमीन पर कपास की खेती होती थी, वहीं 2009 में 26 लाख हेक्टेयर भूमि पर कपास की खेती होने लगी। जाहिर है, कपास के कुल रकबे में बढ़ोतरी होने से गुजरात में कपास उत्पादन बढ़ा है। प्रति हेक्टेयर उत्पादन का गिरता ग्राफ भी बीटी कॉटन की असफलता पर मुहर लगाता है। 2007-08 में बीटी कपास ने अपनी अधिकतम ऊंचाई (प्रति हेक्टेयर 554 किलो उत्पादन) छुई और उसके बाद से प्रति हेक्टेयर उत्पादन में लगातार कमी आ रही है।
कपास सलाहकार बोर्ड के मुताबिक 2011-12 में प्रति हेक्टेयर उत्पादन 480 किलोग्राम रहेगा और विडंबना देखिए, यह देश में बीटी कपास आने से पहले होने वाले उत्पादन (470 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) के पास पहुंच गया है। सवाल उठता है कि इसकी कीमत कौन चुकाएगा। आंध्रप्रदेश में 2011 में खरीफ सीजन के दौरान 47 लाख हेक्टेयर जमीन पर बीटी कपास बोया गया था और खुद राज्य सरकार का कहना है कि 33.73 लाख हेक्टेयर पर खड़ी फसल असफल हो चुकी है। यानी दो-तिहाई किसान बर्बाद हो चुके हैं और तीन हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हुआ है। आंध्रप्रदेश की तस्वीर देश के बाकी इलाकों से अलग नहीं है। बीते एक दशक में मोनसेंटो ने बीटी कॉटन का रकबा आठ सौ फीसदी बढ़ा लिया है लेकिन इसके एवज में चुकाई गई कीमत खुदकुशी कर रहे किसानों के परिजन ही बता सकते हैं।
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