पिछले कुछ सालों से ग्लोबल वार्मिंग ने किसानों के संकट को और बढ़ा दिया है। जैसे अभी बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि से किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। सच यह भी कि जब फसल अच्छी भी आती है तो भी फसल का उचित दाम नहीं मिलने से किसान घाटे में ही रहता है। इस कारण किसान लगातार कर्ज में डूबता जा रहा है और सरकार ने उसे असहाय और लाचार बाजार के हवाले छोड़ दिया है। इन दिनों दिल्ली में हुई किसान की खुदकुशी का मुद्दा गरम है। सड़क से लेकर संसद तक इसकी गूँज सुनाई दे रही है। लेकिन इसमें किसान की चिन्ता कम और सियासी राजनीति ज्यादा दिखाई दे रही है। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप ज्यादा और खेती-किसानी के संकट की कम हो रही है।
यह बात सही है कि जिस तरह से 22 अप्रैल को दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर हजारों की भीड़ के सामने गजेन्द्र ने खुदकुशी की, वह विचलित करने वाली है। वह राजस्थान के दौसा जिले का किसान था। सवाल उठता है कि क्या उसे बचाया नहीं जा सकता था, हम कैसा समाज बना रहे हैं जिसमें एक आदमी सरेआम मौत को गले लगाता है और हम तमाशबीन बने देखते रहते हैं।
सवाल यह भी है कि एक किसान आत्महत्या जैसा अतिवादी कदम कैसे उठाने पर मजबूर होता है। वह इस स्थिति कैसे पहुँचता है, उसकी यह हालत क्यों हुई। गजेन्द्र की खुदकुशी खास बात यह है कि उसने दिल्ली में भीड़ और प्रशासन की मौजूदगी में यह कदम उठाया। वरना किसानों की मौत तो लगभग होती रहती है। पिछले 20 बरस में करीब तीन लाख किसान खुदकुशी कर चुके हैं। हर घंटे दो किसान मर रहे हैं।
किसानों की खुदकुशी की शुरुआत उदारीकरण की नीतियों से हुई है जो दो दशक पहने लागू की गई थी, इन नीतियों पर लगभग सभी दल एकमत हैं। कृषि की जो नीतियाँ कांग्रेस ने चलाई अब उसे भाजपा और तीव्र गति से लागू करने के लिये तत्पर है।
किसानों की खुदकुशी को बेमौसम बारिश और फसल की बर्बादी बताया जा रहा है। लेकिन यह फौरी निष्कर्ष है, किसानों का संकट स्थाई बन गया है, जो पूरे साल भर बना रहता है।
किसान आज अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहा है। पानी, बिजली का गहराता संकट, खाद-बीज की किल्लत, बढ़ती लागत और घटती उपज ने उसकी मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं। रासायनिक खादों के बेजा इस्तेमाल से ज़मीन बंजर हो रही है, पानी जहरीला हो रहा है। खुले बाजार की नीति ने उसकी कमर तोड़ दी है।
पिछले कुछ सालों से ग्लोबल वार्मिंग ने किसानों के संकट को और बढ़ा दिया है। जैसे अभी बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि से किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। सच यह भी कि जब फसल अच्छी भी आती है तो भी फसल का उचित दाम नहीं मिलने से किसान घाटे में ही रहता है। इस कारण किसान लगातार कर्ज में डूबता जा रहा है और सरकार ने उसे असहाय और लाचार बाजार के हवाले छोड़ दिया है।
खेती की दशा सुधारने न तो पूर्व की कांग्रेस समर्थित सरकार ने और न वर्तमान भाजपा सरकार ने कदम उठाए हैं। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में किसानों को उनकी उपज का डेढ़ गुना मूल्य देने का वादा किया था। यह तो दूर समर्थन मूल्य पर भी खरीदी नहीं हो पा रही है। बोनस भी बन्द कर दिया गया। यानी आज किसान हितैषी होने की होड़ लगी है पर असल में उनकी फिक्र किसी को नहीं है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि खेती के संकट की गम्भीरता को समझते हुए किसानों की बुनियादी जरूरत को पूरी की जाए। समर्थन मूल्य की जगह किसानों को लाभकारी मूल्य दिया जाए, खाद-बीज की समय पर उपलब्धता की जाए, कर्जमाफी की जाए। साथ ही रासायनिक खेती की जगह जैविक खेती को प्रोत्साहित किया जाए जो प्रकृति को नुकसान न पहुचाए। धीरे-धीरे कम लागत और कम खर्च वाली पारम्परिक व देशी बीज वाली खेती की दिशा में आगे बढ़ें जिससे हमारी मिट्टी का उपजाऊपन बना रहे, जिनसे हमारे जलस्रोत प्रदूषित न हों, पर्यावरण का संकट न बढ़े, ऐसे प्रयास होने चाहिए।
यह बात सही है कि जिस तरह से 22 अप्रैल को दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर हजारों की भीड़ के सामने गजेन्द्र ने खुदकुशी की, वह विचलित करने वाली है। वह राजस्थान के दौसा जिले का किसान था। सवाल उठता है कि क्या उसे बचाया नहीं जा सकता था, हम कैसा समाज बना रहे हैं जिसमें एक आदमी सरेआम मौत को गले लगाता है और हम तमाशबीन बने देखते रहते हैं।
सवाल यह भी है कि एक किसान आत्महत्या जैसा अतिवादी कदम कैसे उठाने पर मजबूर होता है। वह इस स्थिति कैसे पहुँचता है, उसकी यह हालत क्यों हुई। गजेन्द्र की खुदकुशी खास बात यह है कि उसने दिल्ली में भीड़ और प्रशासन की मौजूदगी में यह कदम उठाया। वरना किसानों की मौत तो लगभग होती रहती है। पिछले 20 बरस में करीब तीन लाख किसान खुदकुशी कर चुके हैं। हर घंटे दो किसान मर रहे हैं।
किसानों की खुदकुशी की शुरुआत उदारीकरण की नीतियों से हुई है जो दो दशक पहने लागू की गई थी, इन नीतियों पर लगभग सभी दल एकमत हैं। कृषि की जो नीतियाँ कांग्रेस ने चलाई अब उसे भाजपा और तीव्र गति से लागू करने के लिये तत्पर है।
किसानों की खुदकुशी को बेमौसम बारिश और फसल की बर्बादी बताया जा रहा है। लेकिन यह फौरी निष्कर्ष है, किसानों का संकट स्थाई बन गया है, जो पूरे साल भर बना रहता है।
किसान आज अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहा है। पानी, बिजली का गहराता संकट, खाद-बीज की किल्लत, बढ़ती लागत और घटती उपज ने उसकी मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं। रासायनिक खादों के बेजा इस्तेमाल से ज़मीन बंजर हो रही है, पानी जहरीला हो रहा है। खुले बाजार की नीति ने उसकी कमर तोड़ दी है।
पिछले कुछ सालों से ग्लोबल वार्मिंग ने किसानों के संकट को और बढ़ा दिया है। जैसे अभी बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि से किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। सच यह भी कि जब फसल अच्छी भी आती है तो भी फसल का उचित दाम नहीं मिलने से किसान घाटे में ही रहता है। इस कारण किसान लगातार कर्ज में डूबता जा रहा है और सरकार ने उसे असहाय और लाचार बाजार के हवाले छोड़ दिया है।
खेती की दशा सुधारने न तो पूर्व की कांग्रेस समर्थित सरकार ने और न वर्तमान भाजपा सरकार ने कदम उठाए हैं। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में किसानों को उनकी उपज का डेढ़ गुना मूल्य देने का वादा किया था। यह तो दूर समर्थन मूल्य पर भी खरीदी नहीं हो पा रही है। बोनस भी बन्द कर दिया गया। यानी आज किसान हितैषी होने की होड़ लगी है पर असल में उनकी फिक्र किसी को नहीं है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि खेती के संकट की गम्भीरता को समझते हुए किसानों की बुनियादी जरूरत को पूरी की जाए। समर्थन मूल्य की जगह किसानों को लाभकारी मूल्य दिया जाए, खाद-बीज की समय पर उपलब्धता की जाए, कर्जमाफी की जाए। साथ ही रासायनिक खेती की जगह जैविक खेती को प्रोत्साहित किया जाए जो प्रकृति को नुकसान न पहुचाए। धीरे-धीरे कम लागत और कम खर्च वाली पारम्परिक व देशी बीज वाली खेती की दिशा में आगे बढ़ें जिससे हमारी मिट्टी का उपजाऊपन बना रहे, जिनसे हमारे जलस्रोत प्रदूषित न हों, पर्यावरण का संकट न बढ़े, ऐसे प्रयास होने चाहिए।
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Post By: RuralWater