हर साल 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है। उस समय हर देशवासी के लिये पीने के पानी की उपलब्धता को लेकर नेताओं व मंत्रियों द्वारा खूब लम्बे चौड़े भाषण दिए जाते हैं, लेकिन कार्यक्रम खत्म होते ही इनके आयोजकों से लेकर मुख्य वक्ता तक सब कुछ भूल जाते हैं। अगली बार यह सब एक साल बाद ही याद आता है। यह कोई आज का किस्सा नहीं है। आजादी के बाद से ही यही सब जारी है। दशकों से वायदों और हकीकत की यह आँख मिचौली हम सब देख रहे हैं। तभी तो सरकारी आँकड़ों के हिसाब से भी देश की 63 फीसदी आबादी पीने के लिये साफ पानी से वंचित है।
देश की इतनी बड़ी आबादी गंदा पानी पीने को मजबूर है जिसके कारण हर साल लाखों लोगों की मौत हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अकेले शहरी भारत में ही लगभग 9.7 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं होता। देश के ग्रामीण क्षेत्रों की हालत और ज्यादा खराब है। करीब 76 से 80 फीसदी ग्रामीण इलाकों में पीने का साफ पानी शुद्धता के न्यूनतम मानकों वाला भी नहीं है। सवाल है आखिर साफ पानी की इस भारी किल्लत की वजह क्या है? इसकी 4 प्रमुख वजहें हैं।
जिनमें पहली वजह है- पीने के पानी को लेकर एक स्पष्ट जलनीति का अभाव, दूसरी बड़ी वजह निश्चित रूप से भारी आबादी और उसका लगातार बढ़ना है, तीसरी वजह- निजी फायदों के लिये पानी का अंधाधुंध दोहन और चौथी-भ्रष्टाचार है। लगातार बढ़ती आबादी और कारोबारियों द्वारा अपने मुनाफे के लिये पीने के पानी के अंधाधुंध दोहन ने देश में प्रति व्यक्ति साफ पानी की उपलब्धता को संकट के बड़े निशान के सामने ला खड़ा किया है।
पंजाब और उत्तराखंड की सरकारें गुजरे सालों में अखबारों में विज्ञापन तक देकर किसानों से गुजारिश करती रही हैं कि वे गर्मियों में धान की फसल न करें, लेकिन किसान नहीं मानते तो नहीं ही मानते। इससे भूगर्भीय जलस्तर तेजी से घट रहा है। कुछ ऐसी ही हालत शहरों में भी हैं, जहाँ तेजी से बढ़ते कंक्रीट के जंगलों ने जमीन के भीतर स्थित पानी के भंडार पर बहुत ज्यादा दबाव बढ़ा दिया है। देश के शहरी इलाकों में लाखों मकान बने पड़े हैं, लेकिन उनके ग्राहक नहीं हैं फिर भी शहरों में कंक्रीट के जंगल फैलते ही जा रहे हैं।
पीने के पानी के बढ़ते संकट का एक कारण यह भी है। शहरी इलाकों में भारी लागत से बने ट्रीटमेंट प्लांट होने के बावजूद वितरण नेटवर्क बेहद जर्जर और गैर-उन्नत है जिस कारण रोजाना हर बड़े शहर में लाखों गैलन पानी बेकार हो जाता है। कोलकाता और मुम्बई जैसे महानगरों की तो यह आम समस्या है। इस सबके अलावा पानी की कमी की एक और बड़ी वजह जल संरक्षण को तवज्जो न दिया जाना है। हर साल बारिश का 65 से 75 प्रतिशत पानी बरसने के साथ ही बहकर समुद्र में पहुँच जाता है।
संरक्षण के उपायों और जमीन में स्थित पानी के दोहन की नीति बनाकर हम पीने के पानी की किल्लत से काफी हद तक छुटकारा पा सकते हैं। इसके लिये कानून भी हैं। लेकिन कोई माने तब न? न्यू ग्लोबल रिपोर्ट के अनुसार भारत के ग्रामीण इलाकों में पीने का साफ पानी न होने के कारण लोगों को तमाम तरह की परेशानियाँ होती हैं।
एक हम हिन्दुस्तानी हैं जो पानी की बेहद समृद्ध विरासत के बावजूद पानी के घोर संकट से दो-चार हैं और हर गुजरते साल में इस संकट को और बड़े पैमाने पर आमंत्रित कर रहे हैं। दूसरी तरफ सऊदी अरब जैसा रेगिस्तानी देश है, जहाँ न तो कोई सदाबहार नदी है न ही कोई कुदरती झरना है। यहाँ बारिश भी ऐसी नहीं होती कि साल के एक हफ्ते का भी काम इस बारिश के पानी से चल सके। फिर भी कुछ अपनी सजगता से और कुछ उन्नत तकनीकी के चलते यह देश पानी की समस्या से बेहतर ढंग से निपट रहा है।
सऊदी अरब में आमजन से लेकर सरकार तक पानी को लेकर बहुत ही सजग और संवेदनशील हैं। अकवीफर्सी में अंडरग्राउंड रूप से जल का संग्रह किया जाता है। 1970 में, सरकार ने अकवीफर्स पर काम शुरू किया था। इसका नतीजा ये हुआ कि देश में हजारों अकवीफर्स बनाए गए। इन्हें शहरी और कृषि दोनों जरूरतों में इस्तेमाल किया जाता है।
प्रति व्यक्ति 1000 घनमीटर पानी से भी काफी नीचे
इस समय देश में पीने के पानी की उपलब्धता प्रति व्यक्ति 1000 घनमीटर पानी से भी काफी नीचे आ गई है, जबकि 1951-52 में यह 3500 से 4000 घनमीटर थी। जल विशेषज्ञों के मुताबिक 1700 घनमीटर प्रति व्यक्ति से कम पानी की उपलब्धता को संकट माना जाता है। अमेरिका में प्रति व्यक्ति आठ हजार घनमीटर पानी की उपलब्धता है।
भारत दुनिया के कुछ गिने चुने उन देशों में से है जहाँ तमाम तरह की नदियों का जाल बिछा है, जिसमें मौसमी नदियों से लेकर गंगा-यमुना जैसी सदानीरा नदियाँ भी हैं। लेकिन निजी फायदों के लिये हमारी हमेशा से मौजूद संवेदनहीनता ने नदियों को दम तोड़ने के लिये मजबूर कर दिया है। तमाम चेतावनियों के बावजूद हम नदियों को प्रदूषित करना नहीं छोड़ रहे, इसका नतीजा यह निकला है कि ज्यादातर नदियों का पानी पीने लायक तो छोड़िए नहाने लायक भी नहीं रहा।
हजारों करोड़ खर्च, फिर भी मैली
अस्सी के दशक में साल 1984-85 में गंगा को साफ करने के लिये भारी देशी-विदेशी मदद मिली थी, लेकिन भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता के चलते हजारों करोड़ रुपए उदरस्थ हो गए, लेकिन गंगा आज भी मैली की मैली ही है। आखिर गंगा सफाई अभियान में अरबों रुपए खर्च होने के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला, इस सबका कौन जिम्मेदार है? जवाब है कोई नहीं। क्योंकि भारत में राजनीति और राजनेता जवाबदेह नहीं होता। इसलिये इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर हजारों करोड़ रुपए जो गंगा एक्शन प्लान में खर्च हुए उनका क्या हुआ? पानी को लेकर एक सरकारी मशीनरी ही नहीं हममें से हर कोई या ज्यादातर लोग संवेदनहीन और गैर-ईमानदार हैं। देश में किसान को मीडिया द्वारा दीन हीन अन्नदाता के रूप में चिन्हित किया जाता है, लेकिन वह किसान भी भूगर्भीय पानी का मनमानी दोहन करने से नहीं मानता फिर चाहे आप कितने भी कानून बना लीजिए।
पीने का पानी, मतलब…
पीने के पानी का मतलब है नगरपालिका, नगर निगम या ऐसी ही नागरिक संस्थाओं द्वारा उपलब्ध पानी जो पीने के योग्य हो यानी जिसे पीकर बीमार या अस्वस्थ होने का खतरा न हो। पीने योग्य पानी, समुचित रूप से उच्च गुणवत्ता वाला पानी होता है जिसका तत्काल या दीर्घकालिक नुकसान के न्यूनतम खतरे के साथ सेवन या उपयोग किया जा सकता है। अधिकांश विकसित देशों में घरों, व्यवसायों और उद्योगों में जिस पानी की आपूर्ति की जाती है, वह पूरी तरह से पीने के पानी के स्तर का होता है। लेकिन अब दुनिया के ज्यादातर बड़े हिस्सों में पीने योग्य पानी तक लोगों की पहुँच लगातार अपर्याप्त होती जा रही है। नतीजतन लोगों को ऐसा पानी पीने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है जिसमें तमाम किस्म के रोगाणुओं या विषैले तत्व अस्वीकार्य स्तर तक मौजूद हैं। यह पानी पीने योग्य नहीं होता है, लेकिन पीना पड़ता है। सामान्य जल आपूर्ति नेटवर्क पीने योग्य पानी नल से उपलब्ध कराते हैं, चाहे इसका उपयोग पीने के लिये या कपड़े धोने के लिये या जमीन की सिंचाई के लिये ही क्यों न किया जाना हो। मनुष्य के लिये पानी हमेशा से एक महत्त्वपूर्ण और जीवन-दायक पेय रहा है।
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