अक्षय ऊर्जा : सम्भावनाएँ और नीतियाँ


लेखक का विचार है कि जनता की भलाई के लिये इस समय अक्षय ऊर्जा के साधनों के अधिकतम विकास और उनके उपयोग के अधिकतम अवसर मौजूद हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस बारे में वर्तमान खण्डात्मक दृष्टिकोण के स्थान पर एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाया जाए।

कुछ समय पूर्व तक विश्व के सभी देशों में बड़े पैमाने पर अक्षय ऊर्जा के स्रोतों का इस्तेमाल किया जाता था। फिर वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक प्रगति ने बड़े पैमाने पर ऊर्जा निर्माण के लिये कोयले और हाइड्रो-कार्बन का उपयोग सम्भव बना दिया। उन्नीसवीं सदी के मध्य में इंग्लैंड में औद्योगीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। इसके कारण जैव ईंधन की खपत में काफी वृद्धि हुई जो उत्पादन की नई प्रौद्योगिकी का हिस्सा बन गई। इससे पहले शारीरिक श्रम और पशु-शक्ति आर्थिक गतिविधियों के लिये प्रेरक शक्ति प्रदान करते थे। इस प्रकार इस दौरान ऊर्जा मिश्रण के नये स्रोतों का इस्तेमाल शुरू हुआ। इसके परिणामों की भविष्यवाणी अभी हाल तक कोई नहीं कर सकता था।

जैव ईंधन के प्रयोग का एक प्रमुख दुष्परिणाम वातावरण पर उसका हानिकारक प्रभाव है। वह दुष्परिणाम विश्व और स्थानीय दोनों स्तरों पर हो रहा है। 1992 के रियो शिखर सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के समझौते (फ्रेमवर्क कनवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज-एफसीसीसी) की रूपरेखा तैयार की गई। इसमें स्पष्ट रूप से धरती का तापमान बढ़ाने वाली (ग्रीन हाउस) गैसों, विशेष रूप से कार्बन-डाई-ऑक्साइड का इस्तेमाल घटाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। यह कार्य ‘जैव’ ईंधन का उपयोग कम करके किया जाना था। आशा थी कि एफसीसीसी (जलवायु परिवर्तन के समझौते की रूपरेखा) पर विभिन्न पक्षों के तीसरे सम्मेलन में विकसित देशों में धरती का तापमान बढ़ाने वाली गैसों (जीएचजी) का निर्गमन (विसर्जन) सीमित करने पर समझौता हो जायेगा लेकिन क्योटो सम्मेलन के नतीजों से अनेक लोगों को निराशा हुई है। इन लोगों के अनुसार यह सम्मेलन विश्व पर्यावरण में बदलाव लाने का अच्छा अवसर प्रदान करता था।

जैव ईंधन के बढ़ते उपयोग का दूसरा असर विश्व तेल बाजार पर पड़ा है। पेट्रोलियम पदार्थों के बड़े भण्डार विश्व के एक छोटे भू-भाग में सीमित हैं। विश्व में इन पदार्थों की निरन्तर बढ़ती माँग के कारण इस क्षेत्र विशेष के पेट्रोलियम उत्पादों का उत्पादन करने वाले देशों की बाजार शक्ति में अचानक बहुत वृद्धि हो गई है। इस तथ्य और प्रतिकूल राजनीतिक घटनाओं के कारण 1973-74 और 1979-80 में तेल के मूल्यों में हुई अभूतपूर्व वृद्धि से अधिकांश लोग स्तब्ध रह गये। इसलिये विश्व के अधिकांश देशों- विकसित और विकासशील दोनों ने अक्षय ऊर्जा के साधनों का पता लगाने के प्रयास शुरू किये। पर्यावरण पर जैव ईंधन के उपयोग के प्रतिकूल प्रभाव की चिन्ता के कारण ऊर्जा सम्बन्धी योजना तैयार करते समय ऊर्जा के अक्षय साधनों को अधिक महत्व दिया जाता है।

ऊर्जा के परम्परागत रूपों और नई अक्षय ऊर्जा के स्रोतों में अक्सर भेद किया जाता है। परम्परागत ऊर्जा के साधनों में एक है जैव ऊर्जा, जिसका उपयोग मुख्यतः भोजन तैयार करने और घरों आदि को गर्म रखने के लिये किया जाता है। इस तरह ऊर्जा तैयार करना अपेक्षाकृत लाभप्रद नहीं होता। ऊर्जा के नये अक्षय स्रोत उस प्रौद्योगिकी के जरिये प्राप्त किये जाते हैं जिसका विकास हाल ही में किया गया है और जिन्हें जैव ईंधन पर आधारित ऊर्जा के परम्परागत रूपों के गम्भीर विकल्प के रूप में देखा जाता है।

भारत अभी भी अपनी कुल ऊर्जा का 40 प्रतिशत परम्परागत ईंधन के रूप में इस्तेमाल करता है। जनसंख्या में वृद्धि और परम्परागत ईंधन की आपूर्ति में कमी, जो भारत की शहरी और ग्रामीण गरीबों की भलाई के लिये काफी महत्त्वपूर्ण है, का सरल समाधान न तो खोजा गया है और न आगे ही नजर आता है। प्रयुक्त परम्परागत ऊर्जा के बड़े भाग की विशेषता यह है कि उसे अधिकतम कुशलता से उपयोगी ऊर्जा में नहीं बदला जाता। यह एक बड़ी प्रौद्योगिक चुनौती है। सरकार और वैज्ञानिक समुदाय इस चुनौती का कारगर ढंग से सामना करने में विफल रहे हैं। जहाँ तक नई अक्षय ऊर्जा जा सम्बन्ध है, सरकार ने 1950 में एक कार्यक्रम शुरू किया था।

इसके अन्तर्गत जैव ऊर्जा संयन्त्रों का निर्माण किया जाता था और लोगों को उनके बारे में बताया जाता था। इन संयन्त्रों का डिजाइन एक ही किस्म का था जो खादी और ग्रामोद्योग संघ द्वारा अपनाये गये मॉडल जैसा था। सौर कुकर विकसित करने पर भी कुछ अनुसंधान किया गया लेकिन नये अक्षय ऊर्जा के स्रोत विकसित करने की दिशा में गम्भीर प्रयास 1973-74 में तेल के मूल्यों में भारी बढ़ोत्तरी के बाद किये गये। यह कार्यक्रम पहले भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अन्तर्गत शुरू किया गया और फिर उसे एक नये विभाग गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत विभाग के अन्तर्गत लाया गया। 1990 में इस विभाग को पूर्ण पृथक मन्त्रालय में बदल दिया गया।

असीम सम्भावनाएँ


इस तरह की ऊर्जा की पर्याप्त सम्भावनएँ हैं। सम्भवतः वे असीम हैं। तालिक-1 में गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत मन्त्रालय की 1996-97 की वार्षिक रिपोर्ट पर आधारित अनुमानित सम्भावनाएँ प्रदर्शित हैं। वास्तव में यह विश्वास करने के पर्याप्त कारण हैं कि अन्तिम सम्भावनाएँ इससे भी अधिक हो सकती हैं क्योंकि मुख्य रूप से यह प्रौद्योगिकी की स्थिति पर निर्भर करता है। अगर कम लागत पर कम हवा पर चलने वाली मशीनों के डिजाइन तैयार किये जा सकें और उनका निर्माण किया जा सके तो ऐसे क्षेत्र भी जो इस समय वायु-ऊर्जा के दोहन के लिये उपयुक्त नहीं समझे जाते, लाभप्रद हो जाएँगे। इसी प्रकार जैव प्रौद्योगिकी की तकनीक को लागू करके, कृषि कार्यों से निकलने वाले अधिकांश कूड़े-कचरे से मिथेन गैस तैयार की जा सकती है। तथापि इस तरह की सम्भावनाएँ सफल अनुसंधान और विकास कार्यक्रमों पर आधारित होंगी जो स्पष्ट रूप से लक्ष्य निर्धारित होते हैं और जिन पर लगातार ध्यान लगाकर कार्य किया जाता है।

तालिका-1

भारत में अक्षय ऊर्जा

प्रौद्योगिकी की अनुमानित सम्भावनाएँ

स्रोत/प्रणाली

लगभग सम्भावना

बायोगैस संयन्त्र (संख्या)

1.2 करोड़

सुधरे हुये लकड़ी के चूल्हे (संख्या)

12 करोड़

बायोमास

17,000 मेगावाट

सौर ऊर्जा

20 मेगावाट/वर्ग किलोमीटर

वायु ऊर्जा

20,000 मेगावाट

छोटे पन-बिजली केन्द्र

10,000 मेगावाट

सागर ऊर्जा

50,000 मेगावाट

 


ऊर्जा के अतिरिक्त स्रोतों के आयोग का गठन 1980 के प्रारम्भ में किया गया। यह परमाणु ऊर्जा आयोग और भारतीय अन्तरिक्ष संस्थान के अनुभव पर किया गया ताकि धन लगाने का निर्णय और कार्यक्रमों की पहचान का कार्य पैसा लगाने के सरकारी तौर-तरीकों से हट कर किया जा सके। तथापि इस विचार को वांछित सफलता नहीं मिली है। अब तक गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत मन्त्रालय के जो अनुसंधान और विकास कार्यक्रम लागू किये गये हैं। उनमें दिशा और लक्ष्य का अभाव था। इसके परिणामस्वरूप अक्सर बड़ी संख्या में छोटी अनुसंधान परियोजनाएँ हाथ में ली गई जिससे देश के अनेक संस्थानों और संगठनों में एक सा काम दोहराया गया। इससे उन स्थानों में एक समान सुविधाओं की व्यवस्था हुई। एक अन्य क्षेत्र जहाँ बड़े सुधार आवश्यक हैं और पहले ही हो जाने चाहिये थे वह है अनुसंधान और विकास प्रयासों और उद्योग के बीच उचित तालमेल की स्थापना।

आधार को विस्तृत करना


अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में धीरे-धीरे औद्योगिक आधार बन रहा है। इस बात की आवश्यकता है कि आगामी वर्षों के दौरान इसमें तेजी लाई जाए। यह नये कार्यक्रम जैसे कि प्रतियोगी बोलियों के जरिये बड़े पैमाने पर उपकरणों की खरीद द्वारा किया जा सकता है। ऐसी खरीद से पूर्व पूर्ण विवरण और निष्पादन कसौटी निर्धारित की जानी चाहिये। यह दृष्टिकोण अमेरिका में उपयोगी पाया गया है जहाँ ऊर्जा उपकरण सरकारी सहायता से खरीदे गये हैं ताकि उनके विकास के मूल्य की भरपाई हो जाए और इस प्रकार बड़ी संख्या में उत्पादित उत्पाद सामान्य बिक्री केन्द्रों के जरिये बाजार में बेचे जा सकें। भारत में दुर्भाग्यवश शुरू से सब्सिडी व्यवस्था लगाई गई यूनिटों की संख्या से जोड़ गई और काफी समय तक गुणवत्ता सम्बन्धी आवश्यकताओं और निष्पादन सम्बन्धी सुधारों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

इसका नतीजा यह हुआ, जैसाकि पानी गर्म करने के सौर हीटरों के मामले में हुआ था कि कुछ निर्माता बाजार में रहे और वे काफी समय तक घटिया उत्पाद बनाते रहे। उन्होंने उसमें सुधार लाने या उसका डिजाइन सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। सब्सिडी की व्यवस्था दीर्घावधि रणनीति बनाकर की जानी चाहिये थी। उसी में यह व्यवस्था भी की जानी चाहिये थी कि यह सहायता किस प्रकार धीरे-धीरे समाप्त की जायेगी और उपकरणों के डिजाइन और कार्य निष्पादन में सुधार के लिये बाजार-शक्तियों का उपयोग किस प्रकार किया जायेगा। किसी भी नये प्रयास जैसे कि अक्षय ऊर्जा के स्रोतों के विकास में योजनाएँ और कार्यक्रम दीर्घावधि परिदृश्य को सामने रखकर तैयार किये जाने चाहिये। यह आवश्यक है कि इन्हें अपेक्षित तकनीकी सुधार लाने वाले निश्चित अनुसंधान और विकास प्रयासों में रूपान्तरित किया जाए।

विकेन्द्रीकरण


यह भी आवश्यक है कि अक्षय ऊर्जा के विकास को उत्पादन बढ़ाने और देश में ऊर्जा के इस्तेमाल के व्यापक दृष्टिकोण के अंश रूप में देखा जाए। इस सम्बन्ध में दाम और संस्थागत प्रश्न अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। उदाहरण के लिये ग्रामीण उपभोक्ताओं के लिये बिजली के तर्कहीन दामों के कारण विकेन्द्रीकृत अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल का प्रोत्साहन समाप्त हो जाता है जबकि ऐसी ऊर्जा लम्बी दूरी से ग्रिड और ट्रान्समिशन लाइनों के जरिये लाई गई ऊर्जा से सस्ती पड़ती है। राज्य बिजली बोर्डों की अनेक नीतियाँ और उनके द्वारा लगाये गये बंधन भी अक्षय ऊर्जा के विकास और उसके अधिकतम इस्तेमाल में आड़े आते हैं। बागान व्यवसाय में एक उद्योग के बारे में निम्न कथा सुनाई जाती है। इस उद्योग के प्रबंधक अपने कर्मचारियों के आवासीय परिसर में फोटोवोल्टेइक विधि से प्रकाश की व्यवस्था करना चाहते थे।

राज्य बिजली बोर्ड ने इसकी इजाजत नहीं दी यद्यपि राज्य में बिजली की भारी कमी थी और बोर्ड नियमित, विश्वसनीय आधार और समुचित दाम पर इस क्षेत्र की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकता था। यह किस्सा ऊर्जा की आपूर्ति और वितरण के ढाँचे और संस्थाओं में परिवर्तन की आवश्यकता का भी सवाल उठाता है। यह विचार अनेक मंचों पर पेश किया जा चुका है कि ऊर्जा का वितरण विकेन्द्रित करने की जरूरत है क्योंकि केवल तभी विकेन्द्रित उत्पादन की ओर उचित ध्यान दिया जा सकेगा और आर्थिक लाभप्रदता का ध्यान रखते हुये अक्षय ऊर्जा अपना स्थान प्राप्त कर सकेगी।

निस्सन्देह विश्व के किसी भी भाग में अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम की सफलता के लिये उसकी आर्थिक लाभप्रदता महत्त्वपूर्ण है। भारत जैसे देश में जहाँ पूँजी की कमी है, यह विशेष रूप से प्रासंगिक है क्योंकि अभी अक्षय ऊर्जा की अधिकांश प्रौद्योगिकियों में काफी पूँजी निवेश की जरूरत पड़ती है और इसीलिये ऊँची ब्याज दरों के साथ उनकी लागत परम्परागत विकल्पों की तुलना में, जिनकी शुरू की लागत कम और वार्षिक लागत अधिक होती है, वर्तमान मूल्य को देखते हुये अधिक होती है। अक्षय ऊर्जा प्रौद्योगिकी के कई अनुमान पेश किये गये हैं और इनके पीछे विद्यमान धारणाओं के अनुसार इनमें अन्तर है। इनमें से कई अनुमान धरती को गर्म करने वाली गैसों (ग्रीन हाउस गैसों) के प्रभाव को कम करने की लागत का मूल्य निर्धारण करने के लिये लगाये गये हैं।

विश्व पर्यावरण सुविधा (ग्लोबल इनवायरन्मेंट फैसिलिटी-जी ईएफ) ने अक्षय ऊर्जा के अनेक कार्यक्रमों का खर्च उठाया है। इसी प्रकार अनेक द्विपक्षी एजेंसियों और राष्ट्रीय सरकारों ने अनेक कार्यक्रमों का खर्च उठाया है। लेकिन अब तक किये गये समस्त प्रयासों के बावजूद विशेष रूप से फोटोवोल्टेइक्स के मामले में जिस पैमाने पर बचत की उम्मीद की गई थी, वह प्राप्त नहीं की जा सकी है। यह एक विचित्र असमंजस है क्योंकि इतनी अधिक लागत पर इनके लिये बाजार नहीं बनता और छोटे आकार के बाजार में लागत कम नहीं होती क्योंकि उत्पादन बढ़ाने का लाभ प्राप्त नहीं किया जा सकता। तथापि आम तौर पर अक्षय ऊर्जा की प्रौद्योगिकी की लागत में कमी आई है।

भारत का एक विस्तृत भू-भाग ऐसा है जो काफी अधिक धूप प्राप्त करता है। परिणामस्वरूप यह बात सर्वथा तर्कसंगत है कि ऊर्जा की सम्भावनाओं का गम्भीर मूल्यांकन किया जाना चाहिये। यह मूल्यांकन विशेष रूप से बिजली उत्पादन के लिये किया जाना चाहिये क्योंकि अगर लाभप्रद प्रौद्योगिकी का विकास किया जा सके तो राजस्थान और देश के अनेक सूखाक्षेत्र बहुत बड़ी मात्रा में बिजली के भंडार बन सकते हैं। सौर ऊर्जा के प्रबल समर्थक इन क्षेत्रों को 21वीं शताब्दी के पेट्रोलियम भंडार (पेट्रोलियम उत्पादन करने वाले देशों का संगठन) कहते हैं।

तथापि परम्परागत बिजली की तुलना में इनकी लागत अभी भी बहुत अधिक है। इसके बावजूद आज भी लागत जिस स्तर पर है वह निश्चय ही आशावाद के लिये आधार प्रस्तुत करता है। अनुसंधान और विकास के सुनिर्देशित प्रयासों और बड़े पैमाने पर निर्माण की व्यवस्था से कुछ समय बाद लागत घटाई जा सकती है। अगर परम्परागत ऊर्जा आपूर्ति में पर्यावरण और छिपी लागत जोड़ दी जाए तो परम्परागत ऊर्जा विकल्प, जिन पर अनुकूल विचार किया जाता है, पहले ही अक्षय ऊर्जा की लागत से डेढ़ से दो गुने अधिक महँगे हैं। अतः ये अनेक तरह के उपयोगों के लिये लाभप्रद हैं।

वर्तमान समय एक नई ऊर्जा नीति तैयार करने के लिये सर्वथा उपयुक्त है जो देश को अनेक प्रकार की अक्षय ऊर्जा अधिकतम स्तर तक विकसित करने में सहायता दे। इससे देश की बढ़ती जनसंख्या को आर्थिक खुशहाली प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। लेकिन इसके लिये जरूरी है कि सभी प्रकार की ऊर्जा के दाम स्वतंत्र रूप से निर्धारित किये जाएँ। ऐसा करते समय उसमें पर्यावरण लागत भी जोड़ी जानी चाहिये। यह भी जरूरी है कि देश के ऊर्जा उद्योग के ढाँचे को एकदम नया रूप प्रदान किया जाए। भारत सरकार में ऊर्जा विभागों और मन्त्रालयों का विभाजन ऊर्जा के बारे में सार्थक बहस और ऊर्जा सम्बन्धी निर्णयों पर व्यापक दृष्टिकोण अपनाये जाने के अनुकूल नहीं है।

इसलिये यह काम योजना आयोग जैसे संगठनों पर छोड़ दिया गया है कि वे सरकार से बाहर के अन्य संगठनों की सहायता से इस बारे में दीर्घावधि योजना बनाएँ और उसे लागू करने की कार्रवाई करें। अक्षय ऊर्जा के साधनों के विकास और इस्तेमाल को प्रमुखता प्रदान करने से देश को काफी लाभ होगा, क्योंकि इस क्षेत्र का बाजार बड़ी तेजी से विकसित होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के साथ भारत 21वीं शताब्दी में इन बढ़ते अवसरों का पूरा लाभ उठा सकता है। इसी के साथ वह समूचे देश में मिश्रित ऊर्जा-परम्परागत और सौर-ऊर्जा की सप्लाई सुनिश्चित कर सकता है।

(लेखक टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में निदेशक हैं।)

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