संसोलाव तालाब के बीचोंबीच यह छतरी तलाब के स्थापत्य को अप्रतिम सौन्दर्य से मण्डित करती है। कहते हैं जस्सोलाई तलाई, बख्तसागर के मध्य भी इसी तरह की छतरी थी। लेकिन यह तो तय है कि छतरियाँ तालाब के मध्य या आस-पास बनाने के पीछे सोच यही थी कि इनसे तालाब के स्थापत्य-सौन्दर्य में अभिवृद्धि हो। तालाब की रमणीयता में चार चाँद लगे। निश्चय ही जब ये तालाब जल से लबालब भरते तो दृश्य देखने लायक बन पड़ता था। संसोलाव के भरे स्वरूप में उसके स्थापत्य के इस अप्रतिम सौन्दर्य का तो मैं स्वयं ही साक्षी रहा हूँ और सभी तालाबों की वर्तमान स्थिति से गुजरने के बाद मैं यह दृढ़ता से कह सकता हूँ कि स्थापत्य के सौन्दर्य की दृष्टि से संसोलाव का कोई सानी नहीं है। आगोर से आगार तक आते-आते आकार का व्याकरण तथा स्वरूप भी लगभग तय हो जाता था। किसी भी तालाब के अंग-प्रत्यंगों का निर्धारण आगोर के आकार एवं आगार की लम्बाई-चौड़ाई पर निर्भर करता था। अमूमन तो इस तरह के कार्य में कोई पेचीदा किस्म की संरचना की बजाय सामान्य आयताकार संरचना को ही अपनाया जाता, लेकिन कहीं-कहीं सौन्दर्यीकरण के मद्देनजर विशेष प्रकार की संरचना को भी देखा जा सकता है।
सामान्यतः तालाब में जनाना घाट, मर्दाना घाट, गऊ घाट, खाकी घाट, पणयार घाट, चेतन घाट, दान घाट, क्रिया घाट, स्याहू घाट बने होते थे। संसोलाव, हर्षोलाव सहित शहर के नष्ट होते जा रहे अन्य कायम तालाबों में भी इनको देखा जा सकता है। पर यह जरूरी नहीं कि हर तालाब पर ये सारे-के-सारे घाट हों ही। प्रायः बड़े तालाबों पर ही इन्हें देखा जा सकता है।
तालाबों पर जनाना घाट अन्य घाटों की तुलना में ऐसे स्थान पर बनाए जाते कि जहाँ पानी की गहराई कम हो और वह स्थान प्रायः तालाब के किनारों के बिलकुल पास ही हो। कई तालाबों पर जनाना घाट दर्शनीय हैं। हर्षोलाव का जनाना घाट हालांकि अभी क्षत-विक्षत अवस्था में है लेकिन उसकी बनावट इस प्रकार की है कि महिलाएँ सुरक्षित रूप से जल-कलोल का आनन्द उठा सकें।
आगार के सम्मुख वाले भाग पर पत्थर की जाली है जिसमें से आगोर का पानी तो अन्दर आता ही रहता है, साथ ही सामने का दृश्य भी साफ दिखाई पड़ता है लेकिन जाली के पीछे वालों को अन्य लोग देख नहीं पाते थे। इसमें उतरने के लिये सीढ़ियाँ भी बनी हैं। इसी प्रकार देवीकुण्ड में राजा डूंगरसिंह ने रानियों के वास्ते अपने समय में जलमहल जलमेलयाँ बनाए, जो आज भी देवीकुण्डसागर पर देखे जा सकते हैं। ऊपर मन्दिर से सीढ़ियाँ तालाब के आगार तक जाती हैं और बाहर जालियाँ लगी हैं और वे भी ठीक इस प्रकार कि महिलाओं को वहाँ किसी भी प्रकार की असुविधा न हो।
जनाना घाट पर जालियों का होना आवश्यक था, मगर ये सभी तालाबों पर नहीं थी। शहर के इन दो तालाबों के अलावा महिलाओं के सार्वजनिक स्थान पर स्नान हेतु इतनी महफूज व्यवस्था देखने में नहीं आई। इसका कारण यह था कि मेले-मगरिए एवं धार्मिक महत्त्व की किसी खास तिथि के अलावा महिलाएँ तालाब आदि सार्वजनिक स्थानों पर स्नान हेतु आती ही नहीं थी। उत्सवी माहौल में वे आती भी, तो वहाँ उनके लिये अलग व्यवस्था थी। उसी में वे बिना किसी भय के स्वच्छंदता से स्नान को जाया करती थी।
आज की-सी डरावनी स्थिति उस समय नहीं थी। बड़े-बुजुर्ग या तालाब के प्रन्यासी लोग युवाओं सहित अन्य लोगों को स्थान विशेष पर जाने पर प्रतिबन्ध लगा देते। बावजूद इसके कि उनका लगाया प्रतिबन्ध किसी संवैधानिक नियम के अन्तर्गत नहीं होता था, लेकिन उसकी अनुपालना किसी कानूनी नियम से अधिक होती थी क्योंकि संस्कृति में आई विकृतियाँ इतने भयावह रूप में नहीं थी, अतः किसी भी प्रकार की दिक्कत नहीं होती थी।
तलाइयाँ, क्योंकि आकार में छोटी होती हैं अतः वहाँ इतने प्रकार के घाटों के बजाय पणयार घाट, गऊ घाट एवं मर्दाना घाट आदि ही पाये जाते हैं। तालाबों पर पाये जाने वाले घाटों में सबसे पहले गऊ घाट का निर्माण किया जाता था। इसके पीछे सोच यह थी कि आदमी तो फिर भी कोई-न-कोई जतन कर अपनी प्यास बुझा लेगा लेकिन पशु-पक्षियों के पीने के पानी की व्यवस्था नहीं हुई तो उन्हें बड़ी मुश्किल होगी। अतः उदात्त दृष्टि और उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए सबसे पहले गऊ घाट बनाया जाता था ताकि कोई भी जानवर तालाब के पानी से वंचित न रहे।
गऊ घट की बनावट इस प्रकार की होती थी कि उसमें पशु आराम से खड़े होकर पानी पी सकें। बड़े-बड़े रोड़ों के बीच रिक्त स्थान छोड़ते हुए इनका निर्माण होता था ताकि खुर उस खाली स्थान में अटक जाएँ, पशु पानी के दबाव के सम्मुख अपने पैर जमाकर सन्तुलन रख सकें। गऊ घाट का नामकरण हमारी संस्कृति में गाय के प्रति अगाध श्रद्धा के प्रतीक रूप में रखा गया अवश्य है, परन्तु इस घाट पर गाय के अलावा अन्य पशु-पक्षी भी पानी पी सकते थे। गऊ घाट के निर्माण के बाद अपनी-अपनी सुविधानुसार अन्य घाटों को बाँधा जाता। खाकी घाट उस स्थान को कहा जाता था जहाँ से तालाब का किनारा अन्य घाटों की तुलना में ऊँचा हो।
प्रायः गंठेबाज ‘तालाब में ऊपर से कूदने वाले’ खाकी घाट एवं तकिए से गंठा लगाते थे। तकिया तालाब के सबसे ऊँचे स्थान को कहा जाता था, जहाँ से गंठे लगाकर गंठेबाज सामान्यजन को हैरत में डाल देते थे। इसके अलावा तालाब पर दान घाट भी होता था। दान घाट उस घाट या किनारे को कहा जाता था जहाँ पर लोग दान-पुण्य, अनुष्ठान आदि कर्म किया करते थे। उसके पास ही क्रिया घाट होता था। क्रिया घाट पर नारायण बलि से सम्बन्धित कर्म के विधान पूरे होते हैं।
आज भी क्रिया घाट पर इन विधानों को सम्पन्न होते देखा जा सकता है। जिस किनारे या घाट के बाहर पत्थर की बड़ी-बड़ी शिलाएँ रखी होती उस स्थान या घाट को चेतन घाट कहा जाता था क्योंकि उन शिलाओं पर साधु-सन्त, वरिष्ठ नागरिकजन आदि बैठकर आध्यात्मिक दैनन्दिन कर्म किया करते थे। उसके पास ही पणयार घाट होता था, जिस पर से तालाब के आसपास बसी हुई आबादी के लोग पीने का पानी लेते थे। उसकी संरचना में यह ध्यान अवश्य ही रखा जाता कि वहाँ सूर्योदय से सूर्यास्त तक प्रकाश पूरी मात्रा में रहे।
अन्य घाटों की तुलना में उसकी चौड़ाई अधिक रखी जाती थी। साथ ही कई जगह आरामदायक सीढ़ियाँ अथवा गऊ घाट की तर्ज पर बड़े-बड़े रोड़े रोप कर बनाया जाता था ताकि पानी ले जाने वालों को किसी भी प्रकार की कठिनाई न हो। इसी क्रम में स्याहू घाट बना होता था जिस पर केवल नगर में बाहर से आने वाले नागरिक ही स्नान करते थे। यानी इस घाट पर स्नान करने वाले हमारे शहर या गाँव के नहीं हैं, इसकी पहचान केवल इस घाट पर नहाने के कारण ही हो जाया करती थी।
घाटों के नामकरण का कारण पूछने पर लोगों ने अनभिज्ञता जताई। विभिन्न तालाबों के मौके देखने के बाद इनकी बनावट का भी कोई वैज्ञानिक आधार अथवा दृष्टिकोण नजर नहीं आया। लेकिन इतना अवश्य निश्चित है कि इसके पीछे भी कोई-न-कोई तर्क विधान काम करता होगा। हो सकता है हमारी दृष्टि वहाँ तक नहीं जा पा रही हो।
इसके अलावा तालाब के सौन्दर्यीकरण हेतु कई बार बीच में या इर्द-गिर्द छतरी आदि भी बनाई जाती थी। संसोलव में स्थित बीच की छतरी को इसके अन्तर्गत देखा जा सकता है। संसोलाव तालाब के बीचोंबीच यह छतरी तलाब के स्थापत्य को अप्रतिम सौन्दर्य से मण्डित करती है। कहते हैं जस्सोलाई तलाई, बख्तसागर के मध्य भी इसी तरह की छतरी थी। लेकिन यह तो तय है कि छतरियाँ तालाब के मध्य या आस-पास बनाने के पीछे सोच यही थी कि इनसे तालाब के स्थापत्य-सौन्दर्य में अभिवृद्धि हो।
तालाब की रमणीयता में चार चाँद लगे। निश्चय ही जब ये तालाब जल से लबालब भरते तो दृश्य देखने लायक बन पड़ता था। संसोलाव के भरे स्वरूप में उसके स्थापत्य के इस अप्रतिम सौन्दर्य का तो मैं स्वयं ही साक्षी रहा हूँ और सभी तालाबों की वर्तमान स्थिति से गुजरने के बाद मैं यह दृढ़ता से कह सकता हूँ कि स्थापत्य के सौन्दर्य की दृष्टि से संसोलाव का कोई सानी नहीं है। आज अपने क्षत-विक्षत एवं नष्ट होते जा रहे स्वरूप में भी यह अपने होने के इतने वैभव से सम्पन्न है कि इसे देखकर अनायास ही मुँह से निकलता है कि तालाब हो तो ऐसा!
घाट-निर्माण के दौरान कई बार सीढ़ियों के कुछ नीचे बड़ी-बड़ी चौकियाँ भी छोड़ी जाती थी। इन चौकियों पर जन समुदाय के वे लोग आसानी से बैठकर स्नान आदि कर्म से निवृत्त होते थे जिन्हें तैरना नहीं आत। दूसरे, जब इन तालाबों पर पानी की चादर चली होती थी अर्थात तालाब लबालब भरे होते तो ये ताल की गहराई बताने का काम भी करती थी। यह व्यवस्था भी कुछेक तालाबों में ही देखी जा सकती है। तीसरे, जल सम्बन्धी अनुष्ठान के तहत इनका बड़ा महत्त्व रहता थ। पर ये व्यवस्थाएँ सभी तालाबों पर हों, यह आवश्यक नहीं था।
इनके अलावा प्रायः प्रत्येक तालाब पर गहराई को जानने हेतु पत्थर के स्तम्भ का मापक बना होता था। घड़सीसर, देवीकुण्डसागर सहित शहर के कई तालाबों में आज भी इसे देखा जा सकता है। अगर किसी तालाब पर इस तरह की सुव्यवस्था नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं लगाएँ कि वहाँ मापक पत्थर-स्तम्भ नहीं होने से गहराई का अनुमान लगाने का कोई आधार नहीं मिलेगा बल्कि थोड़ा सा गौर करें तो मालूम पड़ेगा कि जनसमूदाय के बुजुर्गगण सीढ़ियों के डूबे होने एवं दीवार के साथ घटते-बढ़ते जलस्तर से यह अनुमान आसानी से लगा लेते थे और उनके अनुमान व वस्तुस्थिति में रंचमात्र भी फर्क नहीं आता था।
इसके अलावा ताल की गहराई मापने में बाँस भी प्रयुक्त होता था और सबसे सटीक तो यह था कि कोई व्यक्ति तालाब के तल पर खड़ा होकर एक हाथ ऊपर करे। इसी से अनुमान का प्रमाणीकरण होता था। कह सकते हैं कि उनका अनुमान सम्यक होता था।
देवीकुण्डसागर के मध्य में शिवमन्दिर भी बना है। आजकल उस पर जाने हेतु एक पुल भी बना दिया गया है। जब भी तालाब पानी से भरा होता है तो मन्दिर का चारों ओर जल से घिरा दिव्य स्वरूप नैसर्गिक अनुभूति कराता है। हालांकि आज वहाँ पानी नहीं है फिर उसके रमणीय स्वरूप का आनन्द जहाँ है, जैसा है के आधार पर लिया जा सकता है।
इस प्रकार तत्कालीन समाज अपनी विभिन्न मनोवृत्तियों एवं सामाजिक संस्कारों के सम्पन्नार्थ तालाब-निर्माण में उदात्त दृष्टिकोण अपनाते हुए अपनी आवश्यकता एवं सामाजिक दायित्व का निर्वहन जागरूकता एवं सफलता के साथ करता था।
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