1. न वनोपज का मिल रहा सही दाम, न मनरेगा में काम
2. रायपुर आए बैगा जनजाति के प्रतिनिधियों ने कहा, सूखे के चलते इस साल पड़ रही दोहरी मार
प्रकृति की गोद में बसने वाले इन आदिवासियों का दर्द यह है कि जगह तो दे दी, लेकिन जीवनयापन कैसे चले। जो ज़मीन उन्हें दी गई, वह बंजर है और उसे उपजाऊ बनाने के लिये उन्हें हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ रही है। वन विभाग ने छह गाँवों के 249 परिवारों को यहाँ बसाया है। इनमें से 238 परिवार बैगा हैं, बाकी अन्य आदिवासी। इसके पहले ये लोग जंगलों में खेती और वनोपज संग्रहण से जीवनयापन करते रहे हैं, जहाँ उनके पेट भरने के लिये जरूरी सभी चीजें मिल जाया करती थीं। रायपुर। पेड़-पौधे घटने से बहुत कम वनोपज हाथ लगता है, उसमें भी अच्छा दाम नहीं मिलता। धान खराब होने पर सरकार किसानों को तो मुआवजा बाँटती है, लेकिन सूखा पड़ने के बाद जंगल के भरोसे जीने वालों के बारे में कुछ भी नहीं सोचती है। मगर इस बार के अकाल से बैगाओं पर भी दोहरी मार पड़ी है।
एक तो ज्यादातर दूसरों के खेतों में काम करते हैं, उसमें भी जिनके पास थोड़ी बहुत ज़मीन है, उनकी फसल भी खेतों में ही सूख गई। सरकार बैगाओं को 35 किलो चावल देती भी है तो वह दस दिन भी नहीं चलता है। इसलिये जो बैगा अपने इलाके से बाहर नहीं निकलते थे, अब वे भी बाहर निकलने को मजबूर हैं।
बीते साल कवर्धा जिले के कुछ परिवार पलायन करके महाराष्ट्र और अन्य इलाके गए थे, लेकिन इस बार सबसे ज्यादा परिवार घर छोड़ रहे हैं। जैसे, सजनखार और कुकदुर गाँवों के कई परिवार खाने-कमाने के लिये बाहर जा चुके हैं।
यह बात बीते दिनों कवर्धा जिले से राजधानी आये बैगा समुदाय के प्रतिनिधियों ने कही। 'बैगा खेती और संकट' विषय पर आयोजित बैठक के दौरान उन्होंने सरकार से वनोपज पर होने वाले नुकसान पर बीमा देने की माँग की।
बैगा अधिकारों के लिये लड़ने वाली कार्यकर्ता इन्दु नेताम ने कहा, बैगाओं की ख़स्ता हालत के पीछे जिम्मेदार कारणों को जानने के लिये सरकार अध्ययन करके विशेष नीति बनाए। उन्होंने कहा, कई बैगाओं के ढलान वाले खेत सरकारी रिकॉर्ड से गायब हो गए हैं। इसके चलते उन्हें नाममात्र के ही पट्टे मिले हैं।
पंडरिया ब्लॉक के देवान पड़पड से आये चिन्ताराम ने बताया कि उनके यहाँ 75 में महज 20 परिवार पारम्परिक खेती कर रहे हैं। इनमें आधे से ज्यादा के पास तो एक एकड़ से भी कम खेत हैं। खेती के लिये अनाज का संकट पैदा हो गया है, आज 50 में 22 प्रकार के बीज ही बचे हैं।
अनीमा ने बताया कि जिला मुख्यालय से 90 किमी दूर तेलियापानी लेदरा में पूर्व सरपंच ने अपने कार्यकाल में इंदिरा आवास के तहत 71 बैगाओं की रकम हड़प ली।
पूरा प्रकरण कलक्टर के संज्ञान में होने पर भी कार्रवाई नहीं हुई। इसी गाँव में बीमारी के चलते बीते दिनों पाँच बच्चों की मौत हुई गई थी, अब भी 13 मरीज मौत से जूझ रहे हैं।
बिस्सु बैगा ने बताया कि बैगा युवकों को बारहवीं पास करने के बाद पढ़ाई जारी रखने के लिये कोई मार्गदर्शन नहीं मिलता है।
जंगल को आत्मसात कर जीने वाले उन बैगा आदिवासियों को पीड़ा सहनी पड़ रही है, जिन्हें अचानक मार टाइगर रिजर्व एरिया से हटाकर वन विभाग ने मुंगेली जिले की कारीडोंगरी पंचायत क्षेत्र में बसाया है। अब वे अपने घरौंदों से बिछड़कर जीने की जद्दोजहद कर रहे हैं।
प्रकृति की गोद में बसने वाले इन आदिवासियों का दर्द यह है कि जगह तो दे दी, लेकिन जीवनयापन कैसे चले। जो ज़मीन उन्हें दी गई, वह बंजर है और उसे उपजाऊ बनाने के लिये उन्हें हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ रही है।
वन विभाग ने छह गाँवों के 249 परिवारों को यहाँ बसाया है। इनमें से 238 परिवार बैगा हैं, बाकी अन्य आदिवासी। इसके पहले ये लोग जंगलों में खेती और वनोपज संग्रहण से जीवनयापन करते रहे हैं, जहाँ उनके पेट भरने के लिये जरूरी सभी चीजें मिल जाया करती थीं।
अचानक मार एरिया के लगभग 30 गाँवों को हटाया जाना है। उनमें से जलदा, कूबा, बोकराकछार, बाहुद, बाकल और सांभरधसान को हटाया जा चुका है, जहाँ के आदिवासी अपने पुराने घरौंदों को भुला नहीं पाते हैं।
आदिवासियों ने बताया, उन्हें खेती करने में परेशानी आ रही है। ज़मीन बंजर है और उसे उपजाऊ बनाने के लिये दिन-रात एक करना पड़ रहा है। सिंचाई की व्यवस्था नहीं होने से साल भर खाने के लिये धान मुश्किल से मिल पा रहा है। बाड़ियों में सब्जियाँ भी नहीं उगती हैं। जीने के लिये अन्य ज़रूरतों के लिये माली हालत से जूझ रहे हैं।
आदिवासी यहाँ अपना सामंजस्य बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनके जीवनयापन में दिक्कतें आ रही हैं। बोकराकछार निवासी भागबली बैगा, सांभरधसान के शिवकुमार मरावी ने कहा, उनको काम की जरूरत तो है, जिससे परिवार का गुजारा हो सके। जंगल से यहाँ आने वाले सांभरधसान गाँव के गंगाराम, चैनसिंह कहते हैं, जंगल उनकी माँ के समान है। उसे भुलाया नहीं जा सकता।
बाकल गाँव के प्रेम सिंह, बिपतराम, हीरालाल, बीरेंद्र कहते हैं, जंगल हमारे लिये सब कुछ है। जड़ी-बूटियों से अपनी कई बीमारियाँ भी ठीक कर लेते हैं। राज्य सरकार ने इन आदिवासियों के लिये रोज़गार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से संरक्षण और संवर्धन की योजना बनाई थी, जो ठंडे बस्ते में चली गई है।
2. रायपुर आए बैगा जनजाति के प्रतिनिधियों ने कहा, सूखे के चलते इस साल पड़ रही दोहरी मार
प्रकृति की गोद में बसने वाले इन आदिवासियों का दर्द यह है कि जगह तो दे दी, लेकिन जीवनयापन कैसे चले। जो ज़मीन उन्हें दी गई, वह बंजर है और उसे उपजाऊ बनाने के लिये उन्हें हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ रही है। वन विभाग ने छह गाँवों के 249 परिवारों को यहाँ बसाया है। इनमें से 238 परिवार बैगा हैं, बाकी अन्य आदिवासी। इसके पहले ये लोग जंगलों में खेती और वनोपज संग्रहण से जीवनयापन करते रहे हैं, जहाँ उनके पेट भरने के लिये जरूरी सभी चीजें मिल जाया करती थीं। रायपुर। पेड़-पौधे घटने से बहुत कम वनोपज हाथ लगता है, उसमें भी अच्छा दाम नहीं मिलता। धान खराब होने पर सरकार किसानों को तो मुआवजा बाँटती है, लेकिन सूखा पड़ने के बाद जंगल के भरोसे जीने वालों के बारे में कुछ भी नहीं सोचती है। मगर इस बार के अकाल से बैगाओं पर भी दोहरी मार पड़ी है।
एक तो ज्यादातर दूसरों के खेतों में काम करते हैं, उसमें भी जिनके पास थोड़ी बहुत ज़मीन है, उनकी फसल भी खेतों में ही सूख गई। सरकार बैगाओं को 35 किलो चावल देती भी है तो वह दस दिन भी नहीं चलता है। इसलिये जो बैगा अपने इलाके से बाहर नहीं निकलते थे, अब वे भी बाहर निकलने को मजबूर हैं।
बीते साल कवर्धा जिले के कुछ परिवार पलायन करके महाराष्ट्र और अन्य इलाके गए थे, लेकिन इस बार सबसे ज्यादा परिवार घर छोड़ रहे हैं। जैसे, सजनखार और कुकदुर गाँवों के कई परिवार खाने-कमाने के लिये बाहर जा चुके हैं।
यह बात बीते दिनों कवर्धा जिले से राजधानी आये बैगा समुदाय के प्रतिनिधियों ने कही। 'बैगा खेती और संकट' विषय पर आयोजित बैठक के दौरान उन्होंने सरकार से वनोपज पर होने वाले नुकसान पर बीमा देने की माँग की।
बैगाओं के खेत रिकॉर्ड से बाहर
बैगा अधिकारों के लिये लड़ने वाली कार्यकर्ता इन्दु नेताम ने कहा, बैगाओं की ख़स्ता हालत के पीछे जिम्मेदार कारणों को जानने के लिये सरकार अध्ययन करके विशेष नीति बनाए। उन्होंने कहा, कई बैगाओं के ढलान वाले खेत सरकारी रिकॉर्ड से गायब हो गए हैं। इसके चलते उन्हें नाममात्र के ही पट्टे मिले हैं।
पंडरिया ब्लॉक के देवान पड़पड से आये चिन्ताराम ने बताया कि उनके यहाँ 75 में महज 20 परिवार पारम्परिक खेती कर रहे हैं। इनमें आधे से ज्यादा के पास तो एक एकड़ से भी कम खेत हैं। खेती के लिये अनाज का संकट पैदा हो गया है, आज 50 में 22 प्रकार के बीज ही बचे हैं।
हड़प लिये आवास
अनीमा ने बताया कि जिला मुख्यालय से 90 किमी दूर तेलियापानी लेदरा में पूर्व सरपंच ने अपने कार्यकाल में इंदिरा आवास के तहत 71 बैगाओं की रकम हड़प ली।
पूरा प्रकरण कलक्टर के संज्ञान में होने पर भी कार्रवाई नहीं हुई। इसी गाँव में बीमारी के चलते बीते दिनों पाँच बच्चों की मौत हुई गई थी, अब भी 13 मरीज मौत से जूझ रहे हैं।
बिस्सु बैगा ने बताया कि बैगा युवकों को बारहवीं पास करने के बाद पढ़ाई जारी रखने के लिये कोई मार्गदर्शन नहीं मिलता है।
कठिन हुई जीने की डगर
जंगल को आत्मसात कर जीने वाले उन बैगा आदिवासियों को पीड़ा सहनी पड़ रही है, जिन्हें अचानक मार टाइगर रिजर्व एरिया से हटाकर वन विभाग ने मुंगेली जिले की कारीडोंगरी पंचायत क्षेत्र में बसाया है। अब वे अपने घरौंदों से बिछड़कर जीने की जद्दोजहद कर रहे हैं।
प्रकृति की गोद में बसने वाले इन आदिवासियों का दर्द यह है कि जगह तो दे दी, लेकिन जीवनयापन कैसे चले। जो ज़मीन उन्हें दी गई, वह बंजर है और उसे उपजाऊ बनाने के लिये उन्हें हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ रही है।
वन विभाग ने छह गाँवों के 249 परिवारों को यहाँ बसाया है। इनमें से 238 परिवार बैगा हैं, बाकी अन्य आदिवासी। इसके पहले ये लोग जंगलों में खेती और वनोपज संग्रहण से जीवनयापन करते रहे हैं, जहाँ उनके पेट भरने के लिये जरूरी सभी चीजें मिल जाया करती थीं।
अचानक मार एरिया के लगभग 30 गाँवों को हटाया जाना है। उनमें से जलदा, कूबा, बोकराकछार, बाहुद, बाकल और सांभरधसान को हटाया जा चुका है, जहाँ के आदिवासी अपने पुराने घरौंदों को भुला नहीं पाते हैं।
सिंचाई-कृषि यंत्र चाहिए
आदिवासियों ने बताया, उन्हें खेती करने में परेशानी आ रही है। ज़मीन बंजर है और उसे उपजाऊ बनाने के लिये दिन-रात एक करना पड़ रहा है। सिंचाई की व्यवस्था नहीं होने से साल भर खाने के लिये धान मुश्किल से मिल पा रहा है। बाड़ियों में सब्जियाँ भी नहीं उगती हैं। जीने के लिये अन्य ज़रूरतों के लिये माली हालत से जूझ रहे हैं।
आदिवासी यहाँ अपना सामंजस्य बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनके जीवनयापन में दिक्कतें आ रही हैं। बोकराकछार निवासी भागबली बैगा, सांभरधसान के शिवकुमार मरावी ने कहा, उनको काम की जरूरत तो है, जिससे परिवार का गुजारा हो सके। जंगल से यहाँ आने वाले सांभरधसान गाँव के गंगाराम, चैनसिंह कहते हैं, जंगल उनकी माँ के समान है। उसे भुलाया नहीं जा सकता।
बाकल गाँव के प्रेम सिंह, बिपतराम, हीरालाल, बीरेंद्र कहते हैं, जंगल हमारे लिये सब कुछ है। जड़ी-बूटियों से अपनी कई बीमारियाँ भी ठीक कर लेते हैं। राज्य सरकार ने इन आदिवासियों के लिये रोज़गार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से संरक्षण और संवर्धन की योजना बनाई थी, जो ठंडे बस्ते में चली गई है।
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Post By: RuralWater