अज्ञान भी ज्ञान है


मुझे आज तक ऐसा एक भी धर्म ग्रंथ नहीं मिला, एक भी आदमी नहीं मिला, जिसने कहा हो कि अज्ञान की जरूरत है। ईशोपनिषद ही ऐसा पहला ग्रंथ है जो कहता है कि जितनी ज्ञान की जरूरत है, उतनी ही अज्ञान की भी जरूरत है। अकेला ज्ञान और अकेला अज्ञान दोनों अंधेरे में ले जाते हैं। इसलिये कुछ चाहिए विद्या और कुछ चाहिए अविद्या। आत्मज्ञान, विद्या और अविद्या दोनों से परे है।

हमारे देश में उन दिनों से तालीम है, जबकि यूरोप में तालीम का आरम्भ भी नहीं हुआ था। यह बात उपनिषद में भी आती है। उपनिषद का राजा अपने राज्य का वर्णन कर रहा है- न अविद्वान- मेरे राज्य में विद्वान न हो ऐसा कोई नहीं। सिर्फ पढ़े-लिखे लोग ही नहीं, सब विद्वान हैं।

एनी बेसेंट ने एक जगह लिखा है कि 300 साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के लोग बंगाल के छोटे-छोटे गाँवों में गए थे। उन्होंने अपने सर्वेक्षण में, रिकॉर्ड में लिखा है कि बंगाल में प्रति चार सौ व्यक्तियों के पीछे एक पाठशाला है। मैं सोच रहा था कि चार सौ में एक शाला का अर्थ है लगभग प्रत्येक गाँव में एक शाला। हम लोग मानते हैं कि हमारे देश में अंग्रेजों ने ही व्यापक शिक्षण शुरू किया। उसके पहले हमारी सामान्य जनता तो निरक्षर थी और केवल ब्राह्मण और वैश्य जैसे कुछ लोग ही साक्षर थे। जबकि ऐतिहासिक तथ्य जैसा मैंने कहा, वैसा कुछ और ही कहता है।

अंग्रेजों ने यहाँ 150 साल तक राज किया। उन डेढ़ सौ वर्षों में महज दस बारह प्रतिशत लोगों को शिक्षण मिला। बाकी 88 प्रतिशत लोग अशिक्षित रहे। इस समय लगभग 30 प्रतिशत लोग शिक्षित हैं। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में लोग अशिक्षित नहीं थे। अंग्रेजों के जमाने में लोग अशिक्षित बनते गए। अंग्रेजों ने यहाँ आकर विद्या के दो टुकड़े कर दिए। एक सामान्य विद्या और बाकी अक्षरशत्रु।

सामान्यतः आरम्भ में ब्राह्मणादि उच्च शिक्षण लेते थे, इसलिये उनकी श्रेष्ठता दुहरी हो गई। परिणामतः समाज के बिल्कुल टुकड़े-टुकड़े हो गए। इस तरह समाज को विभाजित करना पाप ही माना जाएगा। अंग्रेजों द्वारा किए गए वे टुकड़े आज तक कायम हैं।

उस जमाने में हर पंचायत का काम था कि गाँव में स्कूल चले और उसके लिये किसानों से कुछ न कुछ हिस्सा मिले। तब अरबी या संस्कृत का ज्ञान जरूरी था और उसके लिये अक्षर ज्ञान तो अनिवार्य था ही। मतलब, भारत निरक्षर नहीं था चाहे शिक्षण की पद्धति पुरानी थी। महाराष्ट्र में तो घोड़े पर चढ़ना, पेड़ और पहाड़ों पर चढ़ना-उतरना हर एक को सिखाया जाता था अर्थात विद्या क्रियाशील थी और स्वतंत्र थी।

शिक्षण से यह अपेक्षा की जाती थी कि उससे विद्यार्थी को अपने समग्र विकास की सामग्री मिले। मन की जितनी भी शक्तियाँ हैं, वे सब ऋषि-मुनियों ने हमें समझा दी हैं। अनंतं हि मनः अनंता विश्वेदेवाः विश्वदेव अनंत हैं और मन भी अनंत है। जब हम उसकी एक-एक वृत्ति और शक्ति का विश्लेषण करने लगते हैं, तब हमें उसके अनेक गुणों का आभास मिलता है। आत्मा सच्चिदानंद है। उसके सान्निध्य में मन में अनेक गुणों की छाया प्रतिबिंबित हो उठती है, अनंत गुण मन में प्रकाशित हो उठते हैं।

हमें अनुभवी लोगों ने सिखलाया है कि मुख्य शिक्षण वही है, जिससे हम अपने-आपको मन और शरीर से भिन्न पहचान सकें। स्वयं की यह पहचान ही सर्वोपरि गुण है।

इन दिनों हर कोई ज्ञान के पीछे पड़ा हुआ दिखाई देता है। यह सीखता है, वह सीखता है। एक के बाद दूसरा सीखता चला जाता है। इस तरह चित्त इतने सारे ज्ञान का बोझ ढोता है तो चिंतन-शक्ति क्षीण हो जाती है। गीता में कहा है कि तू श्रुतिविप्रतिपन्नमति है। अनेक बातें सुन-सुन कर तेरी मति विप्रतिपन्न हुई है। अनेक विद्याएँ प्राप्त कर तू विद्वान बना है, पंडित तो बना है लेकिन उसका परिणाम यह हुआ है कि चित्त अनिर्णय की अवस्था में रहता है। दोनों ओर से कुछ कहा जा सकता है- ऐसा हर बात में कहा जाता है। हाँ या ना की हालत होती है। समस्या ही समस्या दिखाई देती है। समस्या का परिहार नहीं होता। अनंत समस्याएँ खड़ी हुई दिखती हैं। बुद्धि चलती है लेकिन विपरीत चलती है। इससे मनुष्य निष्प्राण, निवीर्य, भ्रांत बनता है। इससे उलटे अज्ञान हो तो चित्त पर बोझ कुछ नहीं रहता। यह तो ठीक है, लेकिन उसका परिणाम यह होता है कि स्फूर्ति भी नहीं रहती।

मनुष्य के लिये विद्या और अविद्या दोनों आवश्यक हैं। दुनिया में हजारों प्रकार के शास्त्र और हजारों प्रकार का ज्ञान है। उन सबकी प्राप्ति में पड़ेंगे तो हमसे कोई काम नहीं होगा। संसार में इतना ज्ञान भरा पड़ा है कि उन सबको अपने मस्तिष्क में ठूँसने का यत्न करने से मानव पागल हो जाएगा। हर ज्ञान प्राप्त करना ठीक नहीं। जिस ज्ञान की स्वधर्माचरण में कोई आवश्यकता नहीं, जिससे बुद्धिभेद होता है, उस ज्ञान का चित्त पर बोझ नहीं डालना चाहिए। उसकी अविद्या ही रहने दी जाए।

छोटे बच्चे में अविद्या की महिमा सहज प्रकट होती है। किन्तु जैसे-जैसे मनुष्य बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे वह अनेक बातें जानने लगता है। वे सब बातें जानना उसके लिये जरूरी नहीं। कुछ बातें तो हानिकारक भी होती हैं। उन सारी बातों को भूल जाना चाहिए। इस प्रकार अविद्या भी एक प्रकार से साधक की साधना का अंग है। इस तरह विद्या और अविद्या दोनों चाहिए। दोनों मिलकर ज्ञान प्राप्त होता है और फिर उसके बाद आता है आत्म ज्ञान, जो परम साम्य है।

मुझे आज तक ऐसा एक भी धर्म ग्रंथ नहीं मिला, एक भी आदमी नहीं मिला, जिसने कहा हो कि अज्ञान की जरूरत है। ईशोपनिषद ही ऐसा पहला ग्रंथ है जो कहता है कि जितनी ज्ञान की जरूरत है, उतनी ही अज्ञान की भी जरूरत है। अकेला ज्ञान और अकेला अज्ञान दोनों अंधेरे में ले जाते हैं। इसलिये कुछ चाहिए विद्या और कुछ चाहिए अविद्या। आत्मज्ञान, विद्या और अविद्या दोनों से परे है। उपनिषद हमें इतनी गहराई में ले जाता है कि चित्त में कोई भी भ्रम नहीं रहने देता।

मिट्टी की मूर्तियाँ आदि बनाने की कला सम्बन्धी एक पुस्तक में मूर्ति को अपूर्ण से पूर्ण की ओर ले जाने की पद्धति का स्पष्ट निषेध किया गया है। उक्त पुस्तक में लेखक ने अपने अनुभव देते हुए लिखा है कि- आरम्भ में मिट्टी का चाहे जैसा आकार बनाएँ पर अंत में अभीष्ट आकार प्राप्त हो जाए तो ठीक- इस भावना से कभी काम न करें बल्कि इस ढंग से निर्माण का काम करें कि आदि से लेकर अंत तक किसी भी समय कोई उसे देखे, तो वह समझ जाए कि क्या चल रहा है। ऐसा होने पर ही मूर्ति में कला का संचार होता है। नहीं तो बहुत से कलाकार यह कहते पाए जाते हैं कि अभी क्या देख रहे हो, पूरा होगा तब देखना। शुरू में ऊटपटांग बनाते चलें और बाद में उसे सुधारने बैठें! इस तरह की धांधली से कला सध नहीं सकती। कला है आत्म का अमर अंश। इसलिये आत्मविकास के सूत्र पूर्ण से पूर्ण को लेकर ही कला का जन्म सम्भव है।

राष्ट्र निर्माण भी बहुत ही बड़ी कला है। पूर्ण में से पूर्ण का सूत्र पकड़ कर उसकी रचना की जाए, तभी वह सध सकेगा।

 

अज्ञान भी ज्ञान है

(इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

अज्ञान भी ज्ञान है

2

मेंढा गांव की गल्ली सरकार

3

धर्म की देहरी और समय देवता

4

आने वाली पीढ़ियों से कुछ सवाल

5

शिक्षा के कठिन दौर में एक सरल स्कूल

6

चुटकी भर नमकः पसेरी भर अन्याय

7

दुर्योधन का दरबार

8

जल का भंडारा

9

उर्वरता की हिंसक भूमि

10

एक निर्मल कथा

11

संस्थाएं नारायण-परायण बनें

12

दिव्य प्रवाह से अनंत तक

13

जब ईंधन नहीं रहेगा

 

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