आज भी खरे हैं तालाब


बुरा समय आ गया था।
भोपा होते तो जरूर बताते कि तालाबों के लिए बुरा समय आ गया था। जो सरस परंपराएं, मान्यताएं तालाब बनाती थीं, वे ही सूखने लगी थीं।
दूरी एक छोटा- सा शब्द है। लेकिन राज और समाज के बीच में इस शब्द के आने से समाज का कष्ट कितना बढ़ जाता है, इसका कोई हिसाब नहीं। फिर जब यह दूरी एक तालाब की नहीं, सात समुंदर की हो जाए तो बखान के लिए क्या रह जाता है?

अंग्रेज सात समुंदर पार से आए थे और अपने समाज के अनुभव लेकर आए थे। वहां वर्गों पर टिका समाज था, जिसमें स्वामी और दास के संबंध थे। वहां राज्य ही फैसला करता था कि समाज का हित किस में है। यहां जाति का समाज था और राजा जरूर थे पर राजा और प्रजा के संबंध अंग्रेजों के अपने अनुभवों से बिल्कुल भिन्न थे। यहां समाज अपना हित स्वयं तय करता था और उसे अपनी शक्ति से, अपने संयोजन से पूरा करता था। राज उसमें सहायक होता था।

पानी का प्रबंध, उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य- बोध के लिए विशाल सागर की एक बूंद थी। सागर और बूंद एक दूसरे से जुड़े थे। बूंदे अलग हो जाएं तो न सागर रहे, न बूंद बचे। सात समुंदर पार से आए अंग्रेजों को समाज के कर्तव्य - बोध का न तो विशाल सागर दिख पाया, न उसकी बूंदे। उन्होंने अपने यहां के अनुभव और प्रशिक्षण के आधार पर यहां के राज में दस्तावेज जरूर खोजने की कोशिश की, लेकिन वैसे रिकार्ड राज में रखे नहीं जाते थे। इसलिए उन्होंने मान लिया कि यहां सारी व्यवस्था उन्हीं को करनी है। यहां तो कुछ है ही नहीं!

देश के अनेक भागों में घूम फिर कर अंग्रेजों ने कुछ या काफी जानकारियां जरूर एकत्र कीं, लेकिन यह सारा अभ्यास कुतूहल से ज्यादा नहीं था। उसमें कर्तव्य के सागर और उसकी बूंदों को समझने की दृष्टि नहीं थी। इसलिए विपुल मात्रा में जानकारियां एकत्र करने के बाद भी जो नीतियां बनीं, उन्होंने तो इस सागर और बूंद को अलग- अलग ही किया।

उत्कर्ष का दौर भले ही बीत गया था, पर अंग्रेजों के बाद भी पतन का दौर प्रारंभ नहीं हुआ था। उन्नीसवीं सदी के अंत और तो और बीसवीं सदी के प्रारंभ तक अंग्रेज यहां घूमते- फिरते जो कुछ देख रहे थे, लिख रहे थे, जो गजेटियर बना रहे थे, उनमें कई जगहों पर छोटे ही नहीं, बड़े- बड़े तालाबों पर चल रहे काम का उल्लेख मिलता है।

मध्य प्रदेश के दुर्ग और राजनांदगांव जैसे क्षेत्रों में सन् 1907 तक भी ``बहुत से बड़े तालाब बन रहे थे।´´ इनमें तांदुला नामक तालाब ``ग्यारह वर्ष तक लगातार चले काम के बाद बनकर बस अभी तैयार ही हुआ था। इसमें सिंचाई के लिए आज भी खरे हैं तालाब 70 निकली नहरों- नालियों की लंबाई 513 मील थी।´´

जो नायक समाज को टिकाए रखने के लिए सब काम करते थे, उनमें से कुछ के मन में समाज को डिगाने- हिलाने वाली नई व्यवस्था भला कैसे समा पाती? उनकी तरफ से अंग्रेजों को चुनौतियां भी मिलीं। सांसी, भीली जैसी स्वाभिमानी जातियों को इस टकराव के कारण अंग्रेजी राज ने ठग और अपराधी तक कहा। अब जब सब कुछ अंग्रेजों को ही करना था तो उनसे पहले के पूरे ढांचे को टूटना ही था। उस ढांचे को दुतकारना, उसकी उपेक्षा करना कोई बहुत सोचा-विचारा गया कुटिल षड्यंत्र नहीं था। वह तो इस नई दृष्टि का सहज परिणाम था और दुर्भाग्य से यह नई दृष्टि हमारे समाज के उन लोगों तक को भा गई थी, जो पूरे मन से अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे और देश को आजाद करने के लिए लड़ रहे थे।

पिछले दौर के अभ्यस्त हाथ अब अकुशल कारीगरों में बदल दिए गए थे। ऐसे बहुत से लोग जो गुनीजनखाना यानी गुणी माने गए जनों की सूची में थे, वे अब अनपढ़, असभ्य, अप्रशिक्षित माने जाने लगे। उस नए राज और उसके प्रकाश के कारण चमकी नई सामाजिक संस्थाएं, नए आंदोलन भी अपने ही नायकों के शिक्षण- प्रशिक्षण में अंग्रेजों से भी आगे बढ़ गए थे। आजादी के बाद की सरकारों, सामाजिक संस्थाओं तथा ज्यादातर आंदोलनों में भी यही लज्जाजनक प्रवृत्ति जारी रही है।
उस गुणी समाज के हाथ से पानी का प्रबंध किस तरह छीना गया इसकी एक झलक तब के मैसूर राज में देखने को मिलती है।

सन् 1800 में मैसूर राज दीवान पूर्णैया देखते थे। तब राज्य भर में 39000 तालाब थे। कहा जाता था कि वहां किसी पहाड़ी की चोटी पर एक बूंद गिरे, आधी इस तरफ आधी उस तरह बहे तो दोनों तरफ इसे सहेज कर रखने वाले तालाब वहां मौजूद थे। समाज के अलावा राज भी इन उम्दा तालाबों की देखरेख के लिए हर साल कुछ लाख रुपए लगाता था। राज बदला। अंग्रेज आए। सबसे पहले उन्होंने इस `फिजूल खर्ची´ को रोका और सन् 1831 में राज की ओर से तालाबों को दी जाने वाली राशि को काटकर एकदम आधा कर दिया। अगले 32 बरस तक नए राज की कंजूसी को समाज अपनी उदारता से ढक कर रखे रहा। तालाब लोगों के थे, सो राज से मिलने वाली मदद के कम हो जाने, कहीं - कहीं बंद हो जाने के बाद भी समाज तालाबों को संभाले रहा। बरसों पुरानी स्मृति ऐसे ही नहीं मिट जाती। लेकिन 32 बरस बाद यानी सन् 1863 में वहां पहली बार पी. डब्ल्यू. डी. बना और सारे तालाब लोगों से छीन कर उसे सौंप दिए गए। प्रतिष्ठा पहले ही हर ली थी। फिर धन, साधन छीने और अब स्वामित्व भी ले लिया गया था। सम्मान, सुविधा और अधिकारों के बिना समाज लाचार होने लगा। ऐसे में उससे सिर्फ अपने कर्तव्य निभाने की उम्मीद कैसे की जाती?

मैसूर के 39000 तालाबों की दुर्दशा का किस्सा बहुत लंबा है। पी. डब्ल्यू. डी से काम नहीं चला तो फिर पहली बार सिंचाई विभाग बना। उसे तालाब सौंपे गए। वह भी कुछ नहीं कर पाया तो वापस पी. डब्ल्यू. डी. को। अंग्रेज विभागों की अदला- बदली के बीच तालाबों से मिलने वाला राजस्व बढ़ाते गए और रख - रखाव की राशि छांटते - काटते गए। अंग्रेज इस काम के लिए चंदा तक मांगने लगे जो फिर जबरन वसूली तक चला गया।

इधर दिल्ली तालाबों की दुर्दशा की नई राजधानी बन चली थी। अंग्रेजों के आने से पहले तक यहां 350 तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ- हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए।

उसी दौर में नल लगने लगे थे। इसके विरोध की एक हल्की सुरीली आवाज सन् 1900 के आसपास विवाहों के अवसर पर गाई जाने वाली `गारियों´, विवाह- गीतों में दिखी थी। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां ``फिरंगी नल मत लगवाय दियो´´ गीत गातीं। लेकिन नल लगते गए और जगह- जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेज द्वारा नियंत्रित `वाटर वर्क्स´ से पानी आने लगा।

पहले सभी बड़े शहरों में और फिर धीरे- धीरे छोटे शहरों में भी यही स्वप्न साकार किया जाने लगा। पर केवल पाइप बिछाने और नल की टोंटी लगा देने से पानी नहीं आता। यह बात उस समय नहीं लेकिन आजादी के कुछ समय बाद धीरे- धीरे समझ में आने लगी थी। सन् 1970 के बाद तो यह डरावने सपने में बदलने लगी थी। तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और उन पर नए मोहल्ले, बाजार स्टेडियम खड़े हो चुके थे।

पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता। तालाब हथिया कर बनाए गए नए मोहल्लों में वर्षा के दिनों में पानी भर जाता है और फिर वर्षा बीती नहीं कि इन शहरों में जल संकट के बादल छाने लगते हैं।

जिन शहरों के पास फिलहाल थोड़ा पैसा है, थोड़ी ताकत है, वे किसी और के पानी को छीन कर अपने नलों को किसी तरह चला रहे हैं पर बाकी की हालत तो हर साल बिगड़ती ही जा रही है। कई शहरों के कलेक्टर फरवरी माह में आसपास के गांवों के बड़े तालाब का पानी सिंचाई के कामों से रोक कर शहरों के लिए सुरक्षित कर लेते हैं।

शहरों को पानी चाहिए पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं। तब पानी ट्यूबवैल से ही मिल सकता है पर इसके लिए बिजली, डीजल के साथ - साथ उसी शहर के नीचे पानी चाहिए। मद्रास जैसे कई शहरों का दुखद अनुभव यही बताता है कि लगातार गिरता जल- स्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर थामा नहीं जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठा कर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाए हैं। लेकिन ऐसी नगर पालिकाओं पर करोड़ों रुपए के बिजली के बिल चढ़ चुके हैं।

इंदौर का ऐसा ही उदाहरण आंख खोल सकता है। यहां दूर बह रही नर्मदा का पानी लाया गया था। योजना का पहला चरण छोटा पड़ा, तो एक स्वर से दूसरे चरण की मांग भी उठी और अब सन् 1993 में तीसरे चरण के लिए भी आंदोलन चल रहा है। इसमें कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी साम्यवादी दलों के अलावा शहर के पलवान श्री अनोखी लाल भी एक पैर पर एक ही जगह 34 दिन तक खड़े रह कर `सत्याग्रह´ कर चुके हैं। इस इंदौर में अभी कुछ दिन ही पहले तक बिलावली जैसा तालाब था, जिसमें फ्लाइंग क्लब के जहाज के गिर जाने पर नौसेना के गोताखोर उतारे गए थे पर वे डूबे जहाज को आसानी से खोज नहीं पाए थे। आज बिलावली एक बड़ा सूखा मैदान है और इसमें लाइंग क्लब के जहाज उड़ाए जा सकते हैं।

इंदौर के पड़ोस में बसे देवास शहर का किस्सा तो और भी विचित्र है। पिछले 30 वर्ष में यहां के सभी छोटे- बड़े तालाब भर दिए गए और उन पर मकान और कारखाने खुल गए। लेकिन फिर `पता´ चला कि इन्हें पानी देने का कोई स्रोत नहीं बचा है। शहर के खाली होने तक की खबरें छपने लगी थीं। शहर के लिए पानी जुटाना था पर पानी कहां से लाएं? देवास के तालाबों, कुओं के बदले रेलवे स्टेशन पर दस दिन तक दिन- रात काम चलता रहा।

25 अप्रैल, 1990 को इंदौर में 50 टैंकर पानी लेकर रेलगाड़ी देवास आई। स्थानीय शासन मंत्री की उपस्थिति में ढोल नगाड़े बजाकर पानी की रेल का स्वागत हुआ। मंत्री जी ने रेलवे स्टेशन आई `नर्मदा´ का पानी पीकर इस योजना का उद्घाटन किया। संकट के समय इससे पहले भी गुजरात और तमिलनाडु के कुछ शहरों में रेल से पानी पहुंचाया गया है पर देवास में तो अब हर सुबह पानी की रेल आती है, टैंकरों का पानी पंपों के सहारे टंकियों में चढ़ता है और तब शहर में बंटता है।

रेल का भाड़ा हर रोज चालीस हजार रुपया है।
बिजली से पानी ऊपर चढ़ाने का खर्च अलग और इंदौर से मिलने वाली पानी का दाम भी लग जाए तो पूरी योजना दूध के भाव पड़ेगी। लेकिन अभी मध्य प्रदेश शासन केंद्र से रेल भाड़ा माफ करवाता जा रहा है। दिल्ली के लिए दूर गंगा का पानी उठा कर लाने वाला केंद्र शासन अभी मध्य प्रदेश के प्रति उदारता बरत रहा है। श्री मनमोहन सिंह की नई `उदारवादी´ नीति रेल और बिजली के दाम चुकाने को कह बैठी तो देवास को नरकवास बनने में कितनी देर लगेगी।

पानी के मामले में निपट बेवकूफी के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। मध्य प्रदेश के ही सागर शहर को देखें। कोई 600 बरस पहले लाखा बंजारे द्वारा बनाए गए सागर नामक एक विशाल तालाब के किनारे बसे इस शहर का नाम सागर ही हो गया था। आज यहां नए समाज की चार बड़ी प्रतिष्ठित संस्थाए हैं। पुलिस प्रशिक्षण केंद्र है, सेना के महार रेजिमेंट विश्वविद्यालय है। एक बंजारा यहां आया और विशाल सागर बना कर चला गया लेकिन नए समाज की चार साधन संपन्न संस्थाएं इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाईं! आज सागर तालाब पर ग्यारह शोध प्रबंध पूरे हो चुके हैं, डिग्रियां बंट चुकी हैं पर एक अनपढ़ माने गए बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा- लिखा माना गया समाज बचा तक नहीं पा रहा है।

उपेक्षा की इस आंधी में कई तालाब फिर भी खड़े हैं। देश भर में कोई आठ से दस लाख तालाब आज भी भर रहे हैं और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों के साथ - साथ कुपात्रों में भी बांट रहे हैं। उनकी मजबूत बनक इसका एक कारण है पर एकमात्र कारण नहीं। तब तो मजबूत पत्थर के बने पुराने किले खंडहरों में नहीं बदलते। कई तरफ से टूट चुके समाज में तालाबों की स्मृति अभी भी शेष है। स्मृति की यह मजबूती पत्थर की मजबूती से ज्यादा मजबूत है।

छत्तीसगढ़ के गांवों में आज भी छेर- छेरा के गीत गाए जाते हैं और उससे मिले अनाज से अपने तालाबों की टूट- फूट ठीक की जाती है। आज भी बुंदेलखंड में कजलियों के गीत में उसके आठों अंग डूब सकें- ऐसी कामना की जाती है। हरियाणा के नारनौल में जात उतारने के बाद माता- पिता तालाब की मिट्टी काटते हैं और पाल पर चढ़ाते हैं। न जाने कितने शहर, कितने सारे गांव इन्हीं तालाबों के कारण टिके हुए हैं। बहुत- सी नगर पालिकाएं आज भी इन्हीं तालाबों के कारण पल रही हैं और सिंचाई विभाग इन्हीं के दम पर खेतों को पानी दे पा रहे हैं। बीजा की डाह जैसे गांवों में आज भी सागरों के नायक नए तालाब भी खोद रहे हैं और पहली बरसात में उन पर रात-रात भर पहरा दे रहे हैं। उधर रोज सुबह - शाम घड़सीसर में आज भी सूरज मन भर सोना उड़ेलता है।

कुछ कानों में आज भी यह स्वर गूंजता है :
``अच्छे-अच्छे काम करते जाना।´´
 
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