केंद्रीय पंचायती राज विस्तार अधिनियम-1996 के अंतर्गत ग्रामसभा को ग्राम वनों पर नियंत्रण और प्रबंधन का अधिकार है, इसलिये कम्युनिटी फॉरेस्ट मैनेजमेंट के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी ग्रामसभा की ही होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा। वनाधिकार कानून को भी वनवासियों के जंगलों पर अधिकार के रूप में प्रचारित किया गया। जंगल और जमीन पर खोए अधिकार को दोबारा पाने का मौका ठीक 11 बरस पहले आया। सदियों से बहुप्रतीक्षित झारखंड के सपनों को पूरा करने के लिये ढेरों लोगों ने जानें दीं, कइयों को जल में सड़ना पड़ा। लेकिन झारखंड बना तो बस नाम में ही जंगल-झाड़ का बोध रह गया, लेकिन इस संदर्भ में जन भावनाओं को नकारने का सिलसिला उसी तरह चलता रहा, जिस तरह सदियों से चलता आया था। जंगलों के प्रदेश में जंगल बहुत तेजी से गायब हो रहे हैं, पहाड़ियों को नंगा किया जा रहा है। भूखे लोग और बन्जर जमीन बच रही है।
1999 के स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट के अनुसार झारखंड में 22 लाख हेक्टेयर में जंगल था, जबकि इससे महज दो साल पहले 1997 में प्रकाशित रिपोर्ट में 26 लाख हेक्टेयर जंगल होने की बात कही गई थी। आइएसएफआर-2009 के रिपोर्ट से भी जाहिर होता है कि इसमें कोई सुधार नहीं हुआ है। इस क्षेत्र की यह दुर्दशा न सिर्फ झारखंडी समाज बल्कि पूरे देश के लिये चिन्ताजनक है। वन विनाश का सबसे ज्यादा असर प्रदेश के आदिवासियों पर पड़ा है। जंगल और खेतों को हुए पर्यावरणीय नुकसान ने उनकी जिन्दगी को दुष्कर बना दिया है। जंगलों की बर्बादी ने उनकी संस्कृति और आध्यात्मिक जीवन को बहुत बुरी तरह प्रभावित किया है। पलायन की विभीषिका के बीच इस पूरी घटना का सामाजिक-आर्थिक संदर्भ समझा जा सकता है।
गलती कहाँ हुई? जंगल की जमीन पर अधिकार व नियंत्रण के लिये बनाई गई वन नीति की समीक्षा आजादी के बाद कभी नहीं की गई। राज्यों की वन नीतियों ने भी जंगल पर निर्भर लोगों को जंगल से अलग-थलग कर दिया। आज की इन नीतियों के आधार पर जंगलों को न तो बचाया जा सकता है और न ही उन्हें पुनर्जावित किया जा सकता है। वन अधिकार कानून-2006 में भी कई चालाकियों की गुंजाइश छोड़ ही दी गई है। समस्या की जड़ें ब्रिटिश काल में ही तलाशी जा सकती है, जब झारखंड के घने जंगलों को औपनिवेशिक सरकार ने अपना खास आशियाना बना लिया था।
अंग्रेजों ने लोगों को जंगल साफ कर धान के खेत बनाने के लिये बाध्य कर दिया था। जहाँ भी सम्भव हो सका, ऐसा किया गया और शेष जंगल को दोहन के लिये छोड़ दिया गया। गाँव के पास के जंगल के एक छोटे से हिस्से को ग्राम-वन के रूप में चिन्हित किया गया। साथ ही उन्हें जमींदारी की दया पर छोड़ दिया गया। इस प्रकार झारखंड के जंगलों पर से स्वामित्व व प्रबंधन के अधिकार से लोगों को बेदखल कर दिया गया। मुंडाओं ने अपने पुरखों की जमीन और जंगल बचाने के लिये लगभग 100 वर्ष (1817-1908) तक लड़ाई लड़ी। मुंडाओं ने औपनिवेशिक सत्ता को समझौते के लिये मजबूर कर दिया। 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम आया। इसके बावजूद पुरखों की जमीन व जंगल पर उनके अधिकार बहाल नहीं किए गए। मुंडाओं के तीन हजार गाँवों में से केवल 156 को मान्यता दी गई। इन गाँवों को मुंडारी खूंटकट्टी गाँव और ग्रामीणों के अधिकार को मुंडारी खूंटकट्टी अधिकार कहा गया।
संरक्षित जंगल दरअसल गाँव के प्राकृतिक संसाधनों का हिस्सा था। चिरस्थाई बन्दोबस्ती की शुरुआत के बाद जमींदारों नें उन जंगलों पर कब्जा कर लिया और अपनी निजी सम्पत्ति बन ली। जमींदारों व अन्य भू-स्वामियों ने खनन कार्य के लिये जंगल को बर्बाद कर दिया। 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक जंगलों की हालत इतनी खराब हो गई थी कि केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने जंगलों के कटने और खत्म होने पर चिन्ता जताई और मालिकों से कहा कि वे स्वयं भारतीय वन अधिनियम के तहत उसे ग्रामवन घोषित करें, जिसका प्रबंधन वन विभाग करेगा। लोभी जमींदारों द्वारा इस अधिनियम की अवहेलना करने के बाद सरकार ने इन वनों को निजी संरक्षित जंगल के रूप में अधिग्रहित करने के लिये बिहार प्राइवेट फॉरेस्ट एक्ट, 1946 बनाया। वन विभाग ने मालिकों के साथ मुनाफे में हिस्सेदारी करने का वादा किया, पर इस शर्त पर कि हानि होगी तो सरकार उसका वहन करेगी।
जमींदारी उन्मूलन के बाद निजी संरक्षित जंगल सरकार के जिम्मे डाल दिए गए और उन्हें पुनः भारतीय वन अधिनियम, 1927 द्वारा संरक्षित जंगल के रूप में अधिसूचित किया गया। इसके अलावा जो जंगल बचे उसे रिजर्व फॉरेस्ट यानी आरक्षित वन कहा गया। लकड़ी की जरूरतों व उसके अन्य उत्पादों को बेचकर लाभ कमाने के लिये इन वनों को सीधे सरकार के नियंत्रण में रखा गया। विभाग ने जंगल पर निर्भर कुछ लोगों को जंगल में बसने को बाध्य कर दिया, ताकि वे मजदूर के रूप में विभाग का काम करें। ऐसी बन्दोबस्ती को वनग्राम कहा गया। वनों के आरक्षण की घोषणा करने से पहले गाँव वालों को सूचित भी नहीं किया गया, सहमति लेना तो दूर।
आजादी के बाद की स्थिति : आजादी के तुरन्त बाद बिहार सरकार ने बिहार निजी वन अधिनियम-1947 पारित किया। यह दरअसल बिहार निजी वन अधिनियम-1946 का कुछ संशोधन के साथ नवीन संस्करण मात्र था। जिन मालिकों, जमींदारों और मुंडारी खूंटकट्टीदारों के जंगल निजी सुरक्षित वन माने जाते थे, जिनके प्रबंधन का जिम्मा सरकार ने ले लिया था। जब जमींदारी खत्म हुई और भूमि सुधार अधिनियम लागू हुआ, तब ये सारे जंगल सरकार को दे दिए गए। आगे चलकर झारखंड में जंगल में रहने वालों और राज्य के बीच तीखे संघर्ष हुए। राज्य जंगल पर लोगों के नियंत्रण पर ज्यादा से ज्यादा प्रतिबंध लगाता रहा। इसकी वजह से भारी असन्तोष उपजा। कई खूनी मुठभेड़ हुए। अपनी जकड़ को और भी मजबूत बनाने के लिये 1980 में एक वन विधेयक का मसविदा तैयार हुआ।
इस विधेयक में वन विभाग के पुलिस बल को और ज्यादा अधिकार देने और देश के जंगलों के प्रबंधन को केंद्रीकृत करने का प्रस्ताव किया गया। भारी विरोध के कारण सरकार इसे रोकने पर मजबूर हुई। समुदाय के मालिकाना हक की धारणा के आधार पर सामुदायिक वन प्रबंधन की परिकल्पना पर विचार करने के लिये ऐसा किया गया। यदि इस नीति का कार्यान्वयन ईमानदारी से किया जाए तो यह मुंडारी खूंटकट्टी गाँवों के निजी संरक्षित जंगलों और भूंइहरी गाँवों के संरक्षित जंगलों पर लोगों के पारम्परिक अधिकारों को वापस दिलाने की दिशा में एक कदम होगा। ग्रामवन में जंगलों की बर्बादी और बेदखली ने लोगों को काफी मुसीबत में डाला है। केंद्रीय पंचायती राज विस्तार अधिनियम-1996 के अंतर्गत ग्रामसभा को ग्राम वनों पर नियंत्रण और प्रबंधन का अधिकार है, इसलिये कम्युनिटी फॉरेस्ट मैनेजमेंट के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी ग्रामसभा की ही होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा। वनाधिकार कानून को भी वनवासियों के जंगलों पर अधिकार के रूप में प्रचारित किया गया। झारखंड के जंगलों या उसके आस-पास आदिकाल से ही जो समुदाय रहते आए हैं, उनको अब तक असली न्याय नहीं मिल पाया है।
और कितना वक्त चाहिए झारखंड को (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
जल, जंगल व जमीन | |
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खनन : वरदान या अभिशाप | |
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