फसलों की जलवायु परिवर्तन सहने वाली किस्मों, उपयुक्त कृषि प्रणालियों तथा फसल विविधीकरण सम्बन्धी जानकारी के अधिक प्रसार की आवश्यकता है। मौसमी आपदाओं से किसानों की आमदनी और आजीविका को सुरक्षित बनाने के लिए उन्हें वैज्ञानिक व तकनीकी रूप से सक्षमता प्रदान करना कृषि क्षेत्र की प्राथमिकता होनी चाहिए।
किसानों को हुए नुकसान की भरपाई के लिये अनेक राज्य अपने-अपने स्तर पर मुआवजे और राहत की घोषणाएँ कर रहे हैं। इन फौरी कदमों से किसान को आर्थिक मदद तो मिल सकती है, लेकिन अगर हम किसान की आमदनी और आजीविका को सतत् रूप से सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो उसे वैज्ञानिक और तकनीकी रूप से सक्षम बनाना होगा। कृषि वैज्ञानिकों के पिटारे में ऐसे अनेक वैज्ञानिक उपाय मौजूद हैं, जो मौसम की उठा-पटक होने पर भी किसान के लिये मददगार साबित हो सकते हैं। देश की शीर्षस्थ कृषि वैज्ञानिक अनुसंधान संस्था, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अन्तर्गत खेती को जलवायु परिवर्तन की आपदाओं से सुरक्षित रखने के लिये ‘निक्रा’ नाम से एक बड़ी और देशव्यापी परियोजना चलाई जा रही है। इसके अन्तर्गत सूखा, बाढ़, बेमौसमी बारिश, ओला, पाला जैसी दशाओं से फसलों की रक्षा करने वाली तकनीकें विकसित की जा रही हैं, और इन्हें कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से सीधे किसानों के खेतों तक पहुँचाया भी जा रहा है। गौरतलब है कि पूरे देश में 642 कृषि विज्ञान केन्द्रों के वैज्ञानिक किसानों के सम्पर्क में रहते हैं और उन्हें समय-समय पर इस तरह की सुरक्षात्मक तकनीकों को अपनाने में सहायता करते हैं। इस बार भी बारिश की सम्भावना होने पर किसानों को जरूरी परामर्श दिया गया और बारिश के बाद भी नुकसान को कम से कम करने के लिये सुझाव दिए गए।परिषद की व्यापक कृषि प्रसार प्रणाली के मुखिया डॉ. अशोक कुमार सिंह, उपमहानिदेशक ने बताया कि अगर सब्जियों के खेत में ज्यादा नुकसान हुआ है, तो खेत को खोद कर दूसरी सब्जियों बुआई कर दें, कद्दूवर्गीय सब्जियाँ इस मौसम में अच्छी चल जाती हैं। इसी तरह, अगर गेहूँ की फसल पूरी तरह से खराब हो गई हो तो उसकी जगह मक्का, मूंग और उड़द जैसी जायद की फसलों को लगाकर अपने आर्थिक नुकसान की काफी हद तक भरपाई कर सकते हैं। यदि गेहूँ की फसल गिर गई है, तो कुछ इन्तजार करें। उम्मीद है कि धूप खिलने पर फसल अपने आप फिर से खड़ी भी हो सकती है। अगर आलू की खुदाई नहीं की है, तो पहले जमीन को कुछ समय तक सूखने दें, उसके बाद खुदाई करें। इस तरह आलू की गुणवत्ता बनी रहेगी।
बेमौसमी घटनाओं की तीव्रता बढ़ी
जानकारी और आँकड़े कहते हैं कि हमारे देश में इस तरह की बेमौसमी घटनाएँ जब-तब घटती रहती हैं, और पिछले दशक में ऐसी घटनाओं की तीव्रता तथा संख्या बढ़ी भी है। इसलिये खेती की योजना बनाते समय इस प्रकार की सम्भावित आपदाओं को भी ध्यान में रखना होगा। किसी भी किसान के लिये पूरे खेती क्षेत्र में एक ही फसल को उगाने से जोखिम बढ़ जाता है। इसलिये फसलों का विविधिकरण जरूरी है। कृषि प्रणाली में अनाज के साथ दलहन, तिलहन और बागवानी फसलें शामिल करने में आमदनी की सुरक्षा मजबूत हो जाती हैं। इसी तरह एक ही फसल के अन्तर्गत किस्मों की विविधता भी अपनानी चाहिए।
उदाहरण के तौर पर भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान (पूसा इंस्टीट्यूट) द्वारा विकसित गेहूँ की किस्म एचडी-3086 अन्य किस्मों की तुलना में अधिक सुदृढ़ तथा अधिक उपज देने वाली है। देखा गया है कि इस किस्म के खेत पर बारिश और हवा का अपेक्षाकृत कम प्रभाव पड़ा। पौधे जमीन पर नहीं गिरे। तो सलाह यह है कि गेहूँ की इस किस्म को भी खेत में जगह दी जाए। इसका फायदा उठाया जाए। इसी तरह अन्य फसलों की किस्में भी चुनी जा सकती हैं।
यह भी देखा गया है कि अगर फसलों की बुआई हैप्पी सीडर, शून्य जुताई मशीन या अन्य किसी उचित यन्त्र या उपकरण से की जाए तो फसल के गिरने की सम्भावना कम हो जाती है। इसलिए किसान को बुआई मशीनों का लाभ उठाना चाहिए। यह भी सच है कि हर किसान मशीन खरीदने में समर्थ नहीं है, इसलिए कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से अनेक गाँवों में कस्टम हायरिंग केन्द्र खोले गए हैं, जहाँ किसान भाई किराए पर मशीन लेकर बुआई या अन्य कामकाज मशीनों की सहायता से कर सकते हैं। किसानों को इसका लाभ अवश्य उठाना चाहिए। सलाह यह भी है कि एक ही फसल की पूरी बुआई एक ही तारीख न की जाए। बुआई के बीच थोड़े समय का अन्तराल रखने से फसल को सुरक्षा मिलती है। मौसमी आपदा के समय पूरी फसल एक समान अवस्था में नहीं रहती, जिससे नुकसान का स्तर भी अलग-अलग हो जाता है या नुकसान से पूरी सुरक्षा मिल जाती है। फसलों की बुआई कूंड-मेंड़ प्रणाली (रिज एण्ड फरो) के अन्तर्गत करने से अधिक बारिश होने पर अतिरिक्त पानी आसानी से खेत से बाहर हो जाता है। पानी का जमाव फसल को खराब नहीं करता।
वैसे भी वैज्ञानिक हमेशा यही सलाह देते हैं कि हर खेत में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। खेत में खड़ा पानी फसल को तत्काल खराब करने के साथ ही रोगों और कीड़ों को भी आमन्त्रण देता है।
खाद व उर्वरकों की अहम भूमिका
मौसम-की मार को सहने में फसल को दिए जाने वाले पोषण यानी खाद व उर्वरकों की भी एक अहम भूमिका है। पोषण विज्ञानी डॉ. काशीनाथ तिवारी के अनुसार इसमें पोटाश का दखल सबसे ज्यादा है। इस बार की आपदा के दौरान देखा गया कि गेहूँ के जिन खेतों को पोटाश की उचित मात्रा के साथ सन्तुलित उर्वरक दिया गया था, उनमें फसल खड़ी रही जबकि बिना पोटाश वाले खेतों में पौधे गिर गए। दरअसल, आजकल किसान यूरिया और डीएपी उर्वरकों का ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि पोटाश को काफी हद तक उपेक्षित कर दिया गया है। इससे खेतों में पोटाश की कमी हो गई है। पोटाश एक ऐसा पोषक तत्व है, जो फसलों की प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाता है, जिससे उनकी नमी, सूखा आदि प्राकृतिक तनावों को सहने की क्षमता बढ़ जाती है। पोटाश द्वारा पौधों को पाला सहने की सामर्थ्य भी हासिल होती है। इसके अलावा, पोटाश की मौजूदगी से फसल की गुणवत्ता भी बढ़ती है। अनाज वाली फसलों में दाने मोटे बनते हैं, जबकि बागवानी फसलों में फल बनने का प्रतिशत बढ़ जाता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि जिन बागों में पोटाश की उचित मात्रा मौजूद है, वहाँ बेमौसमी बारिश के बावजूद आम का फल बनने की दर में कोई खास परिवर्तन नहीं होगा। सवाल है कि इन खूबियों के बावजूद किसानों द्वारा पोटाश की उपेक्षा क्यों की जाती है? पहला कारण यह है कि किसानों को अक्सर पोटाश के महत्व की पूरी जानकारी नहीं होती और दूसरा यह कि पोटाश की कमी का फसल की प्रारम्भिक अवस्था पर कोई विशेष असर नहीं होता। इससे किसान पोटाश पर खर्च करने के महत्व को भली-भाँती नहीं पहचानता। बेमौसमी बारिश के बाद हवा में नमी बढ़ जाने के कारण जल्दी ही फसलों को रोगों व कीड़ों का प्रकोप होने की आशंका है। जरूरत इस बात की है कि किसानों के बीच पोटाश के महत्व और उपयोग को बढ़ावा देने के लिए जरूरी प्रयास किए जाएँ।
हैदराबाद स्थित केन्द्रीय बारानी कृषि अनुसन्धान संस्थान ने विभिन्न राज्यों के लिए बेमौसमी बारिश के बाद फसल की देखभाल सम्बन्धी सलाह जारी की है। इसे प्रचार व प्रसार माध्यमों द्वारा प्रसारित किया जा रहा है, तथा परिषद की वेबसाइट पर भी देखा जा सकता है। केन्द्र सरकार के कृषि मन्त्रालय तथा राज्यों के कृषि विभागों द्वारा विभिन्न फसलों के लिए बीमा योजनाएँ चलाई जा रही हैं। इनकी अपनी खूबियाँ और खामियाँ हो सकती हैं, परन्तु प्रचार-प्रसार के माध्यमों द्वारा किसानों को इन योजनाओं तथा इनके लाभों से परिचित कराने की जरूरत है, ताकि किसान मौसमी आपदाओं के बावजूद अपनी आमदनी सुरक्षित रख सकें। इसी प्रकार, फसलों की जलवायु परिवर्तन सहने वाली किस्मों, उपयुक्त कृषि प्रणालियों तथा फसल विविधीकरण सम्बन्धी जानकारी के अधिक प्रसार की आवश्यकता भी है। मौसमी आपदाओं से किसानों की आमदानी और आजीविका को सुरक्षित बनाने के लिए उन्हें वैज्ञानिक व तकनीकी रूप से सक्षमता प्रदान करना कृषि क्षेत्र की प्राथमिकता होनी चाहिए।
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