आई बरखा बहार

छह ऋतुओं का देश है भारत। प्रत्येक ऋतु का अपना अलग ही सौंदर्य है, उसकी अपनी प्राकृतिक पहचान है जिससे प्रभावित होकर कवियों ने अनेक छंद रचे तो चित्रकारों एवं संगीतकारों की भी सदैव प्रेरणा स्त्रोत रही है। छह ऋतुओं के अंतर्गत जो ऋतुएं प्रकृति में स्पष्ट परिवर्तन लातीं है तथा जिनके आगमन से जनमानस आनंदातिरेक के कारण फाग तथा कजरी–जैसे गीत प्रकारों को शब्द–बद्ध एवं स्वरबद्ध करता है, वह हैं – वसंत तथा वर्षा ऋतु।

माघ तथा पौष की कड़कती ठंड के बाद फाल्गुन मास के साथ छायी मौसम की हलकी वासंती गुनगुनाहट हृदय को आनंदित कर देती है। कोयल की मधुर कूक, पुुष्पों पर झूमते भ्रमर, लाल–पीले टेसू तथा सरसों के फूल – और तभी रचना होती है अलमस्त फागों की तथा कलाकार हृदय इस वासंती वातावरण को चित्रांकित करता है 'राग वसंत' तथा 'रागिनी वासंती' अथवा 'वासंतिकी' के रूप में।

धीरे–धीरे यही मनमोहक ऋतु अपने वासंती रूप को त्यागकर जब ग्रीष्म की ओर बढ़ने लगती है तब सर्वत्र शुष्कता छा जाती है। नदी इत्यादि सभी जल–स्त्रोत जल–विहीन होने लगते है, प्यासा जन–जीवन, सूखे वृक्ष में भी छाया तलाशते पशु–पक्षी, जल के अभाव एवं ग्रीष्म के ऊष्णतायुक्त वातावरण के कारण कुम्हालाये पेड़–पौधेॐ प्यास से तृषित चातक पक्षी आकाश की ओर उन्मुख होकर जैसे आकाश से जल की याचना करता है। ग्रीष्म की जलविहीन शुष्क ऋतु में भी कलाकार की रचनाधर्मिता जागृत रहती है। संगीतकार इस उष्ण वातावरण को राग दीपक के स्वरों में प्रदर्शित करता है तो चित्रकार रंग तथा तूलिका के माध्यम से राग दीपक को चित्र में साकार करता है।

परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। ग्रीष्म की तपन के पश्चात आकाश में छाने लगते हैं – श्वेत–श्याम बादलों के समूह तथा संदेश देते हैं, जन–जन में प्राणों का संचार करने वाली बर्षा ऋतु के आगमन का। आकाश में छायी श्यामल घटाओं तथा ठंडी–ठंडी बयार के साथ झूमती आती है जन–जन को रससिक्त करती, जीवन दायिनी वर्षा की प्रथम फुहार। वर्षा की सहभागिनी ग्रीष्म की उष्णता आकाश से जल बिंदुओं के रूप में पुनः धरती पर अवतरित होती है किंतु अपने नवीन मनमोहक रूप में। उष्ण वातावरण के कारण घिर आये मेघ तत्पश्चात जीवनदान करती वर्षा का प्रसंग एक किवदंती में प्राप्त होता है जिसके अनुसार बादशाह अकबर ने दरबार में गायक तानसेन से ग्रीष्म ऋतु का 'राग दीपक' सुनने का अनुरोध किया। तानसेन के स्वरों के साथ वातावरण में ऊष्णता व्याप्त होती गयी। सभी दरबारीगण तथा स्वयं तानसेन भी बढ़ती गरमी को सहन नहीं कर पा रहे थे। लगता था, जैसे सूर्य देव स्वयं धरती पर अवतरित होते जा रहे हैं। तभी कहीं दूर से राग मेघ के स्वरों के साथ मेघ को आमंत्रित किया जाने लगा। जल वर्षा के कारण ही गायक तानसेन की जीवन रक्षा हुई।

ऋतु परिवर्तन के साथ प्रकृति सदैव एक नया ही रूप धारण करती है। चारों ओर छायी हरियाली, सूखे वृक्षों पर नवीन पल्लव–ऐसा प्रतीत होता है जैसे धरा ने अपने जीर्ण–शीर्ण वस्त्रों का परित्याग कर नवीन हरित परिधान धारण किया हो। आकाश में मेघों की गड़गड़ाहट के साथ श्यामल घनघोर घटाओं में स्वर्णिम चपला दामिनी की थिरकन, मृदंग वादन की संगति में नृत्य का आभास देती है। मेघ गर्जना से उन्मादित मयूर अपने सतरंगी इंद्रधनुषीय पंखों को फैला कर नृत्य विभोर हो रहा है। श्यामवर्णी मेघ के मध्य उड़ती हुई . . . . बकुल पंक्तियां अत्यंत मनोहारी प्रतीत होती है। वर्षा में सूर्यदेव के दर्शन दुर्लभ हैं, लगता है ग्रीष्म ऋतु में कठिन परिश्रम के कारण सूर्यदेव श्यामल मेघों की ओट में विश्राम कर रहे हैं।
 

ऋतुओं का कलाओं पर प्रभाव


इस रसमयी ऋतु ने कलाकार हृदय को अत्यधिक रस विभोर किया है। साहित्य, संगीत एवं चित्रकला तीनों ही कलाओं की भावव्यंजना एक ही है किंतु अभिव्यक्ति के माध्यम भिन्न–भिन्न हैं। साहित्य शब्द प्रधान है, संगीत स्वर प्रधान है तथा चित्रकला रेखा एवं रंग प्रधान। बाह्य रूप से तीनों कलाएं अवश्य भिन्न प्रतीत होती हैं परंतु आंतरिक रूप में तीनों ही एक दूसरे की पूरक हैं। वर्षा के आनंदातिरेक को तीनों ही विधाओं में सुंदरता के साथ उजागर किया है।

 

 

साहित्य में


महाकवि कालिदास कृत 'ऋतु संहारम्' ऋतु वर्णन पर ही आधारित है। द्वितीय सर्ग वर्षा ऋतु का है। सर्ग के प्रथम श्लोक में नायक–नायिका से परम सुहावनी वर्षा ऋतु के आगमन का वर्णन करते हुए कहा है कि प्रिये जल बिंदुओं से पूर्ण, जलधर स्वरूप, मस्त हाथियों के समान रूप वाला, विद्युत रूपी झंडे सहित, वज्र की ध्वनि को भी मंद करनेवाला कामीजन को प्यारा, राजा के समान विपुल करता हुआ वर्षाकाल आ गया है।

'मेघदूतम्' कालिदास की वियोग श्रृंगार प्रधान रचना है। शापित यक्ष अपनी विरह व्यथा का संदेश अपनी प्रिया तक पहुंचाने के लिए वर्षा काल के मेघ से ही याचना करता है। पूर्व मेघ में यक्ष उज्जयिनी नगरी में स्थित महाकाल के मंदिर में संध्या समय तक रूके रहने का आग्रह मेघ से करता है, जिससे वह अपनी गर्जना द्वारा सायंकालीन शिव की आरती में पटह ध्वनि का कार्य संपन्न कर महाकाल के प्रसाद का संपूर्ण फल प्राप्त कर सके।

एक अन्य श्लोक में कवि ने कंदराओं से प्रतिध्वनित मेघ–गर्जना की तुलना मुरज ध्वनि से की है। यक्ष मेघ से कहता है कि जहां बांसों के छिद्रों में वायु भर जाने के कारण सुषिर वाद्य के रूप में मधुर शब्द हो रहा है, किन्नरियां त्रिपुर विजय के गीत गा रही हैं, अब वहीं यदि मेघ गर्जना करे तो कंदराओं से प्रतिध्वनित होकर छायी मेघ गर्जना मृदंग ध्वनि के समान प्रतीत होगी और इस प्रकार भगवान शिव के तांडव नृत्य हेतु गीत तथा वाद्य की संगति हो जाएगीं।

'उत्तर मेघ' में यक्ष द्वारा मेघ तथा अलकापुरी की समानता का प्रसंग है। यक्ष मेघ से कहता है कि जिस प्रकार उसमें ह्यमेघ मेंहृ बिजली की चंचलता है उसी प्रकार अलकापुरी में रमणियों की चेष्टाएं ह्यहाव–भावहृ हैं यदि उसमें इंद्र–धनुष है तो अलकापुरी में चित्रमय प्रासाद है, यदि मेघ स्निग्ध गंभीर घोष करता है तो वहां भी मृदंग निनाद व्याप्त हैं, यदि वह जल से पूर्ण है वहां के फर्श भी मणिमय हैं, मेघ यदि ऊंचाई पर है तो अलकापुरी की अट्टालिकाएं भी गगनचुंबी हैं।

संगीतकला भी वर्षा के रस माधुर्य से अछूती नहीं है। लोक–गीतों में वर्षा संबंधी गीत कजरी के रूप में गाये जाते हैं। सावन–भादों के घने कजरारे बादल आकाश पर छा गये हैं लेकिन सजनी का साजन अभी तक नहीं आया –

बरखा आये गई मोरी गुइंया
सजना नाहीं आए ना


बरखा की बहार अब बीतने को हैं परंतु 'रसिया' ने अभी तक सुधि नहीं ली। बालों का गजरा मुरझाने लगा है, रास्ता देखते–देखते आंख का कजरा भी थक चला है लेकिन उस बेदर्दी ने तो पतिया तक नहीं पठाई है। 'उसके' बिना तो सावन की बदरिया भी नहीं सुहाती, बिजुरी की चमक जैसे डसने लगती है –

बीते बरखा बहार, सुधि लीन्ही न हमार
कैसे बेदरदी से नेहा लगाए रसिया
मोहे सावन की बदरिया न भाए रसिया
धिरे घोर घटवा झकझोर पुरवा
कतों बिजुरी चमक डस जाए रसिया
मुरझाए गजरा थक गइल कजरा
तबौ पतिया तलुक न पठाए रसिया


दूसरी ओर 'गोरी' सोलहों श्रृंगार के साथ आनंदित हो भीग रही है –

आई बरखा बहार पड़े बूंदनि फुहार
गोरी भीजत अंगनवा अरे सांवरिया
गोरी–गोरी बैयां पहने हरी–हरी चूड़ियां
आगे सोने के कंगनवा अरे सांवरिया
बालों में गजरवा सोहे नैनन बीच सजरा
माथे लाली रे टिकुलिया अरे सांवरिया


शास्त्रीय संगीत में छह ऋतुओं के साथ छह रागों का संबंध स्थापित किया गया है। वर्षा के आनंद को अपनी स्वरलहरियों द्वारा और अधिक प्रभावोत्पादक बनानेवाला राग 'मेघ' है जिसका वर्णन मल्लार या मेघ मल्लार के रूप में भी प्राप्त होता है। राग मेघ को जलधर अर्थात जल को धारण करनेवाला भी कहा गया है। राग मेघ मल्लार के अतिरिक्त मियां मल्लार, गौड़ मल्लार, सूरदासी मल्लार, रामदासी मल्लार इत्यादि मल्लार के अन्य प्रकार भी हैं। स्वर रचना के साथ वर्षा कालीन रागों में निबद्ध बंदिशों की शब्द रचना भी ऋतु अनुकूल रहती है। सूरदासी मल्हार की यह शब्द रचना कितनी सटीक व मनोहारी है –

स्थाई – बरसन लागी बूंदरिया सावन की
अंतरा –घन पर घननन गरजत बरसत
दामिनी दमके जियरा लरजे
तान सुनत मन भावन की


संगीत शास्त्रों में राग–रागिनियों के दो रूप माने गये हैं – स्वरमय या नादमय रूप तथा भावमय रूप, जिसे राग की आत्मा भी कहा गया है। राग का भावमय रूप, राग विशेष से उत्पन्न भाव पर आधारित होकर, मानवीय रूप में कल्पित है। राग–रागनियों के इन्हीं मानवीय रूपों को श्लोक बद्ध किया गया। राग मेघ को नादमय रूप के द्वारा जहां संगीतकारों ने साकार किया वहीं श्लोकों के आधार पर वर्णित भावमय दैविक रूप का अंकन चित्रकारों ने किया। संगीतकार वर्षा को स्वर के माध्यम से साकार करता है तो चित्रकार रंग तथा तूलिका के माध्यम से उसे रूपायित करता है।

राजपूत चित्रकला में जिस प्रकार राग–रागिनियों का अंकन 'रागमाला' चित्रों में हैं, उसी प्रकार 'बारहमासा' चित्र श्रृंखला में छह ऋतुओं की सुंदर भावाभिव्यक्ति है। बारहमासा चित्रों में भी सर्वाधिक आकर्षित करते हैं फाल्गुन तथा सावन–भादों मास के चित्र। चित्रकार जहां फागुन का चित्रण 'होली' तथा 'वसंत' के रूप में लाल–पीले जैसे श्रृंगारिक रंगों के माध्यम से करता है, वहीं सावन–भादों का अंकन हरे–भरे वातावरण, हर्षित जन जीवन तथा घने श्यामल मेघों के साथ वर्षा के रूप में करता है। कांगड़ा शैली के चित्रों में कलाकार ने वर्षा के उन्मादित वातावरण को रूपबद्ध किया है।

प्यासे चातक के साथ जन–जन को जीवन दान करती आ गयी है – ऋतुओं की रानी, रसभीनी–वर्षा ऋतु।

 

 

 

 

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