अहिंसक आंदोलन की आवाज और कान पर रखे हाथ

राजघाट से आरंभ हुई यह जन विकास यात्रा अद्भुत रही है। यात्रा में कम से कम 700 महिलाएं रवाना हुई। जिनकी संख्या अलीराजपुर में जाकर हजार से अधिक हो गई। इन महिलाओं में एक बड़ी तादाद में युवतियां थी, जो विशेषतः आदिवासी, बड़ी तादाद में किसान और आदिवासी थे और जोशीले युवक थे। अपनी जरूरत का आटा, दाल बिस्तर आदि सब लोग अपने-अपने साथ में लाए थे। घाटी के बाहर के समर्थित दलों के युवजन जरूर अपना आटा-दाल साथ में नहीं लाए, उनकी व्यवस्था घाटी के लोगों के साथ होती है। “हम गुजरात के विरोधी नहीं विनाश के विरोधी हैं”- यह नारा लगाते हुए जब सत्याग्रही जत्थे अपने हाथ बांधकर गुजरात की सीमा में प्रवेश करते हैं, तब शंख-ध्वनि और ढोल की जोश भरी आवाजों के साथ जो नाजारा बन रहा है, वह अद्वितीय है। जहां तक कार्यकर्ताओं को जोश और जन विकास संघर्ष यात्रा के उत्साह का संबंध है, यह माहौल आजादी की लड़ाई की याद दिला रहा है। ‘आजादी’ के लिए जो समर्पण था, वह ‘समता’ या ‘बराबरी’ के लिए भी पैदा हो सकता है। उसका उदाहरण है यह संघर्ष यात्रा, जो बड़वानी के राजघाट से 25 दिसंबर को रवाना हुई थी, जिसके पांच जत्थे जिनमें एक जत्था केवल महिलाओं का था, इस लेख के लिखने तक गुजरात की सीमा में प्रवेश कर चुके हैं तथा अन्य चार हजार लोग होड़ की मुद्रा में मध्य प्रदेश और गुजरात की सीमा पर डेरा डालकर बैठ गए हैं कि उन्हें अंदर घुसने की इजाजत दी जाए। संचालन समिति अभी केवल तीस से चालीस लोगों के जत्थे को ही स्वीकृति दे रही है।

लेख लिखते हुए कुछ सत्याग्रहियों से खबर मिली कि उन्हें जबरदस्ती जंगल में उतारा जा रहा है। उनके पास न खाना था और न ही बिस्तर व रात का समय था। अड़ जाने पर दाहोद छोड़ा गया। ऐसे ही कुछ और जत्थे पकड़े गए हैं, उनके साथ क्या सुलूक किया गया, अभी पता नहीं चला है। यह भी नहीं मालूम हो सका कि वे कहां हैं?

खबर मिली की गुजरात पुलिस ने सत्याग्रहियों की पिटाई की, कुछ महिला कार्यकर्ताओं को भी पुरुष पुलिस द्वारा पीटा गया और दुर्व्यवहार किया गया। बाबा आमटे ने इसके विरोध में गुजरात की सीमा में धरना दे दिया।

सत्याग्रह, सत्याग्रही जत्थे, आंदोलन अहिंसक संघर्ष ये सब शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं। इसलिए यदि यह कहा जाए कि यह यात्रा मौजूदा, घृणा और संकीर्ण स्वार्थों के वातावरण के बीच अहिंसा, प्रेम और व्यापक उद्देश्यों को हासिल करने के प्रयास में एक अद्वितीय उदाहरण है, तो उन लोगों को यह समझने में बड़ी कठिनाई होगी, जो म.प्र. और गुजरात की सीमा पर हो रहे घटनाओं से परिचित नहीं है।

गुजरात के अधिकारी जन विकास यात्रियों से कह रहे हैं कि सरदार सरोवर पर काम रोकने की मांग को लेकर गुजरात की जनता में बड़ा रोष है। अधिकारियों का कहना है कि जनआक्रोश के कारण हिंसा हो सकती है जिसे वे रोक पाने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं सत्याग्रही यह जानते हैं कि जो लोग गुजरात की सीमा पर इकट्ठा किए गए हैं, वे वास्तव में गुजरात के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, लेकिन सत्याग्रही एक ओर तो इनसे भी टकराना नहीं चाहते, क्योंकि सरकार इस टकराहट को बहाना बनाकर यह कहानी गढ़ना चाहती है कि ‘यह तो लोगों को टकराहट है’, दूसरी ओर वे अपने कदम भी पीछे नहीं हटाना चाहते। इसलिए वे संभावित हिंसा के मैदान में हाथ बांधकर एक के बाद एक उतर रहे हैं। क्या गांधी की अहिंसक शक्ति में अभी भी लौ बाकी है, इसका फैसला करने जा रहे हैं ये समर्पित जत्थे, उस प्राप्त में जिसने गांधीजी को जन्म दिया था।

राजघाट से आरंभ हुई यह जन विकास यात्रा अद्भुत रही है। यात्रा में कम से कम 700 महिलाएं रवाना हुई। जिनकी संख्या अलीराजपुर में जाकर हजार से अधिक हो गई। इन महिलाओं में एक बड़ी तादाद में युवतियां थी, जो विशेषतः आदिवासी, बड़ी तादाद में किसान और आदिवासी थे और जोशीले युवक थे। अपनी जरूरत का आटा, दाल बिस्तर आदि सब लोग अपने-अपने साथ में लाए थे। घाटी के बाहर के समर्थित दलों के युवजन जरूर अपना आटा-दाल साथ में नहीं लाए, उनकी व्यवस्था घाटी के लोगों के साथ होती है। यह यात्रा पैदल चलती है-नाचते-गाते और ढोल बजाते। जहां पड़ाव होता है, वहां भी ऐसा क्रांतिमय वातावरण होता है कि जिस किसी ने भी यह यात्रा देखी है वह रोमांचित और पुलकित हो उठा है। दिल्ली से ‘निशांत-मंच’ आया था। उसके प्रेरक गीतों और नुक्कड़ नाटकों ने इस माहौल में चार चांद लगा दिए। ‘ओज’ और ‘रस’ का जो अनुकरणीय मिश्रण इस यात्रा में हुआ है, उसके कारण यह कहना मुश्किल है कि ओज लोगों को बांधे हुए है या रस। जो भी हो, लेकिन यह एक ऐतिहासिक घटना है कि इस माह के शुरू होते ही जो कड़ाके की सर्दी पड़ी है, उससे किंचित मात्र भी विचलित हुए बिना बूढ़े और बच्चे भी खुले मैदान में ठिठुरती हुई रातें बिता रहे हैं, इस संकल्प के साथ कि यदि कई महीने भी बिताना पड़ें, तो बिता लेंगे। कई ने अपना संपूर्ण जीवन ही इस संघर्ष में कुर्बान कर देने का तय कर लिया है। मेधा पाटकर तो घाटी की देवी बन गई हैं और बाबा आमटे जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त समाजसेवी ने इस संघर्ष के लिए अपनी जान अर्पित कर देने का फैसला कर लिया है। लोग जानते हैं कि बाबा कोई राजनीतिज्ञ नहीं हैं। वे कठोर संकल्प वाले व्यक्ति हैं। स्थिति नाजुक न हो जाए, इसके पहले ही बड़ी गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है।

लेकिन गुजरात ने नेतृत्व के विचित्र राह पकड़ी है। सरदार सरोवर के समर्थन में प्रचार करने का उनका अधिकार है। लेकिन लोगों को इकट्ठा करके एक-दूसरे समूह को रोकने का प्रयास क्या लोकतांत्रिक है? आश्चर्य यह है कि चुन्नीबाई वैद्य और बाबूभाई जैसे गांधीवादी लोग इसका समर्थन कर रहे हैं। किसी भी सवाल पर औद्योगिक और बड़े ठेकेदारों और सरमायेदारों की लॉबी चाहे तो बड़ी भीड़ खड़ी कर सकती है, तब फिर सच्चे गांधीवादियों का क्या फर्ज है?

क्या उन्हें पुलिस से नहीं कहना चाहिए कि जन विकास यात्रा के नागरिक अधिकार सुरक्षित रहें। सरकार को यदि बांध पर कोई खतरा दिखाई देता है, तो पुलिस कानून के अनुसार उसका प्रबंध करे, लेकिन एक समूह को सार्वजनिक सड़क पर जमा होने की इजाजत देकर और अन्य समूह को वहां से न गुजरने देकर क्या कानून और व्यवस्था का मखौल नहीं बनाया जा रहा है?

इतना ही नहीं, इस यात्रा का मुकाबला करने के प्रयासों के संबंध में पुलिस, सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं के नाम पर जो कुछ उजागर हुआ है, वह चिंतनीय है। अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयुक्त के द्वारा छह सदस्यों का एक प्रक्षक दल जन विकास यात्रा और गुजरात की शांतियात्रा की संभावित टकराहट की रपट लेने के लिए सीमा पर आया था। श्री पीयूष किर्की सांसद) के नेतृत्व में आए इस दल के अन्य सदस्य थे- डॉ. विनथन, स्वामी मुक्तानंद, लालशंकर पार्गी, बाबा पन्सारे और सत्या। इस दल के सदस्यों ने भरी सभा में यह बतलाया कि उनकी जांच-परख के अनुसार जो भीड़ जुटाई गई थी, वह जा चुकी है और अब जो हजार-पांच सौ की भीड़ रहती है, उनमें अधिकांश होमगार्ड के जवान हैं, जो सादे कपड़ों में मौजूद हैं। स्कूल के लड़के और लड़कियां भी भीड़ बढ़ाने भेजे जा रहे हैं। यह बात तो अखबारों से ही विदित हो गई है कि जहां जन विकास यात्रा में लोग अपना बिस्तर और खाना खुद लाए हैं, वहां शांति यात्रा में आने के लिए मुफ्त मोटर की व्यवस्था है, रजाई-गद्दे हैं और मुफ्त भोजनशाला है। विज्ञापन पर लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। श्री चिमनभाई को कम-से-कम इस बात को लिए तो धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने धनकुबेरों द्वारा आयोजित और गरीबों द्वारा आयोजित रैलियों को आमने-सामने करके जन विकास की अवधारणा को अधिक स्पष्ट करने का काम किया है।

सरकार की ओर से बार-बार यह कहा जाता है कि इस आंदोलन में बाहरी लोगों का क्या स्वार्थ है? जो राजनेता कुर्सी को ही राजनीति समझते हैं, उनकी समझ से यह बात परे हैं कि वे यह जान सके कि ऐसे भी युवजन होते हैं, जो विचार के लिए समर्पित होना जानते हैं। अपने ही देश के नौजवानों को बाहरी कहने वाले राजनेताओं की समझ पर तरस ही खाया जा सकता है, लेकिन इससे यह भी साबित होता है कि वे जनविकास आंदोलन की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो गए हैं।यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि गुजरात के कुछ समाचार पत्र भी भ्रमपूर्ण खबरें दे रहे हैं। जन विकास यात्रा को युद्ध के लिए आतुर फौज के रूप में निरुपित किया गया। म.प्र. के एक समाचार पत्र ने भी अपने संपादकीय में गुजरात के नेतृत्व को कोसते हुए बाबा आमटे पर भी टिप्पणी कर दी कि उनकी यात्रा में आदिवासी तीर कमान और गोफन लेकर चल रहे हैं, जबकि यह असत्य है। स्वामी अग्निवेश के बारे में लिखा गया है कि वे गुप्त रूप से बांध पर पहुंच गए हैं। बाबा आमटे और मेधा पाटकर में झगड़ा हो गया या मेध यात्रा छोड़कर चली गई हैं। एक अखबार ने तो हद कर दी, जब उसने यह छापा कि बाबा आमटे ने अपनी यात्रा में 25 रु. रोज और शराब का लालच देकर लोगों को जमा किया है। इस तरह की हीन हरकतों का क्या अर्थ है?

लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह यात्रा सफल होगी? विकास की जिस वैकल्पिक धारणा को लेकर यह आंदोलन चल रहा है, उसके लिए मुकम्मिल वातावरण अभी नहीं बना है, तो सफलता कैसे मिलेगी? सरदार सरोवर बनाने पर सरकार तो तुली हुई है, तब फिर आंदोलन का क्या होगा?

पहली बात तो यह है कि नवजागरण को लिए चलाया जाने वाला कोई भी आंदोलन असफल नहीं होता। इस आंदोलन में यात्रा के दौरान किसानों और आदिवासियों में जो समीपता आई है, वह अद्वितीय है। एक बड़ी तादाद में महिलाएं साथ में चल रही हैं, खाना खा रही हैं, साथ में नाच रही हैं, क्रांतिकारी गीत गा रही हैं, जेल जा रही हैं। बाबा आमटे के शब्दों में “यह नारीमुक्ति आंदोलन है।” कई रुढ़ियां इस यात्रा के दौरान टूट रही है। समर्थित दलों के जो युवक और युवतियां यात्रा से जुड़े हैं, उनके हौसले और बुलंद हुए हैं और उनकी समझ और संकल्प बढ़ा है।

सरकार की ओर से बार-बार यह कहा जाता है कि इस आंदोलन में बाहरी लोगों का क्या स्वार्थ है? जो राजनेता कुर्सी को ही राजनीति समझते हैं, उनकी समझ से यह बात परे हैं कि वे यह जान सके कि ऐसे भी युवजन होते हैं, जो विचार के लिए समर्पित होना जानते हैं। अपने ही देश के नौजवानों को बाहरी कहने वाले राजनेताओं की समझ पर तरस ही खाया जा सकता है, लेकिन इससे यह भी साबित होता है कि वे जनविकास आंदोलन की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो गए हैं।

सरकार और व्यवस्था की घबराहट का एक और उदाहरण है- यह आरोप कि पर्यावरणवादियों को विदेशी मदद मिलती है। गुजरात की सीमा पर एक बड़ा बोर्ड टांगा गया है, उस पर लिखा है “पर्यावरणवादियों? ये विदेशी दोस्त क्यों? क्या धन के लिए? क्या प्रसिद्धि के लिए?”

मेधा पाटकर ने तो कई बार ऐलान किया है कि यदि विदेशी मदद है, तो सरकार साबित क्यों नहीं करती? यह बात कितनी विचित्र है कि जो सरकारें बिना विदेशी मदद के सरदार और नर्मदा सागर बना ही नहीं सकती और बार-बार विदेशी मदद की ओर हाथ फैला रही है, वे ही यह आरोप लगाती है। क्या वे इतनी कमजोर हो गई है कि उनके लिए यह एक तिनके का सहारा बचा है?

इस जन विकास यात्रा में ‘फ्रेंड्स ऑफ दि अर्थ जापान’ का एक दल शरीक हुआ। नार्वे हॉलैंड, बेल्जियम और यू.एस.ए. के विद्यार्थी भी शरीक हुए। तथ्य यह है कि पर्यावरण और विकास की पद्धति का मुद्दा एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन गया है। चूंकि यह सवाल समस्त मानव जाति के अस्तित्व से जुड़ा हुआ है और नर्मदा घाटी योजना दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे अधिक विध्वंस करने वाली योजना है, इसीलिए भोपाल गैस कांड, चेरनोबिल आदि बड़ी दुर्घटनाओं में दिखाई गई दिलचस्पी की तरह नर्मदा योजना में दुनिया भर के पर्यावरणवादी दिलचस्पी दिखा रहे हैं।

जैसा कि इस यात्रा के नामकरण से ही ज्ञात होता है कि यह आंदोलन विकास की वैकल्पिक पद्धति के लिए है। ऐसी पद्धति जो प्राकृतिक संसाधनों को बचाते हुए लगातार चल सके। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि आंदोलनकारी निरे आदर्शवादी है और उनके पास व्यवहारिक दृष्टिकोण नहीं है। सरदार सरोवर की लड़ाई भी जन विकास की बड़ी लड़ाई का एक मोर्चा है। इस मोर्चे पर भी लड़ाई लड़ते हुए हमेशा यही कहा गया है कि हम सरदार सरोवर पर पुनर्विचार की माग करते हैं लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री बात नहीं करना चाहते। वे कहते हैं कि सरदार सरोवर का काम एक दिन भी नहीं रुकेगा।

आंदोलन के नेताओं का कहना है कि काम चाहे जारी रहे, लेकिन ऐसे काम जिन्हें वापस लौटाना संभव न हो, तब तक स्थगित रखा जाए, जब तक कि चर्चा जारी रहे। आंदोलनकारियों का कहना है कि खिर-बेड पर दीवाल उठाने, विस्थापितों को हटाने और जंगल की कटाई का काम स्थगति रखा जाए। दुर्भाग्य से गुजरात का नेतृत्व व्यापक दृष्टिकोण से नहीं देख पा रहा है।

देशभर के चिंतनशील लोगों और संगठनों को तथा देश की संसद को उपरोक्त मसले पर विचार करना चाहिए। बाबा आमटे और मेधा पाटकर के नेतृत्व में एक अभूतपूर्व अहिंसक सत्याग्रह चल रहा है। गुजरात की सरकार को इस मसले को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए।

आज जब दुनिया भर में गांधी की विकास-पद्धति की और आकर्षण बढ़ रहा है, नर्मदा घाटी की लड़ाई इसका प्रतीक बन गई है, तब यदि गुजरात के गांधीवासी चुप रहे या पश्चिमी अर्थतंत्र के साथ जुड़े रहे तो इसे इतिहास कदापि माफ नहीं करेगा।

साभार-नई दुनिया, इंदौर, प्रस्तुत लेख 03 फरवरी 1995 में छपी स्व. ओमप्रकाश रावल स्मृति निधि पुस्तक से

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