तालाब का ढलान गऊ घाट, पणयार घाट की ओर रखा जाता था, ताकि पशु-पक्षी आसानी से पानी पी सकें व गन्दगी आगार के केन्द्र की तरफ ना आये। यही नहीं, खुदाई में कुछ गहरे खड्डे बीच में छोड़े जाते थे जिनमें पानी स्वच्छ रहता था। इन्हें खाड कहा जाता था। हर्षोलाव, सागर, संसोलाव सहित नगर के प्रमुख तालाबों में इसे देखा जा सकता है। लेकिन तलाई की ढलान हमेशा केन्द्र में रखते थे क्योंकि अमूमन तलाई का पानी पीने के काम आता था। साथ ही तलाई सूखने की प्रक्रिया होती रहती है जिसे घड़े से जल भरने की प्रक्रिया में देखा जा सकता है।
अब एक कौतूहल हमारे मन में अवश्य ही उठ रहा होगा कि आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व जब विज्ञान आज की सी अपनी प्रचण्ड शक्ति से युक्त नहीं था तब समाज ने तालाब बनने की कौन सी विधियाँ विकसित कर रखी थीं? किस प्रकार भूमि-चयन होता, कैसे भूमि की पात्रता का परीक्षण होता, तालाब बनाते वक्त किन-किन बातों का ध्यान रखना होता आदि ऐसे अनेकानेक प्रश्न आज भी हमारी जिज्ञासा के केन्द्र में हैं।पाठकवृन्द, इसका ध्यान रहे कि उस समय के अविकसित समाज ने अपनी एक विकसित व्यवस्था इस सम्बन्ध में गहन विचार-विमर्श एवं पीढ़ियों के अनुभवों के द्वारा प्राप्त की थी। इसे संजोए रखने के कारण ही तालाब-निर्माण में वे सभी कठिनाइयाँ अव्वल तो आती नहीं थीं, जो हमारी जिज्ञासा के केन्द्र में हैं, यदि आ जाती तो उनका एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त अनुभवजनित निदान उपलब्ध था।
सबसे पहले तो प्रश्न उठता है कि तालाब हेतु भूमि-चयन के समय क्य-क्या तथ्य ध्यान में रखे जाएँ? उस समय जब कभी भी तालाब-निर्माण की बात आती तो एक तो यह देखा जाता था कि आबादी का ढलानी क्षेत्र कौन सा है। यथा बीकानेर का ढलानी क्षेत्र दक्षिण-पश्चिमी है। यह भी तथ्य है कि पृथ्वी का भी ढलान इसी दिशा में है।
इस क्षेत्र-विशेष के चयन के पीछे तर्क यह था कि शहर का सारा बरसाती पानी बहकर उस तरफ जाएगा। अतः हम देखते हैं कि बीकानेर के लगभग साठ से सत्तर प्रतिशत तल-तलाई दक्षिण-पश्चिम में ही हैं। हर्षोलाव, संसोलाव, हरोलाई, जतोलाई, नाथसागर, गोपतलाई, पीर की तलाई, महानन्द तलाई, धरनीधर तलाई, किशनानी व्यासों की तलाई, दर्जियों की तलाई, सुथारों की तलाई आदि और अन्यान्य बहुत सारी तलाइयाँ इसी क्षेत्र विशेष में हैं।
ऐसा नहीं था कि यह कोई हार्ड एंड फास्ट नियम था। लेकिन अधिकांशतः इसी का पालन किया गया है। वैसे पश्चिम-दक्षिण में रंगोलाई, बिन्नाणी तलाई, ब्रह्मसागर, गबोलाई, नृसिंहसागर आदि व पूर्वोत्तर में सागर के देवीकुण्ड, कल्याणसागर, पूर्व दिशा में शिवबाड़ी, पूर्व-दक्षिण में घड़सीसर आदि तालाबों को भी देखा जा सकता है।
तालाब का ढलान गऊ घाट, पणयार घाट की ओर रखा जाता था, ताकि पशु-पक्षी आसानी से पानी पी सकें व गन्दगी आगार के केन्द्र की तरफ ना आये। यही नहीं, खुदाई में कुछ गहरे खड्डे बीच में छोड़े जाते थे जिनमें पानी स्वच्छ रहता था। इन्हें खाड कहा जाता था। हर्षोलाव, सागर, संसोलाव सहित नगर के प्रमुख तालाबों में इसे देखा जा सकता है। लेकिन तलाई की ढलान हमेशा केन्द्र में रखते थे क्योंकि अमूमन तलाई का पानी पीने के काम आता था। साथ ही तलाई सूखने की प्रक्रिया होती रहती है जिसे घड़े से जल भरने की प्रक्रिया में देखा जा सकता है।
यह तो हुई ढलानी क्षेत्र की बात। अब नम्बर आता था आबादी से तालाब की दूरी का आबादी से तालाब प्रायः दूर बनाए जाते थे। इसका कारण था कि आबादी का अपशिष्ट पानी व पदार्थ उनमें न जाएँ। अतः इस हेतु प्रकृति की दृष्टि से स्वच्छ एवं सुरक्षित स्थान तय होता था। फिर आगोर के लिये जमीन है कि नहीं, इसे भी ध्यान में रखा जाता था। क्योंकि आगोर से ही तो पानी तालाब के आगार में आता था, अतः तालाब के आकारानुसार आगोर का चयन होता थ।
अब एक प्रश्न यह भी उठ सकता है कि अमुक तालाब अमुक स्थान पर ही क्यों? तो इसका उत्तर है पठार से पहले व खोलों के खत्म होने से आगे शुरू हुई जमीन, जहाँ बारिश के दिनों में पानी एकत्र रहता था, उसे तालाब की भूमि के रूप में चयनित करते थे। इतना होने के बाद धार्मिक वृत्ति के अनुसार दो नींवें खुदती और उनकी पूजा की जाती थी। एक, जो जहाँ आगोर आरम्भ होती है वहाँ, दूसरी तालाब के आगार के केन्द्र में। फिर चलता स्वयं सहायता समूह एवं श्रम विभाजन के आधार पर खुदाई का कार्य।
हाँ, यह अवश्य था कि खुदाई किस दिन, किस मुहूर्त व चौघड़िए में करें- उसकी सलाह पण्डितों से ली जाती। उनके द्वारा ग्रह-नक्षत्रों की गणित के बाद सुझाए गए समय में कार्य शुरू किया जाता। पं. मिहिरचन्द्र कृत विश्वकर्मा प्रकाश के अध्याय 8 में आय उल्लेख बताता है कि प्राचीन वास्तुशास्त्र में जलाशय प्रकरण का विशिष्ट महत्त्व था। उसमें आये वर्णनानुसार त्रिकोण, चतुष्कोण, वर्तुल आकार के तालाबों को श्रेष्ठ माना गया है।
रिक्ता तिथि को तालाब की खुदाई नहीं होती थी। साथ ही रविवार, मंगलवार व शनिवार को छोड़कर शेष दिन खुदाई के लिये शुभ माने गए हैं। इनके अलावा ज्योतिषी यह भी देखते थे कि तालाब की जमीन की कुण्डली में लग्न में चन्द्रमा जलराशि का यानी कर्क, मीन, वृश्चिक का हो या फिर चन्द्रमा पूर्णरूपेण लग्न में हो अथवा लग्न में गुरू, शुक्र, बुध हो तो श्रेष्ठ मुहूर्त माना जाता था।
इसके अलावा इसमें पद्म, धनुष, कलश आकार के तालाब शुभ बताए गए हैं, जबकि सर्प, ध्वजा आदि आकार के अपेक्षाकृत कम लाभ वाले व निन्दित भी बताए गए हैं। तालाब-निर्माण हेतु नक्षत्रों में क्रमशः तीनों उत्तरा, रोहिणी, धनिष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, पुष्य, मूल, मृगशिरा, रेवती, चित्रा को शुभ माना गया है। विश्वेश्वरी प्रसाद द्वारा सम्पादित वास्तुरत्नाकर में जलाशय प्रकरण के अन्तर्गत तडाग-चक्र द्वारा यह भी दर्शाया गया है कि अमुक-अमुक दिशा में बने जलाशय का फल क्या-क्या होगा?
इतना सारा विचार-विमर्श होने के बाद खुदाई से पूर्व एक और खास प्रक्रिया भी होती थी, वह थी मिट्टी व तल के परीक्षण की। इसमें मिट्टी की गुणवत्ता एवं तल के पक्का होने की जाँच होती थी।
आज की तरह प्रयोगशालाएँ तो थी नहीं और नही वैज्ञानिक यंत्र थे, लेकिन उनकी प्रक्रिया ऐसे किसी वैज्ञानिक कर्म से कम महत्त्व की नहीं थी वरन उसका परिणाम भी अधिक सुरक्षित एवं लाभकारी होता। जिस भूमि को तालाब हेतु चिन्हित किया जाता, उस पर पहले 15 से 20 फुट के चार-पाँच गड्ढे खोदे जाते और उनमें रस्सी के माध्यम से उतरते हुए देखा जाता कि मिट्टी कौन सी आ रही है।
अगर मिट्टी लाल व सफेद (सफेद को गुड़िया मिट्टी भी कहते हैं क्योंकि यह गुड़ की तरह खुरदरी किन्तु कच्ची होती है) आ जाती तो तला पक्का मना जाता। लेकिन अगर बजरी और छर्रा आ गया तो उस स्थान को बदलना पड़ता। फिर तालाब कहीं और बनाया जाता। क्योंकि छर्रा पानी को सोख लेता है, अतः छर्रे वाले तालाबों में पानी अधिक समय तक नहीं ठहरता।
इतना ही नहीं, केवल मिट्टी की जाँच से ही वे सन्तुष्ट नहीं होते वरन उन गड्ढों में पानी भरकर छोड़ दिया जाता और देखा जाता कि वह कितने समय में इसे सोखता है या कितने समय पानी उसमें भरा रहता है। फिर आगे बढ़ते उससे पहले अगर मिट्टी गुड़िया आ गई तो उसकी बेड देखते। अगर बेड यानी मिट्टी के परत की मोटाई कम होती और उसकी थोड़ी सी खुदाई के बाद बजरी आ जाती तो तलापक्का नहीं माना जाता। भूमि बदलने ही पड़ती।
जहाँ तक गुड़िया मिट्टी के बीकानेर क्षेत्र में पाये जाने की बात है यह मिट्टी इस क्षेत्र में सात से 10 फुट नीचे तक पाई जाती है। क्योंकि यह चिकनी होती है और रुका हुआ पानी 2 से 3 इंच किसी सूरत में नहीं जाता इसलिये अगर किसी तालाब का तला इस मिट्टी का निकल आता तो उसे ताम्बे का तला कहा जाता था।
शहर के जिन ताल-तलाइयों के बारे में या अभिलेखों में अक्सर यह जिक्र आता है कि अमुक तलाई का तला ताम्बे का था, तो वहाँ इसके मानी हैं कि उस तालाब या तलाई का तला सूंथा मिट्टी का है। उसे ही इस मुहावरे में ताम्बे का तला कहा गया है। सूंथा मिट्टी गुड़िया मिट्टी का ही एक अन्य रूप है, जो अपने विशिष्ट गुण के कारण इस अंचल में सूंथा मिट्टी के नाम से विख्यात है। सूंथ (सूंठ) हमारे यहाँ सूखी अदरक को भी कहते हैं। अदरक गीली हो तो अदरक ही कही जाती है, अन्यथा उसे सूंठ कहा जाता है।
जिस प्रकार सूखी अदरक में गाँठें होती हैं उसी प्रकार इसमें भी सूखी अदरक की तरह गाँठें होती हैं। इसलिये इसे सूंथा मिट्टी कहा जाता है। केवल गाँठ के होने से ही एक ही मिट्टी के दो भेद गुड़िया और सूंथा प्रचलन में आये। गुड़िया मिट्टी गुड़ की तरह होती है इसलिये इसे गुड़ीया मिट्टी कहा जाता है। कई बार खुदाई के दौरान बांबी, जिसमें सर्प रहता है, भी निकल आती। लोक में प्रचलित मान्यता थी कि अगर तालाब में बांबी निकल आई तो पानी वहाँ नहीं ठहरेगा क्योंकि फिर पानी सीधे पाताल में चला जाएगा।
अतः फिर शुरू होता एक आध्यात्मिक अनुष्ठान और वह करता लोक की समस्या का निदान। इस समस्या का निदान यह था कि जिस स्थान पर बांबी निकली हो, उस पर एक गोलाकार पाइया, जिस पर सर्प बने हों, रोप दिया जाता। इस पाइये पर चार देवी-देवता, जिनमें आगे गणेश जी, पीछे शिवजी, दाएँ हनुमान जी, बाएँ सती माता की टाँच कर बनाई मूर्तियाँ होती थीं। ऐसे पाइए प्रायः कुओं या अन्य भूजल स्रोत के आस-पास देखे जा सकते हैं। उनमें देवताओं की मूर्तियों की भिन्नता भी सम्भव है और उसकी पूजा-अनुष्ठान कर प्रार्थना की जाती कि तालाब में पानी अधिक समय तक ठहरे, साथ ही तालाब की सुरक्षा भी हो जाये।
बुजुर्ग कहते हैं जस्सोलाई तलाई में बांबी निकली थी। उसका प्रतीक पाइया आज भी घेरूलालजी के मन्दिर के आगे रोपा हुआ देखा जा सकता है। उसका चित्र यहाँ प्रस्तुत है। वृद्धजनों के मुताबिक सम्भवतः केवल जस्सोलाई के सम्बन्ध में ही बांबी प्रकरण देखा सुना था, शहर के किसी अन्य तालाब-तलाई के सम्बन्ध में नहीं। फिर आरम्भ होता खुदाई का अनवरत क्रम, जो जब तक कि तला पक्का नहीं जाता, जारी रहता। साथ ही जो मिट्टी खुदाई से निकलती थी उसी को तालाब के चारों ओर गोलाकार फेंका जाता। इसे पाल कहा जाता था।
बीच-बीच में पानी के आने का रास्ता भी छोड़ दिया जाता। गोलाकार होने के कारण मजबूती आ जाने से पाल कभी फटती नहीं थी। साथ ही पाल के ही एक किनारे आरम्भ होता नेष्टे का निर्माण। नेष्टा इसलिये बनाते थे कि अगर तालाब में पानी संग्रहण क्षमता से अधिक हो जाये तो वह बहकर दूसरी तरफ चला जाये और वहाँ भी उसका अनेक प्रकार से उपयोग हो जाये व तालाब के किनारों पर अतिरिक्त दबाव न बने। इस हेतु पाल का वह हिस्सा, जिस पर नेष्टा बनाया जाता था, उसे पाल के दूसरे किनारों की बनिस्बत थोड़ा नीचा लेकिन आगार की ऊपरी सतह के बराबर रखा जाता था। इससे पाल भी नहीं फटती। इसकी चिनाई पक्की की जाती थी।
कई बार खुदाई के दौरान ही बेरियाँ निकल आती थीं। बेरी तालाब की खुदाई में आये 20-25 फुट गहरे खड्डे को कहा जाता है। बीकानेर में केवल कल्याणसागर में 7 और देवीकुण्ड में एक बेरी थी। कल्याणसागर में दो बेरियों को तो आज भी देखा जा सकता है। इन बेरियों की खास बात यह थी कि इनमें पानी साल भर उपलब्ध रहता था।
साथ ही प्राकृतिक क्रिया के फलस्वरूप स्वतः ही फिल्टर भी होता रहता था। यह पानी बहुत ठंडा भी होता था। कालान्तर में लोगों ने दुर्घटना से बचने के लिये इन्हें ऊपर से कुएँ की सी शक्ल दे दी। इसी कारण गाँव के कई लोग इन्हें कुई भी कहते हैं। तालाब के आगार में पानी रहे या न रहे, लेकिन बेरी में पानी अवश्य ही रहता था और इसके पीछे लोकमान्यता यह थी कि भूजल निरन्तर इसमे आता रहता है, यानी इसका सम्बन्ध पाताल से मान लिया जाता था।
इसी तरह आगोर में जल स्वच्छ एवं पूरी मात्रा में आये, इस हेतु भी खोलो से जो पानी बहकर बाहलों में आता, उसमें मिट्टी डालकर पहले कृत्रिम ढूह बनाए जाते थे जिससे जल का वेग व मृदा का कटाव भी कम हो जाता था। साथ ही, मरे पुश-पक्षी आदि भी वहीं अटक जाते थे। यहाँ आगोर में एक विशेष प्रकार की वनस्पति भी उगाई जाती थी जो बहुत महीन काँटों वाली किन्तु गहरी जड़ों को लिये होती थी। इसे काँटी कहा जाता था।
आज भी संसोलाव, हर्षोलाव, सागर, शिवबाड़ी अन्यान्य तालाबों की आगोर में इसे देखा-परखा जा सकता है। इस काँटी की खासियत यह है कि यह बहकर आई मिट्टी को रोकती थी और छोटे-छोटे जीवाणु भी इसके काँटों अँट जाते थे। अतः इसे पार कर निकला पानी स्वच्छ होकर आगे बढ़ता था। यानी खोलों से बाहलों के बीच पानी पहुँचता तब तक सफाई का एक चरण पूरा हो जाता। दूसरे चरण में आगार से करीब 40 से 50 फीट की दूरी छोड़ते हुए आगोर में ही दो अथवा तीन स्टाप वाल्सनुमा दीवारें बनाई जाती, जिन्हें पैठ छोड़ना कहते थे। ये कच्ची होती थी। कालान्तर में ये पक्की बनाई गई। इन्हें बँधा भी कहते हैं जिनकी ऊँचाई करीब 3 से 4.5 फीट होती थी।
प्रथम चरण में साफ हुआ पानी अब क्रमशः प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय स्टापवाल्स को फाँदता हुआ आगार को ओर बढ़ता था। तीसरी और आगार के पास वाल दीवार पिछली दो दीवारों से अपेक्षाकृत चौड़ी होती थी क्योंकि आगोर से आते-आते आगार तक बाहला सँकरा हो जाता, पानी की गहराई भी बढ़ जाती थी और गति भी तीव्र हो जाया करती थी, अतः तीसरी दीवार चौड़ी व मजबूत होती थी। तीसरी दीवार के नीचे कई जगह नालियाँ निकाली जाती थीं।
संसोलाव, हर्षोलाव पर ये बँधे बने देखे जा सकते हैं। दीवारों के खत्म होते ही खाडिया बना होता था। यह खाडिया तीसरी दीवार के नजदीक में ही खास किस्म की गोलाई देकर बनाया जाता था, जिससे पानी का वेग तो कम होता ही था, साथ ही भँवर (पानी का गोलाकार घूमना) बनने से अपशिष्ट पदार्थ, जो मिट्टी के ढूहों व तीन दीवारों को फाँदकर यहाँ तक आ भी जाएँ तो वे खाडिए के तल में बैठ जाते थे। इस खाडिए से करीब 20 से 30 फुट की दूरी पर बड़े-बड़े हौद भी बने देखे जा सकते हैं। संसोलाव पर यह अब भी क्षत-विक्षत किन्तु देखने लायक अवस्था में है। हौद पक्के बनाए जाते थे एवं इनके तल के चारों ओर गोलाकार बाटिया बनाया जाता था ताकि मजबूती बनी रहे।
इतना ही नहीं, अगर फिर भी कोई अपशिष्ट पदार्थ खाडिया पार करके हौद तक आ जाता तो आगे न जाये, इस हेतु पक्का इन्तजाम किया जाता था। हौद से जो पानी तालाब के आगार में जाना है इस हेतु गोलाकार या अन्य शक्ल में रास्ते बनाए जाते जिन पर लोहे की जाली भी होती थी। अतः कोई अपशिष्ट पदार्थ या मृत पशु-पक्षी आदि इतनी बाधाएँ पार करता हुआ यहाँ आता तो अव्वल तो हौद के तल में बैठ जाता, अन्यथा जाली में अटक कर रह जाता।
इस तरह आगार में जो पानी पहुँचता वह एकदम निर्मल, स्वच्छ एवं सुरक्षित होता था। इस जाली लगे गेटनुमा ऊपरी हिस्से एवं नेष्टे का लेवल एक ही होता था, दिशा चाहे कोई भी हो। उस समय सारे कार्य को सम्पन्न करने हेतु साधन संसार-सागर के सारथियों के पास आज की भाँति नहीं होते थे वरन अल्प संसाधनों के रूप में गैंची, तगारी, फावड़ा, पंजी (दाँतेदार फावड़ा) ही काम में आते थे।
इन अल्प साधनों एवं शारीरिक परिश्रम से तैयार होती थी तत्कालीन समाज के तालाब की आगोर और उसका आगार। कई तालाबों में पानी आने की आगोर के किनारे पुलिए भी बनाए गए हैं जिसके नीचे से पानी बहकर सीधे आगार में आता था। आगोर में ही, किन्तु तालाब के घाट से कुछ दूरी पर अंगोलिए भी देखे जा सकते हैं। अंगोलिए पत्थर के होते थे। इन्हें पत्थर को काट कर टाँच कर बनाया जाता था। इन पर लोटा आदि रखने का स्थान भी बनाया हुआ देखा जा सकता है। मिट्टी आदि से नहाने वाले उस पर बैठकर बालटी के पानी से नहा सकते थे।
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