अध्याय एक आहर-पइन शंका समाधान

अध्याय एक आहर-पइन शंका समाधान
अध्याय एक आहर-पइन शंका समाधान

आहर-पइन पर चर्चा करने के पहले जरूरी है कि इसके बारे में बनी गलत धारणाओं एवं सच्चाई से भी रूबरू हुआ जाय। इसलिये मैं शुरू में ही कुछ ऐसी बातें कर रहा हूँ ताकि अगर मन में कोई दुविधा या शंका हो तो मिट जाये। आदमी के मन में शंका हो तो पहले उसका समाधान करना जरूरी होता है। किसानों के मन में उभरे सवालों एवं शंकाओं का समाधान जरूरी है। तभी महसूस होगा कि यह काम करना सही है और जरूरी भी, और फलाँ बात बेतुकी तथा बेकार है। आइए, ऐसी ही कुछ चर्चाओं, शंका समाधानों से हम भी परिचित होते हैं। विचारणीय विषय हैं-

शंका समाधान एक : बोरिंग / नलकूप या आहर-पइन सस्ता कौन?

दूसरे की बीवी हो या बेटा, उसकी लालच करने या उससे तुलना करके दुखी होने से अच्छा है कि दूर का ढोल सुनना बंद करके अपने हाल को समझें। सरकारी इंजीनियर एवं ठेकेदार जान-बूझकर गलत प्रचार करते रहते हैं कि आहर-पइन बेकार है; बोरिंग बनाओ, स्वावलंबी बनो। इसमें डीजल किसकी जेब से लगेगा? धान की खेती में चार-पाँच बार तक पटवन देना होता है। जितने का बाबू नहीं, उतने का झुनझुना। आहर-पइन से बिना पंप के ढाल आधारित मेलबानी पटवन होता है। इसकी व्यवस्था में मजदूरी भी कम लगती है। यहाँ-वहाँ पंपिंग सेट को ढोना भी नहीं पड़ता। जमीनी पानी की तुलना में ऊपरी पानी से पौधों को बहुत फायदा होता है। सतही जल में जैव कचरा-खाद भी रहता है। इससे जमीन की ऊर्वरा शक्ति बढ़ती है। पंप भी तो तभी न चलेंगे जब जमीन के भीतर जल स्तर (पानी का लेयर) ठीक रहेगा। आप किसान लोग लेयर भागने (नीचे जाने) की समस्या से अच्छी तरह परिचित हैं।

हम लोगों ने बहुत अच्छी तरह से कई पइनों पर हिसाब लगाया तो पाया कि सामान्य रखरखाव के लिए प्रति बीघा अधिकतम एक लीटर डीजल की कीमत के बराबर खर्च बैठता है और बड़े पैमाने की मरम्मत के लिए 3 लीटर की कीमत के बराबर। आप ही सोचिए, सस्ता कौन हुआ? अगर सरकारी सहयोग मिल जाये  तो खर्चा केवल एक लीटर का आता है। अगर पइन से सिंचाई में पानी के बँटवारे अर्थात भव (मुँह) बाँधने, खोलने का खर्च अतिरिक्त समझें तो पंपिग सेट लाने, ले जाने, चोरी जाने की समस्या ज्यादा खर्चीली, समय खाने वाली और जोखिम वाली है। पइन में निगरानी कम और मिल-बांटकर करनी पड़ती है लेकिन पंप के मामले में ज्यादा निगरानी रखनी होती है और बोझ एक-दो परिवारों पर ही आता है।

शंका समाधान दो : आगे कौन आए?

पहले तो जमींदार लोग गोआमी कराते थे और कभी-कभी जोर जर्बदस्ती भी होती थी। अब किसान लोग अँग्रेज और जमींदार दोनों से मुक्त हो गए हैं। हर आदमी अपना मालिक खुद है। इस प्रकार एक ओर तो हम आजादी का सुख भोगना चाहते है और दूसरी ओर यह भी चाहते हैं कि कोई दूसरा आदमी हमें डंडे से जानवर जैसा हाँके या कोई संत या मसीहा आए और हमारा काम वही कर दे। यह तो ईमानदारी नहीं हुई। आजाद और जिम्मेदार आदमी पहल भी खुद ही करता है। लोकतंत्र में जिम्मेदारी जब सबकी है, फायदा सभी उठा रहे हैं तो भार भी सबको लेना होगा। हाँ, पहल कोई भी कर सकता है। अगर कोई पहल करे तो, उसे जिम्मेदारी तो उसकी क्षमता के अनुसार ही देनी चाहिए और अपना कंधा भी लगाना चाहिए। इसी तरह की कई बातें और भी हैं। इन बातों पर साफ-सुथरी समझ बनानी चाहिए।

शंका समाधान तीन अधिकार और कर्त्तव्य

आहर-पइन एवं गोआम (उसकी रखरखाव एवं पानी के बँटवारे के लिए समुदायिक सहभागिता की परंपरा) नई बात नहीं है। आज भी लोग आहर-पइन से सिंचाई कर रहे हैं। गोआम के बारे में नये लोगों को लगता है कि यह ठीक नहीं है। सरकार को ही व्यवस्था एवं बँटवारे की जिम्मेवारी लेनी चाहिए और पूरा धन उसे ही खर्च करना चाहिये। परंतु इस मामले में वे भूल जाते हैं कि नहरों से सिंचाई पर शुल्क लगता है और उसकी दर भी सरकार ही तय करती है। आहर-पइन से सिंचाई पर तो शुल्क लगता ही नहीं और पानी का बँटवारा भी लोग परंपरानुसार आपस में ही करते हैं। यह परंपरा कोई गुप्त या रहस्यमय बात नहीं है। बाकायदा आबपाशी रजिस्टर में गाँवों के अधिकार एवं कर्त्तव्य वर्णित रहते हैं। आज किसान आहर-पइन से सिंचाई पर अपना आबपाशी का अधिकार तो मानते हैं पर कर्त्तव्य दूसरों के हवाले कर देना चाहते हैं, चाहे वह सरकार हो या गाँव का ही दूसरा व्यक्ति। यह तो सरासर बेईमानी है।

चाहे गाँव के रोजगार नौजवान हों या सरकार में बैठे कर्मचारी-अधिकारी, आधुनिक पढाई वाले लोगों में अपने मन से ही मान लिया है कि संपत्ति केवल दो ही प्रकार की ही होती है सरकारी या निजी। जबकि आज भी कई और तरह की संपत्ति होती है- जैसे, व्यक्ति की संपत्ति, परिवार की संपत्ति, जाति की संपत्ति, ट्रस्ट की संपत्ति आदि। तब गाँव की संपत्ति क्यों नहीं होगी? और जब रखरखाव की जिम्मेवारी के समय आहर-पइन गाँव की संपत्ति नहीं है तो उसके पानी का उपयोग करने के लिए कैसे गाँव या किसी किसान को मुफ्त में हक मिलेगा। आहर-पइन एवं उसमें बहने वाला पानी सामुदायिक संपत्ति है। कानून तो सरकार भी अगर इसका अधिग्रहण करे तो उसे मुआवजा देना होगा, पर मांगता ही कौन है?

शंका समाधान चार पानी कैसी संपत्ति है ?

अभी तक मोटे तौर पर हम चल एवं अंचल संपत्ति का बँटवारा जानते हैं जबकि नये जमाने में खाली जमीन, ज्ञान, तरंग आदि को भी संपत्ति माना जाने लगा है। पानी का स्वभाव चल संपत्ति वाला है। यह गाय-भैंस जैसा है। पानी स्वयं निर्जीव है, पर इसमें अनेक सूक्ष्म एवं घड़ियाल जैसे बड़े जानवर भी रह सकते हैं। आहर-पइन में आसमानी वर्षा से जल आता है। जंगल, पहाड़ या किसी पठार, ठाट जैसी ऊँची जगह या बहते हुए नाले या नदी से गुजरते हुए जल को आहर में संग्रह किया जाता है। आहर में इकट्ठा करने के लिए परंपरा से निर्धारित ऊपरी स्रोत के जल एवं आहर में संग्रहित जल, दोनों को लोग अपनी संपत्ति मानकर व्यवहार करते हैं।
आहर से पानी खेतों में जाता है और खेतों से बाहर निकलता हुआ नीचे की ओर बहता है। आहर का जमा पानी अगर किसी की संपत्ति है तो आहर-पइन टूटने पर उस पानी से होने वाली क्षति की जिम्मेवारी भी संपत्ति मानने वाले किसान को लेनी होगी। गाय हमारी, दूध निकालें हम, और फिर गाय को दूसरे का खेत चरने को छोड दें, यह न्यायपूर्ण नहीं है।

धार और निगार

पानी के सरंक्षण, भंडारण, वितरण और उपयोग के मुद्दे भारत में वैदिक काल से आज तक अनेक कारणों से विवाद में रहे हैं। वैदिक कथाओं के अतिरिक्त भगवान गौतम बुद्ध के गृहत्याग का मूल कारण बूढ़ा, बीमार और शव नहीं, उनके कुल शाक्य एवं पड़ोसी कोलिय के लोगों के बीच नदी के पानी के उपयोग को लेकर प्रतिवर्ष होने वाले युद्ध से भारी संख्या में नौजवानों की मौत होती थी जिसकी संख्या बढ़ ही रही थी। वे किसी को समझा नहीं पा रहे थे। जब उन्होंने स्वयं परिवार, गोत्र, एवं राज्य की सीमा की अपेक्षा विराट व्यक्त्तिव हासिल कर लिया, तब जाकर वह समाज को समझा सके। और उसमें भी अपने परिवार के सदस्यों को तो नहीं ही समझा सके, न अनुशासित कर सके। लेकिन मगध के लोगों ने इसे सुलझा लिया क्योंकि रहना भी साथ है और खेती भी करनी ही है।


दक्षिण बिहार में धार एवं निगार, दोनो शब्द व्यापक रूप से देहात में लोगों को मालूम हैं। पानी का अपना स्वभाव यात्री का है। वह रास्ता मिलते ही चल पड़ता है - गुरुत्वाकर्षण के बल पर समुद्र की ओर और केशिकाकर्षण, वाष्पीकरण, वायुमंडलीय दबाव आदि के बल पर आसमान की ओर, जमीन के अंदर के जलभंडारों से पेड़ की फुनगी की तरफ और समुद्र से हिमालय की ओर। पानी की बड़ी यात्रा जलचक्र कहलाती है समुद्र, बादल, पहाड़, नाले, नदी, और फिर समुद्र। इस बड़ी यात्रा के साथ-साथ पानी छोटी-छोटी यात्राएँ भी करता है। वाष्पीकरण, पेड़-पौधों, जीवों के शरीर के भीतर की यात्रा, आकाश में ओसकण बनने-बिगड़ने की यात्रा, भूमि की सतह एवं उसके भीतर जलभृतों की यात्रा, जमीन के भीतर-भीतर ही बहने वाली नदियों-नालों की यात्रा। ऐसी अनेक यात्राओं के द्वारा जल प्रकृति में जीवन को स्थिरता एवं गति, दोनो देता रहता है।

पानी के साथ मनुष्य का रिश्ता बड़ा विचित्र है। पानी सबको चाहिए और वह भी सीमित मात्रा में क्योंकि अधिक मात्रा में तो आदमी डूब जाता है।। इसके लिए पानी की धारा का उपयोग उसके सामर्थ्य की सीमा में होना जरूरी है। इसके साथ-साथ अधिक पानी एवं उपयोग किये गये पानी, दोनों का निकास भी जरूरी है। सभ्यता के विकास के क्रम में प्राकृतिक नियमों के अनुरूप चलने एवं वैकल्पिक व्यवस्था कर लेने की सुविधा ने मनुष्य को अहंकारी बनाया है। परिणामतः मानव कभी-कभी यह भी मानने लगता है कि वह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध जा रहा है।
धार अर्थात धारा, जो सहज ढाल पर बहेगी। जितनी अधिक वर्षा उतनी बडी धारा। जितनी अधिक ढाल, उतनी तेज रफ्तार। जहाँ ठहराव वहाँ जमीन और फसल के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया। वर्तमान दक्षिण बिहार में साल में 100 से 150 से. मी. वर्षा होती हो जो काफी है। दक्षिण से उत्तर-पूर्व की तरफ ढाल भी अच्छी है। पठार से मैदानी भाग की ओर जल-यात्रा पथ है। हाँ, यह औसत के हिसाब से या सीधी, समान ढाल नहीं है। पठार एवं पहाड़ी के नीचे मैदान हैं। यहां मुख्यतः धान की खेती होती है, जिसके लिए खेतों में लगातार पानी बहते रहना चाहिए। 'बहते रहना' सुनने में जितना सरल है, इसकी शर्तें उतनी ही कठिन हैं। वर्षा हर समय तो होती नहीं है। वह अपने मनमिजाज से होती है। तो जरूरी है कि खेत से ऊँची जगह पर जल का भंडार बनाया जाय और उसमें उससे भी ऊँची जगह से पानी लाया जाय, जैसे पहाड़ी, टीला, पठार या नदी के ऊपरी भाग आदि से।

यह आदि भी कम मजेदार नहीं है जिसमें बाढ़ के समय उफनती नदी का ऊपरी जल सम्मिलित है। यह एक तरह से नदी से प्राप्त होने वाला अतिरिक्त पानी है। जलाशयों तक पानी आ जाये तो खेतों में बहे, वह भी ऊपर से नीचे तक सबके खेतों में। पानी अधिक आ जाये तो नीचे की तरफ बहकर चला जाये ताकि फसल बरबाद न हो। पानी के बाहर जाने की इसी व्यवस्था को निगार कहते हैं।

किसी ढाल पर स्थित ऊँचे खेत से नीचे के खेत में पानी जाना ही है तो क्यों न इसे ही सामाजिक नियम मान लें? लोगों ने मान लिया। इस व्यवस्था में सबसे ऊपरी और सबसे निचले खेत को कभी-कभी हानि हो जाती है। फिर मी नियम यही मान्य है। काम इसी तरह चलता है। निचली खेत वाला भी निश्चिंत रहता है कि उसके खेत तक पानी आना ही है। हाँ, वह अधिक पानी ऊपर से नीचे छोड़ने पर रोक नहीं लगा सकता। इसीलिए खेती करने के मुद्दे पर आधुनिकता के नाम पर व्यक्तिवादी एवं सामुदायिकता विरोधी खेती के लिए सरकार एवं कंपनियों द्वारा दिये गये अनेक प्रशिक्षण बेकार हो जाते हैं क्योंकि वर्षा का पानी अपने प्रवाह एवं सामर्थ्य के अनुसार किसानों को सामूहिक निर्णय करने पर विवश कर देता है।

नदी सिद्ध कर देती है कि जल का वेग केवल ढाल की सीमा में रहकर समुद्र यात्रा तक बलवान होता है। वह समुद्र के पानी को भी नदी में घुसने नहीं देता और समुद्र के किनारे भी इन नदियों से मीठा पानी उपलब्ध हो जाता है। इस प्रकार धार एवं निगार की व्यवस्था पाकृतिक रूप से प्रभावकारी रहती है।

समझदार लोगों ने वर्षों के अनुभव के आधार पर समझा कि मानवनिर्मित जलभंडारों के या तो ढाल-प्रवाह पथ से नीचे गड्‌ढा खोदकर बनाया जाय, जो तालाबों के रूप में सर्वाधिक सफल है, या अगर छोटी-मोटी ऊँचाई वाला तटबंध भी बने तो प्रवेश (धार) एवं निगार (निकासी) की व्यवस्था सुदृढ़ रहे। इतने पर भी गाद की सफाई नियमित अंतराल पर चलती ही रहती थी. चाहे वह कुँआ ही क्यों न हो। आज के चिंतन में दुर्भाग्यवश न तो धार की चिंता है, न निगार की, न गाद की। उत्तरी बिहार के जलाशय एवं नदियों गाद की भयानक समस्या से ग्रस्त हैं।

शंका समाधान पाँच नहर के आकर्षण का रहस्य

प्रायः पढ़े-लिखे लोग यह पूछते हैं कि आहर-पइन नहर से बेहतर कैसे हैं जो आप नहर की जगह आहर-पइन के पक्ष में हैं। सच यह है कि नहर बेईमानी पर आधारित है। उदाहरण के लिए, सोन नहर दक्षिण बिहार की बड़ी नहर है। छत्तीसगढ़ की एक पूरी रियासत, सैकड़ों गाँवों को डूबोकर रिहद-वाणसागर जलाशय बने। वहाँ के किसान आज भी दुर्दशा में हैं। सोन नहर के किसान दूसरे इलाके के पानी पर निर्भर हैं और अब मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, झारखंड - सभी सोन में पानी पहुँचानेवाली सहायक नदियों का पानी रोक रहे हैं और झगड़ा भी हो रहा है।


इससे भिन्न, स्थानीय छोटी नदियों पर बनी नहरों एवं पइन में समानता यह है कि दोनों ही आस-पास की वर्षा पर निर्भर हैं, किसी संचित भंडार पर नहीं कि पानी की गारंटी रहे। पहाड़ी पइनों में आस-पास की पूरी वर्षा का सदुपयोग करने के लिए इसे खूब घुमावदार बनाया जाता है ताकि थोड़ी वर्षा में भी पइन चल सके। नहरें तो नदी में पर्याप्त पानी आने पर ही चलेंगी। नहर में जल प्रवेश का स्थान एक होता है जबकि पइन में अनेक। गया जिले की बरसाती नहरों से आहर-पइन बेहतर हैं क्योंकि पइन के साथ तो आहर रूपी जल भंडार है परंतु इन नहरों में भंडारण की व्यवस्था नहीं है। इन पर बने बैराज भी केवल जलस्तर को उठाने का काम करते हैं।
आहर-पइन व्यवस्था निर्माण एवं रखरखाव की दृष्टि से कम खर्चीली है। आहर छोटा भंडार होता है। छोटी नहरों में तो भंडार होता ही नहीं है इसलिए ये प्रायः असफल हैं या किसान इसका पइन की तरह उपयोग कर आहर में पानी भर लेते हैं। आहर-पइन पर हमारा परंपरागत कानूनी अधिकार है। इसके लिए सिंचाई शुल्क नहीं देना पड़ता। अब नहर से सिंचाई के लिए शुल्क लगातार बढ़ता जा रहा है और निजीकरण (जो हो गया) के बाद अचानक नहर से सिंचाई का खर्च भी डीजल की कीमत की तरह बढ़ेगा तब तक मामला आपके हाथ से निकल चुका होगा। आहर-पइन के लिए संगठन बनाकर अगर सिंचाई का प्रबंध करें तो यह खर्च अपने नियंत्रण में रहेगा।
जिन पइनों में नई तकनीक का इस्तेमाल बिना सोचे समझे होता है, उसके मुहाने पर गड्डा बन जाता है या बालू भर जाता है। इसमें दोष पइन का नहीं, बेदिमागी नकल का है। जब इंजीनियरों को आहर-पइन के बारे में पढ़ाया-सिखाया ही नहीं जाता तो वे क्या उपाय बताएंगे? दक्षिण बिहार के बाहर से आये पदाधिकारी और इंजीनियर आहर एवं तालाब का फर्क ही नहीं समझते। वे यहाँ तक मान लेते हैं कि आहर में रैयती जमीन ही नहीं होती और इसका पानी समय पर निकालना भी जरूरी नहीं होता है।
नहर केवल इसलिए बेहतर नहीं हो सकता कि हमें तो फायदा हो- दूसरों का नुकसान हो, तो हो। इसी तरह की नीयत से जब सभी बेईमानी करने लगे हैं तो समय पर पानी नहीं मिलता है और जब जरूरत नहीं रहती है तब रिहंद बाँध का पानी बाढ़ लाता है। इसके उलटा आहर टूट भी जाय तो एकाध बीघे की फसल बरबाद होती है, जान-माल का भारी नुकसान नहीं होता।

शंका समाधान छः : आहर-पइन या नहर, किसे बनाना आसान?

जो पइन किसी ऊँची पठारनुमा जगह, जिसे ठाट कहते हैं, या पहाड़ी नाले को मोड़कर निकाली जाती है, उसे सीधा बनाने की अनिवार्यता नहीं होती। पहाड़ी नाले के ही किनारे को कमजोर जगहों पर मजबूत कर देते हैं।बनने के बाद भले ही बात समझ में नहीं आ रही हो लेकिन कई बार किसी-किसी प्राकृतिक नाले के बीच में ही आहर बना दिया जाता है। ऐसे में केवल आहर की दीवार बनानी पड़ती है। पइन तो 80 प्रतिशत तक प्रकृति से बनी-बनाई मिल जाती है।

उत्तर प्रदेश एवं कई अन्य राज्यों में पंप आधारित नहरें बनी हैं। दक्षिण बिहार में मुंगेर जिले में ऐसी नहरें बनीं पर सफल नहीं हुईं क्योंकि बिजली ही नहीं तो पंप कैसे चले? मतलब कि ढाल आधारित सिंचाई को छोड़ अन्य सिंचाई कृत्रिम ऊर्जा पर निर्भर रहेगी और मँहगी पड़ेगी। मुफ्त या चोरी के माल का गणित नही होता, चाहे बिजली ही क्यों न हो।

शंका समाधान सात नलकूप क्यों नहीं?

नलकूप की सिंचाई स्वार्थी व्यक्तिवाद को बढ़ावा देती है, जिसमें जल संरक्षण की चिंता या प्रयास नहीं होता। फसल में लगनेवाले रोग, पानी की गुणवत्ता, जानवरों-पक्षियों से रक्षा आदि कई महत्त्वपूर्ण मामले सामूहिक खेती में आसानी से हल हो जाते हैं। दक्षिण बिहार का इतिहास एवं परंपरा हजारों साल की है। यहाँ अनेक प्रकार की सामाजिक व्यवस्थाएँ बनती बिगड़ती रहीं। जरासंध से लेकर ब्रिटिश जमींदारी तक सिंचाई व्यवस्था सुदृढ़ थी। अच्छी फसल और संतुष्टि दोनो थी। उसके बाद 1967 का अकाल क्या पड़ा। पूरा समाज ही दिग्भ्रांत हो गया?

राजा या सरकार की नजर में आहर-पइन

राजा का सब पर स्वामित्व है और राज्य है ऊपरी तौर पर लोक कल्याणकारी और अंदरूनी तौर पर पूँजीपतियों के हितों का संरक्षक। केंद्र राज्यों में झगड़े करवाता है। प्रांतीय सरकारें जलस्रोतों की बंदोबस्ती, लोकहित ही नहीं, दलित हित में कर रही है। राजस्व उसका, मछली उसकी, मरम्मत दूसरे की। ऐसी कथाएँ अनेक हैं। ब्रिटिश राज में भी जो तालाब, आहर, पईन आदि जमींदारों के कब्जे या सामूहिक अधिकार में थे उनकी मरम्मत जमींदारों की पहल पर हो जाती थी। अँगरेजों की नहर का पानी सिंचाई के लिए कम, परिवहन के लिए अधिक जरूरी होता था। अंगरेज विरोधी कई क्रांतिकारी गाँव हर साल नहर काटते और सामूहिक जुर्माना भरते थे।

आहर-पइन के मामले में बात उलटी थी। जमींदार इसके लिए प्रायः तत्पर रहते थे। जिस जमींदार के इलाके में दानाबंदी की परंपरा थी, अर्थात कर के रूप में राजस्व नगद न लेकर फसल का एक भाग लिया जाता था, वहां जमींदार इस बात के लिए स्वयं तत्पर रहता था कि फसल अच्छी हो और अच्छी फसल के लिये खेतों तक समय पर पानी भी पहुंचे। पानी संबंधी विवाद होने पर किसान एवं जमींदार, दोनो साथ रहते थे। ऐसे विवादों एवं मुकदमों की कथाओं से कानून की किताबें भरी पड़ी हैं। नगद राजस्व लेने की परंपरा आते ही जमीदारों की रुचि कम होने लगी। फिर भी, लोकप्रियता बहाल रखने के लिए वे तत्पर न रहने पर भी समर्थन करते थे।

इस समय जो कानून लागू है, उसमें सारी समस्याओं तथा उलझनों को सुलझाने की जिम्मेवारी जिलाधिकारी पर डालकर सरकार ने जिम्मेवारी से पिंड छुड़ा लिया है। जिलाधिकारी को यह अधिकार दे दिया गया है कि वह जिस किसी भी एजेंसी को किसी भी आहर-पइन की जिम्मेवारी सौंप दे। यह प्रावधान खतरनाक है एवं भविष्य में निजीकरण को बढ़ावा देने की नीयत से बनाया गया है।
 

स्रोत - दक्षिण एशियाई  हरित स्वराज्य संवाद

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Post By: Shivendra
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