आधुनिक वनस्पति विज्ञान के जनक : लीनियस


वर्तमान समय में यद्यपि सूक्ष्मताओं में अन्तर आ गया है पर मोटे तौर पर लीनियस द्वारा प्रदत्त नामों वाला वर्गीकरण आज भी उतना ही प्रासंगिक और मान्य है। वर्गीकरण के इस प्रणेता के समक्ष संकर (हाइब्रिड) पौधों की समझ एक बहुत बड़ी बाधा के रूप में सामने आई और इसका निराकरण वे मरते दम तक नहीं कर सके।

वनस्पति विज्ञानियों के राजकुमार, अपनी आयु के बीस-पच्चीस वर्षों के मध्य वह इस सम्मानजनक उपाधि के अधिकारी बन गये थे। कारण थी उनकी विलक्षण मेधाशक्ति, परिश्रम और निष्ठा। इस सम्मान को पाने के लिये उन्होंने बाल्यावस्था में थोड़ा होश संभालते ही चैतन्य होकर कार्य करना आरम्भ कर दिया था। अठारहवीं शती की समाप्ति तक लीनियस सारे विश्व के महानतम वनस्पति विज्ञानी बन चुके थे। चतुर्दिक प्रकृति, पेड़-पौधे, फूल और हार्दिक प्रसन्नता का भाव अलौकिक था। कहा जाता है कि एक बार इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान पटनी हीथ नामक स्थान पर जब उन्हें एक दुर्लभ प्रजाति के पौधे को देखने का अवसर मिला तो वे तुरन्त घुटनों के बल नतमस्तक होकर उस पौधे के समक्ष पूजा की मुद्रा में बैठ गए।

कार्ल वॉन लिने, जिन्हें आज सारा विश्व लीनियस के नाम से जानता है, का जन्म डार्विन से लगभग एक शताब्दी पहले 23 मई सन 1707 में हुआ था। स्थान था दक्षिणी स्वीडन का एक छोटा-सा गाँव राशुल। उनके पिता निल्स लीनियस ने पादरी होने के साथ मन में उच्च शिक्षा के सपने भी पाल रखे थे। किन्तु अट्ठारहवीं शती के प्रारम्भ के दशकों में स्वीडन की राजनीतिक हलचलों, युद्धों और उतार-चढ़ाव ने उन्हें कभी अपने हृदय के कोने में पाले सपने को पूरा करने का अवसर नहीं दिया। यह सपना पिता की अन्यान्य विरासतों के साथ पुत्र को स्थानान्तरित हो गया। पिता ने अपनी एक और गुण अपने बेटे में बीजारोपित किया था- वह था प्रकृति के प्रति उद्दाम प्रेम। कार्ल लीनियस ने प्रकृति के विषय में अपने प्रेम और समझ का सारा श्रेय अपने पिता को ही दिया है। उन प्रारम्भिक दिनों में उन्होंने अपने पिता से ही उनके पादरी-घर के संलग्न उद्यान से एक-एक फूल और पौधे का नाम सीखा। किन्तु नाम से भी अधिक मूल्यवान बात यह थी कि एक धर्मगुरू के आश्रम के परिवेश के कारण पिता-पुत्र प्रकृति के उस सौन्दर्य के सम्बन्ध में एक रहस्यमय भाव से उत्प्रेरित रहते थे। बालक लीनियस के लिये वह उद्यान, ‘गार्डेन ऑफ ईडेन’ का लघुस्वरूप था जिसका उद्घाटन उनके लिये प्रभु और उनके पिता की कृपा से हुआ था।

उस समय की प्रथानुसार यह सुनिश्चित-सा था कि लीनियस अपने पिता के बाद उस स्थान के पादरी का पद ग्रहण करेंगे। परन्तु अपने सपनों और अपने विचारों से अनजाने ही पिता ने पुत्र में एक पादरी के स्थान पर एक प्रकृतिविद के बीज अंकुरित कर दिये थे। वर्ष 1720 के दशक में प्रकृति विज्ञान के अध्ययन के लिये कोई भी आधार पुस्तक उपलब्ध नहीं थी। थी तो केवल ‘बाइबिल’ और दो हजार वर्ष पूर्व की अरस्तू द्वारा पशुओं पर लिखी गई एक पुस्तिका। दूसरी पुस्तकों के अभाव में वे ही अधिकारिक रूप से मानी जानी जाती थी। इन्हीं अल्पज्ञान वाले स्रोतों और अपने पिता के उद्यान से प्राप्त प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर कार्ल लीनियस का मस्तिष्क धीरे-धीरे पुष्ट हो रहा था। इसी प्रेरणा से आगे चलकर वह वनस्पति विज्ञान की महान पुस्तकों के प्रणेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए और आज संसार के हर पुस्तकालय में वनस्पति विज्ञान के संदर्भों की खोज के लिये उनकी पुस्तकों का उपयोग करना अनिवार्य माना जाता है।

कार्ल लीनियस की माँ एक धनी मानी घराने की रोबीली और महत्त्वाकांक्षी महिला थी। उनकी दृष्टि में लीनियस की शैक्षिक प्रगति बहुत निराशाजनक थी। एक बार तो उन्होंने कार्ल को एक जूता बनाने वाले के सहायक के रूप में भेजने का मन बना लिया था। सौभाग्यवश उनके पिता के हस्तक्षेप और कार्ल के स्कूल बदल देने के कारण विज्ञान जगत एक महान वनस्पति विज्ञानी से वंचित होने से बच गया। उन्हीं दिनों कार्ल ने एक दिन सुस्पष्ट शब्दों में चर्च में पादरी न बनने के अपने निश्चय के बारे में घर में लोगों को सूचित कर दिया। कार्ल के पिता पहले तो इस फैसले से अचम्भित रह गए किन्तु विज्ञान के प्रति पुत्र की अदम्य जिज्ञासा और रुचि को देखते हुए तथा कार्ल की इच्छा का समादर करते हुए अंततः सहमत हो गए। पिछले कुछ वर्षों में उन दोनों के मध्य विज्ञान के प्रति समर्पित निष्ठा का एक गुप्त सम्बन्ध बन गया था। पुत्र ने एक चिकित्सक और वनस्पतिशास्त्री बनने का निर्णय ले लिया था। पूरे एक वर्ष तक पिता-पुत्र पुष्पों और पक्षियों पर प्राप्त समस्त साहित्य का अध्ययन करते रहे। पर इन कार्यकलापों से कार्ल की माँ पूर्णतः अनभिज्ञ रखी गई थीं। उनके लिये तो पुत्र का पादरी न बनने का निर्णय एक प्रकार से धर्मद्रोह जैसी निंदनीय बात थी। अपने निर्णय को सफलीभूत करने की इच्छा से लीनियस ने लुण्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। उनका औषधीय पादपों का अध्ययन उनकी कक्षा के शैक्षिक स्तर से बहुत आगे था। उनके अध्यापकगण उनके तत्सम्बन्धी ज्ञान की मौलिकता से स्तब्ध रह जाते थे। अध्ययन काल में ही लीनियस ने पक्षियों के चोंच और पंजों को आधार बनाकर वर्गीकरण की एक नई पद्धति विकसित की। उसी अवधि में जब उन्होंने अपनी उम्र का बीसवाँ दशक भी पूरा नहीं किया था, अपने जीवन का महानतम आविष्कार किया। यह आविष्कार था पुष्पों का उनकी लैंगिक विशेषताओं के आधार पर पुनर्विन्यास।

ऐसा माना जा सकता है कि यह लीनियस द्वारा किया गया पूर्णतः मौलिक कार्य नहीं था क्योंकि लीनियस से लगभग दस वर्ष पूर्व वैलान्त नामक एक लेखक ने इसी दिशा में कुछ कार्य प्रारम्भ किया था। लेकिन इस आधार पर वर्गीकरण सम्पादित करने के पूर्व ही वैलान्त की मृत्यु हो गई। कार्ल लीनियस ने अपनी माता से विरासत में सुव्यवस्था के जो गुणसूत्र प्राप्त किये थे इसी के आधार पर उन्होंने अपना सिद्धान्त सुनिश्चित किया। इस सिद्धान्त को उन्होंने लैटिन में लिखे गए अपने एक शोध-निबंध में प्रतिपादित किया और उसे ग्रीक भाषा में अनूठा शीर्षक दिया ‘फ्लोरल नपशल्ज’ जिसका अर्थ था- ‘पौधों का विवाह’ यह शोध निबंध उपसला नामक स्थान से सन 1729 में प्रकाशित हुआ। उस समय कार्ल लीनियस की उम्र थी मात्र बाईस वर्ष। उपसला के विद्यार्थियों के मध्य यह शोध निबंध बहुत लोकप्रिय होने लगा जिसका कारण था कि लीनियस की भाषा तो गद्य थी। पर उनके भाव और प्रस्तुतिकरण बेहद काव्यात्मक थे। लीनियस लिखते हैं कि ‘फूलों के विवाह’ के उस शुभ क्षण के सौन्दर्य को द्विगुणित करने के लिये प्रकृति द्वारा उसकी पूर्णता हेतु सब कुछ पहले से ही सुनिश्चित किया जा चुका है। सुंदर रंग-बिरंगी कोमल पंखुड़ियों के बिस्तर पर सुगंध के बीच नर-मादा पुष्पों के मिलन की यह प्रक्रिया सम्पन्न होती है। वर्ष 1729 में पादप संयोजन के उनके उस सिद्धान्त से लोग अनभिज्ञ थे जहाँ पुष्पों में भी प्राणी जगत के समान यौन सम्बन्ध का संकेत दिया गया था।

उस समय के लिये यह बड़ा अभिनव और मौलिक विचार था। इस शोध ने उनके यश में इतनी वृद्धि की कि तीसरे वर्ष का विद्यार्थी होते हुए भी इस नवीन खोज के विषय में व्याख्यान देने के लिये उन्हें आमंत्रित किया गया और लगभग तीन-चार सौ उत्सुक लोग उन्हें सुनने के लिये आये। इसके तुरंत बाद ही उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ‘लीनियस सिस्टम’ के अन्तर्गत लैंगिक विशेषताओं के आधार पर पौधों को इक्कीस वर्गों (ऑर्डर्स) में संयोजित किया। लुण्ड विश्वविद्यालय में तीन वर्ष व्यतीत करने के बाद जब वे अपने घर वापस गए तब अपने समय के अत्यंत संतुलित सिद्धांत के प्रतिपादक तथा एक सुयोग्य अध्यापक के रूप में अर्जित ख्याति की उपाधियाँ उनके नाम थीं।

आगे के कार्य के लिये कार्ल लीनियस को पादप जगत के वैविध्य की गहरी छानबीन करने की आवश्यकता थी। अपने वर्गीकरण के तरीके के लिये उन्हें बड़ी प्रचुर संख्या में नमूनों की आवश्यकता थी। इस दृष्टि से उनके अपने देश स्वीडेन के उत्तरी भाग अछूता वन खण्ड ही सबसे निकट था। बर्फ के पिघलते ही कार्ल लीनियस पर्वतों और ग्लेशियरों से भरे अछूते वनखण्ड की ओर एक घोड़े पर सवार होकर चल पड़े। इस यात्रा में उनके साथी थे एक अनुवीक्षण यंत्र और लेखन की सामग्री। इसके साथ उन्होंने एक दूरवीक्षण यंत्र भी अपने साथ रखा था। 25 वर्ष की आयु में 1732 ई. में जब उन्होंने इस यात्रा पर प्रस्थान किया तो अपनी बाल्यावस्था के धार्मिक परिवेश के कारण प्रगाढ़ विश्वास था कि वह इस प्रकार के कार्य के लिये ईश्वर के द्वारा विशेष रूप से नियोजित किये गये हैं। एक दिव्य सर्वशक्तिमयी सत्ता ने उन्हें इस कार्य के लिये चयनित किया है। वह जिस प्रदेश (लैपलैण्ड) में जा रहे थे वहाँ की लैप भाषा का एक शब्द भी नहीं जानते थे और उनके पास खाने के लिये रेन्डियर का मांस और ठंडा पानी ही मात्र था- न नमक, न रोटी। वह अपनी हिम्मत पर स्वयं ही विस्मित थे क्योंकि यह सारी सुविधायें और यह दुरूह यात्रा मात्र पौधों के नमूने इकट्ठा करने के लिये ही तो थी। उनकी यह यात्रा सुनने में चाहे जितनी भी अव्यवहारिक प्रतीत हो पर उनके मस्तिष्क में उनका लक्ष्य पूर्णतः स्पष्ट था। अपनी इस एकाकी शोध को पूरा करने के लिये उन्होंने विश्वविद्यालय को कुछ आर्थिक सहयोग देने के लिये प्रार्थना-पत्र भी भेजा।

मार्ग में चलते हुए उनकी नोटबुक वहाँ के आदिवासियों की जीवनशैली पर उनके निरीक्षण-प्रेक्षण, उनकी फसलों, पशुओं और उनके द्वारा बनायी जाने वाली वशीकरण औषधियों पर उनके ‘रिमार्क्स’ से निरंतर भरी जा रही थी। नमूनों का डिब्बा लबालब भरकर फूल गया था। लैपलैण्ड से आगे बढ़कर यह यात्रा नार्वे की ओर ऐसे प्रदेश तक बढ़ चुकी थी जहाँ पर शायद ही कभी किसी ने पैर रखा हो। यात्रा की कठिनता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अक्सर उन्हें गहरी नदियों, दलदलों और घने जंगलों के बीच से, कभी बारिश से तर-ब-तर और कभी-कभी भूखे पेट गुजरना पड़ता था और कभी-कभी तो खाने को मात्र सूखी मछलियाँ (जो वे साथ ले गए थे) और जंगली स्ट्राबेरी के अलावा कुछ भी नहीं मिलता था। इतनी कठिनाइयों के मध्य भी वहाँ के प्राकृतिक दृश्य, सुन्दर फूलों से भरे पेड़ और झाड़ियों तथा पक्षियों की विविधता उन्हें प्रसन्नता से भर देती थी। उसी यात्रा के बीच उन्हें मोतियों का संवर्धन करने वाला केन्द्र दिखा। उसी के निरीक्षण के दौरान उनके मस्तिष्क में एक अभूतपूर्व विचार कौंधा कि सीपी के अंदर आकार ले रही आंतरिक परतों को क्या कृत्रिम रूप से आकार देकर मोती का निर्माण किया जा सकता है? आगे चलकर उस क्षणिक स्फुरित विचार ने वास्तविकता का रूप प्राप्त किया। यात्रा में आगे उन्हें लूलिया (Lulea) की लौह खानों में धातुओं के परीक्षण की प्रक्रिया सीखने का भी अवसर मिला।

इस यात्रा का सबसे सकारात्मक पक्ष यह था कि लीनियस को स्वयं अपनी क्षमताओं के पूर्ण आकलन का पूरा अवसर मिला। कुछ महीनों की यात्रा के बाद अक्टूबर तक वे उपसला की रॉयल सोसाइटी व्याख्यान देने के लिये उपस्थित हो गए। कार्ल वॉन लिने अपने विचारों के प्रस्तुतीकरण में कभी कमजोर नहीं पड़े। एक विचित्र बात यह हुई कि इस लैपलैण्ड यात्रा की मात्र एक छोटी-सी रिपोर्ट ही तत्कालीन ‘हैम्बर्ग’ न्यूज पेपर में प्रकाशित हुई। उस यात्रा का सम्पूर्ण वृत्तांत लगभग चालीस वर्षों के उपरान्त लीनियस की मृत्यु के पश्चात ही छप सका। अब लीनियस उपसला में ही रुक गए। उन दिनों वे वनस्पति विज्ञान और औषधि विज्ञान पर व्याख्यान देते थे और कभी-कभी कोई विनिबंध (मोनोग्राफ) प्रकाशित करा लेते थे। उनकी अर्जित सफलता उनके आस-पास के लोगों को रास नहीं आ रही थी और उनसे ईर्ष्या करने वालों की संख्या बढ़ रही थी। इसका कारण यह भी था कि उन्होंने अभी तक चिकित्सा की स्नातक उपाधि भी नहीं प्राप्त की थी।

किन्तु इसी समय कार्ल लीनियस के जीवन में एक सुखद मोड़ आया। उन्हें स्वीडेन के अलग-अलग नगरों में व्याख्यान के लिये बुलाया जाता था। ऐसे ही एक यात्रा में जब वे फालून गए तो वहाँ सारा एलिजाबेथ मोरिया नामक एक अट्ठारह वर्षीय लड़की के प्रेम में पड़ गये। समय था 1734 के क्रिसमस का। वह नगर के प्रमुख चिकित्सक की बेटी थीं और उनकी पूरी दौलत की एक मात्र वारिस।

सम्भवतः इस तथ्य ने लीनियस को अधिक आकर्षित किया हो क्योंकि वे स्वयं तब तक केवल एक भावी चिकित्सक थे। परन्तु लड़की के पिता ने यहाँ-वहाँ घूमने वाले डिग्रीविहीन युवक को अपनी बेटी देने से इंकार कर दिया। साथ ही यह राय दी कि वह पहले हॉलैण्ड जाकर सम्पूर्ण यूरोप में सुविख्यात चिकित्सक हर्मन बोएरहाव के निर्देशन में चिकित्सा की अपनी शिक्षा पूरी करें।

उसी दौरान लीनियस को विदेश यात्रा का अवसर मिला। लीडेन नामक स्थान, जहाँ वह गए, उस समय प्रकाशन का केन्द्र था। वहाँ पहुँचकर लीनियस ने सर्वप्रथम ‘एग्यू’ (शीतज्वर) पर अपना निबंध लैटिन भाषा में प्रकाशित करवाया। उनके अनुसार शीतज्वर का मुख्य कारण चिकनी मिट्टी थी। परन्तु उनका मुख्य उद्देश्य जो डॉ. हर्मन बोएहराव से प्रशिक्षण ग्रहण करना था, वह कठिन दिख रहा था। डॉ. हर्मन बोएहराव का एक अत्यंत व्यस्त चिकित्सक थे। उनसे सम्पर्क कर पाना दुष्कर था। परन्तु धुन के पक्के लीनियस ने यह करिश्मा कर दिखाया और उनसे मुलाकात के दौरान बोएहराव उन्हें अपना बगीचा दिखाने ले गये तो लीनियस ने अतिदुर्लभ पौधे को पहचान कर तुरन्त उसका नाम बता दिया। इस घटना से डॉ. बोएहराव इतना प्रभावित हुए कि तुरन्त ही लीनियस को अपना शिष्य बनाने के लिये तैयार हो गए। और इस प्रकार लीनियस लीडेन में व्यवस्थित हो गए।

संयोग था कि उस समय वहाँ जार्ज क्लिफर्ड नामक एक धनिक व्यापारी का विविध छटाओं से युक्त एक बड़ा मनोहारी उद्यान था। जहाँ सुरम्य वृक्षों के अतिरिक्त झीलें, मूर्तियाँ, तापगृह, अमूल्य, आर्किड, कैक्टस तथा नारिकेल आदि चतुर्दिक सजे हुए थे। जार्ज क्लिफर्ड मतिभ्रम रोग से ग्रस्त होने से पीड़ित थे और इसलिये उन्हें प्रतिदिन एक चिकित्सक द्वारा इन्जेक्शन की आवश्यकता पड़ती थी और लीनियस इस काम के लिये बिल्कुल उपयुक्त थे। इस व्यवस्था से लीनियस को दुर्लभ वृक्षों के अध्ययन और उनकी पहचान और नामकरण करने का दुर्लभ संयोग प्राप्त हो गया। इस समय लीनियस कुछ समय के लिये स्लोन का प्रसिद्ध चेल्सिया का उद्यान देखने के लिये इंग्लैण्ड भी गये। पर लीडेन में जार्ज क्लिफर्ड द्वारा प्रदान किया गया वृक्षों और पादपों के अध्ययन और उन पर शोध का एक बड़ा दुर्लभ अवसर था। अपनी लैपलैण्ड यात्रा में उन्होंने शोध की सम्भावनाओं को महसूस किया था परन्तु हालैण्ड प्रवास ने उन्हें पुस्तकों के प्रकाशन द्वारा प्राप्त होने वाली विश्वविख्याति के प्रति सजग कर दिया। यही प्रेरणा थी कि उनकी ‘क्लैसीफाइड बॉटनी’ और ‘लैपलैण्ड प्लांट्स’ की सूची यहीं से प्रकाशित हुए। इन्हीं प्रकाशनों ने तीस वर्ष से कम आयु में उन्हें ‘वनस्पति विज्ञानियों का राजकुमार’ के रूप में प्रतिष्ठा दिलवा दी। बोएहराव और क्लिफर्ड उन्हें हालैण्ड में ही रोकना चाहते थे और वहाँ रुकने पर सम्भवतः बोएहराव का वारिस बनकर उन्हें कई गुना अधिक प्रतिष्ठा मिली होती। परन्तु लीनियस को इसी समय पेरिस की ‘एकेडमी ऑफ साइंसेज’ से एक पद का आमंत्रण मिला और उसके बाद वे सारा एलिजाबेथ से विवाह करने के लिये फालून चले गए।

इसके पश्चात कार्ल लीनियस ने कभी अपनी जन्मभूमि को नहीं त्यागा। लीनियस ने अपने जीवन में अभूतपूर्व ख्याति और अपार सम्पदा के साथ तत्कालीन अग्रगण्य औषधिविज्ञानी, राजकीय चिकित्सक और अंततः उपसला विश्वविद्यालय के ‘रेक्टर मैग्नेफिकस’ की उपाधि प्राप्त की लीनियस की प्रकाशित पुस्तकों लीनियस ने जो मोनोग्राफ लिखे उनके विषय प्रकृति विज्ञान के हर पक्ष से सम्बन्धित थे। इसमें से कई उनके लीडेन प्रवास के समय ही प्रकाशित हुए। उस समय उनके प्रचुर लेखन की अधिकांश सामग्री प्रकाशित भी नहीं हो सकी। उनके लेखन के पीछे एक प्रमुख कारण यह भी था कि वे सम्भवतः कहीं भी अव्यवस्था सहन नहीं कर सकते थे। अतः वे वनस्पतियों के नामकरण में भी अव्यवस्था नहीं सह पाये। अपने ‘फ्लोरल नपशल्ज’ नामक प्रबंध से ही वे फूलों का उनके लिंग के आधार पर एक क्रमिक वर्गीकरण करने की ओर चल पड़े थे। यह प्रथम प्रयास तो छोटा था, परन्तु आगे चलकर 1735 में उन्होंने अपनी इस पद्धति को और विकसित किया और उसे अधिक संख्या में पौधों पर लागू किया।

लीनियस ने पुष्पों को 24 वर्गों में विभक्त किया जो सभी नर जननांग (स्टेमेन) पर आधारित थे। हर क्लास को ‘ऑर्डर्स’ में पुनर्विभाजित किया गया और इस बार का विभाजन मादा जननांगों (पिस्टिल) पर आधारित था। इस प्रकार हर पुष्प के अब दो लैटिन नाम थे जो किसी वनस्पति विज्ञानी को प्रकृति की योजना में उनके उचित स्थान का पता बताते हैं। लीनियस ने पौधों के वर्गीकरण को एक लेखा कार्य के उबाऊपन से ऊँचा उठाकर सृजनात्मक आयाम दिया। धीरे-धीरे उनके विचार पूरे विश्व में फैलने लगे और वनस्पति विज्ञानियों ने गम्भीरता से उस पर विचार करना शुरू कर दिया।

उनकी ‘जेनेरा प्लैन्टेरम’ अब हर वनस्पति विज्ञानी के हाथ में वनस्पतियों के रूप को जानने के लिये धर्मग्रन्थ जैसी अनिवार्य वस्तु हो गई है। पौधों को सही पहचान के उनसे औषधियों के निर्माण के लिये यह चिकित्सकों के लिये बहुत आवश्यक पुस्तक थी क्योंकि लीनियस द्वारा प्रदत्त नाम और पहचान भ्रम की कोई जगह नहीं छोड़ते थे। पौधों के नामकरण की दिशा में लीनियस ने एक और क्रांतिकारी कदम उठाया। उन्होंने स्थानीय प्रकार के अथवा चर्चों से प्रमाणित नामों (चर्चों से संलग्न दिखने के कारण) में परिवर्तन लाकर अधिकांश के नाम उनकी विशेषताओं और उनके दृश्य रूप के आधार पर रखे। वह ऐसे नाम नहीं देना चाहते थे जो कुछ दिन बाद कुछ नये गुण दिखने पर आये दिन बदलने पड़े। उनके द्वारा दिए गए नामों की सम्पूर्णता और स्थिरता ऐसी थी कि वे जब तक प्रकृति रहे, चलने वाले थे। उनकी पुस्तक ‘सिस्टेमा नेचुरी’ के नवीन संस्करण प्रकाशित होते रहे और उनकी कीर्ति चतुर्दिक प्रसारित होती रही। पुस्तकों के छोटे सुविधाजनक- हैण्डी आकार को अस्तित्व में लाने वाले लीनियस ही थे, इससे पूर्व तो बड़े आकार के पन्नों के संग्रह वाले फोलियो ही हुआ करते थे।

वर्तमान समय में यद्यपि सूक्ष्मताओं में अन्तर आ गया है पर मोटे तौर पर लीनियस द्वारा प्रदत्त नामों वाला वर्गीकरण आज भी उतना ही प्रासंगिक और मान्य है। वर्गीकरण के इस प्रणेता के समक्ष संकर (हाइब्रिड) पौधों की समझ एक बहुत बड़ी बाधा के रूप में सामने आई और इसका निराकरण वे मरते दम तक नहीं कर सके। उपसला विश्वविद्यालय में सन 1741-1775 तक प्रोफेसर के रूप में लीनियस अत्यन्त लोकप्रिय थे। आमतौर से अध्यापकों को उनके विद्यार्थी ही समझते हैं कि वे कैसे हैं। किन्तु लीनियस की कक्षा में तो उन्हें सुनने के लिये अनेक सम्भ्रान्त व्यक्ति, चिकित्सक और कानूनविद आते थे क्योंकि लीनियस पेड़-पौधों के विषय में रोचक और उपयोगी जानकारियाँ देते थे। अपने व्याख्यानों में वे कृषि, स्वास्थ्य, चिकित्सा खुराक आदि की भी चर्चा करते थे।

लीनियस स्वीडिश भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। उनके गद्य-लेखन में कविता का आनंद आता था। वर्ष 1758 में लीनियस ने हार्माबी से कुछ मील दूर एक मकान खरीद लिया जहाँ उन्होंने एक सुन्दर उद्यान भी विकसित किया। प्रेम-विवाह के बावजूद उनकी पत्नी सारा एलिजाबेथ की सोच कुछ और ही थी। सारा का व्यवहार पति के सहकर्मी प्रोफेसरों की पत्नियों के प्रति दिखावे से भरपूर था। यही नहीं, जब भी लीनियस प्रोफेसर का पद छोड़कर पूरा समय शोध को देने की बात करते तो सारा उनका विरोध करती थीं। सारा का व्यवहार अपनी पुत्रियों और इकलौते पुत्र से भी अच्छा नहीं था। अब लीनियस का अधिक समय अध्ययन, शोध और अपने उद्यान की देखभाल में व्यतीत होता था।

धीरे-धीरे बढ़ती आयु का उनके शरीर पर प्रभाव पड़ने लगा था। वे अस्वस्थ रहने लगे थे और फ्रांस की क्रांति के एक वर्ष पूर्व 10 जनवरी 1778 को 71 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। उनकी कर्ब पर लिखा है- ‘प्रिंसेप्स बोटेनिकोरम’ अर्थात ‘वनस्पति विज्ञानियों का राजकुमार’। वैसे यह उपाधि उन्हें वर्षों पूर्व जब वे युवा थे, तभी मिल चुकी थी। उनकी मृत्यु को स्वीडेन के राजा ने ‘राष्ट्रीय विपत्ति’ की संज्ञा दी थी।

लीनियस का अपने जीवन-काल में देश-विदेश के छोटे-बड़े स्तर के अनेकानेक विज्ञानियों से सम्पर्क था। उनकी मृत्यु के बाद उनके संग्रह में 19,000 हर्बेरियम शीट्स, 3,200 कीट पतंगों के नमूने, 1,500 शेल, 7,800 कोरल, 2,500 किस्म के पत्थरों और खनिजों के नमूने और 2,500 पुस्तकें थीं। पौधों की पहचान और नामकरण के लिये वनस्पति विज्ञानी उनके पास हर्बेरियम शीट्स भेजते रहते थे इस कारण हर्बेरियम शीट्स का लीनियस के पास विशाल भंडार था।

लीनियस की मृत्यु के बाद उनके पुत्र को उपसला विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर का पद दे दिया गया था। थोड़े समय के बाद उनका निधन हो गया। इस प्रकार कार्ल लीनियस की सम्पत्ति उनकी विधवा सारा के पास थी। बाद में लंदन के एक 24 वर्षीय धनी युवक जेम्स एडवर्ड स्मिथ ने 1000 गिनीज में सारा से सम्पूर्ण सम्पत्ति खरीद ली। स्मिथ ने लंदन में ‘लीनियन सोसाइटी’ की स्थापना की जो आज भी सारे संसार में विख्यात है। ‘लीनियन सोसाइटी’ कार्ल लीनियस का जीवित स्मारक है।

लीनियस द्वारा छोड़ी गई अप्रकाशित पाण्डुलिपियों और पत्रों के ढेर के बीच उनके द्वारा लिखा गया एक प्रेम-पत्र भी मिला। यह पत्र उन्होंने एक भारतीय महिला वनस्पति विज्ञानी लेडी ऐन मोन्सन को लिखा था, जिसमें उन्होंने अपना हृदय खोलकर रख दिया था। लीनियस ने लिखा था- “हमारे और तुम्हारे द्वारा जो बेटी उत्पन्न होगी उसका नाम मोन्सीनिया रखेंगे।” यह इस बात की ओर इंगित करता है कि अपने बाद वे ऐसी संतति छोड़ना चाहते थे जो वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में बेजोड़ शोध कर सके।

कार्ल लीनियस के निधन के आज लगभग 234 वर्ष हो चुके हैं फिर भी लीनियस अपने कार्यों में अमर है। आज जब भी किसी पौधे की पहचान और नामकरण की चर्चा होती है तो लीनियस का स्मरण स्वतः हो आता है।

पूर्व अध्यक्ष, वनस्पति विज्ञान विभाग, सी.एम.पी. डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद-211002 (उत्तर प्रदेश)।

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