अधिकार की कवायद

जल जीवन का दुर्लभ और सीमित घटक है। फिर भी इसके उपयोग के प्रति कोई गम्भीर संवेदनात्मक परिवर्तन हमारी दृष्टि और व्यवहार में आया हो ऐसा नहीं जान पड़ता। मुक्त बाजार व्यवस्था के इस दौर में जब हर क्षेत्र मे निजीकरण का बोलबाला है तो भला मनुष्य की महत्वाकांक्षिणी दृष्टि जल पर न जाए, यह कैसे सम्भव है। जल का निजीकरण मानव समुदाय के लिए सामाजिक अन्याय है। यह हमारे समय का यक्ष प्रश्न है कि पानी पर किसका अधिकार है? हम ऐसे समय के साक्षी हैं, जो इतिहास में अपने तीव्रतम् चरित्र-परिवर्तन के लिए जाना जाएगा। ऐसा नहीं है कि इतिहास में समय की गति से तीव्रता नहीं रही, पर जिस गति और राह पर चलते हुए समय के साथ व्यक्ति ने जीवन घटकों के साथ जो व्यवहार इस काल खण्ड में किया है उसका दूसरा उदाहरण इतिहास में ढूँढने से नहीं मिलता।

आज सारा विश्व जल संकट को धरती पर आए संकटों की सूची में सर्वोपरि मान रहा है। इसका मूल कारण है कि हम अपनी संस्कृति में जल संस्कृति को संरक्षित नहीं रख पाए हैं। ऐसे मुश्किल समय में जब संस्कृति बाजार में संस्कृति में परिणति हो रही हो तब जल, हवा, आकाश, धरती हमारी चिन्ता के केन्द्र से सरकते जा रहे हैं। पानी को उसके मूल चरित्र से च्युत कर बाजार के उत्पाद के रूप में रखा जा रहा है। जल अपने चरित्र में सार्वजनिकता, साम्प्रदायिकता और जनतान्त्रिक प्रक्रिया को अपनाए हैं। अतः जल जन का, जन के लिए है।

जल जीवन का दुर्लभ और सीमित घटक है। फिर भी इसके उपयोग के प्रति कोई गम्भीर संवेदनात्मक परिवर्तन हमारी दृष्टि और व्यवहार में आया हो ऐसा नहीं जान पड़ता। मुक्त बाजार व्यवस्था के इस दौर में जब हर क्षेत्र मे निजीकरण का बोलबाला है तो भला मनुष्य की महत्वाकांक्षिणी दृष्टि जल पर न जाए, यह कैसे सम्भव है। जल का निजीकरण मानव समुदाय के लिए सामाजिक अन्याय है।

यह हमारे समय का यक्ष प्रश्न है कि पानी पर किसका अधिकार है? क्या जल वैयक्तिक सम्पत्ति है? क्या इस प्राकृतिक तत्व पर राज्य का अधिकार है? क्या पानी को किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के पेटेंट उत्पादन के रूप में बेचा जाना मानवता के हित में है? जल के जनतन्त्र को खतरे की राह पर ले जाने वाले कौन हैं? कौन हैं जो जल जैसे सार्वजनिक जीवन घटक को बाजार की रणनीति का हिस्सा बनाते जा रहे हैं?

मुक्तमण्डी के इस दौर ने जो खतरे सभ्यता को दिए हैं, उन्हीं की उपज का एक हिस्सा ये प्रश्न भी हैं। वैश्वीकरण के इस कालखण्ड में विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन आदि इस जन विरोधी अभियान के अगुआ हैं, क्योंकि इन संगठनों ने ही पानी पर अधिकार की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। इनकी रीतियाँ-नीतियाँ इसके लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार हैं।

इस वर्ष की जनवरी में मुम्बई में हुए पीपुल्स वर्ल्ड वाटर फोरम के बैनर तले तीन दिन के अन्तरराष्ट्रीय जल सम्मेलन में दुनिया भर के जल विश्लेषकों ने एक स्वर में इन संगठनों की आलोचना करते हुए कहा कि ये संगठन पानी के उत्पादन, वितरण और प्रबन्धन को निजी हाथों में सौंपने की साजिश रच रहे हैं। इन विश्लेषकों का मानना था कि स्थानीय जन समुदाय को सक्रिय कर जलतन्त्र और प्रवाह तन्त्र को अधिक कारगर और उपयोगी बनाया जा सकता है।

विस्मयकारी तथ्य तो यह है कि स्वयं विश्व बैंक के आँकड़े ये बता रहे हैं कि मानव समुदाय की आबादी का छठवाँ हिस्सा यानी एक अरब से ज्यादा लोग निर्जन इलाकों में रहने को बाध्य हैं। अगर उनके लिए उचित जल व्यवस्था नहीं की गई तो 2025 तक उन्हें गम्भीर जल संकट का सामना करना पड़ेगा। शायद हमें यह जानकर और अधिक आश्चर्य होगा कि इस आबादी का अधिकतर हिस्सा भारत, पाकिस्तान और चीन में रहता है।

विश्व बैंक अपने प्रतिवेदन में यह भी मानता है कि वर्तमान में एक अरब लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। विश्व भर में प्रतिवर्ष लगभग सात करोड़ लोगों की मृत्यु ऐसी बीमारियों से हो जाती है, जिनके मूल में शुद्ध जल की अनुपलब्धता है। यानी लोगों को अपेय पानी पीना पड़ता है। दरअसल, पानी पर अधिकार की यह कवायद इसके व्यवसाय में रहने वाले मुनाफे को मद्देनजर रखते हुए की जा रही है।

विश्व बैंक के प्रतिवेदन में यह माना गया कि पानी का व्यापार वैश्विक स्तर पर आठ सौ अरब रुपए से अधिक है। एक अनुमान के अनुसार आगामी दशक में यह कारोबार दो हजार अरब डाॅलर के आँकड़े को छू लेगा। स्वयं हमारे देश में ही इस समय बोतल बन्द पानी के दो सौ से ज्यादा ब्राण्डों की उपस्थिति इसके प्रमाण के रूप में देखी जा सकती है।

दुनिया के इतिहास से गुजरने पर किसी भी समाज में पानी पर अधिकार की इस किस्म की कवायद का कोई उल्लेख मौजूद नहीं है। जल सार्वजनिक हित और सामुदायिक प्रबन्धन के पवित्र भाव से जीवन की संस्कृति में बहता रहा है। हमारे प्राचीनतम् ग्रन्थ वेदों, पुराणों आदि में जल को निजी सम्पत्ति मानने से परहेज रखा गया है। वहाँ भी उसे सार्वजनिक, लोकहितार्थ जीवन घटक के साथ दैवीय रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। खुद प्रकृति के नियम भी इसकी वैयक्तिक पक्षधरता के खिलाफ इसके सार्वजनिक रूप में उपयोग पर ही स्थिर है।

ऐसा जान पड़ता है कि बाजारू संस्कृति के पैरोकार यह भूल चुके हैं कि आम आदमी की आवश्यकता की पूर्ति में बाजार की दिलचस्पी कभी नहीं रही वरन् उसकी दिलचस्पी इसमें अवश्य ही रही है कि उसके साम्राज्य का विस्तार और मुनाफे में बढ़ोतरी किस तरह हो सकती है। ऐसे में विख्यात पर्यावरणविद् वन्दना शिवा का यह कहना न्यायसंगत है कि ‘आज हम एक वैश्विक जल संकट का सामना कर रहे हैं, जो आगामी दशकों में और भी बदतर स्थिति में जाने का संकेत दे रहा है।

जब यह संकट गहरा रहा है, तो पानी के अधिकार को पुनर्परिभाषित करने के प्रयास चल रहे हैं और उसे सार्वजनिक अधिकार से हटाया जा रहा है।’
जल धरती पर जीवन के लिए आवश्यक घटकों में सर्वोपरि है। नदी तटीय सभ्यता विकास का सिद्धान्त इसका साक्षी है। अतः इस प्राकृतिक तत्व पर हर जीवधारी का अधिकार है, किसी विशेष का नहीं। इस पर अधिकार की कवायद क्रूर सनक का शिकार होते हो रहे मनुष्य की महान भूल है।

जल स्वयं अपनी प्राकृतिक अवस्था में विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त का अनुकरण करने वाला तत्व रहा है। हमारी संस्कृति में मौजूद पारम्परिक जल स्रोत इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वर्षा का पानी जब आकाश से बूँदों के समूह में परिणत होकर धरती पर गिरता है, तो उस क्षण यह नहीं देखता कि मैं कैसे और किस पर गिर रहा हूँ बल्कि वह ऐसे और इस प्रकार गिरता है कि समाज का हर वर्ग बिना किसी भेदभाव के उसके अधिकतम उपयोग का अधिकारी हो सके। यानी जल का तन्त्र समूची प्रकृति की तरह अपनी पूरी प्रक्रिया में जनतान्त्रिक रवैया अपनाता है।

उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते जब से मनुष्य उपभोक्ता में तब्दील हुआ है, समुदाय, संघ समाज हाशिए पर आते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप हम एक ऐसे बिकाऊ समय में जीवनयापन को मजबूर हैं, जहाँ जीवन घटकों तक को बेचकर मुनाफा कमाने की इच्छा सुरसा की भाँति अपना रूप विस्तार करती ही जा रही है।

ऐसा नहीं है कि मनुष्य की प्रवृत्ति केवल जल तत्व तक ही सीमित है। चन्द्रमा, मंगल पर भू-खण्ड बाँटे जाने की खबरों से पता चलता है कि आने वाले समय में मनुष्य किसी भी जीवन घटक को अपने मुनाफे के लिए नहीं छोड़ेगा, चाहे वह पृथ्वी हो या आकाश अथवा जल।

असल में इसके मूल में पर्यावरण के प्रति हमारी दृष्टि में आया बदलाव ही काम कर रहा है। जीवन के अन्य क्षेत्रों की भाँति पर्यावरण के प्रति भी हमने पाश्चात्य दृष्टि को अपनाया है।

पाश्चाात्य दर्शन के अनुसार प्रकृति एक लम्बे नाखून वाली डायन है। अतः उसके प्रति पाश्चात्य दृष्टि में शोषण और हिंसा का व्यवहार प्रमुखता रहा है। लेकिन इस सम्बन्ध में हमारी भारतीय दृष्टि कहती है कि प्रकृति हमारी माँ है। इसलिये जीवन घटक के रूप में मौजूद प्राकृतिक संसाधन प्रकृति द्वारा जीवन को प्रदत्त उपहार हैं।

इनसे धरती पुत्रों का जीवन फूला फला है। हमें प्रकृति के दिए इन नायाब उपहारों की कद्र करते हुए इनके सन्तुलन को बरकरार रखना होगा।

हमें इस तथ्य को भी स्मृति में रखना होगा कि दोहन और शोषण में भेद है। दोहन के लिए पोषण आवश्यक है। गाँधी जी ने गाय के उदाहरण से इस बात को स्पष्ट करते हुए बताया है कि जिस प्रकार एक गाय को उचित आहार दिया जाए तो वह बदले में हमें दूध देती है। लेकिन अगर उसके दूध का केवल दोहन-ही-दोहन किया जाए और उचित पोषण न दिया जाए तो उसके अभाव में वह दूध के बजाय खून देना शुरू कर देती है।

हमें भी प्रकृति के प्रति अपनी संवेदनात्मक दृष्टि में परिवर्तन लाते हुए पानी के विशेष सन्दर्भ में इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा। अन्यथा सम्भयता के पास पानी का कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

जल के विशेष सन्दर्भ में पारस्परिक संस्कृति के भाँति इसके प्रबन्धन और वितरण पर राज्य के बजाय समुदाय की भागीदारी को बढ़ाते हुए उसमें इसके प्रति जिम्मेदारी पैदा करनी होगी।

अगर जल के निजीकरण की यह कवायद सफल हो गई, तो समाज में व्याप्त असन्तुलनों में एक और नई संज्ञा ‘जल असन्तुलन’ उत्पन्न हो जाएगा। जिसका हश्र यह होगा कि समाज एक वर्ग जो पानी की बर्बादी करेगा तो भी चलेगा, लेकिन दूसरा उसके दैनिक उपयोग तक को तरसेगा।

साथ ही सर्वाधिक प्रभावित होगा आम ग्रामीण भारतीय जो पानी पर अपने प्राकृतिक अधिकार से वंचित हो जाएगा क्योंकि फिर उसे जल के उपयोग हेतु किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी की अनुमति लेनी होगी। इससे भी बुरा हाल यह होगा कि पानी पिलाना, प्याऊ खोलना फिर पुण्य के काम के बजाय व्यापारिक कर्म में तब्दील हो जाएगी।

और व्यापार का नियम है कि जो उपभोक्ता को अपने शिकंजे में जितना कस सकता है उसका मुनाफा उतना ही अधिक होगा इसलिये फिर जगह-जगह प्याऊ खोलने या तालाब खुदवाने की बजाय लोग वाटर ट्रेडिंग सेंटर जैसी संस्थाओं का रूप साकार कर पुण्य के बजाय पण्य (धन) कमाने की ओर उन्मुक्त होंगे।

विश्व बैंक के उपाध्यक्ष स्माइल सेरागोल्डिंग तो वर्षों से कहते आ रहे हैं कि इसमें कोई सन्देह ही नहीं है कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।

कई योरोपीय देशों मसलन नामीबिया तथा सीरिया, इथोपिया, जॉर्डन, इजराइल आदि सहित खुद हमारे देश में पानी के बँटवारे के लिए राज्यों के बीच उपजे आपसी विवादों (उदाहरण के लिए कावेरी विवाद को लें) को भी इसके अन्तर्गत लक्षित किया जा सकता है।

लिहाजा जरूरी है कि पानी का भविष्य बाजार के बजाय मनुष्य के अपने हाथ हो। इस हेतु गैर सरकारी संगठन प्रभावी भूमिका निभाकर जन्म-जन्म में जल के सौदागरों की साजिश का पर्दाफाश करें। समाज को जल असन्तुलन जैसी भयावह त्रासदी से बचाएँ अन्यथा निकट भविष्य में समाज मानवीय यातनागृह में तब्दील हो जाएगा।

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Post By: Shivendra
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