पिछले कुछ दशकों में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए अंधाधुंध रासायनिक उर्वरक और पादप सुरक्षा रसायनों का प्रयोग हुआ जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन में तो अवश्य वृद्धि हुई, परंतु इसके साथ-साथ इनके अनियोजित प्रयोग का दुष्परिणाम निकला - पर्यावरण असंतुलन, भूमि की उर्वराशक्ति क्षीण होना, भूमि में उपस्थित लाभकारी सूक्ष्म जीवों का नष्ट होना तथा मृदा अपरदन। आज स्थिति ये है कि रासायनिक उर्वरकों के भरपूर प्रयोग के बावजूद वांछित पैदावार नहीं मिल रही है, जिसके अनेक कारण हैं जैसे उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग, सूक्ष्म पोषक तत्वों का अभाव, उर्वरक प्रयोग की गलत विधि और समय, असंतुलित जल प्रबंध, पौध सुरक्षा, रसायनों का आवश्यकता से अधिक प्रयोग और सही फसल-चक्र न अपनाना। इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए यह आवश्यक है कि समेकित पोषक तत्व प्रबंधन प्रणाली अपनायी जाए।रासायनिक उर्वरकों के अधिकाधिक प्रयोग ने जैविक खादों के उपयोग को महत्वहीन बना दिया जिससे मृदा में जीवांश पदार्थ की मात्रा कम होने के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता में भी कमी आ गई। मृदा के असंतुलित दोहन के चलते भी जिंक, सल्फर, आयरन, बोरॉन, मालिब्डेनम जैसे सूक्ष्म तत्वों की कमी हो गई जिसके कारण फसलों में अनेक रोग पैदा हो रहे हैं। आज स्थिति ये है कि रासायनिक उर्वरकों के भरपूर प्रयोग के बावजूद वांछित पैदावार नहीं मिल रही है।
समेकित पोषक तत्व प्रबंधन प्राचीन प्रणाली है जिसका महत्व हरित क्रान्ति पूर्व समय में समकालीन जीवन निर्वाह खेती के कारण पहचाना नहीं गया। समेकित पोषक तत्व प्रबंधन का लक्ष्य पादप पोषकों के सभी प्रमुख स्रोतों का समाकलित रूप में कुशल और आवश्यकतानुसार उपयोग है जिससे मृदा की भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणवत्ताओं पर हानिकारक प्रभाव डाले बिना अधिकतम आर्थिक उत्पादन पाया जा सके। समेकित पोषक तत्व प्रबंधन सिद्धांत की आधारी संकल्पना का अर्थ लम्बे समय तक टिकाऊ फसल उत्पादकता के लिए मृदा उर्वरता को बनाए रखना और यदि हो सके, तो सुधार लाना है। समेकित पोषण आपूर्ति प्रणाली के प्रमुख उर्वरक, गोबर खाद, कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, हरी खाद, फसल अवशेष पुनः उपयोग किए जा सकने वाले अवशिष्ट और जैव उर्वरक हैं। उन घटकों में रासायनिक और भौतिक गुणों, पोषक निकालने की क्षमता, स्थानिक उपलब्धता, फसल विशिष्टता और फार्म स्वीकृति संबंधी बहुत विविधताएं हैं।
समेकित पोषक प्रबंधन में उर्वरक- सघन खेती के अंतर्गत उर्वरक समेकित पोषक आपूर्ति प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। उर्वरक क्योंकि पिछले वर्षों में उपज में हुई 50 प्रतिशत वृद्धि के लिए उत्तरदायी हैं अतः भारतीय कृषि में उनका महत्व आने वाले समय में और अधिक बढ़ने की संभावना है। मृदा पोषक स्रोत सघन खेती को टिकाऊ नहीं रख पाएंगे क्योंकि अधिक उत्पादकता वाले धान्य आधारित फसल चक्र, जो देश के विभिन्न भागों में अपनाए जा रहे हैं, 700-900 किग्रा नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश प्रति हेक्टेयर के अतिरिक्त बहुत अधिक मात्रा में गौण और सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपभोग कर लेते हैं।
निम्न उर्वरक उपयोग क्षमता- उर्वरक का उपभोग ही नहीं उसके उपयोग की क्षमता भी बहुत कम है। फसलों में अनुप्रयोग किए गए उर्वरकों के केवल 30-40 प्रतिशत भाग का ही उपयोग हो पाता है, शेष लीचिंग, वाष्पीकरण, बिनाइट्रीकरण, सतह से बहना, मृदाक्षरण एवं स्थिरीकरण आदि द्वारा नष्ट हो जाता है।
समेकित पोषक तत्व प्रबंधन सिद्धांत की आधारी संकल्पना का अर्थ लम्बे समय तक टिकाऊ फसल उत्पादकता के लिए मृदा उर्वरता को बनाए रखना और यदि हो सके, तो सुधार लाना है। उच्च विश्लेषण उर्वरकों का प्रयोग- पारंपरिक निम्न विश्लेषण उर्वरकों जैसे अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपरफॉस्फेट, कैल्शियम, अमोनियम नाइट्रेट, पोटेशियम सल्फेट आदि विगत में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की आपूर्ति के लिए उपयोग किए गए जिसके कारण अनजाने में ही गौण और सूक्ष्म पोषक तत्वों की काफी मात्रा इन उर्वरकों के साथ मृदा में चली जाती थी। आजकल रासायनिक रूप से शुद्ध उर्वरक जैसे यूरिया, डाइ अमोनियम फास्फेट और म्यूरेट ऑफ पोटाश के उपयोग पर बल दिया जा रहा है। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम के अतिरिक्त अन्य पोषकविहीन हैं। इन उर्वरकों का निरंतर प्रयोग और गौण तथा सूक्ष्म पोषकों का उर्वरकताहीन उत्पादन प्रणालियों द्वारा भारी अवशोषण ने बहुपोषक कमियों को सामने ला दिया है। अब भारतीय मृदा के 50 प्रतिशत में जिंक और सल्फर की विभिन्न मात्राओं में कमी 125 जिलों में उल्लेखित की गई है। ये आंकड़े रासायनिक उर्वरकों को दूसरे पोषक स्रोतों के साथ समाकलित करने की आवश्यकता पर और विशिष्ट फसलीय परिस्थितियों के लिए समेकित पोषक प्रबंधन विकल्प/पैकेजों को विकसित करने पर बल देते हैं।
उर्वरकों के साथ कार्बनिक खादों का समाकलन- कार्बनिक खादें जैसे गोबर की खाद और कम्पोस्ट पारंपरिक तौर से फसल उत्पादन और मृदा उर्वरकता तथा उपज के स्थायित्व के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। देश में गोबर की खाद और कम्पोस्ट बनाने और उपयोग की बड़ी संभावनाएं हैं।
उत्पादन पर प्रभाव- अखिल भारतीय समन्वित सस्य अनुसंधान परियोजना के अंतर्गत किए गए बहुस्थानिक प्रयोगों में देखा गया है कि गोबर की खाद और उर्वरकों के समेकित उपयोग से विभिन्न फसली प्रणालियों में मृदा उर्वरकता में सुधार के कारण अधिक उत्पादन प्राप्त हुआ। परिणामों में यह भी देखा गया है कि खरीफ फसलों में गोबर की खाद के प्रयोग से उर्वरक की आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है। रबी की फसल में उर्वरक की मात्रा 25 प्रतिशत कम की जा सकती है बशर्ते उसमें पहले खरीफ फसल की 25 प्रतिशत नाइट्रोजन आवश्यकता धान-धान और धान-गेहूं फसल प्रणालियों में गोबर की खाद का प्रयोग करके की जाए।
गोबर की खाद जहां वर्तमान फसल को लाभ पहुंचाती है वहीं आगे की फसल को अवशेष प्रभाव से लाभ पहुंचाती है।गोबर की खाद जहां वर्तमान फसल को लाभ पहुंचाती है वहीं आगे की फसल को अवशेष प्रभाव से लाभ पहुंचाती है। लुधियाना में 80 किग्रा नाइट्रोजन और 120 कुंतल गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर से प्राप्त धान की उपज 120 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की अपेक्षा अधिक थी और इसका अवशेष प्रभाव आगे गेहूं की फसल में 30 किग्रा नाइट्रोजन और 30 किग्रा फास्फोरस प्रति हेक्टेयर रासायनिक उर्वरकों के बराबर धान-गेहूं प्रणाली में पाया गया।
मृदा उर्वरकता पर प्रभाव- गोबर की खाद और कम्पोस्ट का उर्वरकों के साथ उपयोग जहां पादप पोषकों की आपूर्ति का सीधा साधन है वहीं अप्रत्यक्ष रूप से भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में सुधार लाकर फसल उत्पादकता को बढ़ाता है। कई फसलों में किए गए परीक्षणों में देखा गया है कि अकेले उर्वरक प्रयोग की अपेक्षा गोबर की खाद और सिफारिश किए गए उर्वरक स्तरों से मृदा के कार्बनिक कार्बन स्तर और सूक्ष्म पोषकों की उपलब्धता में सुधार आता है। गोबर की खाद और उर्वरकों के समेकित प्रयोग से मृदा के भौतिक गुणों जैसे स्थूल घनत्व, जलधारण क्षमता, हाइड्रोलिक संचालन और सूक्ष्म जैविक गुणों जैसे एजोटोबैक्टर तथा अन्य सूक्ष्म जीवों की गणना में सुधार हुआ।
हरी खाद का उर्वरकों के साथ समाकलन- प्राचीनकाल से ही दलहनी एवं गैर-दलहनी फसलों का उपयोग हरी खाद के रूप में काफी प्रचलित रहा है। वर्तमान में सघन खेती के कारण हरी खाद का उपयोग केवल खेती योग्य भूमि के लगभग 4 प्रतिशत क्षेत्र में ही सीमित है तथा इसे अधिक व्यापक रूप से प्रचलित करने की काफी संभावनाएं हैं। हरी खाद मुख्यतः सिंचित क्षेत्र में सफल हो पाई है क्योंकि इस प्रकार की भूमि में पोषक तत्वों का खनिजीकरण तेजी से होता है। कुछ दलहनी फसलें जैसे ढ़ैंचा, सनई, सुबबूल, लोबिया, मूंग, उड़द, ग्वार आदि हरी खाद के रूप में काफी लोकप्रिय हैं (सारणी-1)।
हरी खाद की फसल को मुख्य फसल बोने से 8-10 दिन पहले खेत में जोत दिया जाता है। हरी खाद की फसलों को केवल वानस्पतिक वृद्धि अवस्था तक ही उगने दिया जाता है जिससे हरी खाद के कोमल पत्ते, तना आदि भूमि में जल्दी सड़-गल जाएं। यह खाद खनिज भंडारण का काम करती है जिससे खनिज तत्वों की उपलब्धता धीमी किंतु लगातार गति से बनी रहती है। हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाने वाली फसलों सिसबेनिया रोस्ट्रेटा, ऐस्केनोमिनी ऐस्परा और ऐस्केनोमिनी इंडिका न केवल जड़ अपितु तने पर भी नाइट्रोजन यौगिकीकरण ग्रंथिका धारण करने में सक्षम है। ये दलहनी फसलें मुख्यतौर पर जलक्रांत क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं, इसलिए खासतौर पर धान की फसल के लिए लाभकारी हैं। हरी खाद की फसलें भूमि में मुख्य पोषक तत्वों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जिंक, आयरन, मैंगनीज, कॉपर, मोलिब्डीनम आदि भी प्रदान करती हैं और भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाकर भूमि की भौतिक दशा में सुधार करती हैं।
फसल उत्पादन का प्रभाव- अखिल भारतीय परीक्षणों में देखा गया है कि ढ़ैंचा या सनई की हरी खाद धान-धान्य फसल प्रणाली में उर्वरकों का उचित संपूरक है। हरी खाद और सिफारिश किए गए उर्वरक स्तरों से दोनों फसलें लाभान्वित हुई और लुधियाना में इस प्रणाली के अंतर्गत कुल उत्पादकता में 20 प्रतिशत, कानपुर (धान-गेहूं) में 8 प्रतिशत और बिचपुरी (बाजरा-गेहूं) में 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। ढ़ैंचा की फसल को हरी खाद के रूप में उगाने से 80-100 किग्रा नाइट्रोजन तथा 30 किग्रा फास्फोरस प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है। धान की फसल में हरी खाद लगाने से फास्फोरस और पोटाश के उपयोग में 10-12 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई है।
वर्मी कम्पोस्ट से भूमि की उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है तथा भूमि की भौतिक दशा में सुधार होता है जिसके परिणामस्वरूप फसल उत्पादकता में वृद्धि होती है।वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद)- यह भूमि की उर्वराशक्ति बनाए रखने का एक प्राकृतिक तरीका है। केंचुए मिट्टी को हवादार वातायन करने में सहायक हैं। केंचुए फसलों के अवशेष, घास-फूस, कूड़ा, बची हुई शाक, फल-फूल आदि को खाकर वर्मी कम्पोस्ट में परिवर्तित करते हैं और अपनी संख्या बढ़ाते रहते हैं। वर्मी कम्पोस्ट में उपस्थित पोषक तत्व कई बातों पर निर्भर करते हैं उनमें से मुख्य हैं वर्मी कम्पोस्ट के लिए उपयोग में आने वाले फसल अवशेष की गुणवत्ता तथा उपयोग में आने वाले केंचुए की किस्म। वर्मी कम्पोस्ट से भूमि की उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है तथा भूमि की भौतिक दशा में सुधार होता है जिसके परिणामस्वरूप फसल उत्पादकता में वृद्धि होती है।
दलहनी अन्तः फसल- अन्तः फसल के लिए कम अवधि और सीधी खड़ी दलहनी फसल अधिक उपयोगी पाई गई है। मोदीपुरम, पालमपुर एवं रांची में अकेले मक्का पर आधारित फसल प्रणाली में मक्का की अपेक्षा मक्का और उड़द की अन्तः फसल से मक्का की उपज में वृद्धि हुई, इसी प्रकार के परिणाम गन्ने में मिले। ग्रीष्म दलहनों जैसे उड़द और मूंग को बसंत में रोपित गन्ने के अन्तः फसल के रूप में उगाने से गन्ने की उपज बढ़ी, साथ ही 4-5 कुंतल दलहन दाने/हेक्टेयर की उपज भी मिली।
दलहन अवशेषों का समायोजन- उत्तर-पश्चिम भारत में रबी फसलों की कटाई के बाद प्रायः कम अवधि वाली दलहनें उगायी जा सकती हैं। धान-गेहूं फसल प्रणाली में ग्रीष्म में मूंग की फसल से फली तोड़ने के बाद मूंग की खड़ी फसल की जुताई करके इसका प्रयोग हरी खाद के रूप में करने से धान की उपज में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।
फसल अवशेषों और पुनःचक्रीय अवशिष्टों का उर्वरकों से समाकलन- भारत में फसल अवशेषों और फार्म/औद्योगिक अवशिष्टों जैसे धान अथवा गेहूं का भूसा, धान का छिलका, गन्ने के अवशेष, आलू के डंठल, कपास अवशिष्ट, प्रेस मड़, वन का कूड़ा-कचरा, जल-कुम्भी आदि के उपयोग की काफी संभावनाएं हैं। उपलब्ध अवशिष्टों का केवल एक तिहाई ही कृषि उत्पादन में उपयोग होता है।
धान्य फसल अवशेष- फसल अवशेष जैसे गेहूं के भूसे में बहुत अधिक पोषक तत्व होते हैं लेकिन मृदा में समायोजन के लिए उपलब्ध नहीं होते। उन क्षेत्रों में जहां मशीनों द्वारा गेहूं की कटाई होती है खेतों में काफी मात्रा में फसल अवशेष रह जाते हैं जो पोषक आपूर्ति के लिए पुनः चक्रित किए जा सकते हैं। धान्य फसलों द्वारा लिए गए पोषक तत्वों में औसतन 25 प्रतिशत नाइट्रोजन और फास्फोरस, 50 प्रतिशत सल्फर और 75 प्रतिशत पोटाश फसल अवशेषों में रह जाते हैं जो बहुमूल्य पोषक स्रोत हैं।
आलू के डंठल- आलू के डंठलों की वार्षिक आकलित उपज 10 मिलियन टन है। इन अवशेषों में 2.5 प्रतिशत नाइट्रोजन होती है जो लगभग 30 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के बराबर है जब उन्हें हरी खाद के रूप में प्रयोग किया जाए।
गन्ने के अवशेष- गन्ने के अवशेष का प्रतिवर्ष लगभग 30-35 मिलियन टन उत्पादन होता है। अधिकतर किसान इसे जला देते हैं क्योंकि अन्य फसल अवशेषों की भांति इसका विघटन सरल नही है। उत्तर-दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में किए गए प्रक्षेत्र परीक्षणों में यह पाया गया कि 5 टन गन्ना अवशेष प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन के साथ मिलाकर उपयोग करने से गन्ने की उपज में वृद्धि हुई और 75 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक नाइट्रोजन उर्वरक की बचत हुई। गन्ने के अवशेष से मृदा की नाइट्रोजन की हानि में कमी आई और मृदा के कार्बनिक पदार्थ के स्तर में वृद्धि हुई।
औद्योगिक अवशिष्ट- औद्योगिक अवशिष्ट पदार्थों में चीनी मिल से प्राप्त मोलसेस एवं प्रेसमड प्रमुख हैं। दक्षिण भारत की काली मिट्टी में अन्य मिट्टियों की अपेक्षा प्रेसमड की पर्याप्त मात्रा को उर्वरकों के साथ उपयोग करने से गन्ने की अच्छी उपज मिलती है। मोदीपुरम में किए गए प्रक्षेत्र परीक्षणों में देखा गया कि प्रेसमड और नाइट्रोजन के उपयोग से धान की उपज में तो वृद्धि हुई साथ ही साथ आगे धान-गेहूं फसल प्रणाली को अवशेष प्रभाव से लाभ हुआ। अधिक पोषक मान के लिए अच्छी तरह विघटित प्रेसमड का उपयोग करना चाहिए।
जैव उर्वरकों और रासायनिक उर्वरकों का समाकलन- जैव उर्वरक वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण में वृद्धि करते हैं और मृदा में उपस्थित फास्फोरस की उपलब्धता को फसलों के लिए बढ़ाते हैं। नाइट्रोजन की आपूर्ति बढ़ाने वाले जैव उर्वरकों में नाइट्रोजन स्थिरीकारक जीवाणु (राइजोबियम, एजोटोबैक्टर एवं एजोस्पीरिलम), नील हरित शैवाल एवं एजौला महत्वपूर्ण हैं। फास्फोरस विलयकारी जीवाणु (पीएसबी) और माइकोराइजी मृदा में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाकर पौधों के लिए फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ाते हैं।
राइजोबियम- दलहन एवं तिलहन फसलों जैसे सोयाबीन, मूंगफली, चना, मटर, मूंग, उड़द, मसूर में राइजोबियम के प्रयोग से पैदावार में 10-25 प्रतिशत की वृद्धि की जा सकती है। राइजोबियम की अनुक्रिया को मृदा दशा, मृदा उर्वरकता, टीके की गुणवत्ता आदि कारक प्रभावित करते हैं। दलहन फसलों में राइजोबियम दलहन सहजीवन दलहन फसल की 80 प्रतिशत नाइट्रोजन आवश्यकता पूरी कर सकता है। साधारणतः एक एकड़ क्षेत्रफल के लिए एक पैकेट राइजोबियम कल्चर की आवश्यकता होती है।
एजोटोबैक्टर- एजोटोबैक्टर केला, पपीता, आलू, प्याज, टमाटर, भिण्डी, गन्ना, कपास, तंबाकू, मक्का, ज्वार, बाजरा, गेहूं, धान आदि फसलों में प्रयोग किया जाता है। एजोटोबैक्टर स्वतंत्र रूप से पौधों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं। एजोटोबैक्टर नाइट्रोजन स्थिरीकरण के अतिरिक्त इन्डोल एसिटिक एसिड, जिब्रेलिक एसिड तथा विटामिन भी उत्पन्न करते हैं। एजोटोबैक्टर के उपयोग से उर्वरक तुल्यांकों के संदर्भ में विभिन्न फसलों को 15-20 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर मिलती है।
एजोस्पीरिलम- धान, गन्ना, मोटे अनाज, कपास, कद्दूवर्गीय एवं उद्यानिकी फसलों में इसका प्रयोग किया जाता है। एजोस्पीरिलम पादप जड़ों के साथ मुक्त संबंध में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करता है। इसके प्रयोग से फसलों में 10-15 प्रतिशत तक की उपज में वृद्धि होती है। राइजोबियम की अपेक्षा एजोस्पीरिलम के प्रति फसल अनुक्रियाओं में समरूपता नहीं पाई गई तथा एजोस्पीरिलम के प्रति फसलों और उनकी किस्मों, स्थान, मौसम, फसल प्रबंधन पद्धतियों, जीवाणु विभेदों, और मृदा उर्वरकता का प्रभाव पड़ा।
नील हरित शैवाल- नील हरित शैवाल धान के लिए एक महत्वपूर्ण जैव उर्वरक है। यह एक विशेष प्रकार की काई (एलगी) होती है। इसकी विभिन्न प्रजातियां पायी जाती है जिनमें नॉस्टाक, एनाबिना, आइलोसिस, साइट्रोनिया आदि प्रमुख हैं। नाइट्रोजन स्थिरीकरण केवल उन्हीं शैवालों द्वारा किया जाता है जिनमें एक विशेष प्रकार की कोशिका (हेट्रोसिस्ट) होती है। इस प्रकार के शैवाल वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण तो करते ही है, साथ-साथ अनेक प्रकार के लाभकारी एवं आवश्यक रासायनिक पदार्थ जैसे विटामिन, वृद्धि नियामक, अमीनो अम्ल इत्यादि भी अवमुक्त करते हैं।
धान की फसल की रोपाई के एक से दो सप्ताह (7-10 दिन) के अंदर नील हरित शैवाल को पूरे खेत में बराबर मात्रा में बिखेर देना चाहिए। ध्यान रखने की बात यह है कि नील हरित शैवाल के प्रयोग के बाद कम से कम 15-20 दिन तक फसल में पानी भरा रहना चाहिए, जिससे शैवाल पूरे खेत में फैल सके। 10 किग्रा सूखा नील हरित शैवाल का चूर्ण एक हेक्टेयर धान की फसल के लिए पर्याप्त होता है तथा 100-200 किग्रा ताजी नील हरित शैवाल की आवश्यकता होती है। नील हरित शैवाल के प्रयोग से धान में 25-30 किग्रा उर्वरक नाइट्रोजन के बराबर नाइट्रोजन मिलती है और उपज में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि होती है। इसके प्रयोग से मृदा में फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ती है तथा अम्लीय भूमि में आयरन की विषाक्तता कम होती है।
फास्फोरस विलयकारी जीवाणु (पीएसबी वैम)- ये सूक्ष्म जीवाणु निम्न पीएच मान के कार्बनिक अम्ल छोड़ते हैं जिससे मृदा में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस घुलनशील फास्फोरस में परिवर्तित हो जाता है और फसल के लिए उपलब्ध होता है। इसके उपयोग से फास्फोरस की उपलब्धता में 10-30 प्रतिशत की वृद्धि होती है। पीएसबी कल्चर का प्रयोग धान, गेहूं, चना, मटर, आलू, गन्ना आदि फसलों में बहुत उपयोगी पाया गया है। वेसीकुलर आरबस्कुलर माइकाराइजी (वैम) जो पादप जड़ों और विशेष कवकों के सहजीवन का प्रकार है, फसलों में फास्फोरस की उपलब्धता और अधिग्रहण को बढ़ाता है।
जैव उर्वरकों की प्रयोग विधि- राइजोबियम, एजोटोबेक्टर, एजोस्पीरिलम व फास्फोरस विलयकारी सूक्ष्म जीवों को निम्न विधियों से प्रयोग किया जा सकता है -
बीज उपचार- एक पैकेट (200 ग्रा.) जैव उर्वरक का आधा लीटर पानी और 50 ग्राम गुड़ में घोल बनाकर 10-12 किग्रा के साथ अच्छी तरह मिलाकर किसी छायादार स्थान में सुखाने के तुरंत बाद ठंडे समय (सुबह) में बुवाई करें।
पौध (रोपणी) उपचार- धान, सब्जियों की पौध या गन्ना, आलू आदि के टुकड़े जिन्हें बीज के रूप में काम लिया जाना है, उनमें एक से तीन किग्रा (5-15 पैकेट) जैव उर्वरक को लगभग 50 लीटर पानी के घोल में 5-10 मिनट तक डुबोकर रोपाई करें।
भूमि उपचार- इस विधि में 100-125 किग्रा अच्छी सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट में 10-12 किग्रा जैव उर्वरक मिलाकर खेत की तैयारी के समय भूमि में मिलाएं। खड़ी फसल में भी जैव उर्वरक का प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिए सिंचाई से पहले या बाद में जैव उर्वरक को साफ व भुरभुरी मिट्टी में मिलाकर समान रूप से खड़ी फसल में बिखेर दें।
जैव उर्वरकों के लाभ
1. जैव उर्वरक पौधों के लिए आवश्यक सभी प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करते हैं।
2. इनके प्रयोग से मृदा में लाभकारी जीवाणुओं व केंचुओं की संख्या में वृद्धि होती है।
3. भूमि में स्थिर अघुलनशील फास्फोरस जीवाणुओं की सक्रियता से घुलनशील रूप में परिवर्तित होकर पौधों के लिए प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है।
4. इनके उपयोग से पौधों के लिए आवश्यक अनेक पादप वृद्धि नियामक भी मिलते हैं।
5. जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों की तुलना में कम समय और कम खर्च में तैयार हो जाते हैं।
6. जैव उर्वरकों का प्रभाव धीरे-धीरे होता है परंतु मृदा उर्वरकता लम्बे समय तक बनी रहती है जिससे रासायनिक उर्वरकों की तरह इन्हें बार-बार खेत में नहीं डालना चाहिए।
7. जैव उर्वरकों के प्रयोग से न सिर्फ रासायनिक उर्वरकों की खपत में कमी होती है बाल्कि रासायनिक उर्वरकों की उपयोग क्षमता भी बढ़ती है।
8. जैव उर्वरकों का प्रयोग मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से सर्वोत्तम है जो टिकाऊ खेती के महत्वपूर्ण कारक हैं।
जैव उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियां
1. जैव उर्वरक के पैकेट पर लिखे दिशा-निर्देश का पालन अवश्य करें।
2. पैकेट पर लिखी अंतिम तिथि से पहले प्रयोग करें।
3. जैव उर्वरक ठंडे व सूखे स्थान पर रखें।
4. प्रत्येक दलहनी फसल के लिए राइजोबियम की प्रजाति भिन्न-भिन्न होती है। अतः इनका प्रयोग फसलवार करना चाहिए।
5. जीवाणु कल्चर से शोधित बीज को कभी भी धूप में नहीं सुखाना चाहिए, इससे जीवाणु मर जाते हैं।
6. जीवाणु कल्चर के बीजशोधन के समय या उसके बाद किसी भी प्रकार के रसायन से बीज उपचार नहीं करना चाहिए। रसायन के जहरीले प्रभाव से जीवाणु मर सकते हैं। अतः यदि रसायन से बीज उपचारित करना हो तो इसे कल्चर शोधन से पहले करना चाहिए।
महत्वपूर्ण बिन्दु
1. मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करें।
2. रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ कार्बनिक खाद, जैविक उर्वरकों का भी प्रयोग करें।
3. फास्फोरस उर्वरक को बुवाई के समय कूड़े में डालें।
4. सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकतानुसार पूर्ति करें।
5. दलहनी फसलों के बीजों को राइजोबियम कल्चर से अवश्य उपचारित करें।
6. दलहनी फसल के बाद उगायी जाने वाली फसल में नाइट्रोजन की मात्रा में 15-20 प्रतिशत की कटौती करें।
7. जहां तक संभव हो सके फसल चक्र में एक दलहनी फसल अवश्य लें।
8. फसल उत्पादन की उन्नत प्रौद्योगिकी जैसे उचित फसल व प्रजाति का चयन, प्रमाणित बीज का प्रयोग, समय पर बुवाई, संस्तुत बीज दर, लाइनों में बुवाई, समुचित जल प्रबंध, खरपतवार व रोग प्रबंधन अपनाएं।
(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के सस्य विज्ञान संभाग में तकनीकी अधिकारी हैं।)
ई-मेल: madanpal.sirohi@yahoo.com
समेकित पोषक तत्व प्रबंधन प्राचीन प्रणाली है जिसका महत्व हरित क्रान्ति पूर्व समय में समकालीन जीवन निर्वाह खेती के कारण पहचाना नहीं गया। समेकित पोषक तत्व प्रबंधन का लक्ष्य पादप पोषकों के सभी प्रमुख स्रोतों का समाकलित रूप में कुशल और आवश्यकतानुसार उपयोग है जिससे मृदा की भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणवत्ताओं पर हानिकारक प्रभाव डाले बिना अधिकतम आर्थिक उत्पादन पाया जा सके। समेकित पोषक तत्व प्रबंधन सिद्धांत की आधारी संकल्पना का अर्थ लम्बे समय तक टिकाऊ फसल उत्पादकता के लिए मृदा उर्वरता को बनाए रखना और यदि हो सके, तो सुधार लाना है। समेकित पोषण आपूर्ति प्रणाली के प्रमुख उर्वरक, गोबर खाद, कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, हरी खाद, फसल अवशेष पुनः उपयोग किए जा सकने वाले अवशिष्ट और जैव उर्वरक हैं। उन घटकों में रासायनिक और भौतिक गुणों, पोषक निकालने की क्षमता, स्थानिक उपलब्धता, फसल विशिष्टता और फार्म स्वीकृति संबंधी बहुत विविधताएं हैं।
समेकित पोषक प्रबंधन में उर्वरक- सघन खेती के अंतर्गत उर्वरक समेकित पोषक आपूर्ति प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। उर्वरक क्योंकि पिछले वर्षों में उपज में हुई 50 प्रतिशत वृद्धि के लिए उत्तरदायी हैं अतः भारतीय कृषि में उनका महत्व आने वाले समय में और अधिक बढ़ने की संभावना है। मृदा पोषक स्रोत सघन खेती को टिकाऊ नहीं रख पाएंगे क्योंकि अधिक उत्पादकता वाले धान्य आधारित फसल चक्र, जो देश के विभिन्न भागों में अपनाए जा रहे हैं, 700-900 किग्रा नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश प्रति हेक्टेयर के अतिरिक्त बहुत अधिक मात्रा में गौण और सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपभोग कर लेते हैं।
निम्न उर्वरक उपयोग क्षमता- उर्वरक का उपभोग ही नहीं उसके उपयोग की क्षमता भी बहुत कम है। फसलों में अनुप्रयोग किए गए उर्वरकों के केवल 30-40 प्रतिशत भाग का ही उपयोग हो पाता है, शेष लीचिंग, वाष्पीकरण, बिनाइट्रीकरण, सतह से बहना, मृदाक्षरण एवं स्थिरीकरण आदि द्वारा नष्ट हो जाता है।
समेकित पोषक तत्व प्रबंधन सिद्धांत की आधारी संकल्पना का अर्थ लम्बे समय तक टिकाऊ फसल उत्पादकता के लिए मृदा उर्वरता को बनाए रखना और यदि हो सके, तो सुधार लाना है। उच्च विश्लेषण उर्वरकों का प्रयोग- पारंपरिक निम्न विश्लेषण उर्वरकों जैसे अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपरफॉस्फेट, कैल्शियम, अमोनियम नाइट्रेट, पोटेशियम सल्फेट आदि विगत में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की आपूर्ति के लिए उपयोग किए गए जिसके कारण अनजाने में ही गौण और सूक्ष्म पोषक तत्वों की काफी मात्रा इन उर्वरकों के साथ मृदा में चली जाती थी। आजकल रासायनिक रूप से शुद्ध उर्वरक जैसे यूरिया, डाइ अमोनियम फास्फेट और म्यूरेट ऑफ पोटाश के उपयोग पर बल दिया जा रहा है। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम के अतिरिक्त अन्य पोषकविहीन हैं। इन उर्वरकों का निरंतर प्रयोग और गौण तथा सूक्ष्म पोषकों का उर्वरकताहीन उत्पादन प्रणालियों द्वारा भारी अवशोषण ने बहुपोषक कमियों को सामने ला दिया है। अब भारतीय मृदा के 50 प्रतिशत में जिंक और सल्फर की विभिन्न मात्राओं में कमी 125 जिलों में उल्लेखित की गई है। ये आंकड़े रासायनिक उर्वरकों को दूसरे पोषक स्रोतों के साथ समाकलित करने की आवश्यकता पर और विशिष्ट फसलीय परिस्थितियों के लिए समेकित पोषक प्रबंधन विकल्प/पैकेजों को विकसित करने पर बल देते हैं।
उर्वरकों के साथ कार्बनिक खादों का समाकलन- कार्बनिक खादें जैसे गोबर की खाद और कम्पोस्ट पारंपरिक तौर से फसल उत्पादन और मृदा उर्वरकता तथा उपज के स्थायित्व के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। देश में गोबर की खाद और कम्पोस्ट बनाने और उपयोग की बड़ी संभावनाएं हैं।
उत्पादन पर प्रभाव- अखिल भारतीय समन्वित सस्य अनुसंधान परियोजना के अंतर्गत किए गए बहुस्थानिक प्रयोगों में देखा गया है कि गोबर की खाद और उर्वरकों के समेकित उपयोग से विभिन्न फसली प्रणालियों में मृदा उर्वरकता में सुधार के कारण अधिक उत्पादन प्राप्त हुआ। परिणामों में यह भी देखा गया है कि खरीफ फसलों में गोबर की खाद के प्रयोग से उर्वरक की आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है। रबी की फसल में उर्वरक की मात्रा 25 प्रतिशत कम की जा सकती है बशर्ते उसमें पहले खरीफ फसल की 25 प्रतिशत नाइट्रोजन आवश्यकता धान-धान और धान-गेहूं फसल प्रणालियों में गोबर की खाद का प्रयोग करके की जाए।
गोबर की खाद जहां वर्तमान फसल को लाभ पहुंचाती है वहीं आगे की फसल को अवशेष प्रभाव से लाभ पहुंचाती है।गोबर की खाद जहां वर्तमान फसल को लाभ पहुंचाती है वहीं आगे की फसल को अवशेष प्रभाव से लाभ पहुंचाती है। लुधियाना में 80 किग्रा नाइट्रोजन और 120 कुंतल गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर से प्राप्त धान की उपज 120 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की अपेक्षा अधिक थी और इसका अवशेष प्रभाव आगे गेहूं की फसल में 30 किग्रा नाइट्रोजन और 30 किग्रा फास्फोरस प्रति हेक्टेयर रासायनिक उर्वरकों के बराबर धान-गेहूं प्रणाली में पाया गया।
मृदा उर्वरकता पर प्रभाव- गोबर की खाद और कम्पोस्ट का उर्वरकों के साथ उपयोग जहां पादप पोषकों की आपूर्ति का सीधा साधन है वहीं अप्रत्यक्ष रूप से भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में सुधार लाकर फसल उत्पादकता को बढ़ाता है। कई फसलों में किए गए परीक्षणों में देखा गया है कि अकेले उर्वरक प्रयोग की अपेक्षा गोबर की खाद और सिफारिश किए गए उर्वरक स्तरों से मृदा के कार्बनिक कार्बन स्तर और सूक्ष्म पोषकों की उपलब्धता में सुधार आता है। गोबर की खाद और उर्वरकों के समेकित प्रयोग से मृदा के भौतिक गुणों जैसे स्थूल घनत्व, जलधारण क्षमता, हाइड्रोलिक संचालन और सूक्ष्म जैविक गुणों जैसे एजोटोबैक्टर तथा अन्य सूक्ष्म जीवों की गणना में सुधार हुआ।
हरी खाद का उर्वरकों के साथ समाकलन- प्राचीनकाल से ही दलहनी एवं गैर-दलहनी फसलों का उपयोग हरी खाद के रूप में काफी प्रचलित रहा है। वर्तमान में सघन खेती के कारण हरी खाद का उपयोग केवल खेती योग्य भूमि के लगभग 4 प्रतिशत क्षेत्र में ही सीमित है तथा इसे अधिक व्यापक रूप से प्रचलित करने की काफी संभावनाएं हैं। हरी खाद मुख्यतः सिंचित क्षेत्र में सफल हो पाई है क्योंकि इस प्रकार की भूमि में पोषक तत्वों का खनिजीकरण तेजी से होता है। कुछ दलहनी फसलें जैसे ढ़ैंचा, सनई, सुबबूल, लोबिया, मूंग, उड़द, ग्वार आदि हरी खाद के रूप में काफी लोकप्रिय हैं (सारणी-1)।
सारणी-1: प्रमुख हरी खाद की फसलें एवं उनके द्वारा नाइट्रोजन का योगदान | ||
फसल | 7-8 सप्ताह में हरी खाद (टन/हेक्टेयर) | नाइट्रोजन योगदान (किग्रा/हेक्टेयर) |
सनई | 21.2 | 91.0 |
ढ़ैंचा | 20.2 | 86.0 |
मूंग | 8.0 | 42.0 |
लोबिया | 15.0 | 74.0 |
ग्वार | 20.0 | 68.0 |
सैंजी | 28.6 | 163.0 |
हरी खाद की फसल को मुख्य फसल बोने से 8-10 दिन पहले खेत में जोत दिया जाता है। हरी खाद की फसलों को केवल वानस्पतिक वृद्धि अवस्था तक ही उगने दिया जाता है जिससे हरी खाद के कोमल पत्ते, तना आदि भूमि में जल्दी सड़-गल जाएं। यह खाद खनिज भंडारण का काम करती है जिससे खनिज तत्वों की उपलब्धता धीमी किंतु लगातार गति से बनी रहती है। हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाने वाली फसलों सिसबेनिया रोस्ट्रेटा, ऐस्केनोमिनी ऐस्परा और ऐस्केनोमिनी इंडिका न केवल जड़ अपितु तने पर भी नाइट्रोजन यौगिकीकरण ग्रंथिका धारण करने में सक्षम है। ये दलहनी फसलें मुख्यतौर पर जलक्रांत क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं, इसलिए खासतौर पर धान की फसल के लिए लाभकारी हैं। हरी खाद की फसलें भूमि में मुख्य पोषक तत्वों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जिंक, आयरन, मैंगनीज, कॉपर, मोलिब्डीनम आदि भी प्रदान करती हैं और भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाकर भूमि की भौतिक दशा में सुधार करती हैं।
फसल उत्पादन का प्रभाव- अखिल भारतीय परीक्षणों में देखा गया है कि ढ़ैंचा या सनई की हरी खाद धान-धान्य फसल प्रणाली में उर्वरकों का उचित संपूरक है। हरी खाद और सिफारिश किए गए उर्वरक स्तरों से दोनों फसलें लाभान्वित हुई और लुधियाना में इस प्रणाली के अंतर्गत कुल उत्पादकता में 20 प्रतिशत, कानपुर (धान-गेहूं) में 8 प्रतिशत और बिचपुरी (बाजरा-गेहूं) में 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। ढ़ैंचा की फसल को हरी खाद के रूप में उगाने से 80-100 किग्रा नाइट्रोजन तथा 30 किग्रा फास्फोरस प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है। धान की फसल में हरी खाद लगाने से फास्फोरस और पोटाश के उपयोग में 10-12 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई है।
वर्मी कम्पोस्ट से भूमि की उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है तथा भूमि की भौतिक दशा में सुधार होता है जिसके परिणामस्वरूप फसल उत्पादकता में वृद्धि होती है।वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद)- यह भूमि की उर्वराशक्ति बनाए रखने का एक प्राकृतिक तरीका है। केंचुए मिट्टी को हवादार वातायन करने में सहायक हैं। केंचुए फसलों के अवशेष, घास-फूस, कूड़ा, बची हुई शाक, फल-फूल आदि को खाकर वर्मी कम्पोस्ट में परिवर्तित करते हैं और अपनी संख्या बढ़ाते रहते हैं। वर्मी कम्पोस्ट में उपस्थित पोषक तत्व कई बातों पर निर्भर करते हैं उनमें से मुख्य हैं वर्मी कम्पोस्ट के लिए उपयोग में आने वाले फसल अवशेष की गुणवत्ता तथा उपयोग में आने वाले केंचुए की किस्म। वर्मी कम्पोस्ट से भूमि की उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है तथा भूमि की भौतिक दशा में सुधार होता है जिसके परिणामस्वरूप फसल उत्पादकता में वृद्धि होती है।
दलहनी अन्तः फसल- अन्तः फसल के लिए कम अवधि और सीधी खड़ी दलहनी फसल अधिक उपयोगी पाई गई है। मोदीपुरम, पालमपुर एवं रांची में अकेले मक्का पर आधारित फसल प्रणाली में मक्का की अपेक्षा मक्का और उड़द की अन्तः फसल से मक्का की उपज में वृद्धि हुई, इसी प्रकार के परिणाम गन्ने में मिले। ग्रीष्म दलहनों जैसे उड़द और मूंग को बसंत में रोपित गन्ने के अन्तः फसल के रूप में उगाने से गन्ने की उपज बढ़ी, साथ ही 4-5 कुंतल दलहन दाने/हेक्टेयर की उपज भी मिली।
दलहन अवशेषों का समायोजन- उत्तर-पश्चिम भारत में रबी फसलों की कटाई के बाद प्रायः कम अवधि वाली दलहनें उगायी जा सकती हैं। धान-गेहूं फसल प्रणाली में ग्रीष्म में मूंग की फसल से फली तोड़ने के बाद मूंग की खड़ी फसल की जुताई करके इसका प्रयोग हरी खाद के रूप में करने से धान की उपज में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।
फसल अवशेषों और पुनःचक्रीय अवशिष्टों का उर्वरकों से समाकलन- भारत में फसल अवशेषों और फार्म/औद्योगिक अवशिष्टों जैसे धान अथवा गेहूं का भूसा, धान का छिलका, गन्ने के अवशेष, आलू के डंठल, कपास अवशिष्ट, प्रेस मड़, वन का कूड़ा-कचरा, जल-कुम्भी आदि के उपयोग की काफी संभावनाएं हैं। उपलब्ध अवशिष्टों का केवल एक तिहाई ही कृषि उत्पादन में उपयोग होता है।
धान्य फसल अवशेष- फसल अवशेष जैसे गेहूं के भूसे में बहुत अधिक पोषक तत्व होते हैं लेकिन मृदा में समायोजन के लिए उपलब्ध नहीं होते। उन क्षेत्रों में जहां मशीनों द्वारा गेहूं की कटाई होती है खेतों में काफी मात्रा में फसल अवशेष रह जाते हैं जो पोषक आपूर्ति के लिए पुनः चक्रित किए जा सकते हैं। धान्य फसलों द्वारा लिए गए पोषक तत्वों में औसतन 25 प्रतिशत नाइट्रोजन और फास्फोरस, 50 प्रतिशत सल्फर और 75 प्रतिशत पोटाश फसल अवशेषों में रह जाते हैं जो बहुमूल्य पोषक स्रोत हैं।
आलू के डंठल- आलू के डंठलों की वार्षिक आकलित उपज 10 मिलियन टन है। इन अवशेषों में 2.5 प्रतिशत नाइट्रोजन होती है जो लगभग 30 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के बराबर है जब उन्हें हरी खाद के रूप में प्रयोग किया जाए।
गन्ने के अवशेष- गन्ने के अवशेष का प्रतिवर्ष लगभग 30-35 मिलियन टन उत्पादन होता है। अधिकतर किसान इसे जला देते हैं क्योंकि अन्य फसल अवशेषों की भांति इसका विघटन सरल नही है। उत्तर-दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में किए गए प्रक्षेत्र परीक्षणों में यह पाया गया कि 5 टन गन्ना अवशेष प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन के साथ मिलाकर उपयोग करने से गन्ने की उपज में वृद्धि हुई और 75 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक नाइट्रोजन उर्वरक की बचत हुई। गन्ने के अवशेष से मृदा की नाइट्रोजन की हानि में कमी आई और मृदा के कार्बनिक पदार्थ के स्तर में वृद्धि हुई।
औद्योगिक अवशिष्ट- औद्योगिक अवशिष्ट पदार्थों में चीनी मिल से प्राप्त मोलसेस एवं प्रेसमड प्रमुख हैं। दक्षिण भारत की काली मिट्टी में अन्य मिट्टियों की अपेक्षा प्रेसमड की पर्याप्त मात्रा को उर्वरकों के साथ उपयोग करने से गन्ने की अच्छी उपज मिलती है। मोदीपुरम में किए गए प्रक्षेत्र परीक्षणों में देखा गया कि प्रेसमड और नाइट्रोजन के उपयोग से धान की उपज में तो वृद्धि हुई साथ ही साथ आगे धान-गेहूं फसल प्रणाली को अवशेष प्रभाव से लाभ हुआ। अधिक पोषक मान के लिए अच्छी तरह विघटित प्रेसमड का उपयोग करना चाहिए।
जैव उर्वरकों और रासायनिक उर्वरकों का समाकलन- जैव उर्वरक वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण में वृद्धि करते हैं और मृदा में उपस्थित फास्फोरस की उपलब्धता को फसलों के लिए बढ़ाते हैं। नाइट्रोजन की आपूर्ति बढ़ाने वाले जैव उर्वरकों में नाइट्रोजन स्थिरीकारक जीवाणु (राइजोबियम, एजोटोबैक्टर एवं एजोस्पीरिलम), नील हरित शैवाल एवं एजौला महत्वपूर्ण हैं। फास्फोरस विलयकारी जीवाणु (पीएसबी) और माइकोराइजी मृदा में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाकर पौधों के लिए फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ाते हैं।
राइजोबियम- दलहन एवं तिलहन फसलों जैसे सोयाबीन, मूंगफली, चना, मटर, मूंग, उड़द, मसूर में राइजोबियम के प्रयोग से पैदावार में 10-25 प्रतिशत की वृद्धि की जा सकती है। राइजोबियम की अनुक्रिया को मृदा दशा, मृदा उर्वरकता, टीके की गुणवत्ता आदि कारक प्रभावित करते हैं। दलहन फसलों में राइजोबियम दलहन सहजीवन दलहन फसल की 80 प्रतिशत नाइट्रोजन आवश्यकता पूरी कर सकता है। साधारणतः एक एकड़ क्षेत्रफल के लिए एक पैकेट राइजोबियम कल्चर की आवश्यकता होती है।
एजोटोबैक्टर- एजोटोबैक्टर केला, पपीता, आलू, प्याज, टमाटर, भिण्डी, गन्ना, कपास, तंबाकू, मक्का, ज्वार, बाजरा, गेहूं, धान आदि फसलों में प्रयोग किया जाता है। एजोटोबैक्टर स्वतंत्र रूप से पौधों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं। एजोटोबैक्टर नाइट्रोजन स्थिरीकरण के अतिरिक्त इन्डोल एसिटिक एसिड, जिब्रेलिक एसिड तथा विटामिन भी उत्पन्न करते हैं। एजोटोबैक्टर के उपयोग से उर्वरक तुल्यांकों के संदर्भ में विभिन्न फसलों को 15-20 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर मिलती है।
एजोस्पीरिलम- धान, गन्ना, मोटे अनाज, कपास, कद्दूवर्गीय एवं उद्यानिकी फसलों में इसका प्रयोग किया जाता है। एजोस्पीरिलम पादप जड़ों के साथ मुक्त संबंध में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करता है। इसके प्रयोग से फसलों में 10-15 प्रतिशत तक की उपज में वृद्धि होती है। राइजोबियम की अपेक्षा एजोस्पीरिलम के प्रति फसल अनुक्रियाओं में समरूपता नहीं पाई गई तथा एजोस्पीरिलम के प्रति फसलों और उनकी किस्मों, स्थान, मौसम, फसल प्रबंधन पद्धतियों, जीवाणु विभेदों, और मृदा उर्वरकता का प्रभाव पड़ा।
नील हरित शैवाल- नील हरित शैवाल धान के लिए एक महत्वपूर्ण जैव उर्वरक है। यह एक विशेष प्रकार की काई (एलगी) होती है। इसकी विभिन्न प्रजातियां पायी जाती है जिनमें नॉस्टाक, एनाबिना, आइलोसिस, साइट्रोनिया आदि प्रमुख हैं। नाइट्रोजन स्थिरीकरण केवल उन्हीं शैवालों द्वारा किया जाता है जिनमें एक विशेष प्रकार की कोशिका (हेट्रोसिस्ट) होती है। इस प्रकार के शैवाल वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण तो करते ही है, साथ-साथ अनेक प्रकार के लाभकारी एवं आवश्यक रासायनिक पदार्थ जैसे विटामिन, वृद्धि नियामक, अमीनो अम्ल इत्यादि भी अवमुक्त करते हैं।
धान की फसल की रोपाई के एक से दो सप्ताह (7-10 दिन) के अंदर नील हरित शैवाल को पूरे खेत में बराबर मात्रा में बिखेर देना चाहिए। ध्यान रखने की बात यह है कि नील हरित शैवाल के प्रयोग के बाद कम से कम 15-20 दिन तक फसल में पानी भरा रहना चाहिए, जिससे शैवाल पूरे खेत में फैल सके। 10 किग्रा सूखा नील हरित शैवाल का चूर्ण एक हेक्टेयर धान की फसल के लिए पर्याप्त होता है तथा 100-200 किग्रा ताजी नील हरित शैवाल की आवश्यकता होती है। नील हरित शैवाल के प्रयोग से धान में 25-30 किग्रा उर्वरक नाइट्रोजन के बराबर नाइट्रोजन मिलती है और उपज में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि होती है। इसके प्रयोग से मृदा में फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ती है तथा अम्लीय भूमि में आयरन की विषाक्तता कम होती है।
फास्फोरस विलयकारी जीवाणु (पीएसबी वैम)- ये सूक्ष्म जीवाणु निम्न पीएच मान के कार्बनिक अम्ल छोड़ते हैं जिससे मृदा में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस घुलनशील फास्फोरस में परिवर्तित हो जाता है और फसल के लिए उपलब्ध होता है। इसके उपयोग से फास्फोरस की उपलब्धता में 10-30 प्रतिशत की वृद्धि होती है। पीएसबी कल्चर का प्रयोग धान, गेहूं, चना, मटर, आलू, गन्ना आदि फसलों में बहुत उपयोगी पाया गया है। वेसीकुलर आरबस्कुलर माइकाराइजी (वैम) जो पादप जड़ों और विशेष कवकों के सहजीवन का प्रकार है, फसलों में फास्फोरस की उपलब्धता और अधिग्रहण को बढ़ाता है।
जैव उर्वरकों की प्रयोग विधि- राइजोबियम, एजोटोबेक्टर, एजोस्पीरिलम व फास्फोरस विलयकारी सूक्ष्म जीवों को निम्न विधियों से प्रयोग किया जा सकता है -
बीज उपचार- एक पैकेट (200 ग्रा.) जैव उर्वरक का आधा लीटर पानी और 50 ग्राम गुड़ में घोल बनाकर 10-12 किग्रा के साथ अच्छी तरह मिलाकर किसी छायादार स्थान में सुखाने के तुरंत बाद ठंडे समय (सुबह) में बुवाई करें।
पौध (रोपणी) उपचार- धान, सब्जियों की पौध या गन्ना, आलू आदि के टुकड़े जिन्हें बीज के रूप में काम लिया जाना है, उनमें एक से तीन किग्रा (5-15 पैकेट) जैव उर्वरक को लगभग 50 लीटर पानी के घोल में 5-10 मिनट तक डुबोकर रोपाई करें।
भूमि उपचार- इस विधि में 100-125 किग्रा अच्छी सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट में 10-12 किग्रा जैव उर्वरक मिलाकर खेत की तैयारी के समय भूमि में मिलाएं। खड़ी फसल में भी जैव उर्वरक का प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिए सिंचाई से पहले या बाद में जैव उर्वरक को साफ व भुरभुरी मिट्टी में मिलाकर समान रूप से खड़ी फसल में बिखेर दें।
जैव उर्वरकों के लाभ
1. जैव उर्वरक पौधों के लिए आवश्यक सभी प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करते हैं।
2. इनके प्रयोग से मृदा में लाभकारी जीवाणुओं व केंचुओं की संख्या में वृद्धि होती है।
3. भूमि में स्थिर अघुलनशील फास्फोरस जीवाणुओं की सक्रियता से घुलनशील रूप में परिवर्तित होकर पौधों के लिए प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है।
4. इनके उपयोग से पौधों के लिए आवश्यक अनेक पादप वृद्धि नियामक भी मिलते हैं।
5. जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों की तुलना में कम समय और कम खर्च में तैयार हो जाते हैं।
6. जैव उर्वरकों का प्रभाव धीरे-धीरे होता है परंतु मृदा उर्वरकता लम्बे समय तक बनी रहती है जिससे रासायनिक उर्वरकों की तरह इन्हें बार-बार खेत में नहीं डालना चाहिए।
7. जैव उर्वरकों के प्रयोग से न सिर्फ रासायनिक उर्वरकों की खपत में कमी होती है बाल्कि रासायनिक उर्वरकों की उपयोग क्षमता भी बढ़ती है।
8. जैव उर्वरकों का प्रयोग मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से सर्वोत्तम है जो टिकाऊ खेती के महत्वपूर्ण कारक हैं।
जैव उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियां
1. जैव उर्वरक के पैकेट पर लिखे दिशा-निर्देश का पालन अवश्य करें।
2. पैकेट पर लिखी अंतिम तिथि से पहले प्रयोग करें।
3. जैव उर्वरक ठंडे व सूखे स्थान पर रखें।
4. प्रत्येक दलहनी फसल के लिए राइजोबियम की प्रजाति भिन्न-भिन्न होती है। अतः इनका प्रयोग फसलवार करना चाहिए।
5. जीवाणु कल्चर से शोधित बीज को कभी भी धूप में नहीं सुखाना चाहिए, इससे जीवाणु मर जाते हैं।
6. जीवाणु कल्चर के बीजशोधन के समय या उसके बाद किसी भी प्रकार के रसायन से बीज उपचार नहीं करना चाहिए। रसायन के जहरीले प्रभाव से जीवाणु मर सकते हैं। अतः यदि रसायन से बीज उपचारित करना हो तो इसे कल्चर शोधन से पहले करना चाहिए।
महत्वपूर्ण बिन्दु
1. मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करें।
2. रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ कार्बनिक खाद, जैविक उर्वरकों का भी प्रयोग करें।
3. फास्फोरस उर्वरक को बुवाई के समय कूड़े में डालें।
4. सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकतानुसार पूर्ति करें।
5. दलहनी फसलों के बीजों को राइजोबियम कल्चर से अवश्य उपचारित करें।
6. दलहनी फसल के बाद उगायी जाने वाली फसल में नाइट्रोजन की मात्रा में 15-20 प्रतिशत की कटौती करें।
7. जहां तक संभव हो सके फसल चक्र में एक दलहनी फसल अवश्य लें।
8. फसल उत्पादन की उन्नत प्रौद्योगिकी जैसे उचित फसल व प्रजाति का चयन, प्रमाणित बीज का प्रयोग, समय पर बुवाई, संस्तुत बीज दर, लाइनों में बुवाई, समुचित जल प्रबंध, खरपतवार व रोग प्रबंधन अपनाएं।
(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के सस्य विज्ञान संभाग में तकनीकी अधिकारी हैं।)
ई-मेल: madanpal.sirohi@yahoo.com
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