यह सच है कि शिक्षा, जनस्वास्थ्य तथा आधारभूत विकास सहित मानवीय जीवन स्थितियों में बड़े-बड़े बदलाव रातों-रात नहीं आ सकते, चाहे मोदी सरकार हो या कोई अन्य सरकार। फिर भी नाकामियों से भरे हुए अनेक दशक इस बात की माँग करते हैं कि नीतियों, रणनीतियों और विकास की मूलभूत अवधारणाओं में बदलाव किया जाए।
यह कैसे हो गया कि हमारी जनता के अधिकतर प्रतिनिधि उन गाँवों के विकास में अपनी रुचि को बरकरार रख पाने के योग्य नहीं, जिन गाँवों का वे प्रतिनिधित्व करते हैं? मैं यह मुद्दा एक ताजा रिपोर्ट के सन्दर्भ में उठा रहा हूँ जिसमें कहा गया है कि लोकसभा के 543 में से कम-से-कम 475 सांसदों ने ऐसे गाँवों को चिन्हित करने की भी जहमत नहीं उठाई जिन्हें वे प्रधानमंत्री द्वारा बहुत धूमधाम के बीच शुरू की गई सांसद आदर्श ग्राम योजना (एस.ए.जी.वाई.) के तीसरे दौर के अन्तर्गत विकसित करेंगे।इस योजना के प्रथम दौर के अन्तर्गत दोनों ही सदनों के प्रत्येक सासंद से यह अपेक्षा की गई थी कि वह अपने चुनाव क्षेत्र में एक ऐसे गाँव का चयन करेगा जिसे 2016 तक विकास की दृष्टि से ‘आदर्श ग्राम’ बनाया जा सके। 2019 तक प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में 2 अन्य ग्राम पंचायतों पर भी विकसित आदर्श ग्राम की मोहर लगनी थी। प्रधानमंत्री की यह योजना निश्चय ही सराहनीय है क्योंकि यह सांसदों को जमीनी स्तर पर सर्वांगीण विकास से जोड़े रखेगी।
शुरुआत तो बहुत बढ़िया हुई थी। एस.ए.जी.वाई. योजना के प्रथम वर्ष में कम-से-कम 500 लोकसभा सांसदों और 203 राज्यसभा सांसदों ने गाँव चिन्हित कर दिए थे। इसके दूसरे दौर में 234 लोकसभा सांसद तथा राज्यसभा के 243 में से 136 सांसद किसी भी गाँव को चिन्हित करने में विफल रहे। अन्तिम यानी तीसरे दौर में 90 प्रतिशत सांसदों ने अभी तक किसी गाँव को गोद नहीं लिया है जबकि 2019 की अन्तिम समय सीमा बहुत तेजी से दहाड़ती हुई हमारे समीप पहुँच रही है। सांसदों की लगातार घटती रुचि क्या इस योजना में किसी अन्तर्निहित त्रुटि की ओर इंगित करती है? या फिर सांसदों को लगता है कि इस काम पर उन्हें समय तो बहुत अधिक देना पड़ेगा जबकि राजनीतिक या अन्य दृष्टि से यह उनके लिये कोई अधिक लाभदायक नहीं?
निःसन्देह इस योजना में कुछ त्रुटियाँ हैं। पहले नम्बर पर तो इसमें आदर्श ग्राम विकसित करने के लिये अलग से बजट का प्रावधान नहीं किया गया क्योंकि सरकार पहले से चल रही विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों का विलय करना चाहती है।
दूसरी बात यह है कि सांसद (खासतौर पर लोकसभा से सम्बन्धित सांसद) यह महसूस करते हैं कि अपने चुनाव क्षेत्र में एक ही गाँव का चयन करने से विपरीत और श्रृंखलाबद्ध प्रक्रिया शुरू हो सकती है जो उनके लिये राजनीतिक दृष्टि से हितकर नहीं होगी। इस दलील में सचमुच दम है।
तीसरे नम्बर पर सांसदों को ग्राम पंचायतों में बिल्कुल सूक्ष्म स्तर के कार्यों की मॉनीटरिंग पर भी ध्यान देना होगा, जबकि यह काम विधायकों के क्षेत्राधिकार में आता है। जिस स्थिति में विधायक और सांसद अलग-अलग राजनीतिक दलों से सम्बन्धित हों, खासतौर पर उस मामले में बिना वजह ही हितों का बहुत बड़ा टकराव पैदा हो सकता है।
एस.ए.जी.वाई. योजना मोदी के विकास सूत्र की एक उम्दा उदाहरण है। इस सूत्र का उम्दा पहलू यह है कि जमीनी हकीकतों को अच्छी तरह जाँचे-परखे बिना ही योजनाएँ आनन-फानन में घोषित कर दी जाती हैं। नोटबन्दी के मामले में ऐसा ही हुआ था और यही कुछ जी.एस.टी. के मामले में किया गया। दोनों ही योजनाएँ कार्यान्वयन सम्बन्धित तथा अन्य त्रुटियों से भरी हुई थीं।
माननीय प्रधानमंत्री को यह महसूस होना चाहिए कि अस्त-व्यस्त विचार दीर्घकालिक रूप में बिल्कुल ही अवांछित नतीजे पैदा कर सकते हैं। प्रत्येक विकास योजना और सुधारों की पहल जमीनी हकीकतों से एक सुर होनी चाहिए। यह भी समझने की जरूरत है कि अनेक विभिन्नताओं से भरे हुए इस विशाल देश में विकास कार्यों के प्रति एक जैसी पहुँच नहीं अपनाई जा सकती। हर 20-25 जिलों के बाद भारत का चेहरा-मोहरा बदल जाता है।
इस विकट चुनौती का केवल एक ही समाधान है कि नीति निर्धारण और योजनाबन्दी का विकेन्द्रीकरण किया जाए। इतनी ही महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि ग्रामीण विकास के लिये वित्तीय एवं कामकाजी दृष्टि से पंचायतों का सशक्तिकरण किया जाए।
विकास कार्यों की मॉनीटरिंग सामान्यतः जिला स्तरीय प्रशासन द्वारा की जाती है। सम्बन्धित गाँवों की बदलती माँग और अपेक्षाओं के अनुरूप वरीयताओं की समीक्षा एवं पुनर्निर्धारण के आधार पर सांसदों और विधायकों को इनसे छमाही या वार्षिक आधार पर सम्बद्ध किया जा सकता है।
आज की जटिल परिस्थितियों में जरूरत इस बात की है कि विकास प्रक्रिया का गैर राजनीतिकरण किया जाए। हर प्रकार के विकास कार्यों को किसी भी तरह की राजनीतिक या गुटबन्दी की ऐनक में से नहीं देखा जाना चाहिए।
विकास के लिये जहाँ ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के बीच आधारभूत ढाँचे की दृष्टि से तारतम्य बैठाने की जरूरत है, वहीं सैक्षनिक, स्वास्थ्यपरक रूप में लोगों का सशक्तिकरण भी जरूरी है। इस सब कुछ के लिये उनके जीवन की आधारभूत जरूरतें अवश्य ही पूरी होनी चाहिए।
आज की स्थिति यह है कि देश का समूचा विकास किसी भी तरह प्रशंसनीय नहीं। मैं बड़े-बड़े प्रोजेक्टों और योजनाओं की बात नहीं करना चाहता जिनकी त्रुटियों की एक लम्बी रामकथा है। मुझे तो यह चीज विचलित करती है कि वाशिंगटन स्थित अन्तरराष्ट्रीय खाद्यान्न नीति शोध संस्थान (आई.एफ.पी.आर.आई.) ने 2017 के लिये ‘ग्लोबल हंगर रिसर्च इंडेक्स’ (जी.एच.आई.) में जिन 119 देशों का अध्ययन किया गया उनमें से भारत 100वें स्थान पर है। वास्तव में 2016 की तुलना में देश तीन दर्जे नीचे खिसका है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 2017 के हंगर इंडेक्स में भारत युद्ध से बुरी तरह पीड़ित इराक और उत्तर कोरिया से भी फिसड्डी है। सांत्वना की केवल एक ही बात है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और दक्षिण एशिया के कई देश भारत से भी नीचे हैं।
यह सच है कि शिक्षा, जनस्वास्थ्य तथा आधारभूत विकास सहित मानवीय जीवन स्थितियों में बड़े-बड़े बदलाव रातों-रात नहीं आ सकते, चाहे मोदी सरकार हो या कोई अन्य सरकार। फिर भी नाकामियों से भरे हुए अनेक दशक इस बात की माँग करते हैं कि नीतियों, रणनीतियों और विकास की मूलभूत अवधारणाओं में बदलाव किया जाए। विकास की सभी गतिविधियाँ गाँवों की जमीनी हकीकतों से एक सुर होनी चाहिए। इस मामले में जहाँ-जहाँ भी त्रुटियाँ रह गई हैं उन्हें नए सिरे से चिन्हित किया जाना चाहिए और नई कार्य योजनाएँ नए सिरे से तैयार करके युद्ध स्तर पर उनका निष्पादन होना चाहिए।
वास्तव में नीति आयोग के योजनाकारों तथा नेताओं के समक्ष वास्तविक चुनौती यह है कि गरीब लोगों को विकास एवं वृद्धि के नए अवसरों के माध्यम से “मानव संसाधनों और अर्थव्यवस्था की खुशहाली” में तार्किक हिस्सेदारी कैसे मिल सके। यह तभी सम्भव होगा यदि सत्ता के कर्णधार भारतीय समाज में मौजूदा असन्तुलनों से जल्दी से जल्दी मुक्ति हासिल करने के लिये सुधारात्मक कदम उठाएँ।
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