आदिवासियों को अधिकार देने की दिशा में मील का पत्थर

वन अधिकार कानून 2006 के नाम से मशहूर, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) कानून, 2006 आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। वन अधिकार कानून 2006 के नाम से मशहूर, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) कानून, 2006 आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। 17 राज्यों में इनकी संख्या हमारी कुल आबादी का 8.2 प्रतिशत है। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार जब मई 2004 में सत्ता में आई, तो उसके साझा न्यूनतम कार्यक्रम में वादा किया गया कि स्वामित्व का अधिकार कमजोर तबके के उन सभी लोगों को दिया जाएगा जो वनों में काम करते हैं, चाहे वह तेन्दु पत्ता सहित छोटे वन उत्पादों से जुड़े क्यों न हों। इसके अलावा आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से खासतौर से वनों पर निर्भर रहने वाले आदिवासी समुदायों को जोड़ने के लिए सभी उपाय करने की बात कही गई थी। और तो और, सीएमपी में कहा गया कि विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित हुए आदिवासी और अन्य समूहों के लिए राहत और पुनर्वास के उपाय भी किए जाएँगे; भूमि से अलग कर दिए गए आदिवासी लोगों को फिर से बसाया जाएगा और खनिज संसाधनों, जल संसाधनों आदि पर आदिवासी समुदायों के अधिकारों को कानून के मुताबिक संरक्षण दिया जाएगा। अगर देखा जाए तो वन अधिकार कानून, 2006 यूपीए के वादे को पूरा करता है।

13 दिसम्बर, 2005 को अनुसूचित जनजाति (वन अधिकारों को मान्यता) विधेयक, 2005 को संसद में पेश किए जाने के बाद, इसके फायदे और नुकसान पर एक साल से भी ज्यादा समय तक सार्वजनिक बहस हुई। संयुक्त संसदीय समिति और मन्त्रियों के समूह की सिफारिशों के बाद, विधेयक को शीर्षक दिया गया : ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) कानून 2006’ और इसे लोकसभा ने 13 दिसम्बर, 2006 को पारित कर दिया। राष्ट्रपति ने 29 दिसम्बर, 2006 को इसे अपनी मंजूरी दी और 2 जनवरी, 2007 को यह अस्तित्व में आ गया।

वन अधिकार कानून 2006 की खूबियाँ


1. यह कानून वनों में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारम्परिक वनवासियों के वन अधिकारों और कब्ज़े को मान्यता देता है जो कई पीढ़ियों से वन में रह रहे हैं लेकिन उनके अधिकार दर्ज नहीं किए गए हैं। यह वन अधिकार दर्ज कराने के लिए एक ढाँचा भी प्रदान करता है।

2. जैव विविधता के संरक्षण और वनों का पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाए रखने के लिए कानून में वनवासियों की भूमिका को मान्यता दी गई है जिन पर वन का पारिस्थितिकी सन्तुलन और उनको बरकरार रखना काफी हद तक निर्भर करता है।

3. इस कानून में अन्य पारम्परिक वनवासियों को वन अधिकार दिए गए हैं जिनकी 13 दिसम्बर, 2005 से पहले कम से कम तीन पीढ़ियाँ (75 वर्ष) वन में रह रही थीं और अपने जीवनयापन के लिए वन या वनभूमि पर निर्भर हैं।

4. इस कानून में वन अधिकारों को मान्यता देने और उन्हें प्रदान करने की अन्तिम तारीख 13 दिसम्बर, 2005 है।

5. आदिवासी या पारम्परिक वनवासी के हर परिवार को चार हेक्टेयर भूमि मिलेगी।

6. इस कानून में गाँव के भीतर और बाहर पारम्परिक तरीके से एकत्र और इस्तेमाल किए जाने वाले छोटे वन उत्पादों के स्वामित्व और उन तक पहुँच का अधिकार दिया गया हैं। इस कानून में ‘छोटे वन उत्पाद’ को परिभाषित किया गया है जिसके तहत बाँस, कटी हुई शाखाएँ या डण्डियाँ, डण्डे, कोया, शहद, मोम, लाख, तेन्दू या केन्दू पत्ता, जड़ी-बूटियाँ, जड़ें, कन्द और इसी तरह के अन्य उत्पादों समेत निर्माण के काम में न आने वाली लकड़ी की पहचान की गई है।

वन अधिकार कानून 2006 में ग्राम सभा को बराबर के महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कानून के प्रावधानों को लागू करने से पहले इस पर गौर करना जरूरी है कि पंचायतों का गठन न केवल कानूनी ढंग से हो बल्कि वे मजबूत हों और स्थानीय सरकारी संस्थानों की भाँति काम करें। सम्बद्ध राज्य स्तर पर राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी है।7. इस कानून में ऐसे मामलों में वैकल्पिक भूमि समेत उसी अवस्था में पुनर्वास के अधिकार को मान्यता दी गई है जहाँ से आदिवासी जनजातियों और अन्य पारम्परिक वनवासियों को 13 दिसम्बर, 2005 से पहले पुनर्वास के उनके कानूनी अधिकार को ग्रहण किए बगैर गैर-कानूनी तरीके से हटा दिया गया या विस्थापित कर दिया गया।

8. अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारम्परिक वनवासियों के अधिकार वंशानुगत हैं। लेकिन ये अधिकार किसी को देने या हस्तान्तरित करने के लिए नहीं हैं और इसे पति-पत्नी दोनों के नाम दर्ज किया जाना चाहिए। अगर कोई अकेला है तो यह महिला/पुरुष के नाम पर होगा और अगर कोई प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी नहीं है तो यह उसके परिवार के अन्य सदस्यों को सौंपे जाएँगे।

9. किसी भी वनवासी को मान्यता और उसकी पहचान की प्रक्रिया पूरी होने तक भूमि से बेदखल नहीं किया जाएगा। इस कानून में उन आदिवासी जनजातियों और गैर-आदिवासियों के लिए वन भूमि के अधिकार को मान्यता दी गई है जो यह साबित कर सकते हैं कि उन्हें सरकारी हस्तक्षेप के कारण मुआवजे में भूमि दिए बगैर उनके घर और खेती-बाड़ी से वंचित कर दिया गया और जमीन के अधिग्रहण के पाँच वर्ष बाद भी जिस उद्देश्य के लिए भूमि अधिग्रहित की गई उसका इस्तेमाल नहीं किया गया।

10. सरकार के पास स्कूलों, आंगनबाड़ियों, पेयजल आपूर्ति और पानी की पाईप बिछाने, सड़कों, बिजली और फोन की तार बिछाने आदि के लिए वन भूमि का इस्तेमाल करने का अधिकार है तथा प्रभावित व्यक्ति या समुदाय को वैकल्पिक भूमि मुहैया कराई जाएगी।

11. ग्राम सभा को व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों की प्रकृति और उनका स्वरूप तय करने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए प्रस्ताव पारित करने का अधिकार है जो अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासियों को दिए जा सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति ग्राम सभा के प्रस्ताव से असन्तुष्ट है तो वह जिला स्तर की समिति में सुनवाई के लिए साठ दिन के भीतर उपमण्डल स्तर की समिति (एसडीएलसी) में याचिका दायर कर सकता है।

12. ग्राम पंचायत द्वारा बुलाई गई अपनी पहली बैठक में ग्राम सभा अपने सदस्यों का चुनाव करेगी, इस समिति में वन अधिकार समिति के सदस्य के रूप में कम से कम दस और अधिक से अधिक पन्द्रह लोग होंगे जिसमें एक-तिहाई सदस्य अनुसूचित जनजातियों के और एक-तिहाई सदस्य महिलाएँ होंगी।

13. एक उपमण्डल स्तरीय समिति ग्राम सभा द्वारा पारित प्रस्तावों की जाँच और वन अधिकारों के रिकॉर्ड तैयार करने तथा अन्तिम निर्णय के लिए जिला स्तरीय समिति को भेजने के लिए बनाई जाएगी।

इस कानून में अन्य पारम्परिक वनवासी एक बड़ी चिन्ता का विषय है क्योंकि ‘अन्य पारम्परिक वनवासियों’ को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किए जाने पर ताकतवर वर्ग या उनकी आड़ में वनों पर कब्ज़ा किया जा सकता है। इस वजह से आदिवासियों और गैरवासियों के बीच झगड़े हो सकते हैं।

ओडिशा में कन्धमाल जिले के घने जंगलों का मामला देखें तो वहाँ की आबादी में 17 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 51.96 प्रतिशत आदिवासी हैं। सामाजिक कार्यकर्ता सुदर्शन कन्हार के अनुसार, 'सभी आदिवासी अपने पड़ोसी पाना समुदाय के साथ वन संसाधनों को बाँटने के खिलाफ नहीं हैं लेकिन दस प्रतिशत आबादी बदमिजाज हैं। अगर जीवनोपयोगी वस्तुओं के अधिकार को लेकर लोगों में विद्वेष होता है तो स्थिति बिगड़ सकती है' (दि हिन्दू, 14 जनवरी, 2008)। यह सही है कि कई जिले इस कानून की परिधि में आते हैं।

दूसरी तरफ रंजीत साउ ने एक पत्र (इकनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, 19 अगस्त, 2006) में उल्लेख किया है कि गैर-अनुसूचित जनजातियों के लोगों की तादाद अनुसूचित जनजातियों के लोगों की तरह काफी ज्यादा है। चूँकि उन्हें सरकार से मान्यता नहीं मिली हुई है, इसलिए आदिवासियों के विकास के लिए किए गए उपाय उन पर लागू नहीं होते जिसकी वजह से आदिवासी समूहों तथा जनजातियों और सरकार के बीच तनाव बना रहता है। इस कानून में गैर-अनुसूचित जनजातियों के साथ हुए इस भेदभावपूर्ण अन्याय पर ध्यान दिया गया है।

कानून को लागू किए जाने की अन्तिम तारीख भी चिन्ता का विषय है। आखिर 25 अक्टूबर, 1980 के बजाय यह तारीख 13 दिसम्बर, 2005 ही क्यों रखी गई? आदिवासी और वन मामलों के विचारक कल्पवृक्ष के अनुसार शायद 'इससे लगातार जारी कब्जों को छिपाने में आसानी होती है।'

यह महत्त्वपूर्ण है कि कानून में ग्राम सभा को केन्द्र बिन्दु बनाया गया है। पंचायत (अनुसूचित क्षेत्र का विस्तार) कानून, 1996 ग्राम सभा और ग्राम पंचायतों को महत्त्व देने का पहला कदम था। इसमें प्रावधान था कि हर गाँव में ऐसे लोगों को लेकर ग्राम सभा बनाई जाए जिनके नाम गाँव में पंचायतों की मतदाता सूची में शामिल हों। हर ग्राम सभा लोगों की परम्परा और रीति-रिवाजों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधनों तथा विवादों का परम्परागत तरीके से निपटारा करने में सक्षम होगी। उसके अधिकार और जिम्मेदारियों में सामाजिक और आर्थिक विकास की योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं को ग्रामीण स्तर पर लागू करने से पहले उन्हें स्वीकृति देना, गरीबी उन्मूलन और अन्य कार्यक्रमों के तहत लाभार्थियों के रूप में व्यक्तियों की पहचान एवं चयन करना शामिल है।

हर ग्राम पंचायत को ग्राम सभा से योजना, कार्यक्रमों और परियोजनाओं के लिए पंचायत द्वारा कोश का इस्तेमाल करने की मंजूरी लेनी चाहिए। न सिर्फ इतना ही बल्कि विकास परियोजनाओं के लिए अनुसूचित क्षेत्र में भूमि का अधिग्रहण करने और इस तरह की परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लोगों के पुनर्वास से पहले ग्राम सभा या पंचायतों से सलाह ली जानी चाहिए। इसके अलावा अनुसूचित क्षेत्र में छोटे जल स्रोतों की योजना बनाने और प्रबन्धन की जिम्मेदारी ग्राम सभा या पंचायत की है। ग्राम सभा और पंचायतों के लिए अनिवार्य है कि वे अनुसूचित क्षेत्र में छोटे खनिज उत्खनन के लिए जमीन पट्टे पर देने या उसकी नीलामी करने की सिफारिश करे।

पीईएसए कानून का मुख्य जिम्मा यह सुनिश्चित करना है कि पंचायतें एक स्वशासी संस्थान की तरह काम करें और उन्हें धारा (एम) (1 से 7) जो अधिकार दिए गए हैं वे बहुत ही व्यापक हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि पीईएसए कानून के अस्तित्व में आने के 12 साल बाद भारतीय वन कानून 1927, वन्य-जीव (संरक्षण) कानून 1972 (डब्लूपीए) और वन संरक्षण कानून 1980 (एफसीए) के कारण किसी भी राज्य ने इसे लागू नहीं किया है। 2006 के वन अधिकार कानून ने पीईएसए को लागू करने के लिए अब मजबूत आधार और सकारात्मक माहौल तैयार किया है क्योंकि यह आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम सभा को स्थानीय सरकार की इकाई के रूप में मान्यता देता है।

इस सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वन अधिकार कानून 2006 में ग्राम सभा को बराबर के महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कानून के प्रावधानों को लागू करने से पहले इस पर गौर करना जरूरी है कि पंचायतों का गठन न केवल कानूनी ढंग से हो बल्कि वे मजबूत हों और स्थानीय सरकारी संस्थानों की भाँति काम करें। सम्बद्ध राज्य स्तर पर राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी है।

यहाँ पर याद दिलाना जरूरी है कि यूपीए सरकार के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में पंचायत राज के साथ-साथ आदिवासियों के अधिकारों को बहाल करने के बारे में विस्तार से चर्चा की है। इस प्रकार पंचायती राज और उसका प्रभावी कामकाज वन अधिकार कानून 2006 को लागू करने से सम्बन्धित है। यह प्रधानमन्त्री द्वारा 8 जनवरी, 2008 और 29 जुलाई, 2008 को लिखे गए दो पत्रों से स्पष्ट है जिनमें कहा गया है कि सरकार इस कानून के प्रावधानों को लागू करने और पंचायतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका सुनिश्चित करने के प्रति गम्भीर है।

अपने पहले पत्र में प्रधानमन्त्री ने लिखा है : ‘‘राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करने के लिए एक निश्चित तारीख पर देश भर में ग्राम सभाएँ आयोजित करें ताकि ग्राम सभा और पंचायतों के सदस्यों को इस कानून के प्रावधानों के बारे में जानकारी हो सके जिन्हें इसे लागू करने में अहम भूमिका निभानी है।’’ पंचायती राज मन्त्रालय ने इसका पालन करने के लिए राज्यों को पत्र लिखे। लेकिन इस कानून को लागू करने के लिए पिछले छह महीने में राज्य सरकारों द्वारा उठाए गए कदम पर्याप्त नहीं पाए गए हैं। राज्य सरकारों की उदासीनता और ढीलेपन का अहसास होने पर प्रधानमन्त्री ने दूसरा पत्र लिखा जिसमें कहा गया है :

जैसा कि आपको याद होगा कि इससे पहले 8 जनवरी, 2008 को लिखे अपने पत्र में मैंने आपका ध्यान अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासियों (वन अधिकारों को मान्यता) कानून, 2006 को तेजी से लागू करने की जरूरत की तरफ खींचा था क्योंकि यह सुनिश्चित करना राज्य सरकारों की बुनियादी जिम्मेदारी है कि हमारे देश की आबादी के सबसे कमजोर वर्ग को भूमि पर उसका बुनियादी अधिकार अन्ततः मिलना चाहिए जो ऐतिहासिक दष्टि से उसके पास है। भारत सरकार के आदिवासी मामलों के मन्त्रालय की हाल में समीक्षा में पाया गया है कि कुछ राज्य तो इस दिशा में आगे बढ़े हैं, कुछ अन्य को दावों को दायर करने आदि से जुड़े कार्यों को पूरा करना बाकी है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह उन राज्यों के लिए जरूरी है जहाँ आदिवासियों की विशाल आबादी है। हर जायज दावेदार को भूमि का मालिकाना हक देने का अवसर गँवाया नहीं जाना चाहिए। जैसा कि आपके राज्य में अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासियों की काफी बड़ी आबादी है, मेरा आपसे आग्रह है कि इस मामले में व्यक्तिगत दिलचस्पी लें और सुनिश्चित करें कि इस कानून को लागू करने से जुड़े कार्यों में तेजी लाई जाए।

ओडिशा समेत कई राज्यों में इस कानून को लागू करने के खिलाफ दायर याचिकाओं को गम्भीरता से लिया जाना चाहिए। इन याचिकाओं में कहा गया है कि ‘‘वन विभाग वन भूमि और प्रत्येक वन के रिकॉर्ड का संरक्षक है। यह विवादित (वन) कानून ग्राम सभा को दावों को प्राप्त करने और उनका निपटारा करने तथा सुझाव देने की व्यवस्था बनाने का अधिकार देता है। ग्राम सभा में किसी वन अधिकारी का प्रतिनिधित्व नहीं है और इसके अलावा ग्राम सभा के पास कोई रिकॉर्ड नहीं है या उसे वन नियमों की जानकारी भी नहीं है।’’ (टाइम्स ऑफ इण्डिया, नई दिल्ली, 16 जुलाई, 2008)। इसका मतलब यह हुआ कि अभी इसके लिए लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ना बाकी है। इसलिए यह जरूरी है कि राज्य सरकारें इस कानून को तेजी से लागू करें, उनकी आजीविका बचाएँ और करोड़ों वंचित आदिवासियों का विकास सुनिश्चित करें।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली के निदेशक हैं)
ई-मेल : gemathew@yahoo.co.in

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