नरेगा का कोई काम यहां सालों से नहीं हुआ। कोई मजदूरी भी नहीं मिली। गांव में होने को बिजली तो है,लेकिन वर्षों से गायब है। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का अटल ज्योति का दावा मड़खेड़ा में थोथा साबित हो रहा है।गांव में पहले नल जल योजना थी। टंकी में नदी की कछार में बने कुएं में पड़ी बिजली की मोटर चलाकर पानी भरा जाता था,फिर गांव में वितरण होता था। लेकिन 10 साल से योजना ठप है। पोहरी तहसील का एक गांव है, मड़खेड़ा। इसमें उमरई और ककरा को जोड़कर मड़खेड़ा ग्राम पंचायत बना दी गई है। 265 घर और 1335 आबादी वाले इस गांव में केवल सहरीया आदिवासी निवास करते हैं। बियावान जंगल में बने इस गांव की आजीविका खेती,प्रकृति,पशुधन और सरकारी खाद्यान्न से जुड़ी राहतों पर निर्भर है। लेकिन इसके साथ ही यहां जिला गरीबी उन्मूलन योजना के कारगार प्रयास आदिवासियों की तकदीर बदलने में रचनात्मक योगदान दे रहे हैं। इन कारणों से इस गांव की खाद्य सुरक्षा तारीफ के काबिल है। अनाज भंडारण के लिए भी ये लोग परंपरागत और आधुनिक संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं। यही कारण है कि यहां लोगों को भरपेट भोजन सुलभ है। परिवारों की निर्भरता महिलाओं पर केंद्रित है। ज्यादातर पुरुष शराब के लती हैं। सुबह से शाम तक शराब के नशे रहते हैं और नशे की हालात में पत्नियों से झगड़कर गांव का माहौल बिगाड़ते हैं और परिवार की अर्थव्यवस्था भी खराब करते हैं। यह गांव नशाखोरी से मुक्त हो जाए, तो आदर्श गांव की श्रेणी में आ सकता है।
कैलाशी इस गांव की सबसे जागरूक व होशियार महिला है। बोलने में बिंदास। उससे जब पूछा तुम्हारी उम्र कितनी होगी, तो ‘बोली देख लो, वैसे पता नहीं’। उसके चार लड़के और दो लड़किया हैं। पति शराब पी- पीकर लाइलाज बीमारी की गिरफ्त में है। उसे वह अपने काबू से बाहर मानती है। मर जाएगा तो दूसरा कर लेने में कैलाशी को कोई संकोच नहीं है। कैलाशी के पास 10 बीघा नदी के कछार में उम्दा किस्म की पट्टे की जमीन है। पूरी जमीन में सोयाबीन बोया था। फसल अच्छी थी, किंतु पानी ज्यादा बरसने से नदी चढ़ आई और पूरी फसल बहा ले गई। पर कैलाशी निराश नहीं है।
उसने खेत, कूढ़ कराकर छोड़ दिया है और वह अब इसमें गेहूं-चना करेगी। वह डीपीआईपी के सहयोग से चलाए जा रहे दुर्गा स्वयं सहायता समूह की प्रमुख है। उसने समूह से 45 हजार रुपये कर्ज पर उठाए हैं, जिन्हें वह गेहूं-चने की फसल आने पर ब्याज सहित पटा देगी। समूह से कर्ज लेने वाली सदस्य महिलाओं को एक रुपया प्रति सैकड़ा की दर से ब्याज चुकाना होता है, जो ये खुशी-खुशी चुकाती है। इस समूह के पास साढ़े चार लाख की पूंजी है,जो इनके वक्त-जरूरत काम आती है।
समूह का खाता भारतीय स्टेट बैंक की पोहरी शाखा में है। महिलाओं के कुल 7 समूह हैं, जिनसे करीब 80 महिलाएं जुड़ी हैं। कैलाशी की तरह ही भगवती द्वारिका, कुपासी, विमला, गुड्डी, रामवती और सिया ने भी भिन्न समूहों से ऋण लिया हुआ है। ये महिलाएं इस राशि से अपने बच्चों को भी पढ़ा रही हैं। जिला पंचायत के अध्यक्ष जितेंद्र जैन का कहना है कि इन महिलाओं में बहुत अच्छी नेतृत्व दक्षता है। साथ ही ये ईमानदार हैं। बिना पढ़ी-लिखी होने के बावजूद ब्याज का सही हिसाब लगा लेती हैं और पैसे का सदुपयोग करती हैं।
इस गांव के हर घर के सामने छपाई ‘‘मचान’’ बनी हुई है। रात में ये इन्हीं में सोते हैं। इससे ये कीड़ा कांटे के खाने से बचे रहते हैं और खुली हवा मिलती है। हर घर के आगे पेड़ हैं और छतों पर कद्दू, लोकी व तोरई की बेलें चढ़ी हुई हैं। इसलिए सभी लोगों को रोज ताजा सब्जी खाने को मिल रही हैं। गेहूं, चना और सोयाबीन के साथ यहां के लोग तिली, ज्वार, बाजरा और ग्वार की भी खेती करते हैं। बालाजी समूह की भगवती बताती है कि ग्वार में फलियां लगती हैं। इनसे निकले बीजों का भाव 40 हजार रुपए प्रति क्विंटल है। इसे पोहरी में ले जाकर बेचते हैं। गांव के हर एक घर में अनाज रखने के लिए मिट्टी की एक या दो कोठियां बनी हुई हैं। इनमें नीम की पत्तियां डालकर इन्हें इस तरह से बंद करते हैं कि ये वायु-रहित रहें। नीम डालने से अनाज में घुन नहीं लगता। कुछ लोगों के पास लोहे के चद्दर की भी बड़ी टंकियां हैं। मसलन अनाज भंडारण ये चिंता से करते हैं।
गांव के चारों ओर घना जंगल है। जंगल की जड़ी- बूटियों व फल लाकर ये बाजार में बेचते हैं। जंगल में बहेड़ा, आंवला, तेंदू, वील, बिलैया, मूसली, चिंजी और गोंद खूब मिलते हैं। पुरुषों के समूह महूक का शहद तोड़कर भी लाते हैं। लेकिन ये इसे बेचकर चप्पा यानी शराब पी जाते हैं। जंगल में सियार भी बड़ी मात्रा में मिलता है, इससे ये लोग डलिया बनाते हैं। इसे सियारी की डलिया कहते हैं। एक डलिया की कीमत 10 रुपये होती है। डलिया के व्यापारी गांव से ही डलियाएं खरीदकर ले जाते हैं। यहां के लोग गोजो और पवार के लड्डू बनाकर भी खाते हैं। पवार के बीजों को कहाड़ी में उबाल लिया जाता है और फिर इन्हें निचोड़कर लड्डू बनाए जाते हैं। स्वाद के लिए इनमें नमक-मिर्च भी मिलाए जाते हैं। बरसात में पवार खूब मिलती है, सो बच्चों को उल्लई से लड्डू खिलाए जाते हैं। इसके खाने से शरीर के जोड़ों में दर्द नहीं होता।
मड़खेड़ा में हरेक घर में गाय, बकरी और मुर्गियां हैं, सो घर का दूध-दही होता है। पूरे गांव में भैंसें किसी के पास नहीं हैं। हल-बैल जरूर हैं। गांव में दो ट्रैक्टर हैं। इनमें एक वर्तमान संरपच अनूपी के पास है और दूसरा पूर्व सरपंच प्रहलाद के पास। तय है, इनकी राजनीति में भागीदारी इन्हें आर्थिक रूप से सक्षम बनाने का काम कर रही है। ये खुद की ट्रैक्टर की खेती करने के साथ अन्य लोगों के खेत किराए पर जोतने का काम भी करते हैं।
सरपंच अनूपी के घर में चक्की भी है। जिसे उसके बच्चे ट्रैक्टर से चलाते हैं और अनाज पिसाई के पैसे लेते हैं। अनूपी बताती है कि अब चकिया कोई औरत नहीं चलाती। सब आजादी पा गईं। नई बहुंए तो ऐसी हैं कि मोड़ा-मौड़ी भूखे भी पड़े हों, तब भी चकिया चलाने को राजी नहीं। पहले पोहरी जाकर अनाज पिसाकर लाते थे, अब मेरे चक्की लगाने से यहीं अनाज पिसाने की सुविधा हो गई। प्रसूतियां अब गांव में नहीं होतीं। आशा कार्यकर्ता जननी एक्सप्रेस मोबाइल से गांव बुला लेती हैं और प्रसूता को पोहरी लेजाकर सरकारी अस्पताल में प्रसूति करवाती हैं। संस्थागत प्रसव के 1400 रुपये भी मिलते हैं। इससे वे गुड़-मेवा के लड्डू बनाकर प्रसूता को खिलाती हैं। महुआ के लड्डू भी प्रसूता को खिलाए जाते हैं। गांव में प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय हैं। भवन अलग-अलग हैं, किंतु लगते एक साथ हैं। मध्याह्न भोजन भी इकट्ठा बनता है। रजनीकांत शर्मा नाम के अतिथि शिक्षक प्रमुखता से पढ़ाने व भोजन बंटवाने का काम करते हैं। तिलका रसोई बनाने का काम करती है।
वह अपनी बेटी के साथ मध्याह्न भोजन के लिए बड़ी सी परात में आटा माड़ रही थी और चूल्हे पर बड़ी सी डेकची में कद्दू की भूंजी बन रही थी। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता गजरी हैं, जो इसी गांव की है। नियमित छोटे बच्चों को दलिया-खिचड़ी बनाकर खिलाती है। गांव में सभी के पास बीपीएल कार्ड हैं। सभी ने 35 किलो गेहूं, 5 लीटर मिट्टी का तेल, डेढ़ किलो शक्कर और एक थैली नमक राशन की दुकान से मिलने की बात स्वीकारी। लेकिन नरेगा का कोई काम यहां सालों से नहीं हुआ। कोई मजदूरी भी नहीं मिली। गांव में होने को बिजली तो है, लेकिन वर्षों से गायब है। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का अटल ज्योति का दावा मड़खेड़ा में थोथा साबित हो रहा है। गांव में पहले नल जल योजना थी। टंकी में नदी की कछार में बने कुएं में पड़ी बिजली की मोटर चलाकर पानी भरा जाता था,फिर गांव में वितरण होता था। लेकिन 10 साल से योजना ठप है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
कैलाशी इस गांव की सबसे जागरूक व होशियार महिला है। बोलने में बिंदास। उससे जब पूछा तुम्हारी उम्र कितनी होगी, तो ‘बोली देख लो, वैसे पता नहीं’। उसके चार लड़के और दो लड़किया हैं। पति शराब पी- पीकर लाइलाज बीमारी की गिरफ्त में है। उसे वह अपने काबू से बाहर मानती है। मर जाएगा तो दूसरा कर लेने में कैलाशी को कोई संकोच नहीं है। कैलाशी के पास 10 बीघा नदी के कछार में उम्दा किस्म की पट्टे की जमीन है। पूरी जमीन में सोयाबीन बोया था। फसल अच्छी थी, किंतु पानी ज्यादा बरसने से नदी चढ़ आई और पूरी फसल बहा ले गई। पर कैलाशी निराश नहीं है।
उसने खेत, कूढ़ कराकर छोड़ दिया है और वह अब इसमें गेहूं-चना करेगी। वह डीपीआईपी के सहयोग से चलाए जा रहे दुर्गा स्वयं सहायता समूह की प्रमुख है। उसने समूह से 45 हजार रुपये कर्ज पर उठाए हैं, जिन्हें वह गेहूं-चने की फसल आने पर ब्याज सहित पटा देगी। समूह से कर्ज लेने वाली सदस्य महिलाओं को एक रुपया प्रति सैकड़ा की दर से ब्याज चुकाना होता है, जो ये खुशी-खुशी चुकाती है। इस समूह के पास साढ़े चार लाख की पूंजी है,जो इनके वक्त-जरूरत काम आती है।
समूह का खाता भारतीय स्टेट बैंक की पोहरी शाखा में है। महिलाओं के कुल 7 समूह हैं, जिनसे करीब 80 महिलाएं जुड़ी हैं। कैलाशी की तरह ही भगवती द्वारिका, कुपासी, विमला, गुड्डी, रामवती और सिया ने भी भिन्न समूहों से ऋण लिया हुआ है। ये महिलाएं इस राशि से अपने बच्चों को भी पढ़ा रही हैं। जिला पंचायत के अध्यक्ष जितेंद्र जैन का कहना है कि इन महिलाओं में बहुत अच्छी नेतृत्व दक्षता है। साथ ही ये ईमानदार हैं। बिना पढ़ी-लिखी होने के बावजूद ब्याज का सही हिसाब लगा लेती हैं और पैसे का सदुपयोग करती हैं।
इस गांव के हर घर के सामने छपाई ‘‘मचान’’ बनी हुई है। रात में ये इन्हीं में सोते हैं। इससे ये कीड़ा कांटे के खाने से बचे रहते हैं और खुली हवा मिलती है। हर घर के आगे पेड़ हैं और छतों पर कद्दू, लोकी व तोरई की बेलें चढ़ी हुई हैं। इसलिए सभी लोगों को रोज ताजा सब्जी खाने को मिल रही हैं। गेहूं, चना और सोयाबीन के साथ यहां के लोग तिली, ज्वार, बाजरा और ग्वार की भी खेती करते हैं। बालाजी समूह की भगवती बताती है कि ग्वार में फलियां लगती हैं। इनसे निकले बीजों का भाव 40 हजार रुपए प्रति क्विंटल है। इसे पोहरी में ले जाकर बेचते हैं। गांव के हर एक घर में अनाज रखने के लिए मिट्टी की एक या दो कोठियां बनी हुई हैं। इनमें नीम की पत्तियां डालकर इन्हें इस तरह से बंद करते हैं कि ये वायु-रहित रहें। नीम डालने से अनाज में घुन नहीं लगता। कुछ लोगों के पास लोहे के चद्दर की भी बड़ी टंकियां हैं। मसलन अनाज भंडारण ये चिंता से करते हैं।
गांव के चारों ओर घना जंगल है। जंगल की जड़ी- बूटियों व फल लाकर ये बाजार में बेचते हैं। जंगल में बहेड़ा, आंवला, तेंदू, वील, बिलैया, मूसली, चिंजी और गोंद खूब मिलते हैं। पुरुषों के समूह महूक का शहद तोड़कर भी लाते हैं। लेकिन ये इसे बेचकर चप्पा यानी शराब पी जाते हैं। जंगल में सियार भी बड़ी मात्रा में मिलता है, इससे ये लोग डलिया बनाते हैं। इसे सियारी की डलिया कहते हैं। एक डलिया की कीमत 10 रुपये होती है। डलिया के व्यापारी गांव से ही डलियाएं खरीदकर ले जाते हैं। यहां के लोग गोजो और पवार के लड्डू बनाकर भी खाते हैं। पवार के बीजों को कहाड़ी में उबाल लिया जाता है और फिर इन्हें निचोड़कर लड्डू बनाए जाते हैं। स्वाद के लिए इनमें नमक-मिर्च भी मिलाए जाते हैं। बरसात में पवार खूब मिलती है, सो बच्चों को उल्लई से लड्डू खिलाए जाते हैं। इसके खाने से शरीर के जोड़ों में दर्द नहीं होता।
मड़खेड़ा में हरेक घर में गाय, बकरी और मुर्गियां हैं, सो घर का दूध-दही होता है। पूरे गांव में भैंसें किसी के पास नहीं हैं। हल-बैल जरूर हैं। गांव में दो ट्रैक्टर हैं। इनमें एक वर्तमान संरपच अनूपी के पास है और दूसरा पूर्व सरपंच प्रहलाद के पास। तय है, इनकी राजनीति में भागीदारी इन्हें आर्थिक रूप से सक्षम बनाने का काम कर रही है। ये खुद की ट्रैक्टर की खेती करने के साथ अन्य लोगों के खेत किराए पर जोतने का काम भी करते हैं।
सरपंच अनूपी के घर में चक्की भी है। जिसे उसके बच्चे ट्रैक्टर से चलाते हैं और अनाज पिसाई के पैसे लेते हैं। अनूपी बताती है कि अब चकिया कोई औरत नहीं चलाती। सब आजादी पा गईं। नई बहुंए तो ऐसी हैं कि मोड़ा-मौड़ी भूखे भी पड़े हों, तब भी चकिया चलाने को राजी नहीं। पहले पोहरी जाकर अनाज पिसाकर लाते थे, अब मेरे चक्की लगाने से यहीं अनाज पिसाने की सुविधा हो गई। प्रसूतियां अब गांव में नहीं होतीं। आशा कार्यकर्ता जननी एक्सप्रेस मोबाइल से गांव बुला लेती हैं और प्रसूता को पोहरी लेजाकर सरकारी अस्पताल में प्रसूति करवाती हैं। संस्थागत प्रसव के 1400 रुपये भी मिलते हैं। इससे वे गुड़-मेवा के लड्डू बनाकर प्रसूता को खिलाती हैं। महुआ के लड्डू भी प्रसूता को खिलाए जाते हैं। गांव में प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय हैं। भवन अलग-अलग हैं, किंतु लगते एक साथ हैं। मध्याह्न भोजन भी इकट्ठा बनता है। रजनीकांत शर्मा नाम के अतिथि शिक्षक प्रमुखता से पढ़ाने व भोजन बंटवाने का काम करते हैं। तिलका रसोई बनाने का काम करती है।
वह अपनी बेटी के साथ मध्याह्न भोजन के लिए बड़ी सी परात में आटा माड़ रही थी और चूल्हे पर बड़ी सी डेकची में कद्दू की भूंजी बन रही थी। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता गजरी हैं, जो इसी गांव की है। नियमित छोटे बच्चों को दलिया-खिचड़ी बनाकर खिलाती है। गांव में सभी के पास बीपीएल कार्ड हैं। सभी ने 35 किलो गेहूं, 5 लीटर मिट्टी का तेल, डेढ़ किलो शक्कर और एक थैली नमक राशन की दुकान से मिलने की बात स्वीकारी। लेकिन नरेगा का कोई काम यहां सालों से नहीं हुआ। कोई मजदूरी भी नहीं मिली। गांव में होने को बिजली तो है, लेकिन वर्षों से गायब है। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का अटल ज्योति का दावा मड़खेड़ा में थोथा साबित हो रहा है। गांव में पहले नल जल योजना थी। टंकी में नदी की कछार में बने कुएं में पड़ी बिजली की मोटर चलाकर पानी भरा जाता था,फिर गांव में वितरण होता था। लेकिन 10 साल से योजना ठप है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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