बस्तर के आदिवासी पौधों और कीड़ों के व्यवहार में वर्षा के लक्षण पहचानते हैं
कुछ वर्ष पहले जुलाई में ग्यारह दिनों से वर्षा रुकने का नाम नहीं ले रही थी और गाँव में हम सभी केवल तभी घर से निकलते जब कोई उपाय नहीं होता। तालाब और दूसरे जलस्रोत जो एक महीने पहले सैकड़ों मेंढक से भरे दलदल के सिवा कुछ नहीं रह गए थे, वे एकाकार हो गए थे और एक लगातार विस्तार की रचना हुई थी जो उत्तर में प्रवाहित नदी कांगेर में मिलने के लिये बह रहा था।
वर्षा के अटूट सिलसिला ने हमें धुआँते अलाव के आसपास घेर रखा था, केवल हवा बहने पर धुआँ से बचने के लिये हम अपनी मुद्रा बदलते। सूखी लकड़ी नहीं थी। हम मक्का, भुना हुआ महुआ के फूल और सियादी बीज (एक जंगली फल) चबाते थे और वर्षा को शाप देते जिसे हमने कुछ सप्ताह पहले मेंढकों की शादी रचाकर आमंत्रित किया था।
जब बुढ़ा आदमी झटके से बरसाती-टोप लेकर झोपड़ी से बाहर निकला, तो वह सचेत नहीं था। किसी लड़के ने टोप में जहाँ सिर रखते हैं, वहाँ गिली मिट्टी का ढेला रख दिया था और जब बूढ़े व्यक्ति के चेहरे पर कीचड़ गिरने लगा तो वह हँस पड़ा। पानी का शोर इस इलाके का हिस्सा बन चुका था। हमने इसे तब समझा जब एक दुपहरी में वर्षा अचानक साँस लेने के लिये रुकी। हमने शान्ति का अनुभव किया। हम अपने घरों से बाहर निकले, जैसे छिपकिली अपनी माँद से धूप का आनन्द लेने बाहर निकली हो। हमें आश्चर्य हुआ।
यह सौभाग्य है कि केन्द्रीय भारत के अधिकांश आदिवासी भारतीय मौसम विभाग के बारे में नहीं जानते और इसके मध्यकालीन कामकाज पर कोई ध्यान नहीं देते जिसे वह विज्ञान के तौर पर प्रस्तुत करता है। हर साल मौसम विभाग प्रथागत ढंग से आँकड़ों के आधार पर सम्भावनाएँ जाहिर करता है।
दीर्घकालीन औसत में पाँच प्रतिशत त्रुटि के आधार पर जारी इन संख्यात्मक खेलों के बजाय हम बस्तर की पहाड़ियों के मुरिया या दुर्वा के निवासियों के आँकड़ों की गणना में वास्तविकता को देख सकते हैं। उनकी सूचनाएँ वन मौसम विज्ञानी बुलेटीन (एफएम) में उपलब्ध हैं, अतिशय विशुद्ध, जो चाहे देख और पढ़ सकता है। बिल्कुल मुफ्त, इन लोगों के आँकड़े कई हजार वर्षोंं के सामुहिक ज्ञान से आते हैं (1901 से 2000 की तरह) और इनमें भूल सुधार की गुंजाईश होती है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि मुरिया अपने स्वयं के अवलोकन और व्याख्या पर निर्भर करता है। भारतीय मौसम विभाग केवल अन्य वर्ष के आँकड़ों को अपने आँकड़ा-भण्डार में जोड़ सकता है।
मई महीने में ग्रीष्म की आखिरी बरसात के बाद कोलियारी (बौहिनिया पुरपुरिया, एक जंगली पौधा) के नए पत्ते आते हैं। वह अधिकांश घरों की रसोई का नया व्यंजन होता है। इसका उल्लेख वन-मौसम बूलेटिनों में सबसे पहले होता है। इसके तुरन्त बाद नोवदेली ( स्चेफलेरा रोक्सबुरघी, एक जंगली फूल) में फूल आते हैं। फुदुकने वाली चिड़िया इसी समय अपना घोंसला बनाती है जिसका प्रवेश द्वार मानसून की हवाओं के आने की दिशा के एकदम उलटी दिशा में होता है।
आर्द्रता का मौसम जिसे बस्तर के विभिन्न इलाकों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है- मुनसुद, मुसुद, बरसा आदि, आरम्भ हो चुका है। वन-मौसम बूलेटिन इलाका विशेष के आधार पर होती हैं, प्रक्षेत्र के भीतर विभिन्न ऊँचाई के स्थानों पर नोवदेली के फूलने का समय अलग होगा। घोंसले का द्वार अलग दिशा में होगा। जिला के औसत और अल नीनो जैसा कोई बहाना नहीं रहता।
वर्षा का पहला सप्ताह गाँवों के सूखे तालाबों और कुओं को जीवित करता है। पानी अभी मटमैला और कीचड़ युक्त रहता है और वर्षा अभी इलाके को केवल कीचड़ युक्त कर पाती है। मल्कानगिरि जिले के तेमुरपल्ली गाँव में जमीन इतनी चिपचिपा हो जाती है कि पैदल चलना या साइकिल चलाना कठिन हो जाता है क्योंकि कीचड़ में पहिए बुरी तरह जकड़ जाता हैं। ऐसे ही समय में बच्चे बाँस के डंडों में पैर टिकाकर चलते हैं, जब घर पहुँचते हैं तो अपने वाहन को बाड़ पर टिका देते हैं और कूद पड़ते हैं, साफ पैर। हवा इन दिनों इतनी तर और गरम होती है कि जंगल में झूंड के झूंड मच्छर उड़ते रहते हैं।
मानसून के आने के बाद गाँव में काम की लय आ जाती है। नाले बनाए जाते हैं जिससे पानी को धान के खेतों में पहुँचाया जा सके। पहाड़ी की ढाल को साफ किया जाता है और कुदाल से खोदा जाता है ताकि जौ-बाजरा आदि मोटे अनाज बोए जा सकें। बुआई के लिये माँग चाँगकर पर्याप्त अनाज इकट्ठा किया जाता है। बरसाती टोप बनाना हर कोई नहीं जानता और बाँस के अच्छे कारीगरों की माँग बढ़ जाती है।
कुछ लोग छाता का इस्तेमाल करते हैं लेकिन यह अव्यवहारिक है क्योंकि उसे पकड़ने में एक हाथ बँध जाता है। इसके अलावा छाता लेकर जंगलों में तेजी से चलना सम्भव नहीं होता। प्रथा के अनुसार मलेरिया और डायरिया मौसमी मेहमान होते हैं जो मध्य जुलाई में प्रकट होते हैं और हमें पेट की तकलीफ से छुटकारा पाने बारबार झाड़ियों में जाना पड़ता। इन दो बीमारियों का संयोग जानलेवा होती है। एक साल हमें एक महीने के भीतर बारह लाशें जलानी पड़ीं। सरकारी अस्पताल में ताला लगा था क्योंकि डाॅक्टरों को बीमार हो जाने का डर था।
मशरुम नियत क्रम से अंकुरित होते हैं, हरेक प्रकार के, बरसात के विभिन्न चरणों को इंगित करते। हमें यह बताते कि कितनी बारिश हो गई और कितना अभी बाकी है। विभिन्न प्रकार के बाँसों की जड़ें और पास के झरने से मछलियों की लगभग 30 नस्लें और धान के खेत भोजन के साधन हैं। अनेक प्रकार की सागें इस मौसम में उग आती जिन्हें अक्सर बड़ी मात्रा में पकाया जाता और दिन के विभिन्न समयों में खाया जाता है। महुआ के साथ चखने के रूप में परोसने में यह आसानी से उपलब्ध खाद्य होता है।
आर्द्र मौसम के एक महीने के बाद चंद्रविहिन रात का उत्सव आता है जो बुआई के समाप्त होने का चिन्ह भी होता है। इस समय तक पाँवों में एक विचित्र किस्म की परेशानी पैदा हो जाती है जिसे दुर्वा में चोदेन गेटेल कहते हैं-गीले खेतों में लम्बे समय तक रहने से उंगलियों के बीच की चमड़ी फट जाती है और चलने में दर्द होता है। मानव शरीर का कार्यकलाप भी एक कैलेंडर की तरह होता है, इसका खास मशरुम के अंकुरित होने, कुएँ में पानी के स्तर और मेंढक की टर्राहट और मानसून की पंजी का सूक्ष्म लय से सम्बन्ध होता है।
इन गीले खेतों में निराई करते हुए दिन का अधिकांश समय बीतता है। आँखों के सामने बहुत ही छोटे-छोटे मच्छर उड़ते रहते हैं, कपड़ों के भीतर घूस जाते हैं और काटते हैं। हम आग जलाने के लिये चावल की भूसी के बरतन लेकर जाते हैं, आग के धुएँ से मच्छरों से थोड़ी राहत मिलती है। निराई के दिनों के ईनाम के तौर पर छोटे-छोटे केकड़े मिलते हैं जो पानी में रहते हैं और शाम के भोजन के लिये हम उन्हें पकड़ लाते हैं। उन्हें हल्दी के घोल के साथ पकाया जाता है और बडे चाव से खाया जाता है।
मानसून के आगमन की घोषणा की तरह वन-मौसम बूलेटिन सूखाड़ आने का पूर्वानुमान भी करता है। मौसम विभाग मानसून के वापस होने के बारे में पूर्वानुमान करने की चिन्ता नहीं करता, इसके बजाय बीते मानसून का विश्लेषण करने में लग जाता है। हमें देश के विभिन्न जिलों में हुई वर्षा के आँकड़े और तालिकाएँ उपलब्ध कराने लगता है, सूखाड़ प्रभावित इलाकों और बाढ़ के क्षेत्रों को चिन्हित करता है और विभिन्न राज्यों द्वारा राहत कोष की माँग होने लगती है।
दूसरी ओर वन-मौसम बूलेटिन आने वाले मौसम के बारे में समाचार देता है। विशाल नेफिला मकड़ी जो अपने रास्ते में जाल बुनता जाता है, सुपारी के पेड़ों पर फूल आने लगते हैं, बीते महीने हम जिन मछलियों और मशरुमों को खाते थे, वे विलुप्त हो जाते हैं। जंगलों में कम मच्छर रह जाते हैं। धरती कड़ी हो जाती है, जंगली सुअरों के लिये उसे खोदना कठिन होता जाता है जिसे करना उसे सबसे पसन्द है। इसके बजाय वह गाँव के आसपास खेतों में धावा बोलने लगता है। यह खेतों में फसल की रखवाली करने के लिये मचान बनाने का समय होता है। सामने साफ आसमान होता है।
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Post By: Editorial Team